बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 22 जुलाई 2013

सीमा पर पिछड़ता मानवाधिकार


   

 






रजनेश कुमार पाण्डेय की क़लम से
भारत- बांग्लादेश सीमा  से लौट कर



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नार्थ-ईस्ट(उत्तर- पूर्व) भारत के अभिन्न हिस्से में आता है। इस क्षेत्र की विशेषता यह है कि ना सिर्फ ये सांस्कृतिक रूप से विविध है बल्कि राजनीतिक रूप से भी यहां कई पार्टियां सक्रिय हैं। जब यहां की भौगौलिक
स्थिति की बात करते हैं तो यह पूरा क्षेत्र कई तरह के उथल- पुथल से भरा पड़ा है। मसलन, मणिपुर के सीमावर्ती इलाके बर्मा से मिलते हैं तो अरूणाचल प्रदेश चीन से, सिक्किम नेपाल से तो असम मेघालय और त्रिपुरा के सीमावर्ती इलाके बंग्लादेश से मिलते हैं। भौगौलिक स्थिति को लेकर अक्सर कई प्रकार के राजनीतिक विवाद चर्चा में बने रहते हैं। अरूणाचल प्रदेश के तवांग पर चीन का दावा, भारत - बांग्लादेश सीमा विवाद, तीस्ता नदी पर दानो के बीच बातचीत। बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाके में कई उग्रवादी संगठनों का गुप्त
रूप से ठिकाना आदि। असम के ही दक्षिणी हिस्से में पड़ता है बराक घाटी। इस घाटी के अंतर्गत तीन जिले आते हैं। कछाड़, करीमगंज और हैलाकांडी। कछाड़ जहां मणिपुर और मिजोरम की सीमा से लगता है वहीं हैलाकांडी की सीमा मिजोरम से और करीमगंज बांग्लादेश की अंतररा’ट्रीय सीमा से लगता है। भौगौलिक रूप
से करीमगंज का एक बड़ा इलाका बांग्लादेश की सीमा से लगता है।

गुवाहाटी से 338 कि.मी. की दूरी पर स्थित करीमगंज में मुख्य रूप से चार नदी हैं, कोशियारा, लोंगाई, सिंगला और बराक। पहले - पहल सन् 1878 में करीमगंज सिलहेट जिले का सब डिवीजन बना और देश के बंटवारे के वक्त सन् 1947 में सिलहेट पूर्वी पाकिस्तान में चला गया जिसमें करीमगंज के कुछ हिस्से भी गए। सन् 1983 में करमगंज जिला बना। करीमगंज की मुख्य भाषा बांग्ला है। आर्थिक रूप से यह जिला समृद्ध है और वो भी इसलिए क्योंकि यहां से बांग्लादेश बड़ी मात्रा में कई प्रकार की व्यापारिक सामग्रियों का आदान-प्रदान होता है। करीमगंज से 25 कि.मी. दूरी पर स्थित है सुतारकांडी, जहां भारत-बांग्लादेश सीमा पर ’इंडो-बांग्लादेश ट्रेड सेंटर’ है और सड़क मार्ग से लोग बांग्लादेश और बांग्लादेश से भारत आते-जाते हैं। करीमगंज में ही ‘टाउन कालीबारी’ कोशियारा नदी के तट पर  स्थित है। शहर का यह हिस्सा जहां के दशमी घाट पर से बांग्लादेश साफ दिखाई पड़ता है और भारत – बांग्लादेश के विभाजन को भी साफ देख सकते हैं। यहीं पर इंडियन स्ट्रीम का आफिस भी आप देख सकते हैं और एक छोटा बंदरगाह भी जहां से भारी मात्रा में व्यापारिक सामग्रियों का आदान - प्रदान होता है।

यहां के व्यापारी काफी समृद्ध हैं, जाहिर है उसका कारण है इनके सामानों को स्थानीय स्तर पर ही अंतररा’ट्रीय बाजार का मुहैया हो जाना। बड़ी मात्रा में आदि का निर्यात यहां से होता है। ‘ दशमी घाट से आप बांग्लादेश देख सकते हैं। यहां भारतीय सीमा पर आप भारतीय फौजों द्वारा सख्त निगरानी देख सकते हैं। यहां प्रत्येक 100 मीटर पर आपको बीएसएफ (बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स - सीमा सुरक्षा बल) के जवान दिख जाएंगे। यहीं एक बीएसएफ जवान से बातचीत में पता चला कि शाम छह बजे के बाद यही दूरी 100 मीटर से घटकर 50 मीटर हो जाती है। जबरदस्त तरीके से पेट्रोलिंग सीमा सुरक्षा बल द्वारा चलायी जाती है। शाम छह बजे के बाद संदिग्ध स्थिति में गोली मारने का भी आदेश है। दूरबीन लिए बीएसएफ के जवान हमेशा आपको मुस्तैद दिखेंगे। हर बीएसएफ के जवान को एक दूसरे पर नजर रखनी पड़ती है। सीमा तस्करों पर इन्हें विशेष निगाह रखनी होती है। आम नागरिकों के लिए सीमावर्ती इलाके ज्यादातर घूमने - फिरने वाला ही माना जाता है। पर्यटन का दृष्टिकोण ही प्रमुख होता है। हालांकि आम जनता दबी जुबान में ये भी कहती है कि ये बीएसएफ वाले तस्करों से पैसा लेकर सामान इधर - उधर भी करवाते हैं। परंतु इसे प्रमाणित करना थोड़ा मुश्किल होता है। बीएसएफ वालों के लिए सीमा का मसला राजनीतिक रूप से एक देश की रक्षा, दुशमनों पर नजर एवं दूसरी सीमा में होने वाले गतिविधियों पर ही मुख्य रूप से केंद्रित रहती है। उनकी ट्रेनिंग ही ऐसी होती है कि सीमा की रक्षा उनके लिए राष्ट्र की रक्षा के समान है। उनके नजरिए से ये स्थिति ठीक भी है क्योंकि उनके नौकरी का उद्देश्य भी यही है। उनके साथ कुछ घटनाओं का जिक्र यहां मौजू होगा। 
हमारी बातचीत एक बीएसएफ जवान से हुई जिसमें कुछ सवालों का जवाब देने के क्रम में उन्होंने हमें बताया कि कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ अत्यंत गरीब लोग काम की तलाश में बांग्लादेश से भारत चोरी छिपे नदी पार कर चले आते हैं। ऐसे लोग अगर पकड़े गये चाहे इधर या उधर तो पहले तो उनकी जम के पिटाई होती है फिर संबंधित देश की पुलिस द्वारा उन्हें एक निश्चित अवधि तक जेल में रखा जाता है। बाद में वह जिस देश का नागरिक है, उस देश की पुलिस को सूचति किया जाता है, परंतु प्रायः दूसरे देश की पुलिस उन्हें अपना नागरिक मानने से इंकार करती है।
यहां मसला कूटनीतिक हो जाता है क्योंकि कोई भी देश अपनी छवि साफ-सुथड़ी रखना चाहता है और वह कभी नहीं मानती की जो नागरिक पकड़ा गया है वो उनके देश का है, क्योंकि ऐसे में कई प्रकार के सवाल उठ खड़े होंगे। मसलन, घुसपैठिया का सवाल, जासूसी का सवाल, आतंकवाद का सवाल आदि। ऐसी स्थिति में
उस बीएसएफ जवान ने बताया कि, उनके साथ जो होता है वो बस बयान करना मुश्किल है। ये दोनों देशों की द्विपक्षीय कूटनीतिक रिश्तों का परिणाम है तो वहीं दूसरी तरफ मानवाधिकार की असफलता भी। हमारे ये पूछने पर की क्या ऐसे लोगों के लिए किसी प्रकार का मानवाधिकार संबंधी सहयोग है कि नहीं, तो उसने कहा की इन मसलों पर चाहे तो बड़े अधिकारी या फिर मंत्रालय स्तर द्वारा ही कुछ हो सकता है। बातचीत में हमें ये महसूस हुआ कि फौजियों को चाहे वो सामी पर हो या अपने ही किसी गृह राज्य में उनमें मानवाधिकारों को
लेकर अब भी चेतना मजबूत स्तर पर नहीं है। अब चाहे इसे प्रशिक्षण की कमी कहें या जानकारी की। जब मैनें पूछा,  क्या आपने कभी संदेह की स्थिति होने पर गोली भी चलायी है तो उसने बताया  कि यहां करीमगंज में “शहरी लाकों में गोलीबारी प्रायः नहीं ही होती है। जब मेरी पोस्टिंग बंगाल में थी तो वहां सीमा पर रात्रि गश्ती के दौरान एक तस्कर को जब मेंरा भान हुआ तो उसने मुझ पर दाव (बांग्ला भाषा में छूड़ीनुमा एक बड़ा हथियार) फेंका, तो किसी प्रकार बचकर मैंने जवाबी फायरिंग की जिसके कारण वह छटपटाने लगा, तब तक हमारे अधिकारी आ चुके थे। अधिकारी ने मुझ से इसे और गोली मारने को कहा, परंतु मेरी हिम्मत नहीं हुई तो उन्होंने उसे गोली मारकर पूरी तरह मृत कर दिया। बाद में मुझे 1000रू इनाम के तौर पर मिला, शायद ये देशभक्ति का ही परिणाम था जो फौजियों में कूट-कूट कर भरी होती है है या भरी जाती है । 
हमारी पूरी बातचीत में फौजी ने हम से खुलकर बातचीत की और उसने कभी भी अपना नाक-भौं नहीं सिकोड़ा। ऐसे कई घटनाएं सीमा पर एक आम बात है जिसमें प्रायः गोलीबारी में काफी लोग मारे जाते हैं। कई बार बेवजह शक के कारण भी मौतें भी होती हैं। उस जवान ने हमें बताया की चाहे सीमा के लोगों में कितनी भी बातें आपसी मेलजोल की चलती रहे पर हम फौज वालों को दोस्ती भी कदम फूंक-फूंक कर रखनी पड़ती है। उसने बताया कि किसी भी पर्व त्योहार के मसले पर मिठाई या कोई भी खाने पीने की सामग्री आये पहले उसे हम जानवरों को खिलाकर जांच करते हैं उसके बाद ही यह निर्णय लिया जाता है कि उसे खाया जाय या नहीं। मसले कई प्रकार के हैं, परंतु इन मसलों के बीच शायद मानवाधिकार कहीं ना कहीं जरूर पिछड़ता नजर आ रहा है। ऐसी प्रत्येक स्थितियों के बीच चाहे कूटनीतिक स्तर पर कुछ भी चलता रहे पर मानवाधिकार के स्तर पर हमें काफी मजबूत होना बाकी है।


(लेखक-परिचय:
जन्म:23/08/1984, समस्तीपुर
शिक्षा:  प्रारंभिक समस्तीपुर से
संप्रति:  पी.एच.डी स्कॉलर, डिपार्टमेंट ऑफ मास कम्यूनिकेशऩ
असम यूनिवर्सिटी, सिलचर
सृजन: छिटपुट कहानी और रपट
संपर्क:rajnesh.reporter@gmail.com)

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1 comments: on "सीमा पर पिछड़ता मानवाधिकार"

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

अच्छी रिपोर्ट। बहुत से अनजाने पहलुओं का पता चला।
शुक्रिया।

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