बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

रिसालदार बाबा का नाम दरबारी खान तो नहीं!


खंगाला इतिहास, पहली बार

सैयद शहरोज कमर की कलम से 

देश की  महान सूफी परंपरा में सम्मामित मशहूर वली संत रिसालदार बाबा के  अकीदतमंदों में शुमार गुल्फाम मुजीबी, चेयरमैन राज्य अल्पसंख्यक आयोग ने चौंकाने वाली जानकारी दी है। उन्होंने कहा की  आज हजरत कु तुबुद्दीन के  नाम से जाने जाने वाले19वीं सदी के  पहले दशक के  ख्यात वली का लक़ब  (उपाधि) कुतुब था, जिसका  अर्थ होता है सुप्रीम, राजा। बड़े संत बुजुर्ग वलियों को  कुतुब कहा  जाता रहा है। बाद में मूल नाम की  जगह कुतुब ने ली, फिर समय ने कुतुब को कुतुबुद्दीन कर दिया।

क्या है बाबा का असली नाम

आप का असली नाम दरबारी खान था । आप मूलत अफगानिस्तान या केरल के  रहने वाले थे। बाद में आप के पूर्वज दिल्ली के  पास झंझाना आकर बस गए। अंग्रेजों की  पल्टन में रिसालादार होकर डोरंडा छावनी आ गए थे। रिसाला घुड़सवार और हाथियों के  एक  फौजी टू्र्प को कहा जाता है। उसके  कप्तान को  रिसालादार कहा जाता था। रिसालादार शब्द कालांतर में रिसालदार हो गया।

आपके  पीर (गुरु) थे मौलाना अब्दुल रहमान 

बिहार के ऐतिहासि· कस्बा  शेरघाटी में 19वीं सदी के आरंभ में बड़े वली गुजरे मौलाना अब्दुल रहमान (1746 से 1841 ई)। आप दिल्ली के  मुहद्दिसे देहलवी शाह वलीउल्लाह के  शिष्य थे। मौलाना पर उनके  समकालीन लेखक  ख्वाजा अब्दुल करीम ने किताब लिखी रियाजउर्रहमान। आपकी कई  किताबें  खुदाबख्श खां लाइब्रेरी पटना में हैं। इस पुस्तक के  पृष्ठ 31 पर दर्ज है:

मीर बरखुरदार अली वल्द सैयद जाफर अली साकीन काबिल टोला बयान करते थे की  दरबारी खान रिसालादार तलाश में पीर की था। छावनी डोरंडा से रुख्सत लेके  झंझाना अपने वतन को  जाता था, करीब देहली के  उसको  ख्वाब में बशारत हुई िक  अगर जिंदा पीर चाहता है तो शहरघाटी जाके  मौलाना अब्दुल रहमान से मुरीद हो। वह वहीं से लौटा और हजरत मौलाना की  खिदमत में हाजिर होके  मुस्तफीद(लाभान्वित) हुआ और बैअत (शिष्यत्व)हासिल की  और अपनी मुराद को  पहुंचा।

उर्स कब से
दरगाह ट्रस्ट के  अध्यक्ष सरफराज अहमद बताते हैं िक  मोमिन पंचायत ने 1890 में उर्स की  शुरुआत की । रांची हाथीखाना के  अकबर मियां तब पंचायत के  सर्वेसर्वा थे। वहीं शहर के  दूसरे लोग कहते हैं ·िक  उर्स की  विधिवत शुरुआत सन 1939 को  होती है। तब मो मुजीब उर्स कमिटी के  सचिव बनाए गए और 25 सालों तक  अपने फर्ज को बखूबी अंजाम देते रहे।

दरगाह का निर्माण
कच्छ से आए बाबा के  चार अकीदतमंद कारोबारियों ने सन 1926से 30 के  बीच दरगाह का  निर्माण कराया। इनमें हारून उमर कच्छी,मोहम्मद इब्राहिम कच्छी के अलावा दो लोग और थे।

क्या कहते हैं.प्रमुख 

हमारा बचपन बाबा की  दरगाह के  आसपास गुजरा । वालिद साहब ने उर्स के  साथ बिरहा और कव्वाली की  शुरुआत भी की  थी। यह बिल्कुल सही है ·िक  उनका  नाम कुतुबुद्दीन नहीं था। लकब कुतुब बाद में कुतुबुद्दीन में बदल गया। हजरत का  नाम दरबारी खान हो सकता है।
गुल्फाम मुजीबी,चेयरमैन,अल्पसंख्यक  आयोग

गजेटियर में भी कुतुबुद्दीन नाम का  ज़िक्र नहीं मिलता है। संभव है ·िक  हजरत का  नाम दरबारी हो। दरगाह ट्रस्ट को हजरत के  बारे में और जानकारी इकट्ठी करनी चाहिए।
हाजी हुसेन कच्छी, वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता

इस सिलसिले में अभी और खोजबीन की जरूरत है। ट्रस्ट की कोशिश रहेगी की बाबा के बारे में और बातें उनके  अकीदतमंदों को पता चले।
सरफराज अहमद, अध्यक्ष, दरगाह ट्रस्ट

भास्कर के लिए लिखा गया

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4 comments: on "रिसालदार बाबा का नाम दरबारी खान तो नहीं!"

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

इतिहास के पन्नों पर सशक्त दस्तक।

बेनामी ने कहा…

nice post!

सुरेश शर्मा (कार्टूनिस्ट) ने कहा…

सार्थक रचना, अच्छा प्रयास !

Spiritual World Live ने कहा…

Sahi hai guruji sahi itehasssss

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हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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