कुलदीप अंजुम की क़लम से
1.शांति
इतिहास में
अहिंसा अपंगो का उपक्रम रही !
अमन बुजदिलों
का हथियार
तभी तो कबूतर
जैसे
मासूम और
अपेक्षाकृत कम होशियार
परिंदे को बनाया गया शांति का प्रतीक !!
2.जंग
इन्सान और जिंदगी
के बीच की जंग
शाश्वत और ऐतिहासिक है |
यदि केवल कर्म ही
इस प्रतिस्पर्धा का
आधार होता
तो सुनिश्चित सी थी
इन्सान की जीत ,
मगर इस जंग के
अपने कुछ एकतरफा
उसूल हैं ,
भूख , परिवार ,परम्पराएं
मजबूरी ,समाज, जिम्मेदारियां
खेंच देती हैं
हौसलों के सामने
इक लक्छ्मन रेखा
और फिर कर्म
का फल भी तो
हमेशा नहीं मिलता ,
लटकती रहती है
भाग्य की तलवार |
दमतोड़ देते हैं हौसले
और घट जाती है
जीवटता के जीतने की
प्रत्याशा ||
3. अष्टावक्र
आज फिर उसी दरबार पँहुचे अष्टावक्र
फिर हो हो कर हंस पड़े उदंड दरबारी
फिर लज्जित हो गए हैं जनक
अष्टावक्र इस बार नहीं दुत्कारते किसी
को
नीचा कर लिया है सर
शायद समझ गए हैं
दरबारियों की ताकत
जनक की मजबूरी
चमड़े की अहमियत
और ज्ञान की मौजूदा कीमत !
शाम की मुंडेर पर
कुछ सवाल बैठे हैं
हाल पूछते हैं वो
हाल क्या बताऊ में
दिल की इस तबाही का
ख्वाब ख्वाब सेहरा है
जार जार बीनाई
एक ही तो किस्सा है
फूल की जवानी का
तुमने भी तो देखा है
अंत इस कहानी का
फिर भी उनसे कह देना
मैं अभी भी जिंदा हूँ
खूब सोचता हूँ मैं
कुछ सवाल बैठे हैं
हाल पूछते हैं वो
हाल क्या बताऊ में
दिल की इस तबाही का
ख्वाब ख्वाब सेहरा है
जार जार बीनाई
एक ही तो किस्सा है
फूल की जवानी का
तुमने भी तो देखा है
अंत इस कहानी का
फिर भी उनसे कह देना
मैं अभी भी जिंदा हूँ
खूब सोचता हूँ मैं
ख्वाब देखता
हूँ मैं !!
हाल क्या बताऊ में
5. मैंने ईश्वर को देखा है
हाल क्या बताऊ में
5. मैंने ईश्वर को देखा है
मैंने ईश्वर को
देखा है !
जाड़े कि
निष्ठुर रातों में !
गहरी काली
बरसातों में !
कंपकपी छोडती
काया में !
पेड़ों कि
धुंधली छाया में !
ज़र्ज़र कम्बल
से लड़ते !
मैंने ईश्वर को
देखा है !!
फुटपाथों पे
जीते मरते !
सांसों की
गिनती करते !
भूख मिटाने की
खातिर !
मजबूरी में जो हुए
शातिर !
खुद से ही धोखा करते ?
मैंने ईश्वर को
देखा है !!
कुछ टूटी सी
झोपड़ियों में !
भूखी सूखी
अंतड़ियों में !
बेबस से ठन्डे
चूल्हों में !
ताज़े मुरझाये
फूलों में !
कुछ आखिर मद्धम
साँसों में !
ठंडी पड़ती सी
लाशों में !
इंसानियत खोजते
दुनिया में !
मैंने ईश्वर को
देखा है !!
6. गेहूं बनाम गुलाब
निजाम के बदलने के साथ ही
रवायतें बदलने की रस्म में
सब कुछ तेज़ी से बदला
पिछली बार की तरह ....
खेत खेत जाके
ढूंढा गया गेंहू
उखाड़ फेंकने के लिए
रोपा गया कृपापात्र गुलाब.....
अधमरे गेहूं के लिए
कोई और जगह न थी
सिवाए एक
कविता के छोटे से ज़मीन के टुकड़े पर
रवायतें बदलने की रस्म में
सब कुछ तेज़ी से बदला
पिछली बार की तरह ....
खेत खेत जाके
ढूंढा गया गेंहू
उखाड़ फेंकने के लिए
रोपा गया कृपापात्र गुलाब.....
अधमरे गेहूं के लिए
कोई और जगह न थी
सिवाए एक
कविता के छोटे से ज़मीन के टुकड़े पर
जहाँ वह जिंदा तो रह सकता है
सब्ज़ हाल नहीं ......!!
7. अगस्त्य
टिटहरियां आज भी चीखती हैं ...
मजबूर
हैं अगस्त्य
घट
गयी है उनकी कूबत
नहीं
पी सकते समुद्र .......!!
8. हुनर
तुम्हे
मालूम है
मैंने
पा ली है ऊंचाई
और
हो गया हूँ आलोचना से परे
इसलिए
नहीं कि
मैंने
उसूलों को सींचा है उम्रभर
वरन इसलिए
कि
मुझे आता है हुनर
पलटने
का
आंच
के रुख के मुताबिक .........!
(:परिचय
जन्म: पच्चीस नवम्बर १९८८ उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में
शिक्षा: बी टेक (कंप्यूटर साइंस )
सृजन : कविता और ग़ज़ल
सम्प्रति : इंफ़ोसिस में एनालिस्ट
संपर्क: kuldeeps.hcst@gmail.com)
जन्म: पच्चीस नवम्बर १९८८ उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में
शिक्षा: बी टेक (कंप्यूटर साइंस )
सृजन : कविता और ग़ज़ल
सम्प्रति : इंफ़ोसिस में एनालिस्ट
संपर्क: kuldeeps.hcst@gmail.com)
6 comments: on "शाम की मुंडेर पर कुछ सवाल बैठे हैं "
हालाँकि मुझे लगा था कि कुलदीप भाई की ग़ज़लें होंगीं, लेकिन कविता ही मिली पढ़ने को। कोई गिला नहीं। अक्सर इनके शेर पढता रहता हूँ।
सहजता से इनकी कवितायें बड़ी बात कहती हैं। यही वजह है कि इनकी कवितायें प्रभाव छोड़ने में सक्षम हैं। ख़ास तौर पर हमारी मिथकों और प्रतीकों का जितना सार्थक और सटीक पुनर्पाठ करते हैं वह इनकी कविताओ की ताक़त है।
५, ६ और ७ आज पढ़ीं। बाक़ी पहले पढ़ चुका हूँ। शान्ति, अष्टावक्र, अगस्त्य और हुनर कविता मुझे बेहद पसंद हैं। शान्ति ख़ास तौर से पसंद हैं। हाँ, जंग और मैंने ईश्वर को है कुछ हल्की लगीं मुझे।
अगली बार कुलदीप भाई की ग़ज़लें भी शाया करें बड़े भाई।
बेहतरीन कुलदीप भाई !!कुछ शेर भी होते तो मज़ा चौगुना होता ...दुगना कहना तौहीन होती ...पर सहल ढंग से बात कहने का हुनर ...बस बधाई !!नाज़ है आप पर !!
'टिटहरियां आज भी चीखती हैं ...'गहरी काली बरसातों में .' दिल की इस तबाही का ख़्वाब ख्याब सेहरा है '. क्योंकि दरबारी बहुत ताकतवर हैं ....भूख है ठंडा पड़ा चुल्हा और हारा हुआ ईश्वर है ... कवि मिथकों को अर्थवान बनाता हुआ , कहने के अपने हुनर में अपनी युग चेतना के बोध को बहुत ही सजग ढंग विस्तार दे रहा है जहां कवि की सामाजिक समझ मनुष्य समाज में बेहतर न हो पाने के लिए चिंतित है ... साथ ही अपने शब्दों की ताकत से ' अधमरे गेहूं के लिए ' जो वंचित हैं उनके लिए 'कविता के छोटे से जमीन के टुकड़े पर ' कुछ बचा लेने की अथक कोशिश में है ....... इस प्रयास के लिए कुलदीप को बधाई ... हमज़बान का आभार
शानदार कुलदीप! तुम्हारी कवितायें पढ़ के लगता है कि तुम्हें इस क्षेत्र में गंभीरता से काम करना चाहिए. ग़ज़लों की समझ इसमें मदद ही करेगी.
कबूता , इश्वर , गेंहू...... आह्हा.. एक से बढ़कर एक कविताये ... इनकी गज़ल्र और "अकेले शेर" तो नायाब होते है ही पर ये रूप तो देखकर ..... "बस चौंक" गया हूँ.... बस इसी तरह चौंकाते रहिये "छुपे रुस्तम" साहब. :)
badhiya lagi sabhi kavitayen.
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
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- अल्लामा जमील मज़हरी