बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

नज़ीर अकबराबादी की ईद

है आबिदों को त'अत-ओ-तजरीद की ख़ुशी और ज़ाहिदों को ज़ुहद की तमहीद की ख़ुशी रिंद आशिक़ों को है कई उम्मीद की ख़ुशी कुछ दिलबरों के वल की कुछ दीद की ख़ुशी ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी पिछले पहर...
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