नक्सलियों के नाम पर आदिवासियों और दलितों को उनकी ज़मीन से बेदखल करने के लिए सरकार ने कमर कस ली है और इसके लिए बजाप्ता सेना की मदद ली जा रही है.इसे ग्रीन हंट नाम दिया गया है.अंग्रेज़ी की एक लेखिका और इधर एक्टिविस्ट के नाते ज़्यादा चर्चित अरुंधती राय की एक पत्रिका में छपी रपट को पढने के बाद वेब पत्रिका रविवार में पिछले वर्ष की शुरुआत में प्रकाशित छत्तीसगढ़ के जुझारू-प्रतिबद्ध पत्रकार साथी आलोक प्रकाश पुतुल की इस आँखिन-देखी रिपोर्ताज को पढना सकते में डाल देता है.लेकिन आज स्थिति जितनी भयावह दिखती है कल इस से किसी भी मायने में कम नहीं थी खौफनाक!
लेकिन सवाल अब भी ज्यों का त्यों है कि आखिर इन मासूम आदिवासियों की गलती क्या है?
साहित्य में दखल रखने वाले जैसा वह खुद को मानते हैं छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन का यह कहना कि सब झूठ है तो सच क्या है?
साहित्य में दखल रखने वाले जैसा वह खुद को मानते हैं छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन का यह कहना कि सब झूठ है तो सच क्या है?
और सच यह नहीं कि बेक़सूर आदिवासियों को पूँजी के खेल में लाश और हथियार बनाया जा रहा है.
यहाँ हम उस लम्बी रपट का सिर्फ कुछ अंश दे रहे हैं उनके आभार सहित जिसमें उस आश्रम और उसके संचालक नारायण राव का ज़िक्र है जो इसी महीने आश्रम के बच्चों को बेचने के आरोप में अब जेल में है..माडरेटर
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अथः बस्तर वध कथा
यह 14वीं शताब्दी की बात है.
बस्तर के राजा पुरुषोत्तम देव तब पुरी की तीर्थयात्रा पर गये थे. जाहिर है, राजा के साथ आदिवासियों का एक बड़ा लाव लश्कर भी था. लेकिन जब महाराजा लौटे तो उनके साथ गये आदिवासी बदल चुके थे. पुरी के दर्शन करने वाले आदिवासियों को महाराजा ने पवित्र घोषित कर दिया था और अब ये सारे आदिवासी हिंदू थे. आदिवासी देवी-देवताओं के बजाय भगवान जगन्नाथ, शुभद्रा और बलभद्र उनके अराध्य देव थे.
आश्चर्य नहीं है कि बस्तर के बेहद लोकप्रिय दशहरा पर्व में राम-रावण का कहीं अता-पता नहीं होता और दशहरा के लिये पुरी की ही तर्ज पर बस्तर में भी रथयात्रा निकाली जाती है.
ऐतिहासिक संदर्भों को देखें तो पता चलता है कि आदिवासियों के हिंदूकरण की यह पहली शुरुवात थी. पुरुषोत्तम देव के बाद आदिवासियों को हिंदू बनाने की सफल-असफल कोशिशें चलती रहीं. 600 साल बाद चपका में बाबा बिहारी दास ने बड़े पैमाने पर आदिवासियों को कंठीमाला दे कर पर हिंदू बनाने का सिलसिला शुरु किया. संदर्भों को देखें तो बस्तर में 7-7 रुपये लेकर आदिवासियों को जनेउ बांटे गये और उन्हें हिंदू यहां तक की ब्राह्मण भी बनाया गया. फिर संघ परिवार और गायत्री परिवार ने इन इलाकों में “हिंदू अलख” जगाने की शुरुआत की.
14वीं शताब्दी में शुरु हुआ राजा पुरुषोत्तम देव का धर्मांतरण 21वीं शताब्दी में मर्यादा पुरुषोत्तम राम तक पहुंचता है. आप चाहें तो इसकी गवाही माड़वी हिड़मा से ले सकते हैं. लेकिन अब उसका नाम अब माड़वी हिड़मा नहीं है. वह कहता है- “ मेरा नाम नितिन है.”
बस्तर के आखरी छोर में बसा है कोंटा और इसी कोंटा के बटेर गांव का है माड़वी हिड़मा. 14 साल का यह मुरिया आदिवासी जब तक आपके सामने मुंह न खोले, तब तक आप यही समझेंगे कि यह किसी ब्राह्मण परिवार का लड़का है. सुबह पांच बजे उठना और उठते ही नहा-धो कर महाआरती, फिर घंटे भर तक योगा, फिर नाश्ता और थोड़ी पढ़ाई के बाद फिर शिव, लक्ष्मी, दुर्गा की पूजा. शाम को भी घंटे भर तक आरती, भजन और पूजा-पाठ.
माड़वी हिड़मा को बताया गया है कि हिंदू इस दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म है और अब हिंदू रीति रिवाज उसके जीवन के अभिन्न अंग बन गये हैं. उसे सारे हिंदू देवी-देवताओं के नाम पता हैं, उनकी प्रार्थनायें याद हैं, आरती कैसे करनी है और आदिवासी कैसे सभ्य होंगे. और यह भी कि मोक्ष कैसे मिलेगा. यह सब कुछ.
आज से दो साल पहले तक वह यह सब नहीं जानता था. बटेर और कोंटा तक उसकी दुनिया थी और गोंडी उसकी भाषा. फिर रातों रात सब कुछ बदल गया.
हिड़मा बताता है कि दो साल पहले नक्सलियों ने उसके पिता और भाई की हत्या कर दी. इसके बाद सलवा जुड़ूम चलाने वाले उसकी मां और बड़े भाई के साथ उसे भी कोंटा में चलने वाले सरकारी कैंप में ले आये. तब से वह वहीं था.
इस बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सेवा भारती, गायत्री शक्ति पीठ, गुरुकुल जैसे संगठनों ने राज्य की भाजपा सरकार के साथ मिल कर इन आदिवासी बच्चों को गोद लेना शुरु किया. हिड़मा को भी गुरुकुल आश्रम ने गोद लिया और पिछले 2 सालों से वह रायपुर गुरुकुल आश्रम में रह रहा है.
सबसे पहले हिड़मा का नाम बदला, फिर रोज की दिनचर्या, फिर वह सब कुछ, जिसके कारण उसे आदिवासी कहा जा सके. गुरुकुल में उसे हिंदूत्व की दीक्षा मिली और अब वह कट्टर हिंदू है.
मुरलीगुड़ा गांव का नामपोड़ियम लच्चू अब अपने गांव में नहीं रहता. सरकार द्वारा चलाये जाने वाले कैंप में भी नहीं. हां, कोंटा बेस कैंप में आप चाहें तो लच्चू के भाई से जरुर मिल सकते हैं. हालांकि लच्चू के भाई को नहीं पता कि उसका छोटा भाई कहां है. कोई आश्रम वाले उसे ले गये, इतनी जानकारी तो उसके पास है लेकिन कहां, यह उसे नहीं पता. पता चले भी तो कैसे ? 11 साल का नामपोड़ियम लच्चू का तो अब नाम भी बदल गया. अब वह आकाश है.
इस बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सेवा भारती, गायत्री शक्ति पीठ, गुरुकुल जैसे संगठनों ने राज्य की भाजपा सरकार के साथ मिल कर इन आदिवासी बच्चों को गोद लेना शुरु किया. हिड़मा को भी गुरुकुल आश्रम ने गोद लिया और पिछले 2 सालों से वह रायपुर गुरुकुल आश्रम में रह रहा है.
सबसे पहले हिड़मा का नाम बदला, फिर रोज की दिनचर्या, फिर वह सब कुछ, जिसके कारण उसे आदिवासी कहा जा सके. गुरुकुल में उसे हिंदूत्व की दीक्षा मिली और अब वह कट्टर हिंदू है.
मुरलीगुड़ा गांव का नामपोड़ियम लच्चू अब अपने गांव में नहीं रहता. सरकार द्वारा चलाये जाने वाले कैंप में भी नहीं. हां, कोंटा बेस कैंप में आप चाहें तो लच्चू के भाई से जरुर मिल सकते हैं. हालांकि लच्चू के भाई को नहीं पता कि उसका छोटा भाई कहां है. कोई आश्रम वाले उसे ले गये, इतनी जानकारी तो उसके पास है लेकिन कहां, यह उसे नहीं पता. पता चले भी तो कैसे ? 11 साल का नामपोड़ियम लच्चू का तो अब नाम भी बदल गया. अब वह आकाश है.
छत्तीसगढ़ जन कल्याण संघ नामक एक स्वयंसेवी संस्था के गुरुकुल में रहने वाला लच्चु नामपोड़ियम बड़ा हो कर क्या बनना चाहता है, यह तो उसे नहीं पता लेकिन धार्मिक कार्यों में उसकी बहुत रुचि है. आदिवासी देवी-देवताओं को पूजने वाले लच्चु का भाई चौंक जाएगा, अगर उसे पता चले कि लच्चु हनुमान जी और मर्यादा पुरुषोत्तम राम का भक्त है. उसका दोस्त रवि भी उसके ही जैसा है.
चिंता कोंटा के पंडरुम यानी इस गुरुकल के रवि ने अपनी पढ़ाई छठवीं तक बस्तर के कोंटा में की. पिता बीमार हो कर मर गये और जब सलवा जुड़ूम चला कर उनका गांव खाली कराया गया तो वह अपनी मां के साथ कोंटा सरकारी शिविर में ले आया गया. यहां उसकी मां कहीं और चली गई और पंडरुम अकेला हो गया.
पंडरुम को अपने स्कूल के सारे साथी याद हैं. तालाब में नहाना और दिन-दिन भर दोस्तों के साथ मस्ती. जंगल-जंगल घुमना और तरह-तरह की आवाज निकाल पर जंगल के जानवर और पंक्षियों को मूर्ख बनाना. और हां, सल्फी के पेड़ पर सरपट चढ़ जाना भी. कई बार जब रात को उसे अपने गांव और घर की याद आती है तो वह गुरुकुल के महाराज द्वारा बताये गये भजन गुनगुनाने लगता है और अपने मन को धार्मिक तौर-तरीके से समझाने की कोशिश करता है.
चिंता कोंटा के पंडरुम यानी इस गुरुकल के रवि ने अपनी पढ़ाई छठवीं तक बस्तर के कोंटा में की. पिता बीमार हो कर मर गये और जब सलवा जुड़ूम चला कर उनका गांव खाली कराया गया तो वह अपनी मां के साथ कोंटा सरकारी शिविर में ले आया गया. यहां उसकी मां कहीं और चली गई और पंडरुम अकेला हो गया.
पंडरुम को अपने स्कूल के सारे साथी याद हैं. तालाब में नहाना और दिन-दिन भर दोस्तों के साथ मस्ती. जंगल-जंगल घुमना और तरह-तरह की आवाज निकाल पर जंगल के जानवर और पंक्षियों को मूर्ख बनाना. और हां, सल्फी के पेड़ पर सरपट चढ़ जाना भी. कई बार जब रात को उसे अपने गांव और घर की याद आती है तो वह गुरुकुल के महाराज द्वारा बताये गये भजन गुनगुनाने लगता है और अपने मन को धार्मिक तौर-तरीके से समझाने की कोशिश करता है.
इस आश्रम के संचालक यानी गुरु महाराज नारायण राव एक कॉलेज में लैब टेक्नीशियन हैं. वे आश्रम में नहीं रहते क्योंकि आश्रम राजधानी रायपुर से दूर जंगल वाले इलाके में है. राव कहते हैं-“ हम सरकार और जन सहायता से यह आश्रम चला रहे हैं और हम चाहते हैं कि बच्चों में नैतिकता आये, वे धार्मिक भाव से ओतप्रोत रहें.”
नक्सलियों से प्रभावित 25 आदिवासी बच्चे इस गुरुकुल में रखे गये हैं और उनकी परवरिश का जिम्मा अब गुरुकुल पर है. नारायण राव के अनुसार उन्हें गुरुकुल चलाने के लिए राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह से आर्थिक सहायता मिली थी और दूसरे सामाजिक लोग भी अब दान देने लगे है. अब श्री राव इस गुरुकुल को हिंदू आदर्श का केंद्र बनाना चाहते हैं. उड़ीसा के इलाकों में भी इस तरह के गुरुकुल खेलने की तैयारी चल रही है.
नारायण राव आश्रम की खाली जमीन की ओर इशारा करते हुए बताते हैं कि यहां मोक्ष भवन बनाया जायेगा. इसके अलावा नाग-नागिन का एक मंदिर अलग से शिवलिंग के साथ बनाने की योजना है. एक ओर रुद्राक्ष के बाग, दूसरी ओर दुनिया भर में पाई जाने वाली पवित्र तुलसी के पौधों की बगिया, फिर गौ परिक्रमा...फिर.
अपने हाथ को पीछे बांध कर जमीन की ओर देखते हुए राव दार्शनिक अंदाज में कहते हैं-“हम संस्कारहीन आदिवासी बच्चों को संस्कारवान बनाना चाहते हैं. ”
और कट्टर हिंदू भी ?
राव कहते हैं-“ आदिवासी तो हिंदू ही हैं. यह तो हम शहरी लोगों का भ्रम है कि उनकी अपनी धार्मिक परंपरा या मान्यता है. वह आपसे-हमसे ज्यादा हिंदू हैं.”
मध्य भारत के आदिवासी समाज पर पिछले 50 सालों से काम कर रहे निरंजन महावर कहते हैं- “ छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में कई सालों से आदिवासियों पर हिंदू रीति रिवाज थोपने का काम चल रहा है. और अब सलवा जुड़ूम शुरु होने के बाद इन बच्चों को सरकारी संरक्षण में संघ संचालित या संघ समर्थक संस्थाओं में डाल कर आदिवासी संस्कृति और परंपरा में हिंदू घुसपैठ को और तगड़ा बनाया जा रहा है.”
जगदलपुर में हिंदी के एक पत्रकार आंकड़ों के साथ बताते हैं कि जिस बस्तर में 80 फिसदी आबादी आदिवासियों की थी, वहां अब जनगणना के आंकड़े बदल रहे हैं और अब आंकड़ों में भी हिंदू जनसंख्या बढ़ रही है.
जाहिर है, अपनी आदिवासी पहचान खो चुके नितिन, रवि और आकाश आने वाले दिनों में इसी जनसंख्या में शुमार होंगे और उनकी आदिवासी संस्कृति और परंपरा केवल स्मृतियों का हिस्सा होगी. जैसे अब बस्तर है, उनके गांव है, घर है, सल्फी के पेड़ हैं.
[लेखक-परिचय : पिछले 20 सालों से पत्रकारिता के पेशे में। ग्रामीण पत्रकारिता और नक्सल आंदोलन में कुछ शोधपरक काम. कविताई कभी-कभार. ज्यादातर छद्म नामों से कवितायेँ प्रकाशित .
कुछ पत्रिकाओं, अखबारों, संदर्भ ग्रंथों का संपादन,देशबंधु ,अक्षरपर्व और सन्दर्भ छत्तीसगढ़ आदि . वृत्तचित्रों में भी सक्रिय. बीबीसी समेत कई देशी-विदेशी मीडिया संस्थानों के लिए कार्य. कभी-कभी विश्वविद्यालयों में अध्यापन. कुछ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान, पुरस्कार और फेलोशीप.
सम्प्रतिः वेब पत्रिका रविवार का संपादन.
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9 comments: on "बस्तर में भगवा जुडूम"
dil dahla dene waali report hai.
masoon aadiwaasiyon kee himayat ke liye haatj jab uth te hain to sirf apne swaarth k liye kyon.
वाकई में दिल दहला देने वाली रिपोर्ट..
तथ्यों को मोल्ड कर प्रस्तुत करने का एक शानदार नमूना..
alok sahab ne bahut hi bebaki k saath apni bat rakhi hai. aur shahroz bhai aapka bhi shukriya achchi cheez padhwane k liye
kya bastar se ye bechaare gareeb log bhaag jaayenge.
kya mumkin hai aisa.
gareebee hataye sarkaar gareeb nahin baat to tab hai.
@indian citizen
aap aajkal apne chashme se hi kyon dekhte hain jise parivar ne aapko de rakha hai.
jo kam kal tak missionariyon par tah kya aaj doosre log aisa nahin kar rahe hain.
ek shandar bebak report, jiske liye alok jee jane jate hain
जुझारू-प्रतिबद्ध पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल की इस आँखिन-देखी रिपोर्ताज को पढना सकते में डाल देता है.लेकिन आज स्थिति जितनी भयावह दिखती है कल इस से किसी भी मायने में कम नहीं थी खौफनाक!
लेकिन सवाल अब भी ज्यों का त्यों है कि आखिर इन मासूम आदिवासियों की गलती क्या है?
अरुंधति राय की रिपोर्ट के बाद इस रिपोर्ट ने भी तल्ख हकीकत बयान की है। शहरोज का शुक्रगुजार हूं जिनकी वजह से मैं यह लेख पढ़ सका। बस्तर के आदिवासियों पर पहले भी काफी कुछ लिखा जा चुका है लेकिन इस रिपोर्ट में तमाम सच्चाइयां सामने से दिखती हैं।
aisi kai sachaiyan hain jo khoobsurat prde ke peechhe chhipi rehti hain...zaroorat hai unko bahar laane ki...aapka shukriya ki aapne ye dardnaak report humse baanti
saathiyo!!
आप बेहतर लिख रहे/रहीं हैं .आपकी हर पोस्ट यह निशानदेही करती है कि आप एक जागरूक और प्रतिबद्ध रचनाकार हैं जिसे रोज़ रोज़ क्षरित होती इंसानियत उद्वेलित कर देती है.वरना ब्लॉग-जगत में आज हर कहीं फ़ासीवाद परवरिश पाता दिखाई देता है.
हम साथी दिनों से ऐसे अग्रीग्रटर की तलाश में थे.जहां सिर्फ हमख्याल और हमज़बाँ लोग शामिल हों.तो आज यह मंच बन गया.इसका पता है http://hamzabaan.feedcluster.com/
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- अल्लामा जमील मज़हरी