बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

दलित मोह कितना अपना

  












 मीरा कुमारी की क़लम से




क ल तक समाज के जिस वर्ग को घृणा और तिरस्कार की नज़रों से देखा जाता था, आजादी के वर्षों बाद तक जिसे अछूत मानकर लोग किनारा कर लिया करते थे, आज उसी वर्ग की सुनीता केरी के घर राहुल गांधी जैसे छोटे-बड़े नेताओं का आना-जाना लगा रहता है। दलितों की बस्तियों में अब अक्सर राजनेताओं की गाड़ियाँ चक्कर काटने लगी हैं। दलितों की इस तरह मिजाजपुर्सी की जाएगी, सुनीता केरी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, क्योंकि एक समय इन दलितों को अछूत मानकर इनकी बस्तियां और पीने के पानी के कुएं इत्यादि सवर्ण बस्तियों से काफी दूर रखे जाते थे। अगर इनसे कोई काम करवाना होता तो उन्हें दूर से ही निर्देश दे दिये जाते थे। यहां तक कि अगर भूलवश किसी दलित से कोई सामान छू जाता तो उस पर गंगाजल छिड़क कर उसे शुद्ध किया जाता था, पर आज अचानक ऐसा क्या हो गया कि राजनेताओं को इनके घरों की खाक छाननी पड़ रही है। इस वंचित वर्ग की उन्हें तीमारदारी करनी पड़ रही है।

दरअसल यह सारा खेल राजनीति का है। सत्ता की कुर्सी पर खुद को बनाए रखने के लिए तो राजनेता किसी के पांव तक पड़ने को तैयार हो जाते हैं। फिर यह तो केवल उनकी मिजाजपुर्सी की बात है। सत्ता के खेल में आज दलितजन अहम भूमिका निभा रहे हैं। उन्हीं के हाथों में सत्ता की कुंजी है। वह जिसे चाहें, उसकी सरकार बनवा दें, जिसे चाहें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दें। समाज का यह वंचित तबका आज सरकार बनाने और बिगाड़ने में महत्पूर्ण भूमिका निभा रहा है। देश के सबसे बड़े क्षेत्रफल वाले राज्य उत्तर प्रदेश और बड़े-बड़े साम्राज्य कायम करने वाले बिहार की बात करें तो इन दिनों यहां-वहां दलितों को ढाल बनाकर राजनीति के दांव-पेंच जमकर आजमाए जा रहे हैं। बिहार में दलित नेता तथा पूर्व केन्द्रीय मन्त्री रामविलास पासवान अपनी खोयी हुई राजनीतिक जमीन वापस पाने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को निशाना बना रहे हैं। पासवान नीतीश पर दलितों को आपस में बांट कर राजनीतिक रोटियां सेंकने का आरोप लगा रहे हैं ताकि वहां की दलित जनता नीतीश से कट कर बिरादरी के आधार पर पासवान को अपना नेता चुन ले। वहीं उत्तर प्रदेश में राजनीतिक बिसात बिछा कर दोनों बड़ी पार्टियाँ [बसपा और कांग्रेस] दलित कार्ड के सहारे सन् 2012 में होने वाला सत्ता संग्राम जीतने के लिए अपना सब कुछ झोंक देने के लिए सन्नद्ध दिख रही हैं। खुद को दलितों का मसीहा कहने वाली मायावती नहीं चाहतीं कि उनके गढ़ में कोई सेंधमारी करे। इसलिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत अपने वोटरों, खासकर दलितों को रिझाने के लिए झोंक दी है। अंबेडकर जयन्ती के दिन मायावती उनके अनुयायियों को खुश करने के लिए कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने का संकल्प दिला चुकी हैं, मगर कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी भी हार मानने वालों में नहीं हैं। उन्होंने भी यह कह कर अपनी मंशा साफ कर दी कि अब हम पीछे हटने वाले नहीं। राहुल के तल्ख तेवर देख कर ऐसा लग रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उन्होंने मायावती को पटखनी देने की ठान ही ली है। तभी तो लड़ाई का मोर्चा उन्होंने मायावती के सबसे बड़े गढ़ अंबेडकर नगर से ही खोल दिया है। बाबा साहेब की प्रतिमा को माल्यार्पण करने का राहुल का निर्णय सीधे-सीधे मायावती के वोट बैंक पर हाथ डालने से जुड़ा हुआ है। इस बात को मायावती भांप गई थीं। वह अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी कैसे मार सकती थीं। वह अच्छी तरह जानती थीं कि राहुल द्वारा अंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण करने से दलित वर्ग उनकी तरफ आकर्षित हो सकता है। इसलिए उन्होंने राहुल को ऐसा करने की इजाजत ही नहीं दी। कथित तौर पर माल्यार्पण करने की इजाजत नहीं मिलने पर कांग्रेस ने बसपा पर आरोप लगाते हुए कहा कि मायावती अंबेडकर की विरासत पर एकाधिकार का प्रयास कर रही हैं। अंबेडकर जयन्ती को आधार बनाकर दोनों पार्टियों ने जिस तरह एक दूसरे पर कीचड़ उछाला, उससे तो यही लग रहा है कि सन् 2012 का विधानसभा चुनाव काफी दिलचस्प होने जा रहा है। दोनों तरफ से इसके लिए स्पष्ट संकेत भी किए जा चुके हैं। पिछले दिनों अंबेडकर नगर से शुरू हुआ घटनाक्रम उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य को पूरी तरह से बदल सकता है।
           अंबेडकर जयन्ती के बहाने बसपा और कांग्रेस एक-दूसरे के खिलाफ अपने तीर भरे तरकश लेकर मैदान में कूद पड़े हैं। दोनों पार्टियाँ  अच्छी जरह जान-समझ रही हैं कि सत्ता की कुंजी दलितों के पास ही है। दलित जिसकी मुट्ठी में होंगे, राज्य की कमान भी उसी के हाथ में होगी। लिहाजा दोनों पार्टियाँ  दलितों को प्रभावित करने के लिए अपने-अपने दावे पेश कर रही हैं। माया जहां वर्तमान में खुद को दलितों की सबसे बड़ी रहनुमा बता रही हैं, वहीं कांग्रेस कह रही है कि उन्हीं की पार्टी ने दलित समुदाय को आरक्षण और जमीनें देकर उनका भला किया था। कांग्रेस ने ही बाबा साहेब को संसद में पहुंचने का मौका दिया था। दलित उनके पुराने वोट बैंक रहे हैं। गौरतलब है कि देश की राजनीति में कांग्रेस युग का आधार दलित, मुस्लिम और बाह्मण वोट ही थे, मगर मण्डल और मन्दिर आन्दोलन ने कांग्रेस के वोटरों में भारी सेंधमारी की, जिसके कारण कांग्रेस का जनाधार खिसक कर अलग-अलग पार्टियों की तरफ चला गया। इसमें सबसे ज्यादा लाभ बसपा को मिला। जितने भी दलित वोट थे, वे सब बसपा की झोली में गिर गए और माया दलितों की मसीहा बन गईं। धीरे-धीरे मायावती ने अपनी पार्टी में बाह्मण, क्षत्रिय और मुस्लिम नेताओं को भी शामिल कर लिया ताकि दलितों के साथ-साथ सवर्णों के वोट भी उनके पाले में खिसक आए। आज मायावती की पार्टी में अनुमानत: 39 विधायक ब्राह्मण, 19 क्षत्रिय (ठाकुर), 11 मुस्लिम और 14 पिछड़ी जाति के हैं। इस तरह बसपा ने पूरे उत्तर प्रदेश पर कब्जा कर लिया, मगर 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव के जो संकेत मिले, उससे कांग्रेस की उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं। उत्तर प्रदेश में जमीन तलाश रही कांग्रेस को अप्रत्याशित रूप से 22 लोकसभा सीटों पर कामयाबी क्या मिल गई, उसे वहां अपनी वापसी की आस बंध गई और शुरू हो गया राहुल गांधी का मिशन 2012। उसी के साथ शुरू  हो गया अपने परंपरागत दलित वोटरों को रिझाने का सिलसिला।
            राहुल का दलित प्रेम किसी से छिपा नहीं है। इसलिए कांग्रेस राहुल को आगे कर अपनी योजना को मूर्त रूप देने में जुट गई है, जिसकी शुरुआत दलितों के गढ़ अंबेडकर नगर में रैली के आयोजन से कर दी गई है। कांग्रेस की रैली में उमड़ी भीड़ ने माया की आंखों से नीन्द गायब कर दी। कांग्रेस की रैली की सफलता को देखकर बसपा को यह डर सताने लगा है कि जिस तरह कांग्रेस रूठे मुसलमानों को मनाकर वापस अपने खेमे में शामिल कर चुकी है, कहीं उसी तरह दलित भी अपने पुराने घर की ओर चल पड़े तो  माया की सियासी हैसियत तार-तार हो जाएगी। दलितों पर कांग्रेस प्रेम हावी न हो जाए, इस भय से बहन जी ने सभी नेताओं को यह निर्देश जारी कर दिया कि वे गांव-गांव जाकर दलित वर्ग को बताएं कि कांग्रेस शुरू से ही कितनी अंबेडकर विरोधी रही है। इतना ही नहीं, बसपा नेताओं ने तो अंबेडकर  के अनुयायियों को यहां तक समझाया कि मान्यवर कांशी राम और मायावती ने दलितों में स्वाभिमान पैदा किया है। उन्हें राजनीतिक ताकत दी है। इससे वे देश में एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन चुके हैं, मगर कांग्रेस साजिश के तहत मायावती को कमजोर करके दलितों की ताकत को खत्म कर देना चाहती है। दरअसल, इन दिनों उत्तर प्रदेश में दो तरह की दलित राजनीति गरमाई हुई है। एक दलित मायावती के हैं तो दूसरे कांग्रेस के। कांग्रेस के दलित वे हैं, जहां राहुल जाते हैं, उनकी झोपçड़यों में खाना खाते और ठहरते हैं। उन दलितों का रुझान कांग्रेस की तरफ है। वहीं मायावती के दलित प्रेम की बात करें तो वे उनकी दलित रैली में जाते तो हैं, मगर  सिर्फ डर और लालच की वजह से, स्वेच्छा से नहीं। भय इस बात का कि अगर बहन जी की रैली में साथ नहीं दिया तो उनके गुस्से का कोपभाजन बनना पड़ेगा और लालच इस बात का कि बहन जी की रैली में जो दलित आते हैं, उन्हें वह कांग्रेस से कहीं अधिक सुविधाएं मुहैया कराती हैं। रैली में आए दलितों को दो दिन का भोजन, आने-आने की सुविधा और 10 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से पैसा भी दिया जाता है। मायावती की सफल रैली के पीछे उनके कुछ दबंग नेताओं का हाथ होता है। रैली आयोजित करने से पहले पार्टी किसी एक ऐसे दलित व्यçक्त को मुखिया बनाती हैं, जिसका अन्य दलितों पर रोब हो। उसी व्यçक्त पर अधिक से अधिक दलितो को इकठ्ठा करने की जिम्मेदारी  सौंपी जाती है। दलितों का कांग्रेस के प्रति रुझान बसपा के लिए सिरदर्द बन गया है। कांग्रेस से भयभीत बसपा के सरकारी अमले के लोग लगातार उन दलितों के घरों के चक्कर काट रहे हैं, जिन घरों में बीते तीन सालों के दौरान राहुल गांधी आते-जाते रहे हैं। दलित वोटों को रिझाने-बचाने के लिए शुरू हुई सियासी जंग में दलितों की भी पौ-बारह हो गई है। दलित बस्तियों में इन दिनों बसपा कार्यकर्ताओं की आवाजाही बढ़ गई है। शह-मात के इस खेल में सरकारी अमला न सिर्फ गांव के लोगों की मिजाजपुर्सी करने में लगा हुआ है, बल्कि गांव की जरूरतों के बारे में हुक्मरान सूची भी तैयार कर रहे हैं। जिन-जिन गांवों में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी का दौरा हुआ, उन सभी जगहों की जनता को पटाने में पुलिस और जिला प्रशासन ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। श्रावस्ती के जिस रामपुर देवमन गांव के तिलहर मजरे में राहुल ने 24 सितम्बर, 2009 को रात गुजारी थी, उसकी प्रधान जलवर्षा की भी इस बीच खूब मिजाजपुर्सी हो रही है। तकरीबन 2628 लोगों की आबादी वाले इस गांव में 676 दलित निवास करते हैं, मगर आज भी इस गांव की साक्षरता दर मात्र पांच फीसदी है। यही नहीं, सन् 2007 में अमेठी के जौहर गांव की जिस सुनीता केरी के यहां राहुल ने रात गुजारी थी, बसपा नेता उसके भी खूब चक्कर काट रहे हैं।
             बसपा चाहे खुद को कितना भी दलितों की हिमायती बताए और बाबा साहेब की प्रतिमाएं बनवा कर उन पर माल्यार्पण करवाती रहे, मगर सच तो यही है कि जमीनी तौर पर उनके विकास के लिए बसपा ने आज तक कुछ भी ठोस नहीं किया। जिन दलितों के बल पर आज वह सत्ता पर काबिज हैं, उन्हें अभी तक समाज की मुख्यधारा से जोड़ तक नहीं पाई हैं। दलित मतदाता भी इस बात को अच्छी तरह समझ गए हैं कि बसपा सिर्फ उनका सहारा लेकर सत्ता में बने रहना चाहती है। उसका मकसद मात्र सत्ता सुख का निर्बाध उपभोग है, न कि दलितों का हित साधन। अगर सही मायने में मायावती दलितों का हित चाहतीं तो इतने सालों बाद भी दलित बस्तियों में लोग शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली-पानी के संकट से जूझ नहीं रहे होते।
               खुद को दलितों का मसीहा बता कर मायावती ने सिर्फ मूर्तियां ही तो लगवाईं हैं, मगर जो जीवित हैं, उन दलितों को कौन सा अधिकार उन्होंने दिलाया है? मायावती सरकार को सत्ता में आए तीन साल होने को हैं, मगर दलितों की स्थिति आज भी वैसी की वैसी है। विकास के नाम पर उन्होंने सिर्फ पार्क और दलित जाति के महापुरुषों की मूर्तियां ही बनवाई हैं। वह भले ही यह कह कर खुद को दलितों का रहनुमा साबित करने की कोशिश का रही हों कि क्वहम दलित और पिछड़ी जातियों के महापुरुषों के नाम पर पार्क और मेमोरियल इसलिए बनवा रहे हैं ताकि उन्हें उनका जायज सम्मान दिया जा सकें, पर वास्तविकता तो यही है कि जितने पैसे उन्होंने उन बेजान मूर्तियों के निर्माण में लगाये, उसका आधा हिस्सा भी अगर वे दलितों के हित के लिए खर्च करतीं तो उत्तर प्रदेश के दलितों का झुकाव कांग्रेस की तरफ नहीं होता। उनके रसूख और दबदबे की वजह से लोग भले ही अपना मुंह नहीं खोलते हों, पर सच्चाई तो यही है कि अब वे दलित अपना मसीहा मायावती को नहीं, कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को मानने लगे हैं। हालांकि कांग्रेस ने अभी शुरुआत ही की है, लेकिन दलितों के प्रति उसका जो लगाव है और आज तक उनके लिए जो कुछ भी उसने किया है, वह सब दलितों को लुभाने का लालीपॉप भर नहीं है, क्योंकि दलितों को उनका हक दिलाने और उनको हरिजन कहे जाने पर आपçत्त जताने वाले बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को महात्मा गांधी ने ही संसद के गलियारों तक पहुंचने का मार्ग दिया। वही जज्बा अब राहुल के दिल में भी है।


[ लेखक-परिचय:
जन्म:२४ दिसंबर १९८३,मुजफ्फरपुर बिहार
शिक्षा: बी.ए.और जनसंचार एवं पत्रकारिता में उपाधि
सृजन: छिट-पुट पत्र-पत्रिकाओं में लेख, समीक्षा रपट प्रकाशित 
संप्रति: लोकायत में कापी एडिटर
संपर्क: meeramuskan@gmail.com ]



 
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सोमवार, 30 अगस्त 2010

हिन्दुत्व की अवधारणा ही आतंकी है










अमलेंदु उपाध्याय  की क़लम से
कांग्रेस के साथ आरंभ से दिक्कत यह रही है कि वह किसी भी मुद्दे पर कोई भी स्टैण्ड चुनावी गुणा भाग लगाकर लेती है और अगर मामला गांधी नेहरू खानदान के खिलाफ न हो तो उसे पलटी मारने में तनिक भी हिचक नहीं होती है। उसकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर देश में सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतें अपना विस्तार करती रही हैं और कांग्रेस फौरी नुकसान देखकर अहम मसलों पर अपने कदम पीछे हटाती रही है जिसका बड़ा नुकसान अन्तत: देश को उठाना पड़ा है। कुछ ऐसा ही मामला फिलहाल 'भगवा आतंकवाद' के मसले पर हुआ जब राज्य पुलिस महानिदेशकों के एक तीन दिवसीय सम्मेलन में गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने धयान दिलाया कि देश में भगवा आतंकवाद भी है। बस भगवा गिरोह ने जब शोर मचाना शुरू किया तो कांग्रेस बैकफुट पर आ गई और चिदंबरम से उसने अपना पिण्ड छुड़ा लिया। नतीजतन हिन्दुत्ववादी  आतंकवादियों  के हौसले बुलन्द हैं।
     यहां सवाल यह है कि क्या वास्तव में भगवा आतंकवाद जैसा कुछ है? और क्या आतंकवाद का कोई धर्म होता है? जाहिर सी बात है कि समझदार लोगों का जवाब यही होगा कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और न कोई रंग होता है। लेकिन चिदंबरम ने जो कहा उससे भी असहमत होना आसान नहीं है। चिदंबरम के शब्द प्रयोग में असावधानी हो सकती है लेकिन भावना एकदम सही है। जिस आतंकवाद की तरफ चिदंबरम ने इशारा किया उसकी आमद तो आजादी के तुरंत बाद हो गई थी और इस आतंकवाद ने सबसे पहली बलि महात्मा गांधी की ली। उसके बाद भी यह धीरे धीरे बढ़ता रहा और 6 दिसम्बर 1992 को इसका विशाल रूप सामने आया।
     हाल ही में जब साध्वी प्रज्ञा, दयानन्द पाण्डेय और कर्नल पुरोहित नाम के दुर्दान्त आतंकवादी पकड़े गए तब यह फिर साबित हो गया कि ऐसा आतंकवाद काफी जड़ें जमा चुका है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी का चिदंबरम के बयान पर हो- हल्ला मचाना 'चोर की दाड़ी में तिनका' वाली कहावत को चरितार्थ करता है।
     पहली बात  तो यह है कि भगवा रंग पर किसी राजनीतिक दल का अधिकार नहीं है और न करने दिया जाएगा। यह हमारी सदियों पुरानी आस्था का रंग है। लेकिन चिदंबरम के बयान के बाद भाजपा और संघ यह दर्शाने का प्रयास कर रहे हैं गोया भगवा रंग उनका ही हो। अगर ऐसा है तो भाजपा का झण्डा भगवा क्यों नहीं है?
     अब संघी भाई कह रहे हैं कि हिन्दू कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। बात सौ फीसदी सही है और हम भी यही कह रहे हैं कि हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकता और आतंकवादी गतिविधिायों में जो आतंकवादी पकड़े गए हैं या अभी पकड़ से बाहर हैं वह किसी भी हाल में हिन्दू नहीं हो सकते वह तो 'हिन्दुत्व' की शाखा के हैं। दरअसल 'हिन्दुत्व' की अवधारणा ही आतंकी है और उसका हिन्दू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। कोई भी धर्मग्रंथ, वेद, पुराण, गीता रामायण हिन्दुत्व की बात नहीं करता न किसी भी धर्मग्रंथ में 'हिन्दुत्व' शब्द का प्रयोग किया गया है।
हिन्दुत्व एक राजनीतिक विचार धारा है जिसकी बुनियाद फिरकापरस्त, देशद्रोही और अमानवीय है। आज हमारे संधी जिस हिन्दुत्व के अलम्बरदार बन रहे हैं, इन्होंने भी इस हिन्दुत्व को विनायक दामोदर सावरकर से चुराया है। जो अहम बात है कि सावरकर का हिन्दुत्व नास्तिक है और उसकी ईश्वर में कोई आस्था नहीं है। जबकि हिन्दू धर्म पूर्णत: आस्तिक है। उसकी विभिन्न शाखाएं तो हैं लेकिन ईश्वर में सभी हिन्दुओ की आस्था है। लिहाजा ईश्वर के बन्दे आतंकी तो नहीं हो सकते पर जिनकी ईश्वर में आस्था नहीं है वही आतंकी हो सकते हैं। 
     जो अहम बात है कि हिन्दू धर्म या किसी भी धर्म के साथ कोई 'वाद' नहीं जुड़ा है क्योंकि 'वाद' का कंसेप्ट ही राजनीतिक होता है जबकि 'हिन्दुत्व' एक वाद है। और आतंकवाद भी एक राजनीतिक विचार है। दुनिया में जहां कहीं भी आतंकवाद है उसके पीछे राजनीति है। दरअसल आतंकवाद, सांप्रदायिकता के आगे की कड़ी है। जब धर्म का राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए हथियार की तरह प्रयोग किया जाता है तब सांप्रदायिकता का उदय होता है और जब सांप्रदायिकता के जुनून को पागलपन की हद तक ले जाया जाता है तब आतंकवाद पैदा होता है। 
 भारत में भी जिसे भगवा आतंकवाद कहा जा रहा है वस्तुत: यह 'हिन्दुत्ववादी आतंकवादहै, जिसे आरएसएस और उसके आनुषंगिक संगठन पालते पोसते रहे हैं। संघ की शाखाओं में बाकायदा आतंकवादी प्रशिक्षित किए जाते हैं जहां उन्हें लाठी- भाला चलाना और आग्नेयास्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। दशहरे वाले दिन आतंकवादी अपने हथियारों की शस्त्र पूजा करते हैं।
     फिर प्रतिप्रश्न यह है कि भाजपा और संघ को चिदंबरम के बयान पर गुस्सा क्यों आता है? 'मजहबी आतंकवाद', 'जिहादी आतंकवाद' और 'वामपंथी उग्रवाद' जैसे शब्द तो संघ के शब्दकोष की ही उपज हैं न! अगर मजहबी आतंकवाद होता है तो भगवा आतंकवाद क्यों नहीं हो सकता? अगर वामपंथी उग्रवाद होता है तो दक्षिणपंथ का तो मूल ही उग्रवाद है। अगर 'जिहादी आतंकवाद' और 'इस्लामिक आतंकवाद' का अस्तित्व है तब तो 'भगवा आतंकवाद' भी है। अब यह तय करना भाजपा- आरएसएस का काम है कि वह 'किस आतंकवाद' को मानते हैं?


 [ लेखक-परिचय:  
जन्म : 18,मई १९७० को बदायूं  में 
शिक्षा: एक सभ्य सुसंस्कृत और शैक्षणिक परिवार से होने के बावजूद अमलेंदु जी कहते हैं कि  लेकिन मैं स्वयं शिक्षित नहीं [हँसना मना है !]
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन साथ ही समाचार पोर्टल  ]     
 http://hastakshep.com/   के संपादक
संपर्क: amalendu.upadhyay@gmail.com ]
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गुरुवार, 26 अगस्त 2010

पैसे से खलनायकी ...सफ़र कबाड़ का

 उड़ीसा से छत्तीसगढ़ तक वेदांता की ख़ूनी रेल















सैयद एस क़मर की कलम से



  यह कोई फ़िल्मी  कहानी नहीं है जिसमें एक कुली मजदूर किस तरह रातों रात खरब पति बन जाता है,यह कहानी वेदांता जैसी कंपनी के मालिक की  है, जिसकी छवि आम लोगों के दरम्यान खलनायक की है ,लेकिन उसे  नायक बनाने के लिए कुछ अफसरों और राजनेताओं ने सारे नियम-कानून को धता बताते हुए ज़मीन-आसमान एक कर दिए हैं। जो किसी भी मोल पर अपने साम्राज्य को बढाए रखना चाहता है, जहां सिसकती विधवाएं हैं ,जवाँ बेटे को खो चुकी बुढी माओं का विलाप है और दरवाज़े को निहार रही उन बच्चों की मासूमियत है, जिनके पिता रोज़ काम करने जाते हैं लेकिन लौट कर कभी नहीं आते! बालको की चिमनी में राख कर दिए जाते हैं । कुछ की ख़बर भी नहीं लगती । ख़बर है कि उड़ीसा में पर्यावरण दोष के कारण वेदांता की एक परियोजना को प्रतिबंधित कर दिया गया है। लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे सुरम्य और शांत अंचल की सुध किसे है। यहाँ तो वही होता है जो अनिल अग्रवाल चाहें या उनके सुपारी पर पल रहे  सरकारी अमले  !

उड़ीसा में आदिवासियों की सुन ली गयी। वेदान्ता जैसी कुख्यात कंपनी के पर सरकार ने कुतर दिए. हम कह सकते हैं बोलो जयराम!! केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम नरेश ने एन. सी. सक्सेना की रिपोर्ट के आधार पर उड़ीसा के कालाहांडी जिले की कंपनी की खनन योजना पर रोक लगा दी । इस खनन योजना से पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम, वन संरक्षण अधिनियम और वन अधिकार अधिनियम का घोर उलंघ्घन हो रहा था। अनिल अग्रवाल  की कंपनी वेदांता नियमगिरि पहाडिय़ों में बाक्साइड  निकालने के लिए कऱीब पांच हज़ार करोड़ की योजना पर काम कर रही थी। पश्चिमी उड़ीसा के हरे भरे अकाल के नाम से कुख्यात जिले कालाहांडी के तिहत आने वाला प्रस्तावित खनन का यह इलाक़ा डोंगरिया आदिवासियों का गढ़ है। सक्सेना रिपोर्ट के मुताबिक 7500 वर्ग किलोमीटर के इलाके में फैले वन क्षेत्र को खतरा पैदा हो गया था।
छत्तीसगढ़ में हज़ारों एकड़ ज़मीन मुफ्त के भाव में अनिल अग्रवाल को दे दी गयी है। जिसमें सिर्फ बालको में 2700 एकड़ है उसके अलावा राजधानी  रायपुर और कवर्धा यानी कबीरधाम का एक बड़ा हिस्सा वेदांता को खनिज उत्खनन के लिए दे दिया  गया है । पेड़ की अवैध कटाई भी खूब की जा रही है। अभी एक सर्वे से बात सामने आई है कि यदि यही हाल रहा तो प्रदेश  के जंगल तीस सालों के अन्दर ही  ख़त्म हो जायेंगे। पर्यावरण का संकट यहाँ भी खड़ा हो चुका है। वेदांता खूब धज्जियां उड़ा रही है। वहीे अवैध ज़मीन पर बन रही उसकी चिमनियाँ ज़िंदा लोगों को निगलती जा रही हैं। बालको में सितम्बर 2009 में ऐसी ही चिमनी ने सौ मजदूरों को जिंदा निगल लिया था। बालको की चिमनी जहां बन रही थी, वह अवैध कब्जे वाली जमीन है। वनभूमि पर निर्माण हो रहा था और प्रशासन वहां मूकदर्शक बना हुआ था।


छत्तीसगढ़ का कोरबा राज्य का पावर हब कहा जाता है। 2001 में  एनआरआई उद्योगपति अनिल अग्रवाल की लंदन में रजिस्टर्ड कंपनी वेदांता-स्टरलाइट द्वारा  551 करोड़ रुपये में भारत सरकार के उपक्रम भारत एल्युमीनियम कंपनी यानी बालको की 51 फीसदी हिस्सेदारी खरीदे जाने के बाद से बालको पर अनिल अग्रवाल की वेदांता का कब्जा है और वेदांता के साम्राज्य का विस्तार लगातार जारी है। इस विस्तार  में चिमनी में तप रहे और मलवे में दब रही लाशों का ढेर है तो लगातार कट रहे जंगल के कारण उजाड़ श्मशानी सन्नाटा है।

रविवार जैसी साईट ने इस मुद्दे पर लगातार लिखा है.रविवार में दर्ज है कि बालको को अतिक्रमण हटाने की नोटिस दी गई तो उसने कोर्ट से स्टे ले लिया था। बालको प्रबंधन के खिलाफ सरकार कार्रवाई करने से डरती है। यही वजह है कि न्यायालय में प्रकरण की सुनवाई के दौरान राज्य के एडवोकेट जनरल खड़े नहीं होते एक सामान्य वकील को खड़ा कर दिया जाता है। चिमनी हादसे में १०० लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार बालको के मालिक अनिल अग्रवाल पर भी सरकार कार्रवाई नहीं करना चाहती। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के मज़दूर युनियन से संबद्ध सुधा भारद्वाज पूछती हैं- जब भोपाल गैस कांड में एंडरसन के प्रत्यार्पण की कोशिश जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं तो इस पूरे मामले के लिए सीधे तौर पर जिम्मेवार वेदांता के मालिक अनिल अग्रवाल और उनके मातहत गुंजन गुप्ता को अब तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया है ?


इस निर्माण स्थल पर दिए गए ठेकों के बारे में पता करें, तो पता चलता है कि यहां का काम एक चीनी कंपनी सेपको और एक भारतीय कंपनी गैनन डंकरले को दिया गया था. दुर्घटना होते ही इन कंपनियों के अधिकारी वहां से खिसक लिए थे. प्रशासन ने चीनी कंपनी के 76 अधिकारियों के वापस चीन जाने का पूरा प्रबंध तक कर डाला था। प्रशासन ने पहले ही दिन बिना बयान लिए सेपको के चीनी अधिकारियों को अपने संरक्षण में देश से बाहर जाने के लिए भारी सुरक्षा के बीच एयरपोर्ट भी पहुंचा दिया था ।


बिहार में कभी सत्तर के आस-पास  कबाड़ी के रूप में अपनी जीवन यात्रा शुरु करने वाले वेदांता के मालिक अनिल अग्रवाल सन चौरासी तक मुंबई के पेडर रोड पर रहा करते  थे । दो दशक के अंतराल में किस तरह देश में येन केन प्रकारेण खरब पति बनने का सिलसिला शुरू हुआ है ,उसकी ज़िंदा मिसाल धीरे-धीरे बनते चले गए. जिसमें उनका साथ दिया सियासी नेताओं  ने और प्रशासनिक अधिकारियों ने। उनके सहयोगियों में एक केंद्रीय मंत्री का भी नाम सरे फेहरिस्त है जो हर कांग्रेसी हुकूमत में हर बार केन्द्रीय पदों पर रहे हैं। वेदान्त्ता जैसी कुख्यात कंपनी के सर्वेसर्वा अनिल अग्रवाल ने भ्रष्ट होती जा रही सडांध मारती इस व्यवस्था को अपने माकूल करने के लिए अपने सारे अस्त्र खोल दिए थे। अगर प्रमाण सहित कहा जाय तो सन 77 से आज तक कई घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि अपने स्वार्थ के लिए अनिल अग्रवाल कुछ भी कर सकते हैं.उनके गोरख धंधे की एक मिसाल ही लीजिये  वेदांता रिसोर्से प्रा.लि. कंपनी मुंबई स्टाक एक्सचेंज में दिसंबर 2003 में सूचीबद्ध होती है जिसमें स्टारलाईट  के शेयर थे । 88 फीसदी शेयर  इसी अग्रवाल परिवार के थे.और रातों रात इसमें हज़ारों प्रतिशत की उछाल आ जाती है सब कुछ वित्त मंत्रालय के प्रमुख के वरदहस्त से संपन्न होता है । सिर्फ केंद्रीय मंत्री ही नहीं ,इस व्यक्ति ने उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में भी सरकारी अमले को अपने शिकंजे में कसना शुरू किया और किंचित सफल रहा। कहा जाता है कि भाजपा सरकार के पिछले कार्यकाल में जब कोरबा निवासी राज्य के वन मंत्री ननकी राम कंवर ने वेदांता के खिलाफ मोर्चा खोला और 1036 एकड़ वन भूमि पर बेजा कब्जे का सवाल उठाया तो हफ्ते भर बाद उनका विभाग छिन गया था। अभी जब पर्यावरण मंत्रालय ने सक्सेना रिपोर्ट के आधार पर वेदांता की एक खनन परियोजना पर उड़ीसा में रोक लगाने की सोची तो इस मंत्री ने बताया जाता है कि उसे रुकवाने के लिए एडी चोटी का जोर लगा दिया था। लेकिन पर्यावरण मंत्री जयराम  नरेश आखिर सफल रहे और रोक लग गयी। इधर उड़ीसा की पटनायक सरकार भी अपने तईं वेदांता का सहयोग और समर्थन करती रही है। पर्यावरण मंत्रालय ने इस रोक के लिए आधार वन सलाहकार समिति,महालेखा परीक्षक और एफएसी की सिफारिशों को बनाया है। इन तीनों ने ही वेदान्त के साथ उड़ीसा सरकार पर भी वन कानूनों को तोडऩे का आरोपी बतलाया है। इस फैसले के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक दिल्ली दौड़ पड़ते हैं तो उधर राज्य के  औद्योगिक  इस्पात व खनन मंत्री रघुनाथ मोहंती इस क्रांतिकारी और आदिवासी हितार्थ फैसले को दुर्भाग्य पूर्ण कहते हैं। वहीँ पर्यावरण और वन मंत्री श्री नरेश दो टुक कहते हैं कि लांजीगढ़, कालाहांडी और रायगढ़ जिलों में फैले नियामगिरि पहाडी क्षेत्र में राज्य के स्वामित्व वाली उड़ीसा माइनिंग कर्पाेरोशन और स्टरलाईट  अनिल अग्रवाल की कंपनी की बाक्साइड खनन परियोजना के दूसरे चरण की वन मंजूरी नहीं दी जा सकती । वनोपज पर जिवनोपर्जन कर रहे दलित आदिवासियों की यह जीत है जैसा उड़ीसा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सांसद भक्त चरण दास कहते हैं। दरअसल इस इलाके के आदिवासी बरसों से अपने ज़मीन और अपने प्रेम जंगल के लिए संघर्ष कर रहे थे। लेकिन इस जीत को उनकी पूरी आज़ादी नहीं कहा जा सकता। छत्तीसगढ़ आज भी अनिल अग्रवाल जैसे कई पूंजीपतियों के निशाने पर है ! सवाल उठना लाजिम है कि विकास के नाम पर आदिवासियों और दलितों से जल, जंगल , ज़मीन और आजीविका छीन लेना कितना उचित है!

दक्षिण भारतीय उस राजनेता को पाठक जानते ही होंगे  जिनका ज़िक्र बतौर केन्द्रीय मंत्री ऊपर आया है. न समझ सके हों तो मैं बतलाता चलूँ आप हैं पी. चिदंबरम .आपके बारे में और स्पष्ट बतला देना ज़रूरी होगा कि आप वेदांता समूह के निदेशक बोर्ड में रह चुके हैं। आर. पोद्दार की लिखी किताब ‘वेदांताज़ बिलियंस’ में बताया गया है कि चिदंबरम वेदांता रिसोर्सेज़ के निदेशक के तौर पर भारी-भरकम तनख्वाह लेते थे। सालाना 70,000 डॉलर उन्हें एक गैर-कार्यकारी निदेशक के तौर पर कंपनी से मिलते थे। यह बात 2003 की है। उस दौरान स्टरलाइट के शेयरों में चिदंबरम के रहते 1000 फीसदी का उछाल आया था।


लेखक-परिचय 
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सोमवार, 23 अगस्त 2010

यानी जब तक जिएंगे यहीं रहेंगे !

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अनवर सुहैल की क़लम से


कहानी: गहरी जड़ें

     
सामने गली पर ऑटो घुरघुराता तो असग़र भाई के कान खड़े हो जाते। ऑटो आगे निकल जाता और असग़र भाई व्यग्र से दरवाज़े की ओर देखने लगते।
असग़र भाई बड़ी बेचैनी से जफ़र की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
जफ़र उनका छोटा भाई है।
ज़फ़र आ जाए तो असग़र भाई उसके साथ मिलकर एक निर्णय लेना चाहते थे।
अटल बिहारी बाजपेयी के आर-पार सा एक निर्णय।
अंतिम निर्णय, जिससे रोज़-रोज़ की किच-किच से छुटकारा मिले !
इस मामले को ज्यादा दिन टालना अब ठीक नहीं।
कल फोन पर जफ़र से बहुत देर तक बातें तो हुई थीं।
जफ़र ने कहा था कि -‘‘भाईजान आप परेशान न हों, मैं आ ही रहा हूं। मामले का कोई न कोई हल इंशाअल्लाह ज़रूर निकल आएगा।’’

असगर भाई हाईपर-टेंशनऔर डायबिटीज़के मरीज़ ठहरे। 
छोटी-छोटी बात से परेशान हो जाते हैं।
बीवी मुनीरा असग़र भाई की इस आदत से झुंझला जाती हैं। वह नहीं चाहती कि उनका शौहर काम धंधे और घर-परिवार के अलावा किसी दूसरे बात की फ़िक्र करे। एक बार उनका बीपी बढ़ा नहीं कि नार्मल होने में फिर काफ़ी वक़्त लग जाता है। झेलना तो आखिर में बीवी को पड़ता है।

असगर भाई दिल बहलाने के लिए बैठक में आ गए।

मुनीरा बैठी टी वी देख रही थी। उसके एक हाथ में रिमोट था। जब से गोधरा-काण्डहुआ है, घर में इसी तरह आज-तकऔर एनडीटीवीबारी-बारी से चैनल बदल कर घंटों देखा जा रहा था। इतनी ज्यादा मालूमात के बाद भी चैन न पड़ता तो असगर भाई रेडियो-ट्रांजिस्टर पर बीबीसी के समाचारों से देशी मीडिया के समाचारों का तुलनात्मक अध्ययन करने लगते। उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी के अख़्बार मंगाते और उनकी ख़बरों की विवेचना करते। गुजरात में मुसलमानों के हालात देख इस क़दर डर गए थे असग़र भाई कि उन्होंने नौकरी से भी छुट्टी ले रखी थी। बॉस से कह दिया था कि शुगर बढ़ गया है और डॉक्टर ने बेड-रेस्ट के लिए कहा है।
टीवी के अधिकांश चैनल में नंगे-नृशंस यथार्थ को दर्शकों तक पहुंचाने की होड़ सी लगी हुई थी।
असग़र भाई मुनीरा के बगल में बैठ गए और रिमोट अपने हाथ में लेकर चैनल बदलने लगे।
डिस्कवरी-चैनलमें हिरणों के झुण्ड का शिकार करते शेर को दिखाया जा रहा था। शेर गुर्राता हुआ हिरणों को दौड़ा रहा था।  अपने प्राणों की रक्षा करते हिरण अंधाधुंध भाग रहे थे। भागते हिरण रूककर पीछे शेर को देखते भी और जान हथेली पर लेकर भागते भी जाते थे।
असग़र भाई सोचने लगे कि इसी तरह तो आज डरे-सहमें लोग गुजरात में जान बचाने के लिए भाग रहे हैं।
उन्होनें फिर चैनल बदल दिया। निजी समाचार-चैनल का एक दृश्य कैमरे  का सामना कर रहा था। कांच की बोतलों से पेट्रोल-बम का काम लेते गुजरात के बहुसंख्यक लोग और वीरान होती अल्पसंख्यक आबादियां। भीड़-तंत्र की बर्बरता को बड़ी ढीठता के साथ सहज-प्रतिक्रिया’’ बताता सत्ता का शीर्ष-पुरूष। केंद्र सरकार के नुमाइंदे और टीवी के एंकर के बीच जारी एक ढीठ बहस कि राज्य पुलिस को और मौका दिया जाए या कि राज्य में सेना डिप्लायकी जाए।
तर्कों का माया-जाल। शब्दों की जादूगरी। भाषणों और वक्तव्यों में उलझा देश का नागरिक कि राज्य पुलिस का दायरा कितना है और केंद्र किन अवसरों पर किसी राज्य में कानून व्यवस्था के लिए हस्तक्षेप कर सकता है।
एक चैनल में सत्ता-पक्ष और विपक्ष के बीच मृतक-संख्या के आंकड़ों पर उभरता मतभेद है। सत्ता-पक्ष की दलील थी कि सन् चौरासी के सिख नरसंहार की तुलना में ये आंकड़ा काफी कम है। सन् चौरासी में वर्तमान के विपक्षी केन्द्र की कमान सम्भाले थे और तब कितनी मासूमियत से यह दलील दी गई थी-‘‘ एक बड़ा पेर गिरने पर भूचाल आना स्वाभाविक है।’’
इस बार भूचाल तो नहीं आया किन्तु राज्य सत्ता के शीर्ष पुरूष ने भौतिकी का ज्ञान बघारते हुए, न्यूटन की गति के तृतीय नियम की धज्जियां ज़रूर उड़ाई।
क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया’’
असग़र भाई को हंसी आ गई।
उन्होनें देखा टीवी में वे ही संवाददाता दिखाई दे रहे थे, जो कुछ दिनों पूर्व झुलसा देने वाली गर्मी में अफगानिस्तान की पथरीली गुफाओं, पहाडों और युद्ध के मैदानों से तालिबानियों को खदेड़ कर आए थे और बमुश्किल तमाम अपने परिजनों के साथ चार-छह दिन की छुट्टियां ही बिता पाए होंगे कि उन्हें पुनः एक नया टास्कमिल गया। गोधरा और गुजरात का टास्क।
अमेरिका का नौ-ग्यारह वाला रक्त-रंजित तमाशा, लाशों के ढेर, राजनीतिक उठापटक, और अपने चैनल के दर्शकों की मानसिकता को कैशकरने की व्यवसायिक दक्षता इन संवाददाताओं ने प्राप्त कर ली है। बहुसंख्यक जनता के मूड का अध्ययन और चैनल के आकाओं का हित-साधन ही तो मीडिया का सच है।
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ उन दिनों अपने लिए नए मुहावरे गढ़ रहा था।
असग़र भाई ने यह विडम्बना भी देखी कि किस तरह नेतृत्व-विहीन अल्पसंख्यक समाज की आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के साथ सहानुभूति  बढ़ती जा रही थी।
जबकि डबल्यू टी ओकी इमारत सिर्फ अमरीका की बपौती नहीं थी। वह इमारत तो मनुष्य की मेधा और सतत विकास का जीवन्त प्रतीक थी। डबल्यूटीओकी इमारत में काम करने का स्वप्न सिर्फ अमरीकी ही नहीं बल्कि तमाम देशों के नौजवान नागरिक देखा करते हैं।
बामियान के बुद्ध एक पुरातात्विक धरोहर मात्र नहीं थे। बामियान के बुद्ध करोड़ों बौद्धों के आस्था के प्रतीक थे।
आतंकवादियों ने विकास और आस्था के प्रतीकों की किस बर्बरता से नष्ट किया उसे इतिहास कभी भुला नहीं पाएगा।
बामियान प्रकरण हो या कि ग्यारह सितम्बर की घटना, असग़र भाई जानते हैं कि ये सब ग़ैर-इस्लामिक कृत हैं। दुनिया भर के तमाम अमनपसंद मुसलमानों ने इन घटनाओं की कड़े शब्दों में निन्दा की थी।
लेकिन इसी के साथ सारी दुनिया में मुहावरा और उछला कि ‘‘हर मुसलमान आतंकवादी नहीं किन्तु हर आतंकवादी मुसलमान है।’’
सारी दुनिया में मुसलमानों को सभ्यता के शत्रु के रूप में देखा जाने लगा था।
इस्लाम के दुश्मनों की बन आई थी।
कमो-बेश ये बात संसार में फैल ही गई कि इस्लाम आतंकवाद का पर्याय है।
असग़र भाई गोधरा काण्ड के बाद गुजरात के हालात देख बहुत डर गए थे। बहुसंख्यक हिंसा का एकतरफा ताण्डव और शासन-प्रशासन की चुप्पी देख वह काफी निराश थे।
ऐसा ही तो हुआ था उस समय जब इंदिरा गांधी का मर्डर हुआ था।
असग़र भाई तब बीस-इक्कीस के रहे होंगे।
उस दिन वह जबलपुर में एक लॉज में ठहरे थे।
एक नौकरी के लिए साक्षात्कार के सिलसिले में उन्हें बुलाया गया था।
वह लॉज एक सिख का था।
असगर भाई प्रतियोगिता और साक्षात्कार से सम्बंधित किताबों में उलझे हुए थे। उन्हें ख़बर न थी कि देश में कुछ भयानक हादसा हुआ है।
शाम के पांच बजे उन्हें लॉज के कमरे में धूम-धड़ाम की आवाज़ें सुनाई दीं।
वह कमरे से बाहर आए तो देखा कि लॉज के रिसेप्शन काउण्टर को लाठी-डंडे से लैस भीड़ ने घेर रखा है। वे सभी लॉज के सिख मालिक सेे बोल रहे थे कि वह जल्द से जल्द लॉज को खाली करवाए, वरना अन्जाम ठीक न होगा।
सरदारजी घिघिया रहे थे कि स्टेशन के पास का यह लॉज मुद्दतों से यात्रियों की मदद करता आ रहा है। उसने बताया कि सिख ज़रूर है किन्तु हिन्दुओं के तमाम पूजा-कार्यक्रमों में वह बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है।
सरदारजी गिड़गिड़ाते हुए सफाई दे रहे थे कि वह खालिस्तान के समर्थक नहीं हैं। इंडियन आर्मी में उनके कई रिश्तेदार अभी भी सर्विस में हैं। सरदारजी ने अंत में तर्क दिया कि वह एक पुराना कांग्रेसी है।
भीड़ उसके तर्क नहीं सुन रही थी। लोग कह रहे थे-‘‘मारो साले खालिस्तानी को। यह भिण्डरावाले का संमर्थक है। पाकिस्तान का एजेण्ट है।’’
स्रदारजी बता रहे थे कि विभाजन के समय कितनी तकलीफें सहकर उसके पूर्वज हिन्दुस्तान आए। 
कुछ करोलबाग दिल्ली में तथा कुछ  जबलपुर में आ बसे। अपने बिखरते वजूद को समेटने का पहाड़-प्रयास किया था उन बुजुर्गों ने। शरणार्थी मर्द-औरतें और बच्चे सभी मिलजुल, तिनका-तिनका जोड़कर आशियाना बना रहे थे।
सरदारजी रो-रोकर बता रहे थे कि उसका तो जन्म भी इसी जबलपुर की धरती में हुआ है। 
भीड़ में से कई चिल्लाए--‘‘मारो साले को...झूट बोल रहा है। ये तो पक्का आतंकवादी है।’’
उसकी पगड़ी उछाल दी गई।
उसे काउण्टर से बाहर खींचा गया।
जबलपुर वैसे भी मार-धाड़, लूट-पाट जैसे मार्शल-आर्टके लिए कुख्यात है।
असग़र की समझ में न आ रहा था कि सरदारजी को काहे इस तरह से सताया जा रहा है।
तभी वहां एक नारा गूंजा-‘‘ पकड़ो मारों सालों को
                      इंदिरा मैया के हत्यारों को!’’
असग़र भाई का माथा ठनका।
अर्थात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई !
उसे तो फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ के अलावा और कोई सुध न थी।
यानी कि लॉज का नौकर जो कि नाश्ता-चाय देने आया था सच कह रहा था।
देर करना उचित न समझ, लॉज से अपना सामान लेकर वह तत्काल बाहर निकल आए।
नीचे अनियंत्रित भीड़ सक्रिय थी।
सिखों की दुकानों के शीशे तोड़े जा रहे थे। सामानों को लूटा जा रहा था। उनकी गाड़ियों में, मकानों में आग लगाई जा रही थी।
असग़र भाई ने यह भी देखा कि पुलिस के मुट्ठी भर सिपाही तमाशाई बने निष्क्रिय खड़े थे।
जल्दबाजी में एक रिक्शा पकड़कर असगर भाई एक मुस्लिम बहुल इलाके में आ गए।
अब वह सुरक्षित थे।
उनके पास पैसे ज्यादा न थे।
उन्हें परीक्षा में बैठना भी था।
पास की मस्जिद में वह गए तो वहां नमाज़ियों की बातें सुनकर दंग रह गए।
कुछ लोग पेश-इमाम के हुजरे में बैठे बीबीसी सुन रहे थे।
बातें हो रही थीं कि पाकिस्तान के सदर को इस हत्याकाण्ड की खबर उसी समय मिल गई थी, जबकि भारत में इस बात का प्रचार कुछ देर बाद हुआ।
ये भी चर्चा थी कि फसादात की आंधी शहरों से होती अब गांव-गली-कूचों तक पहुंचने जा रही है।
उन लोगों से जब असगर भाई ने अपनी परेशानी का सबब बताया तो यही सलाह मिली -‘‘बरखुरदार!  अब पढ़ाई और इम्तेहानात सब भूलकर घर की राह पकड़ लो, क्योंकि ये फ़सादात खुदा जाने कब तक चलें।’’
वह उसी दिन घर के लिए चल दिए। रास्ते भर उन्होंने देखा कि जिस प्लेटफार्म पर गाड़ी रूकी सिखों पर अत्याचार के निशानात साफ नज़र आ रहे थे।
उनके अपने नगर में भी हालात कहां ठीक  थे ?
यहां भी सिखों के जान-माल को निशाना बनाया जा रहा था।
टीवी और रेडियो में सिर्फ इंदिरा-हत्याकाण्ड और खालिस्तान आंदोलन से सम्बंधित खबरें आ रही थीं।
बहुसंख्यकों की भावनाएं इन समाचारों को सुनकर और भड़क उठती थीं।
खबरें उठतीं कि गुरूद्वारा में सिखों ने इंदिरा हत्याकाण्ड की खबर सुन कर पटाखे फोड़े और मिठाईयां बांटीं हैं।
अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था।
दंगाईयों-बलवाइयों को डेढ़-दो दिन की खुली छूट देने के बाद प्रशासन जागा और फिर उसके बाद नगर में कर्फ्यू लगाया गया।
असगर भाई ने सोचा कि यदि वह धिनौनी हरकत कहीं किसी सिरफिरे मुस्लिम ने की होती तो फिर मुसलमानों का क्या हश्र होता?




    
असगर भाई डरे हुए थे। उन्होंने सोचा कि छोटा भाई जफ़र आ जाए तो फैसला कर लिया जाएगा।
असगर भाई की समस्या मात्र इतनी है कि उनका पुश्तैनी मकान हिन्दू बहुल इलाके में है। उस मकान में अब सिर्फ अब्बा और अम्मी रहते हैं।
असगर भाई ने समर्थ होते ही अपने लिए एक नया मकान नगर के मुस्लिम बहुल इलाके इब्राहीमपुरा में बना लिया था।
जफ़र तो नौकरी कर रहा है किन्तु उसने भी कह रखा है कि भाईजान मेरे लिए भी इब्राहीमपुरा में कोई अच्छा सा प्लॉट देख रखिए।
अब दोनों भाई को मिल कर अब्बा को समझाना था कि वे काफ़िरों के बीच अब न बसें और उस पुश्तैनी मकान को औने-पौने बेचकर इब्राहीमपुर चलें आएं।
इब्राहीमपुरा मिनी-पाकिस्तानकहलाता है।
असग़र भाई को यह तो पसंद नहीं कि कोई उन्हें पाकिस्तानीकहे किन्तु इब्राहीमपुरा में आकर उन्हें वाकई सुकून हासिल हुआ था। यहां मुसलमानों की हुकूमत है। अपने ही पार्षद हैं। अपने तौर-तरीके हैं। रोज़ा-रमज़ान के दिनों में कितनी रौनक रहती है इब्राहीमपुरा में। शबे-बरात के मौके पर तो जैसे दीवाली सा माहौल बन जाता है। चांद दिखा नहीं कि हंगामा शुरू हो जाता है। तरावीहकी नमाज़ में भीड़ उमड़ पड़ती है। ईद का चांद देखने के लिए उत्सुकता और चांद दिखने के बाद जैसे पूरा इब्राहीमपुरा फिर रात भर सोता नहीं। औरतें बच्चे रात-रात भर खरीददारी करते और सुबह ईदगाह जाकर नमाज़ अदा करते। बकरीद में कुर्बानी करने में भी कोई सोचो-फ़िक्र की ज़रूरत नहीं। हर घर में तीन दिनों तक कुर्बानी चलती है। किस्म-किस्म के बकरे तैयार किए जाते हैं। वहां अब्बा के घर में कभी कुर्बानी नहीं हुई। अब्बा कुर्बानी की लागत का पैसा अनाथ आश्रम में खै़रात कर देते हैं। उनका कहना है कि मुहल्ले में कुर्बानी करने से लोगों के दिलों को दुख पहुंच सकता है। अरे, गोश्त वगैरा खरीद कर लाओ तो वह भी थैले में छुपा कर कि कोई शक न करे कि थैले में गोश्त है।
इब्राहीमपुरा में दो मस्जिदें हैं जिनमें पांच वक्त की अज़ानें गूंजती हैं तो असगर भाई को बड़ा सुकून मिलता है। यह रूहानियत भरा माहौल अब्बा के मकान में कहां है? वहां तो घण्टे-घड़ियाल की आवाज़ें, भजन-कीर्तन की सदाएं हैं और कई-कई दिनों तक चलने वाला अखण्ड पाठ का शोर! काफ़िरों के मुहल्ले में एक घर मुसलमान का।
पता नहीं कैसे अब्बा वहां इतने दिन टिके रह गए।
कैसे भी अब्बा को समझाना है कि वे उस पुश्तैनी ज़मीन का मोह छोड़ कर इब्राहीमपुरा में आ बसें।
इब्राहीमपुरा में बसने वाले ग़ैर मुसलमानों से कितना दब के रहते हैं।
यहां लोग साग-सब्जी कम खाते हैं क्योंकि सस्ते दाम में बड़े का गोश्त जो आसानी से मिल जाता है।
फ़िज़ा में सुब्हो-शाम अज़ान और दरूदो-सलात की गूंज उठती रहती है।
इब्राहीमपुरा में एक मज़ार शरीफ़ भी है। उर्स के मौके पर मजार में ग़ज़ब की रौनक होती है। मेला, मीनाबाज़ार लगता है और क़व्वाली के शानदार मुक़ाबले हुआ करते हैं।
मुहर्रम के दस दिन शहीदाने-कर्बला के ग़म में डूब जाता है इब्राहीमपुरा! अशूरे के दस दिन ढोल-ताशे बजते हैं, मातम होता है और मर्सिया-ख़्वानी होती है।
सिर्फ मियांओं की तूती बोलती है इब्राहीमपुरा में।
किसकी मज़ाल की कोई आंख दिखा सके। आंखें निकाल कर हाथ में धर दी जाएंगी।
एक से एक हिस्ट्री-शीटरहैं यहां।
अरे, लम्बू मियां का जो तीसरा बेटा है यूसुफ वह तो जाफ़रानी-ज़र्दा के डिब्बे में बम बना लेता है।
बड़ी-बड़ी राजनीतिक हस्तियांे का वरद-हस्त इलाके के आवारा नौजवानो को  मिला हुआ है। कई लड़कों का एक पैर नगर मे और एक पैर जेल में रहता है। 





    
असग़र भाई को चिन्ता में डूबा देख मुनीरा ने टीवी ऑफ़ कर दिया।
असग़र भाई ने उसे घूर के देखा--
‘‘ काहे की चिन्ता करते हैं आप...अल्लाह ने ज़िन्दगी दी है तो वही पार लगाएगा। आप के इस तरह सोचने से क्या दंगे-फ़साद बन्द हो जाएंगे ?’’
असग़र भाई ने कहा--‘‘वो बात नहीं, मैं तो अब्बा के बारे में ही सोचा करता हूं। कितने ज़िद्दी हैं वो। उनकी जड़ें काफी गहरे तक हैं। छोड़ेंगे नहीं दादा-पुरखों की जगह...भले से जान चली जाए।’’
‘‘ कुछ नहीं होगा उन्हें, आप खामखां फ़िक्र किया करते हैं। सब ठीक हो जाएगा।’’
‘‘खाक ठीक हो जाएगा। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करूं ? बुढ़ऊ सठिया गए हैं और कुछ नहीं । सोचते हैं कि जो लोग उन्हे सलाम किया करते हैं मौका आने पर उन्हें बख़्श देंगे। ऐसा हुआ है कभी। अम्मी का मन नहीं करता वहां लेकिन अब्बा के डर से वह चुप मारे पड़ी रहती हैं। कह रही थीं कि कैसे भी अब्बा को मना लो असगर..!’’
मुनीरा क्या बोलती। वह चुप ही रही।
असग़र भाई स्मृति के सागर में डूब-उतरा रहे थे।
अम्मी बताया करती थीं कि सन इकहत्तर की लड़ाई में ऐसा माहौल बना कि लगा उजाड़ फेंकेंगे लोग। आमने-सामने कहा करते थे लोग कि हमारे मुहल्ले में तो एक ही पाकिस्तानी घर है। जब चाहेंगे चींटी की तरह मसल देंगे।
‘‘चींटी की तरह...हुंह..’’ असग़र भाई बुदबुदाए।
कितना घबरा गई थीं तब अम्मी। चार बच्चों को सीने से चिपकाए रखा करती थीं।
अम्मी घबराती भी क्यों न, अरे इसी सियासत ने तो उनके एक भाई की विभाजन के समय जान ले ली थी।
‘‘ जानती हो मुनीरा! पिछले माह जब मैं अब्बा के घर गया तो वहां देखा कि बाहर दरवाजे़ पर स्वास्तिक का निशान बना है। बाबरी मस्जिद तोड़ने के बाद काफ़िरों का मन बढ़ गया है।  मैंने जब अब्बा से इस बारे में बात की तो वह ज़ोर से हंसे और कहे कि ये सब लड़कोें की शैतानी है। ऐसी-वैसी कोई बात नहीं। अब तुम्हीं बताओ कि मैं चिन्ता क्यों न करूं ?’’
‘‘अब्बा तो हंसते-हंसते ये भी बताए कि जब एंथ्रेक्सका हल्ला मचा था तब चंद स्कूली बच्चों ने चाक मिट्टी को लिफाफे में भरकर प्रिंसीपल के पास भेज दिया था। बड़ा बावेला मचा था। अब्बा हर बात को नार्मलसमझते हैं।’’
‘‘अब्बा तो वहां के सबसे पुराने वाशिन्दों में से हैं। कितनी इज़्ज़त करते हैं लोग उनकी। सुबह-शाम अपने बच्चों को दम-करवानेसेठाइनें आया करती हैं। अबा के साथ कहीं जाओ तो उन्हें कितने ग़ैर लोग सलाम-आदाब किया करते हैं। उन्हेें तो सभी जानते-मानते हैं।’’ मुनीरा ने अब्बा का पक्ष लिया।
‘‘खाक जानते-मानते हैं। आज नौजवान तो उन्हें जानते भी नहीं और पुराने लोगों की आजकल चलती कहां   है तुम भी अच्छा बताती हो।  सन् चौरासी के दंगे में कहां थे पुराने लोग? सब मन का बहाकावा है। भीड़ के हाथ में जब हुकूमत आती है तब कानून गूंगा-बहरा हो जाता  है।’’
मुनीरा को लगा कि वह बहस में टिक नहीं पाएगी इसलिए उसने विषय-परिवर्तन करना चाहा--
‘‘ छोटू की मैथ्समें ट्यूशन लगानी होगी। आप उसे लेकर बैठते नहीं और मैथ्समेरे बस का नहीं।’’
‘‘ वह सब तुम सोचो। जिससे पढ़वाना हो पढ़वाओ। मेरा दिमाग ठीक नहीं। जफ़र आ जाए तो अब्बा  से आर-पार की बात कर ही लेनी है।’’
तभी फोन की घण्टी घनघनाई।
मुनीरा फोन की तरफ झपटी। वह फोन घनघनाने पर इसी तरह हड़बड़ा जाती है।
फोन जफ़र का था, मुनीरा ने रिसीवर असग़र भाई की तरफ़ बढ़ा दिया।
असग़र भाई रिसीवर ले लिया--
‘‘ वा अलैकुम अस्स्लाम! जफ़र...! कहां से ? तुम आए नहीं। यहां मैं तुम्हारा इनतेज़ार कर रहा हूं ।’’
.......
‘‘क्या अब्बा के पास बैठे हो। ग़ज़ब करते हो यार! अच्छा ऐसा करो, मेरी बात अब्बा से करा दो।’’
असगर भाई मुनीरा की तरफ मुख़ातिब होकर बोले--‘‘जफ़र भाई का फोन है। यहां न आकर वह सीधे अब्बा के पास चला गया है।’’
फिर फोन पर कहा-‘‘सलाम वालैकुम अब्बा... मैं आप की एक न सुनूंगा। आप छोड़िए वह सब और जफ़र को लेकर सीधे मेरे पास चले आइए।’’
पता नहीं उधर से क्या जवाब मिला कि असग़र भाई ने रिसीवर पटक दिया ।
मुनीरा चिड़चिड़ा उठी--‘‘इसीलिए कहती हूं कि आप से ज्यादा होशियार तो जफ़र भाई हैं। आप खामखां टेंशनमें आ जाते है। डॉक्टर ने वैसे भी आपको फालतू की चिन्ता से मना किया है।’’
बस इतना सुनना था कि असग़र भाई हत्थे से उखड़ गए।
‘‘तुम्हारी इसी सोच पर मेरी --- सुलग जाती है। मेरे वालिद तुम्हारे लिए फालतू की चिन्ताबन गए। अपने अब्बा के बारे मैं चिन्ता नहीं करूंगा तो क्या तुम्हारा भाई करेगा ?’’
ऐसे मौकों पर मुनीरा अगर चुप न रहे तो बात काफ़ी जाए।
अपने मायके वालों  के बारे में ताने मुनीरा क्या कोई भी औरत बर्दाश्त नहीं कर पाती है, किन्तु जाने क्यों मुनीरा ने आज जवाब न दिया।
असग़र भाई ने छेड़ा तो था किन्तु मुनीरा को चुप पाकर उनका माथा ठनका, इसलिए थकी-हारी आवाज़ में वह बोले--‘‘लगता है कि अब्बा नहीं मानेंगे, जब तक जिएंगे वहीं रहेंगे अब्बा...!’’







[लेखक-परिचय:
जन्म: 9 अक्टूबर, 1964 को नैला जांजगीर, छत्तीसगढ़ में
शिक्षा: डिप्लोमा इन माइनिंग इंजीनियरिंग
सृजन: कहानियों और कविताओं का प्रकाशन देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में । 
कुंजड़-कसाई, ग्यारह सितम्बर के बाद,चहल्लुम (कहानी संग्रह), और थोड़ी सी शर्म दे मौला! (कविता संग्रह), पहचान, दो पाटन के बीच (उपन्यास) इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
सम्प्रति: बहेराबांध भूमिगत खदान में सहायक खान प्रबंधक साथ ही साहित्यिक पत्रिका संकेतका सम्पादन । 
संपर्क: anwarsuhail_09@yahoo.co.in ]
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शनिवार, 21 अगस्त 2010

लालगढ़ से संसद तक लाल हुईं ममता





















अमलेन्दु उपाध्याय की क़लम से


माओवादी ममता !

पश्चिम बंगाल के पश्चिमी मिदनापुर ज़िले में, माओवादियों के प्रभाव वाले इलाक़े लालगढ़ में रैली के दौरान ममता बनर्जी ने पुलिस मुठभेड़ में मारे गए नक्सल प्रवक्ता आज़ाद की मौत पर सवाल उठाए थे. जिसको लेकर टिप्पणी को लेकर संसद के दोनों सदनों में पिछले दिनों जमकर हंगामा हुआ. एक दूसरे के धुर विरोधी  भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दल  यहाँ एकजुट नज़र आए. लेकिन दीदी जिन्हें अपना हमराज़ हमदम समझ रही थीं उनका कहना है की दीदी भी व्यवस्था का ही एक हिस्सा हैं.भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के पोलित ब्यूरो के सदस्य कोटेश्वर राव यानी किशनजी ने विपक्षी नेताओं के उस आरोप को ठुकरा दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि ममता बनर्जी की लालगढ़ में आयोजित रैली को माओवादियों का समर्थन हासिल था.

इस दहर में सब कुछ है पर इन्साफ नहीं है।



इन्साफ हो किस तरह कि दिल साफ नहीं है।



राजनीति के विषय में अक्सर कई कहावतें सुनने को मिलती हैं। जैसे राजनीति में दो और दो चार नहीं होते या राजनीति में कुछ सही गलत नहीं होता या फिर राजनीति और अवसरवादिता एक दूसरे के पर्याय हैं। राजनीति के इन मुहावरों और सिद्धान्तहीन अवसरवादी राजनीति की ताजा मिसाल रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने हाल ही में पेश की है। एक समय में अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की आंखों का तारा रहीं और हिन्दू हृदय सम्राट नरेन्द्र मोदी के कारनामों को समर्थन देने वाली ममता दीदी अब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पार्ट-2 में प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह और संप्रग मुखिया सोनिया गांधी के जिगर का टुकड़ा हैं।



बीती नौ अगस्त को पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में एक रैली में ममता दीदी का प्यार गृह मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दुश्मन न. एक माओवादियों के लिए उमड़ पड़ा। ममता ने लालगढ़ में ऐलान किया कि माओवादी नेता आजाद का फर्जी एनकाउन्टर किया गया है। बात सही भी हो सकती है क्योंकि ममता केन्द्र सरकार में महत्वपूर्ण पद पर आसीन हैं और सरकार के अन्दर जो चलता है उसकी पल पल की जानकारी उन्हें रहती है। क्योंकि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है और लोग अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस की प्रदेश सरकारें अपने हाईकमान के इशारे पर ही चलती हैं। लिहाजा जब दीदी कह रही हैं कि आजाद का फर्जी एन्काउन्टर हुआ, तो यकीन न करने का भला कौन सा कारण हो सकता है?



लेकिन सवाल यह है कि दीदी जो बात आज सरेआम कह रही हैं वह उन्होंने सरकार के अन्दर क्यों नहीं की? दूसरा जब आजाद का फर्जी एन्काउन्टर करने का षड्यन्त्र रचा जा रहा था उस समय दीदी ने आजाद को बचाने का प्रयास क्यों नहीं किया? इसलिए ममता को अपने गिरेबान में भी झांक कर देखना चाहिए कि आजाद की हत्या के लिए जितने दोषी मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और चिदंबरम हैं, ममता उनसे कम गुनाहगार नहीं हैं। क्योंकि मनमोहन सरकार को बैसाखी अब ममता दीदी की लगी हैं उनके दुश्मन माकपाइयों की नहीं। इसलिए अगर आजाद का फर्जी एन्काउन्टर हुआ है, जैसा कि दीदी का आरोप है और अपना भी मानना है, तो आजाद की हत्या के जुर्म से ममता भी बरी नहीं हो सकती हैं।



लोगों को याद होगा कि जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसा हुआ था उस समय ममता बनर्जी ही वह पहली शख्स थीं जिन्होंने आरोप लगाया था कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को विस्फोट से उड़ाया गया है और उन्होंने माओवादियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया था। जबकि गृह मंत्रालय ने साफ कहा था कि विस्फोट के कोई सुबूत नहीं है। यानी जब जरूरत होगी तब ममता माओवादियों को हत्यारा भी कहेंगी और जब जरूरत होगी तब उनके समर्थन से रैली भी करेंगी। यह राजनीति की बेशर्म अवसरवादिता का जीता जागता उदाहरण है।



ममता बनर्जी का यह कोई नया कारनामा नहीं है। वह इससे पहले भी ऊट-पटांग हरकतें करती रही हैं। याद है न समाजवादी पार्टी के तत्कालीन महासचिव अमर सिंह के साथ दिल्ली के जामियानगर में ममता गईं थीं और उन्होंने बटला हाउस एन्काउन्टर को फर्जी करार दिया था और मौके पर ही कुछ पत्रकारों की पिटाई भी करवा दी थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में वह बटला हाउस फर्जी मुठभेड़ के लिए जिम्मेदार कांग्रेस के साथ ही मैदान में उतरीं।



मीडिया में जो खबरें आई हैं उनके अनुसार ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसे के मुख्य आरोपियों में से कई ममता की रैली की कमान संभाल रहे थे। इतना ही नहीं ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की दुर्घटना के लिए जिस पीसीपीए को दोशी ठहराया जा रहा है, ममता की रैली उसी पीसीपीए के बैनर तले हुई। ममता के बहाने सवाल तो गृह मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और माओवादी नेता किशन जी से भी हो सकते हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब चिदंबरम माओवादियों का समर्थन करने वाले बुद्धिजीवियों को पुलिसिया भाषा में हड़का रहे थे। अब चिदम्बरम साहब माओवादियों की खुलकर हिमायत करने वाली ममता बनर्जी के खिलाफ क्या कदम उठाएंगे? नक्सलवाद को देश का दुश्मन न. एक करार देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या ममता बनर्जी को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने और उनके माओवादियों से संबंधों की जांच कराने की हिम्मत जुटा पाएंगे? लालगढ़ दौरे पर जाकर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को कानून व्यवस्था का उपदेश देने वाले गृह मंत्री क्या अपनी मंत्रिमंडलीय सहयोगी को भी कुछ ज्ञान देंने की जहमत उठाएंगे?



जो अहम सवाल है वह माओवादी नेता किशन जी और पूरे माओवादी नेतृत्व से है। माओवादी लगातार माकपा और भाकपा को इसलिए कोसते रहे हैं कि इन दोनों दलों ने संसदीय जनतंत्र का रास्ता अपना लिया है। जहां तक माकपा-भाकपा और माओवादियों के अन्तिम लक्ष्य का सवाल है, दोनों के लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं है, झगड़ा लक्ष्य को पाने के रास्ते का है। क्या किशन जी यह बता सकते हैं कि नरेन्द्र मोदी का समर्थन करने वाली, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की जिगर का टुकड़ा रहीं ममता बनर्जी का समर्थन करने से देश में साम्यवाद आ जाएगा? क्या जिस संसदीय जनतंत्र को माओवादी लगातार कोसते रहे हैं, उनका यह कदम उसी भ्रष्ट व्यवस्था को पोषित करने वाला नहीं है? क्या यही नई जनवादी क्रांति है? क्या किशन जी यह गारंटी दे सकते हैं कि माकपा को उखाड़ कर और तृणमूल कांग्रेस को सत्ता में लाकर माओवादियों का लक्ष्य पूरा हो जाएगा? अब यह तय करना माओवादी नेतृत्व का काम है कि क्या वह ममता बनर्जी के साथ खड़े होकर देश भर में अपने समर्थकों को खोना चाहेंगे?



नौ अगस्त की लालगढ़ रैली ने सवाल तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटकर के लिए भी खड़े किए हैं। अभी तक दोनों ही लोग स्वयं को सामाजिक कार्यकर्ता घोषित करते आए हैं। लेकिन ममता बनर्जी के साथ उनका मंच साझा करना उनकी नीयत पर भी सवाल खड़ा करता है। एक आरोप अक्सर लगता रहा है कि देश के अन्दर कम्युनिस्ट पार्टियों के खिलाफ पूंजीवादी ताकतें पिछले दरवाजे से काम कर रही हैं और अब माओवादी भी जाने अनजाने इन ताकतों के हाथ का खिलौना बन रहे हैं। यह आरोप ममता की लालगढ़ रैली के बाद अब काफी हद तक सही लगने लगा है। अगर स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटकर, ममता और माओवादी एक साझे मंच पर आते हैं तो क्या कहा जाएगा?



ममता बनर्जी का बयान सिर्फ राजनीतिक अवसरवादिता की ही बानगी नहीं है, बल्कि यह मौजूदा मनमोहन सरकार के ऊपर कई सवालिया निशान लगाती है। ममता रेल मंत्री हैं और किसी भी मंत्री का बयान पूरे मंत्रिमंडल का बयान समझा जाता है। यूपीए-2 के ही कई मंत्रियों को मंत्रिमंडल की भावना के खिलाफ जाकर बयानबाजी करने के कारण सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी है। क्या प्रधानमंत्री ममता से भी माफी मंगवाएंगे?





[ लेखक-परिचय:  
जन्म : 18,मई १९७० को बदायूं  में 
शिक्षा: एक सभ्य सुसंस्कृत और शैक्षणिक परिवार से होने के बावजूद अमलेंदु जी कहते हैं कि  लेकिन मैं स्वयं शिक्षित नहीं [हँसना मना है !]
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन साथ ही एक नये समाचार पोर्टल       
 http://hastakshep.com/   की तैयारी में व्यस्त
संपर्क: amalendu.upadhyay@gmail.com ]

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