बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

गुंजेश के मार्फ़त छाले की कथा.......




बीसवीं सदी की कहानियों का कई खंडों में संचयन करने के कारण चर्चित हुए, महेश दर्पण बहुत ही सुघड़ कथाकार भी हैं.गुन्जेश की कहानी पढ़ते हुए मुझे अनायास ही उनकी याद आ गयी.उनके कथा-तत्त्व भी कुछ इसी तरह के होते हैं.बिलकुल जाने हुए.लेकिन क्या ये कहानी भी हो सकती है , अक्सर लोग नज़र अंदाज़ कर जाते हैं.ऐसे कथा-लेखक नितांत साधारण लगने वाली असाधारण कहानी लिख रहे हैं.कमलेश्वर जी की कल्पना परिकथा के बीते सितम्बर-अक्टूबर अंक में गुन्जेश की ये कहानी शाया हुई थी.इस युवतर रचनाकार में असीम संभावनाएं हैं, ये कहानी तस्दीक करती है.सबसे खूबसूरत पहलू , शैली की सरलता और ज़बान की सहजता है .कोई बनाओ-सिंगार नहीं.हम जैसा बोलते हैं, उसी अंदाज़ में छाले का क़िस्सा भी सुनते जाते हैं।

कहानी पाठ के लिए कृपा कर क्लिक ज़रूर करें.









इस युवा साथी ने अंतरजाल पर भी इक घोंसला बनाया था, जहां वो गाहे-बगाहे अपनी चिंता और सरोकार के साथ कलम की जुगलबंदी किया करते थे.लेकिन उनका ये आशियाना अब खुद इनकी पहुँच से बाहर हो गया है.आप का प्रवेश वर्जित नहीं है.दर असल वो अपना कूटशब्द ही भूल गए .भूलने वाली बड़ों की बिमारी इन्हें भी होनी लाहक़ थी.खैर, इनका नया ठिकाना अभी-अभी बना है। यहाँ आप भी जाएँ.




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सोमवार, 5 जनवरी 2009

कविता को लेकर फ़िरदौस भूल जाना चाहता है सुधांशु को.......


कविता का नया प्रेमी : सुधांशु फ़िरदौस


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कभी आपने कैलाश वाजपई की कविताओं को पढ़ा है.रहीम, खुसरो , जायसी और नानक के दोहों के साथ उतरे-डूबे हैं.यदि ऐसी पृष्ठ भूमि में मुक्तिबोध और निराला के दिग्दर्शन हो जाएँ तो है न कमाल! बंधुओं मैं उस कविता की बात कर रहा हूँ जिसे भाई सुधांशु फिरदौस ने अपनी ज़िंदगी बना ली है.अजब किस्म की बेचैनी मुझे उनके यहाँ मिलती है. उन्हें किसी तरह का कोई गुमान नहीं है.उनका बस विश्वास है बात बोलेगी हम नहीं । २ जनवरी १९८५ को निराला के समकालीनों में से वाहिद दुर्लभ रहे जानकी वल्लभ शास्त्री के शहर मुजफ्फरपुर में जन्मे सुधांशु ने बी.एच.यु. से गणित में स्नातक किया और फिलवक्त जामिया मिल्लिया इस्लामिया से एम्-एस-सी(टेक)कर रहे हैं.ख़ुद के बारे में ये युवा कवि कहता है:
.... कुछ ऐसा नहीं कि छुपाया जाये कुछ ऐसा भी खास नहीं कि बताया जाये...मेरे मित्र कहते है बोलने के प्रवाह मे बहुत ज्यादा बोल जाता हूँ और जब चुप होता हूँ तो उतना ही मौन.... आजकल, ज्ञानेन्द्रपति और तालस्ताय को पढ़ रहा हूँ...

अब आप उनकी ताज़ा रचना से रूबरू हों:
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चाह्ता
भूल जाऊं
उस प्यार को
जो किया था,तुमसे
सलामत नहीं वह भी
ज़माने की नजरों से,
इस समय कुछ-कुछ
मेरी दाढ़ी की तरह


चाहता
भूल जाऊं
बाटला हाउस की सुबह
जब सुनी थी
न सुनी जाने वाली आवाजें
देखी थी,
लोगों के चेहरे पे मौत सी चुप्पी!!

चाहता
भूल जाऊं
अखबार के पन्ने को
जिसमे छपी थी खबर
-"करोलबाग मे
गरीबी से तंग आकर
एक औरत पंखे से झूल गयी

चाहता
भूलजाऊं
साईनाथ की रिपोर्ट : इस
साल मे सोलह हजारसे
अधिक किसानो ने आत्महत्या की

चाहता
भूल जाऊँ
खबरिया चैनलों पर दीख रहे
ताज से निकलते धुएँ
जो राजनीति के रंग से लाल,
भगवा होते हुए
सुबह न जाने
किस रंग मे बदल जाये...

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ख़बर का असर

भड़ास! नाम का एक ब्लॉग है और काफ़ी चर्चित भी.जिस किसी ने ये नाम रक्खा है कितना मौजूं है.दरअसल हम सब यहाँ अपनी-अपनी भड़ास ही तो निकालते हैं.जब कोई मंच न रह गया हो और अधिकाँश पत्र-पत्रिकाएं और चैनलों की रहबरी बाज़ार करे तो ये गूगेल महाराज की कृपा से ब्लॉग अच्छा माध्यम बन जाता है.कभी लघु-पत्रिकाओं ने अच्छा वैकल्पिक मंच उपलब्ध कराया था।
खैर। पिछले दिनों जब खुशबू की चर्चा करते समय उनकी अनदेखी किए जाने का सवाल उठाया था तो कहीं अंतरे-कोने में भी किंचित ये भान-गुमान न था कि लोग इस और ध्यान देंगे.लेकिन हमज़बान के बाद साप्ताहिक के बाद अब मासिक आवृति में प्रकाशित हो रही पत्रिका आउटलुक , नवम्बर २००८ का अंक देख कर अच्छा लगा.संपादक नीलाभ मिश्र ने अपना स्तम्भ खुशबू को ही केन्द्र में रख कर लिख रक्खा था.इसी अरसे में इंडिया टुडे (हिन्दी) के असोसिएट कॉपी एडिटर सुदीप ठाकुर का फ़ोन आ गया.भाई, खुशबू का नम्बर दो!! टुडे के विशेष अंक में उन पर स्टोरी करनी है.हमज़बान पर खुशबू के बारे में पढ़ा। मैं उनका फोन नम्बर कहीं नोट नहीं कर पाया था.तुंरत पत्रकार-मित्र उर्दू दैनिक हिन्दुस्तान एक्सप्रेस के ब्यूरो- चीफ शिबली ने घंटे भर के अन्दर परेशानी दूर की और हमने इस तरह सुदीप जी को खुशबू का, उनके घर का फोन नम्बर मुहैय्या करा दिया.इंडिया टुडे के २६ नवम्बर के विशेषांक में आप चाँद को चूमती कामयाबी शीर्षक कथा -आलेख पृष्ठ २४ पर पढ़ सकते हैं.
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)