बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 17 जून 2013

गाती हुई नदी का रुदन


फोटो  संजय कपरदार

चार किमी की नदी यात्रा ने बताया कैसे राँची को कभी नमी देने वाली नदी हरमू हो रही है अब गुम 




सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से 



मां कभी अपने बच्चों के लिए बददुआ नहीं कह सकती। भले, उनके लाडले उनका ध्यान न रखें। अपने स्वार्थ के लिए उसे तार-तार तक कर डालें। मैं भी तो मां हूं, न! कुदरत के अनमोल धरोहर झारखंड के कभी 40 किलोमीटर के दायरे में कल-कल, छल-छल करने वाली मैं आज अपने जार-जार आंचल को देख सुबकने बैठती हूं, तो आंसू भी नसीब नहीं हो पाता। 40 फ़ीट चौड़ा मेरा आंचल अब इतना सिकुड़ गया है कि लाज भी बचाना मुश्किल है। मेरे लाडले! मैंने तो हमेशा तुम्हारा भला चाहा। तुम्हें और तुम्हारे खेत-खलिहानों, बाग-बगिचों को सींचा। तुमने मेरे आसपास हरियाते पेड़-पौधों को भी नहीं बख्शा। अब मैं कैसे तुझे अपने आंचल में छुपाकर समय की तपशि से झुलसने से बचाऊं! हर जगह तुमने अतिक्रमण कर घर-दुकानों से पाट दिया है। शहर की सारी गंदगी मेरी ही गोद में डाल देते हो। वहीं पॉलीथीन का ढेर मेरे माथे पर रह-रह कर काँटा बन चुभता है। (भास्कर के 5  जून 20 1 3 के अंक में प्रकाशित  )

मेरे प्रिय नागरिको!

पहले बहुत पहले से दो दशक पूर्व  तक  मैं हरमू नदी की  जल धारा मधुर सा गान सुनाती हुई बढ़ती रही। मुंडारी में मुझे लोग ‘दुरंग दह’ कहते थे. यानी ‘गाती हुई नदी’. मैं गांव से ऊंचे पर्वतों से उतर झरनों के  संग छोटे-छोटे पत्थरों से बतियाती सुंदर राग सुनाती थी। हर मुसीबत और संकट को झेलते हुए मैं आगे बढ़ती रही। इधर,
तुम अपने कार्य में लगे रहो। कभी शाम-सवेरे मेरे आंचल में कभी सुबकते, हंसते गुनगुनाते रहे। बिना किसी भेदभाव के  हर एक  को  स्नेह, प्रेम बांटती रही। तुम मेरे आंगन में उतर कर अर्घ्य  देते रहे। किसी ने मेरे जल से वुजू किया, तो किसी ने मंदिर में चढ़ाया। लेकिन मेरी पावनता का  तिलक कहो, तो सही। अब कैसे  अपने माथे पर लगाओगे। मेरा कल-कल निनाद प्रदूषण की  गुफा  में आकर लुप्त हो गया। हरितिमा के  झुरमुटों को  पॉलिथिन ने लील लिया है। बाइपास हरमू से नीचे की  ओर मेरा तट भले चौड़ा है। पर ड्रेनेज और डस्टबीन बतौर मेरा इस्तेमाल यहां भी है। जब आप यहां से आगे बढ़ें, तो एएजी कॉलोनी  और नदी टोला, इदरीसिया कॉलोनी  के  बीच तुमने कचरे, पालीथीन  और अतिक्रमण  से मेरी धार  मंद कर दी। मेरा जब कंठ  ही प्यास  से सूखा है। पास की बच्चियों  को  डेढ़ किमी से पानी लाते कैसे  रोक लूं। यहां से चंद गज के फ़ासले पर मुझे अतिक्रमण  ने दबोच कर महज 5 फीट  कर दिया। आजादी के  दीवाने और धर्म  के  परवानों -का आश्रय  रहा  मेरा आंचल अब सि-कुड  चुका  है। धीरे-धीरे  मेरे साथ चलो, तो जान पाओगे। क डरू, निवारणपुर और खेत मोहल्ला के  दरमयान भी मेरी आबरू को  तुमने कितनी बार तार-तार किया है। कहीं अपना शौचालय बना दिया, कहीं खटाल। कहीं मेरी नाजुक  रही उंगलियों को  कंकरीट वॉल से कुचल डाला। लाजपत स्कूल  के  पास मैं सिसकते हुए, दुबक -दुबक  आगे बढ़ी। यहां ठहर सांस ली। तुम्हें  भी यहां मेरे आसपास हरियाते पेड़-पौधे को  देख अच्छा  लगा होगा। लेकिन मेरा खिलखिलाना तुम्हें  रास नहीं आया। रेडिसन ब्लू  की  पुलिया के पास उसे तुमने पॉलीथिन के  अंबारों से रोक  दिया। मेरे साथ चलते हुए तुम्हारा  रूमाल से नाक  ढंकना अब बुरा नहीं लगता। हंसी आती है। और गुस्सा भी। बजबजाती नलियों और नाले में मुझे किसने तब्दील कर दिया। बिल्कुल  शांत, नीरव तुम्हारे घर -आंगन, बाग-बगिचे से दूर तट से हरहराती मेरी धार को  गंदगी और पॉलीथिन से अवरुद्ध कि सने किया। तुम्हारे  इस विनाश रूपी विकास को  देख मेरा अब रोम-रोम भीगता नहीं, लरजता है। नदियों को  आराध्य  व पावन मानने वाले तुम मुझे टुकड़ों में बांट कर कैसे  खामोशी की चादर तान लेते हो! मुझे तुमने निचोड़ जरूर लिया है। लेकिन मैं पूरी तरह सूखी नहीं हूं। तुम्हारी  करतूतों से मेरा रंग काला पड़ गया। मेरी सांसें किसी कुम्हार  की धौंकनी की  तरह अब भी कहती हैं, बचा लो मुझे। धरती के  गर्भ में समा जाना नहीं चाहती मैं निस्पंद, निर्विकार! तुम भूल गए कि पत्थर  भी मेरे साथ इठला चहक कर चलते थे। उसके गुंजन से सारा वातावरण  प्रकृति रस में मदहोश हो जाता। मैंने कभी बहती मिट्टी, पत्थर , जलकुम्भी किसी को  भी नहीं रोका । तुम तो मेरे फूल  हो! मेरा न सही , अपना तो ख्याल करो। कैसा शहर छोड़ जाओगे तुम आने वाले कल के लिए !

(भास्कर के 1 1 जून 20 1 3 के अंक में प्रकाशित) 



Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

3 comments: on "गाती हुई नदी का रुदन "

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

एक ओर नदियों को माता कहते हैं ,दूसरी ओर भयानक शोषण और विकृतियों का आरोपण :
मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहें या बेहद स्वार्थी,क्रूर और निकृष्ट!

kshama ने कहा…

Waqayi ham apne paryawaran ke prati samvedan ho hain!Behad achha aalekh...meri to aankh nam ho aayi....

के. बाबला ने कहा…

नदी को माँ का रूप देना काफी सराहनिए है |पर शायद ही आज के लाड़ले इस बात को समझ सके|

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)