बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

झारखंड में हर रोज 10 बेटियां हिंसा की शिकार


10 साल में महिला उत्पीडऩ के करीब  40 हजार मामले हुए दर्ज 
अस्मत से खिलवाड़ 11 हजार बार, वहीं दहेज की  बलि चढ़ीं लगभग 12 हजार, डायन के  बहाने मार दी गईं सबसे अधिक  रांची जिला में 

 





 











सैयद शहरोज क़मर की कलम से
नन्ही सी श्रेया के  नन्हे से सपने ने भी दम तोड़ दिया। दादी सरोज को लोगों ने सफेद कपड़ों से न जाने क्यों लपेट दिया है। उन्हें तो पहली मई को आ रहे उसके  बर्थ डे के  लिए अच्छा सा गिफ्ट लाना था। पापा मम्मी, चाचा सभी रो रहे हैं, लेकिन श्रेया चुप है। उसके  दादा लखन की आंखें बोलती हैं। जिसमें धधकता लावा है। चार हैवानों ने रविवार की  शाम उनकी  पत्नी सरोज को ऑटो से उतारा.सामूहक दुष्कर्म के  बाद उसकी शर्मगाह में शराब की बोतल घुसेड दी.सोमवार की सुबह सरोज ने पुलिस तंत्र की तरह ही आँखें मूँद लीं.  पिछले दिनों मधु देवी का  मासूम बेटा बेतिया में कई दिनों से मां को न पाकर नानी की गोद में सुबक  कर सो गया था। मधु के पति दिल्ली में हैं। कोई छोटा मोटा रोजगार करते हैं। सरकारी नौकरी दिलाने के नाम पर गोड्डा के  एग्जिक्यूटिव इंजीनियर अजय प्रसाद गुप्ता ने उसे रांची बुलाया। रात से खौफनाक  डर उसे दिखाया। उसकी  अस्मत को  तार-तार कर सुबह स्टेशन पर छोड़ दिया।राजधानी से सौ किमी के  फासले पर है नक्सल प्रभावित लातेहार जिला। वहां के  गारू प्रखंड के चोरहा गांव के  कलदेव उरांव की  पत्नी को जबरन घर से उठाकर उसका यौन शोषण किया गया। लेकिन बबीता को  मान के साथ प्राण भी गंवाना पड़ा। वह दिल्ली भगाकर ले जाई गई। उसका  दैहिक  शोषण हुआ। किसी तरह पिंड छुड़ाकर जब वह गुमला के  अपने गांव कोसा बड़का टोली पहुंची तो उसके  गर्भ में बच्चा था। उसे भगाकर ले जाने वाले आरोपियों ने उसके  साथ मारपीट की । उसने दम तोड़ दिया। ऐसी कई कहानियां हैं, जिसका दर्द बाहर भी नहीं आ पाता। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के  आंकड़े के  मुताबिक  वर्ष 2001 से 2010 के  बीच सिर्फ174 आदिवासी और 106 मामले दलित महिलाओं के  साथ बलात्कार के सामने आए। दरअसल यह समाज अधिकाँश अनपढ़ है। थाना कचहरी जाने का साहस नहीं कर पाता। यदि इन आंकड़ों को ही पैमाना मानें तो महिला उत्पीडऩ के 10 साल में करीब 40 हजार मामले दर्ज हुए। औरतों की अस्मत से 11 हजार बार खिलवाड़ हुआ। सबसे ज्यादा गैर आदिवासी इसका ग्रास बनीं। वहीं दहेज की बलि लगभग 30 हजार बेटियां चढ़ीं। डायन के  नाम पर करीब डेढ़ हजार मार दी गईं । इसे मामले में रांची जिला पहले पायदान पर है। डायन का आरोप लगाकर इस जिले में 250 महिलाओं की हत्या कर दी गई।

क्या कहते हैं सरकारी आंकड़े

बलात्कार 7563 सबसे अधिक  2006 में 799

छेड़छाड़ 3374 सबसे अधि· 2003 में 424

यौन उत्पीडऩ 00230 सबसे अधिक 2009 में 83

दहेज हत्या 2707 सबसे अधिक 2009 में 295

दहेज प्रताडऩा 3398 सबसे अधिक 2007 में 453

पति प्रताडऩा 6489 सबसे अधिक 2008 में 851

वेश्यावृति 0075 सबसे अधिक 2007 में 14

बेची गईं 0136 सबसे अधिक 2008 में 39

डायन हत्या 1157 सबसे अधिक 2010 में 35

(स्रोत: 2001 से 2010 से नेशनल क्राइम ब्यूरो)

आयोग तुरंत करता है कार्रवाई

समाज में स्त्री प्रताडऩा की  शिकायतें लगातार मिल रही हैं। इसे अवश्य ही रोका जाना चाहिए। आयोग के पास अगर मामले आते हैं, तो हम तुरंत कार्रवाई करते हैं। कई मामले संबंधित विभाग को भेज देते हैं। उसकी रपट भी हमारे पास आती है।

हेमलता एस. मोहन, अध्यक्ष, झारखंड महिला आयोग

सरकारी तंत्र को गंभीर होने की जरूरत है

पहले हमने खुली हवा में सांस लेने के सपने संजोए। लेकिन  राज्य बनने के बाद घुटन बढ़ी ही। जिनके  जिम्मे सुरक्षा का दायित्व है, वहीं लोग सजग नहीं हैं। जब तक  कि सरकारी तंत्र गंभीर व संवेदनशील नहीं होगा स्त्री हिंसा व प्रताडऩा की शिकायतें कम नहीं होंगी।

दयामनी बारला, सामाजिक  कार्यकर्ता


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बुधवार, 18 अप्रैल 2012

केरला यानी यहाँ सब अल्लाह की ख़ैर है


समुद्र  नारियल के नमकीन मीठे जल की तरंग 























केरल से लौट कर शहबाज़ अली खान 

 

काफ्का ने अपनी कहानी  'चीन की दीवार' में बीजिंग के बारे में कहा है कि हमारा देश इतना विस्तृत है कि  इसके बारे में कोई भी किस्सा इसके साथ न्याय नहीं कर सकता. यहाँ तक कि इश्वर भी मुश्किल से इसकी पैमाइश कर सकता है. काफ्का ने शायद भारत नहीं देखा होगा वरना वह इश्वर के लिए इस देश की पैमाइश को मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन ही बता देते. ०७ को गाडी मथुरा से खुली. दो एक घंटे बाद ही कुदरती आबशारों से हम नहाते चले गए.कहीं सूरज की किरणें नर्म गिलाफों सा आ-आ कर लिपट जातीं.जिन-जिन राहों से हम गुज़रे अहसास शिद्दत की गिरफ्त में हुआ. हमारा देश कितना विस्तृत है... मध्यप्रदेश में लगातार होरहे खनन, पहाड़ों को काटती पिटती मशीनों और उडती धूलों, चम्बल के बीहड़ों, सामन्ती अवशेषों- मंदिरों और किलों, छतीसगढ़ के नक्सली इलाकों, महारष्ट्र के हरियल और पनियल इलाकों से गुजरते हुए जब गाड़ी कर्णाटक पहुंची तो हवाओं की नमकीन गंध और नारियल की अबोल-मीठ-फ़िज़ा ने दस्तक दे दी.अहा! अब केरल दूर नहीं! सड़कों के किनारे स्वागत करते नारियल के पेड़. उनके झुरमुटों से छन कर आती ठंडी हवाएं रात की स्याही को रौशन करती रहीं.

 
सुबह के साढ़े ५ के करीब हम केरल के कोझिकोडे (कालीकट) पहुंचे. बहार निकलते ही मेरी नज़र सबसे पहले जिस चीज़ पर पड़ी वह मार्क्स के तस्वीर की एक बड़ी सी होर्डिंग थी जिस पर सी.पी.आई.एम् के २० वें पार्टी कांग्रेस की तय्यरियाँ चल रहीं थीं.. भोर के धुंधलके में ही मुझे जंक्शन से लेकर अबू के घर तक हर जगह लाल ही लाल दिखाई दिया.. ये हलब्बी हलब्बी बैनर, होर्डिंग, कटआउट  वगैरह.. रास्ते लाल रंग के फीते हर जगह टंगे नज़र आयें.. दिन का नज़ारा न पूछिए.. अबू ने कहा कि ये अपने को सर्वहारा की पार्टी कहती है लेकिन इस मौके पर २० करोर से ज्यादा खर्च कर चुकी है. हालांकि मैंने इस तथ्य के बाबत कोई छानबीन नहीं की है लेकिन ये तो तय है कि कालीकट को देखकर ऐसा लगा कि मैं भारत के किसी शहर में नहीं बल्कि रूस के किसी शहर में हूँ.

केरल के पहले ही दृश्य ने मोहा मन

सूरज ज़रा ही उपर चढ़ा था कि हम अबू के घर पहुँच गये. अबू हमें अपने घर के आस पास के पेड़ पौधों को दिखाने लगा. काजू के पेड़, गुजराती लोगों का पसंदीदा सुपारी का पेड़, हमारी तरफ चलने वाले सुपारी (तामुल) का पेड़, कटहल, नारियल का तो पूछना ही क्या है, काफी के पेड़ आदि यह सब उसके घर के भीतर और उसके आस पास लगे थे.. फिर अबू हमें अपने घर के पिछवाड़े ले गया और वहाँ जो दृश्य मैंने देखा उसे भूल नहीं सकता. नारंगी सूरज ज़मीन कुछ इंच ऊपर था और उसमें सियाह बादलों की दो तीन धारियाँ कुछ यूँ लिपटी थीं जैसे माँ ने अपने बच्चे को नज़र से बचाने के लिए दो तीन नज़र की टीकाएं लगा दी हों. ज़मीन का गीलापन और काले बादलों में लिपटे सूरज का वह नारंगी रूप आह! क्या कहने उस दृश्य के. केरल ने अपने पहले ही दृश्य से मन मोह लिया... 


























और अम्मी ने मेरे तलवे को हौले से सहलाया

शाम को समन्दर देखने गये. रास्ते में सी.पी.आई.एम् के २० वें पार्टी कांग्रेस की लहरें अपने उफान पर थीं. इस से बचते बचाते हम वहाँ पहुंचें जिसे देखने की लालसा मेरे दिल में कई सालों से थीं.. जी हाँ मेरे सामने हहराता समन्दर था. २८ साल बाद नंगी आँखों से उसे देखना एक रोमांचकारी क्षण था. पल के लिए मैं डर गया.. इतना भव्य, विशाल, व्याकुल, अंतहीन, लहर दर लहर जोश से भरा हुआ. सब कुछ लीलने को तैयार बैठा हुआ. उस पर अम्मी की हिदायत ... तुम समन्दर के नजदीक मत जाना (उन्हें मालूम है बचपन से पानी से डरता हूँ). मैं अभी उधेड़बुन में ही था कि सारे दोस्त तुरंत पैंट-शैंट चढ़ा के, सैंडिल-जूता एक तरफ कर के घुटनों तक जा पहुंचें. कई छोटे बच्चे कूद-कूद कर उसमें नहा रहे थे. अम्मी की हिदायतों को समन्दर के आकर्षण ने परास्त कर दिया. मुझे याद नहीं, कब मैंने सैंडिल उतारी, पैंट चढ़ाई और उसके पास चला गया. लहरों ने मेरा पैर छुआ. लगा मैं अबोध शिशु हूँ और अम्मी ने मेरे तलवे को हौले से सहलाया हो! जितनी बार लहर आती मेरे पैरों के नीचे की रेत बहा ले जाती.... एक चुल्लू पानी भी पिया. लगा मानो एक चम्मच भरपूर नमक फांक लिया हो. समन्दर के भीतर नमक न होता तो उसे नियंत्रित करना मुश्किल था. उस एक घूँट पानी ने मुझे यह अहसास कराया कि दुःख हमारे जीवन का एक ऐसा ही नमक है. जो हमारे जीवन को संतुलित करता है, नियंत्रित करता है. खूब ढेर सारी फोटो खीचा-खिचौअल के बाद आइस अचार का खट्टा-मीठा स्वाद का चटखारा! अब भी उसकी सोंधी डकार बरक़रार है. एक गोरखपुर के पान वाले से मीठा पान खाया. और अँधेरा होते होते वापस अपने कयाम गाह तक लौट आये...






 दुल्हन के घर से आई बरात 


अगले दिन बन-ठन के अबू के निकाह के लिए तैयार हुए.. पता चला कि केरला की एक बड़ी पार्टी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के अध्यक्ष सैयद हैदर अली शहाब  थंगल अबू का निकाह पढ़ाएंगें. शहाब साहब जब आये तो उनके आगे पीछे कोई और गाड़ी नहीं थी. न ही भीड़-भड़क्का. चूँकि केरल की संस्कृति में सामन्ती अवशेष नहीं के बराबर हैं. वहाँ शादियों में लड़की वाले लड़के वालों के यहाँ आते हैं. वो भी एक दो नहीं पूरे सौ-दो सौ लोग. जितनी तेज़ी से आते हैं उतनी ही तेज़ी से वापस चले जाते हैं. बिलकुल शांत और सुरुचिपूर्ण तरीके से खाना पीना होता है. निकाह के बाद कोई हो-हल्ला नहीं.  बन्दूक-गोलियां नहीं चलती हैं. उनके रहनुमा भी इस संस्कृति का ही पालन करते हैं. सबका पहनावा लगभग एक था- लुंगी और शर्ट और पैर में सैंडिल.  शहाब साहब का भी. चलन इस कदर है कि पैंट पर भी लोग शर्ट इन नहीं करते हैं. ये पहनावा केरल का अपना ही है या वाम विचारधारा का प्रभाव, मुझे पता नहीं चल पाया (पिछले तेरह सालों से एक बड़े कामरेड प्रो. इरफ़ान हबीब को इसी पहनावे को पहनते देखा है, शर्ट बाहर, पैर में सैंडिल या चप्पल, और अभी भी साइकिल से चलना.).. निकाह बेहद सादगी से हुआ, कोई टीम-टाम नहीं, झट-पट. खाना तो खैर माशा अल्लाह था. खाने के बाद गर्म पानी, एक केला, और एक कप काढ़ा. यह सब हम लोगों के लिए बिलकुल नया था. खाने के बाद सभी तुरंत चले गये, लड़की वाले, अबू के रिश्तेदार भी.

वास्को डी गामा के क़दम जब पड़े 

निकाह बाद बचे सिर्फ हम लोग. फिर तय पाया गया कि हमें कापड बीच देखना चाहिए जहां पहली बार वास्को डी गामा के पैर पड़े थे. अँधेरा होने से थोड़ी ही देर पहले पहुंचे. यहाँ के चट्टान और समंदर, दोनों ही गवाही दे रहे थे कि कभी यहाँ दुनिया आकर मिलती रही होगी. हालांकि इन चट्टानों पर  सी.पी.आई. एम् के इश्तेहार दूर से ही नुमाया हो रहे थे. वास्को कभी यहाँ आया था उसकी कोई इबारत नहीं देखी. सिर्फ एक समंदर था जो यह चीख चीख कर कह रहा था कि मेरे सीने पर वास्को ने कभी नाव चला कर इस सर ज़मीन पर अपने पैर रखे थे. चट्टानों से गले मिलने को बेताब समंदर का जोर देखने लायक था. लेकिन बेदिल चट्टान हर बार उसकी बेताबी को झुठलाकर उसे वापस कर देता था. समंदर की बेताब लहरें आपस में खूब टकराती हैं लेकिन ऐसा लगता मानो कभी मिल नहीं पाती. हमारे दो दोस्तों ने सूरे रहमान की उस आयत का ज़िक्र किया जिसमें कहा गया है कि समंदर जब मिल रहे होते हैं तो उनके बीच में एक पर्दादारी होती है, जिसका वह अतिक्रमण नहीं कर पाते. सच aisa  hi लगा. सूरज जल-समाधि  के लिए अधीर हो रहा था. आध घंटे में उसने जब समाधि ली तो शोर कुछ थम सा गया. बारिश की आशंका ने भी हमें वहाँ से वापस होने पर मजबूर कर दिया.










 


















वाय्नार्ड के जंगलों में इतिहास का सूरज

 दो दिन समन्दरों के हहराते शोर और चंचल लहरों को देखने में गुज़रे. अगले दिन यह तय पाया कि अब हम कोझिकोडे से लगभग २०-३० किमी दूर वाय्नार्ड चलते हैं. वाय्नार्ड कर्नाटक और केरल को जोड़ता है. ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच से टीपू सुल्तान ने यह रास्ता खोजा था.  (कुछ का मानना है कि टीपू ने नहीं बल्कि हैदर अली ने इस रास्ते की खोज की थी) इन दोनों बाप-बेटों में से जिसने भी इस रास्ते की खोज की हो, इस रास्ते को देख कर मैं अपने देश के शासकों के सराहनीय योगदानों के प्रति अभिभूत हो गया. इस रास्ते पर चलते हुए दोस्तों ने शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित भारतीय सड़क व्यवस्था की भी चर्चा की. इन चर्चाओं के बाद मुझे यह अहसास हुआ कि आखिर किस बात पर हम अंग्रेजों द्वारा माल्गोदामी व्यवस्था की सराहना करते हैं? किस आधार पर उन्होंने  यह कह दिया कि हमारा पिछला शासन अविकसित था. अगर कोई हिंदुस्तान को गौर से देखे तो उनकी बातें झूठी साबित हो जायेंगी. वाय्नार्द चारो और से पहाड़ों से घिरा है. यूँ ट्रेन के सफ़र में भागते पहाड़ों को देखा तो था लेकिन इतने नज़दीक से .. ओह् ह्ह इतना उदात्त, गंभीर, अविचल, मौन था कि उसको देख के कुछ सूझ ही न रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि यह समाधि में बैठा को कोई साधू है या आँखें तरेरता हुआ कोई दबंग है. . या ज़मीन में धंसी कोई कील है जिसने ज़मीन को पकड़ रखा है.(एक दोस्त ने बताया कि अल्लाह कुरआन  में पहाड़ों के बारे में कहता है कि हमने इसे कील की तरह ज़मीन में ठोंक दिया है.. ताकि ज़मीन हिल न सके) पहाड़ों को देख के न जाने दिल में क्या-क्या आया वह बता पाना मुश्किल है, कितने कवियों की पहाड़ पर लिखी कवितायें याद आयीं. लेकिन  "तुझको देखूं की तुझसे बात करूँ" वाली स्थिति मेरी थी. 



























पहाड़ के आह से उपजी नदी

वाय्नार्द के जंगलों के आस पास बसी आदिवासियों की बस्ती उतनी ही खुबसूरत सुरम्य. वहां की एक झील का आनंद लेने के बाद हमने कुरुवा द्वीप में फिसलन भरे पत्थरों और चट्टानों के बीच कल-कल बहते नीर के साथ थोड़ी सी मस्ती की. उससे थोड़ी दूर पूकोट्टू झील के पास पहुंचे जो भारत के नक्शे की तरह बसा था...हमने यहाँ बोटिंग की. बोटिंग कराने वाले ने हमें उस झील की गहराई और उससे जुड़े कुछ और तथ्यों के बाबत जानकारी दी. उसने हम लोगों की तस्वीर भी खींची. केरल वासी सौम्य और सुलझे तथा कितने सभ्य हैं उस एक आदमी से बात करके यह बात और भी पुख्ता होगयी. लौटते वक्त ट्रेन में पैंट्री कार के एक वेंडर ने मोहम्मद जलाल या जमाल, जो की सीलनपुर का था, ने भी इस की तस्दीक की. पूकोट्टू में हमने लकड़ी से बने कुछ सामान खरीदे. और लौट पड़े. शाम अब बेहद गहरा गयी थी. चारो और एक धुंध सी थी. पहाड़ धुएं से लिपटे हुए थें. तब मेरे ज़ेहन में यह आया कि पहाड़ साधू या हो दबंग हो, असल वह एक वियोगी है. एक दुःख से भरा प्रेमी है.  जैसे-जैसे रात होती है, उसका दिल जलता है, इक धुंआ-सा उठता है.... इतना धुंआ उठता है कि दूर से देखने पर लगता है नदी बह रही हो. यह पहाड़ के आह से उपजी नदी थी जो सिर्फ रात के अँधेरे में ही बहा करती है. 
































रिश्ता रंग बिरंगे प्यार के धागे से बुना

केरल का हमारा प्रवास चौथे दिन अपनी समाप्ति की ओर आ गया. अबू के घर मिली इतनी मोहब्बत और स्नेह हम भूल नहीं सकते. हमारे और अबू के घर वालों के बीच भाषा की दीवार थी. हमारे एक मित्र हफीज ने इस दीवार को गिरा दिया था. वह कर्नाटक के मैंगलूर के वासी हैं, केरल में शिक्षा प्राप्त की है, अभी अलीगढ से अरबिक से पीएच. डी कर रहे हैं. ६ भाषाओँ के जानकार हैं. उन्होनें ट्रांसलेटर की भूमिका बहुत शानदार ढंग से निभायी. उनके बिना टूर अधूरा होता. यूँ तो हर दोस्त अपने में ख़ास था लेकिन उनका महत्त्व रेखांकित करने योग्य है... जाने से पहले मैंने कहा था कि यूँ तो केरल के टूर पर जाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है. लेकिन मेरे लिए एक केरलवासी दोस्त अबू की शादी में शिरकत करना बहुत अहमियत रखता है. मेरे लिए यह उस हिन्दुस्तानी तहजीब की बेमिसाल रिवायतों में से एक है कि यहाँ तमाम तहजीबों के बीच एक रिश्ता रंग बिरंगे प्यार के धागे से बुना होता है. यह धागा तोड़े से भी नहीं टूटता है. दूरियों को ये एक क़दम में नाप लेता है. अजनबियत को चुटकी में बाँध कर किसी दरिया में डाल देता है. और यह धागा किसी दुकान पर नहीं, बल्कि हमारे दिलों में मिलता है. हिन्दुस्तान इसी मायने में अपने भीतर हमेशा जिंदा रहता है....






 
























वहां से आते वक्त दिल में बस इतना ही कहा कि वाकई यहाँ सब अल्लाह की खैर है.*

*केरला के नामकरण एक पीछे एक कारण यह बताया जाता है की जब पहली बार अरब यहाँ पहुंचें तो उन्होंने इसकी खुश हाली देख कर कहा था कि यहाँ खैरुलाह! यानी सब अल्लाह की खैर है....खैरुलाह बाद में घिसट कर केरला हो गया.

(लेखक-परिचय:
जन्म: १८ मई, १९८४, बहराइच में
शिक्षा: अलीगढ मुस्लिम विवि से राही मासूम राजा पर पी-एच डी कर रहे हैं
सृजन: पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट. फेसबुक के चहीते रचनाकार
संपर्क:alikhan.shahbaz@gmail.com)


हमज़बान पर उनकी पहली पोस्ट
शहरयार की याद पढ़ें 


 
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बुधवार, 11 अप्रैल 2012

अपने अंदर का प्रेम बचा लो तो पृथ्वी बच जाएगी



{दामुल और मृत्युदंड जैसी कई फिल्मों के लेखक और हिंदी के अनूठे रचनाकार शैवाल का मानना है कि आज की सबसे बड़ी खबर है नैतिकता बोध का खत्म हो जाना। अब हर आदमी अपने लिए जी रहा है। शैवाल पिछले दिनों रांची में थे। समाज, साहित्य और फिल्म पर शहरोज ने विस्तृत गुफ्तगु की। पेश है उसका संपादित अंश : यह भास्कर के अंक में प्रकाशित हुई.}

आदमखोर विकास का  समय 
 
 
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
शैवाल


हर सरकार आजकल विकास का ढींढोरा पीटती है
इन दस सालों में सभ्यता, संस्कृति और मनुष्यों के बीच कोई तारतम्य नहीं है। उनका आपसी लयात्मक सूत्र बदला है। जब लय टूटती है, तो विकास आदमखोर हो जाता है। यह समय उसी आदमखोर विकास का है। गांव का किसान बेटा रामप्रसाद मेहनत कर इंजीनियर बनता है। उसके बाद पैसा कमाते हुए महज 35 वर्ष की आयु में मर जाता है। एक ही मकसद धन संचय। उसके ढंग कैसे भी हों। नैतिकता स्वाहा। यही आदमखोर विकास है।
 
दामुल से मृत्युदंड तक कई मोर्चे पर आप प्रकाश झा साथ रहे। नाता टूटा कैसे? फिल्मों का लेकर उनके मिजाज में बदलाव आया। जबकि मैं सामाजिक सरोकारों से जुड़ी फिल्में लिखना चाहता हूं। फिल्मों का आपसी नाता जरूर ठहर गया है, लेकिन रिश्तों में वही मिठास है, जो कल थी। व्यक्तिगत संबंध और सामाजिक सरोकार दो अलग चीजें हैं। इसे एक दूसरे पर हावी नहीं होने देना चाहिए।

नई फिल्म दास कैपीटल के बारे में कुछ
शाश्वत प्रश्नों को लेकर लिखी गई कहानियां सार्वकालिक महत्व की होती हैं। मेरी दो कहानी अकुअन का कोट और अर्थतंत्र पर आधारित फिल्म है दास कैपीटल। यह मार्क्स  वाली नहीं है। इसका मतलब है गुलामों की राजधानी। नेट सर्फिंग के दौर में दुनिया के सिमट जाने की बात जरूर की जा रही है। जबकि वैश्विक संवेदनाओं का अकाल पैदा हुआ है। संबंध अर्थहीन हो रहे हैं। मध्यवर्गीय जीवन पर पूंजीतंत्र का दबाव बढ़ा है। इसी व्यवस्था ने कंकाल तंत्र विकसित किया है। यह सिस्टम आदमी को आखिरी किनारे पर ले जाकर मार देता है, फिर उसे कंकाल में रूपांतरित कर बेचता है। सवाल है कि समुदाय का जीवन बचेगा कैसे। फिल्म जवाब देती है कि अपने अंदर का प्रेम बचा लो पृथ्वी बच जाएगी।

आपके साथ और कौन कौन लोग हैं
इसकी स्क्रिप्ट में मेरे एमबीएधारी बेटा शुभंकर ने सहलेखन किया है। गोविंद निहलानी के भाई दयाल निहलानी ने इसका निर्देशन किया है, वहीं पत्रकार मुक्तिनाथ उपाध्याय इसके प्रोड्यूसर हैं। राजपाल यादव, केके रैना, यशपाल शर्मा, प्रतिभा और मनोज मेहता आदि ने अभिनय पक्ष संभाला है। इसे कांस फिल्म फेस्टीवल में भेजा गया है।

फिल्मों में आई नई पीढ़ी को किस तरह देखते हैं
नई पीढ़ी नए ढंग से चीजों को देख रही है। युवा अच्छा कर रहे हैं। अनुराग कश्यप और तिग्मांशु धूलिया जैसे लोगों की फिल्में बहुत उम्दा हैं। ऐसा कहना गलत है कि युवा पीढ़ी पूरी तरह सरोकारों से दूर जा रही है।

संस्कृति संरक्षण में समकालीन लेखक का कितना योगदान है
आजकल संस्कृति संरक्षण के लिए लेखक इमारत बनवाता है। मठ बना लेता है। जबकि बाबा नागार्जुन को इसकी जरूरत नहीं पड़ी। वो थैला उठाए भारत भ्रमण के लिए निकल जाते थे। लेकिन अपवाद हर कहीं है। आज भी कुछ लोग जमीनी स्तर पर भी काम कर रहे हैं।

इन दिनों आलोचकों की सनद के लिए होड़ है
मेरी चाह कभी नहीं रही कि उनके पथ पर लोट जाऊं। उनसे कभी मिला तक नहीं। संपादकों से भी याराना संबंध नहीं बन पाया। पहले रविवार, धर्मयुग और अब हंस आदि पत्रिकाओं में जबदरदस्ती छपता रहा।

आपकी अपनी प्रिय कहानी
नाचीज शहर की गली है जहां फुकनबाबू की प्रेमीका रहती है। यह कहानी संभवत 1997 के आसपास हंस में छपी थी।

आपका इधर उपन्यास नहीं आया
पांच उपन्यास पर रह रह कर काम कर रहा हूं। चारित्रिक स्थितियों से संतुष्ट नहीं हूं। दशकभर भर बाद स्थितियां बदल जाती हैं। यथार्थ स्थितियों का व्यंग्यात्मक चित्रण करने की कोशिश करता हूं। दोनों समानांतर चलते हैं।

कविता कहां छूट गई
शुरुआत मेरी भी कविता से ही हुई। लेकिन संकलन प्रकाशन की हिम्मत नहीं हुई। अब कहानी में ही कविताई होती है। कविता से शुरू हुआ सफर कहानी, संपादन, पत्रकारिता होकर फिल्म तक पहुंचा है।

भारतीय फिल्मों में गांव कहां पाते हैं
अब फिल्मों से गांव लुप्त होते जा रहे हैं। पीपली लाइव की खूब चर्चा हुई। किसानों के दर्द की बात की गई। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। यह फिल्म किसानों का मजाक उड़ाती है। किसानों के दर्द व आंसू के गारे पर ऐसी इमारत खड़ी गई, जिसे अच्छे दामों पर बेचा जा सके। ग्राम्य जीवन स्थितियां उद्वेलित करती हैं। परेशान करती हैं। मखौल तो उसका हरगिज नहीं उड़ाया जा सकता।

भोजपुरी फिल्मों में तो गांव दिखता है
हां। दिखता है। यह फिल्मी गांव है। पहले की फिल्मों में गांव का सोंधापन होता था। अब फूहड़ संवाद और गीत संगीत से संस्कृति का निर्माण तो नहीं होता। भोजपुरी फिल्में हिंदी मसाला फिल्मों की नकल बन कर रह गई हैं। गांव के लोगों की समस्या वहां से गायब हैं। मल्टीप्लेक्स और भोजपुरी के बीच ऐसा सिनेमा होना चाहिए, जो आम लोगों का हो।

दामुल का लेखक आज गांव को किसी तरह देखता है
हालात में बहुत ज्यादा तब्दीली नहीं आई है। समस्याएं अब अधिक विकराल रूप में मौजूद हैं। महज किरदार के बदल जाने से फिजा नहीं बदल जाती। शोषण भी है। जातीय दंभ में इजाफा हुआ है। राजनीतिक चेतना आई तो है, लेकिन चुनाव में पैसा-खेल बढ़ा भी। सामंतवाद की शक्ल भर बदली है।



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बुधवार, 4 अप्रैल 2012

ओ रंगरेज़िये ! मेरा रंग दे बासंती चोला..


रंगरेज़ा, रंग मेरा मन, मेरा तन



 
 










 ममता व्यास की कलम से 


कल बाजार से गुजरते समय इक़ रंगरेज की दुकान पे नजर पड़ी | वो बड़े जतन से , हर कपड़े को रंग रहा था | बड़ी ही तन्मयता के साथ | हर कपड़े को उठा -उठा कर रंग में भिगो देना | फिर उसे सुखाने के लिए इक़ रस्सी पर लटका देना | लाल, नीले, हरे पीले, गुलाबी और जामुनी भी तो | सभी रंग कितने अच्छे और कितने कच्चे ....| ज़रा लापरवाही हुई नहीं कि इक़ का रंग दूजे पर चढ़ जाए | वो रंगरेज , अपने काम से थक के ज़रा आराम करने की नियत से लेट गया | और मैं चल दी | लेकिन तभी मैंने उस दुकान में कुछ आवाज़े सुनी | सभी , साड़ियाँ, दुपट्टे , और बहुत से कपड़े इक़  जगह  आकर इकट्ठे होकर बतिया रहे थे | मैं ठहर गयी तो सुना -- ---इक़ गुलाबी दुपट्टे ने बात शुरू की | इस रंगरेज से मैं बहुत परेशान हूँ | ये अपनी मर्जी से हमें क्यों रंग देता है ? मुझे गुलाबी, नहीं लाल रंग पसंद है | फिर इसने मुझे ये फीका गुलाबी रंग क्यों दिया ? जबकी मैं चटक लाल  हो जाना चाहता हूँ |  और वो देखो, देखो काली  साड़ी कितनी उदास है.  उसे हरा पसंद था | मेरा बस चले तो इक़ दिन इस रंगरेज की दुकान ही बंद करवा दूँ | 
अब तुम चुप हो जाओ | इक़ सफ़ेद कपड़ों की गठरी बोली | ये रंगरेज , इतना बुरा भी नहीं | अब मुझे देखो मैं कितनी बुरी लगती हूँ | रंगहीन | कल ये मुझे इक़ नए रंग में रंग देगा | फिर मैं बाजार में चली जाउगी | वहां मुझे खरीद के लोग अपनी मनपसंद ड्रेस बनवायेंगे | मेरा उपयोग होगा | दुनिया देखूंगी मैं | यहाँ घुट के मरने से बेहतर है, दुकान से बाहर चले जाना | ये रंगरेज ना हो तो क्या मोल है हमारा ? बोलो ? 
तभी, खूंटी पर सुखाने के लिए लटकाई गयी इक़ साड़ी बोली: इस रंगरेज को इतनी भी खबर नहीं कि  मैं कबसे इस खूंटी पर टंगी हुई हूँ | मेरी बारी कब आएगी कि  मैं हवा में खुल कर बिखर जाऊं ? उड़ जाऊं | तभी इक़ दर्द भरी आह निकली --और मुझे देखो मैं कबसे इस रंग के बर्तन में भीग रहा हूँ | मुझे बाहर नहीं निकालता वो रंगरेज | मैं दर्द से मर गया हूँ |  ये कितना निष्ठुर रंगरेज है | इसे किसी की कोई परवाह नहीं | ये बहरा है | जरुर ये कोई नशा करके सो जाता है रोज |और हमारी बात , जो हम कह नहीं सकते इससे | क्या , ये कभी समझ पायेगा ? 
मैं सोचने लगी | हम सब भी तो मात्र इक़  कोरे कपड़े ही हैं | ऊपर बैठा वो रंगरेज हमें जैसे चाहे रंग दे | उसके रंग कितने अच्छे कितने सच्चे | वो हम सभी को अलग -अलग रंगों में रंगता है | हम सभी , इक़ दूजे से कितने अलग | कोई किसी से मेल नहीं खाता | चेहरे अलग | फ़ितरत अलग | आवाज अलग | अंदाज अलग | किसी का रंग किसी से नहीं मिलता | किसी का ढंग किसी से नहीं मिलता | सभी विशेष | सभी अनोखे | क्या खूब बनाया | 
किसी के भीतर लोहा भर दिया | किसी के अन्दर मोम भर दिया | जो लोहा भर दिया तो वो मशीनी आदमी हो गया | अब वो मशीन की तरह काम करता है | मशीन की तरह प्रेम करता है | उसका दिल लोहे का जो टूटता नहीं | दर्द उसको होता नहीं | वो सिर्फ मशीनी है | उसकी देह भी इक़ मशीन हो गयी | वो कभी मोम नहीं हो सकता | और जो किसी में मोम भर दिया तो वो पल पल पिघलता ही रहता है | जहाँ ज़रा सी प्रेम की उष्मा मिली | पिघल गए | गर्मी ज्यादा मिली तो पिघल के शक्ल ही बदल बैठे | मोम  को शिकायत की ये लोहा उसकी कोमलता को नहीं समझता | इक़ झटके में उसे चूर -चूर कर देता है | लोहा , कहता है मोम का कोई केरेक्टर ही नहीं जब देखो पिघल गए | 
उस रंगरेज , ने किसी में खुश्बू भर दी तो वो जहाँ होता है अपनी महक भर देता है | तो किसी में बंजर कर देने के रसायन भर दिए | ऐसे जहर भर दिए की वो मनुष्य अपने जहरीले रसायनों से ना जाने कितने दिलो की धरती को हिरोशिमा नागासाकी बना बैठे | किसी में इतनी  उर्वरा शक्ति भर दी की उसने रेगिस्तानो में झरने बहा दिए | फूल खिला दिए | किसी में इतने शब्द भर दिए की शब्दों की क्यारियाँ बाना दी | | तो किसी के पास इक़ शब्द भी नहीं कहने के लिए | किसी में हरापन भर दिया तो किसी में वीराना | कोई अपने शब्दों से किसी के भीतर सृजन कर दे | कोई अपने शब्दों के तीर से किसी को बाँझ कर दे | कोई गौतम ऋषि अपने शब्दों से स्त्री को पत्थर बना दे | तो कोई राम उसे अपने स्पर्श से फिर स्त्री बना दे | 
कमाल का है वो रंगरेजा | उसे सब खबर है | किस को कहाँ जाना है | किसकी कहाँ मंजिल है | किसके भाग्य में कितने कांटे है | कितना हिस्सा ? कितना किस्सा ? कितनाकौन झूठा | कौन  कितना सच्चा | किसकी रेट कितनी बंजर होगीं | किसकी आखों में कितने रतजगे उसने लिखे वो ही जानता है | 
दर्द के समन्दरो में किसको कितना डुबाना है | किसको सावन में कितना जलाना है | किस को किस खूंटी पर उमर पर बांध के लटकाना है | किस को बाँध कर मोड़ कर कोने में रख देना है | कितने , रंग उसके पास | कितने ढंग उसके पास | कैसा संग उसका ? कैसा चलन उसका ? कौन जाने ? कितना जाने ? हाँ सभी कोरे कपड़े की गठरियाँ है | कब किसकी बारी आये वही जाने | हम जिस रंग के है उस रंग का कोई दूजा क्यों नहीं मिलता ? हम जिस ढंग के हैं वैसा कोई और क्यों नहीं दिखता ?  इस ऊपर बैठे रंगरेज से हम सभी इतने नाराज क्यों ? फिर भी उससे मिलने की आस क्यों ? वो दिखता नहीं फिर भी आसपास क्यों ? 
ओ , रंगरेज ..सुनो ना ...तुम खूब हो | तुम्हारे रंग भी बड़े खूब हैं | लेकिन ये बताओ क्या कभी कोई रंग तुम पर भी किसी का कोई रंग चढ़ा है ? तुम कभी किसी के रंग में रंगे हो ? क्या कभी तुम्हारे भीतर किसी का कोई रंग बहता है ? चलो मत बताओ ये तो बताओ की हम तुम्हे तुम्हारे इस मेहनताने की क्या कीमत दे ? क्या रंगाई है तुम्हारी ? 
जो , हम पर अपना रंग चढ़ा दे | जो हमें इक़ नए रूप में बदल दे | उस रंगरेज को कोई क्या दे भला ? देह हो या मन | दोनों तुम्हारी रचना | | इनमे से तुम जो चाहे वो ले सकते हो | या तो मन ? या देह ? या दोनों ? ये फैसला रंगरेज खुद करे | इक़ गीत की पंक्तियाँ हैं : रंगरेजा, रंग मेरा मन, मेरा तन | ये ले रंगाई चाहे मन ? चाहे तन.
 
समीक्षक की राय:शहबाज़ अली खान
रंगों के माध्यम से ममता जी ने आदमी के मुक़द्दर को जिस तरह से परिभाषित किया है वह बहुत ही खुबसूरत है, और मार्मिक भी .. हर रंग का अपना मुक़द्दर है. बल्कि हर चीज़ की अपनी नियति है.. बर्फ की नियति है पानी में जाकर मिल जाना.. आदमी की नियति है कि वो आज़ाद नहीं है... उसके पैरों में एक बेडी है जो अदृश्य है..लेकिन बेहद शक्तिशाली है....ग़ालिब कहते है : "नक्शे फरयादी है किस की शोखिये तहरीर का/ कागज़ी है पैरहन हर पैकरे तस्वीर का" तो इक़बाल कहते है कि "तेरे आज़ाद बन्दों की, न ये दुनिया न वो दुनिया/ यहाँ मरने की पाबन्दी, वहां जीने की पाबन्दी".... इस रंगरेज़ से लोग इसी चीज़ की शिकायत करते है कि  किसी को मोम बनाया, तो किसी को लोहा बना दिया.. मोम तुरंत बहने लगता है.. लोहा पिघलना तो दूर झुकता भी नहीं है.. इस रंगरेज ने किसी को बहार बख्शी तो किसी को बंजर ज़मीन दी.. किसी को दरया दिया  तो किसी को ओस की दो बूंद.... जो मिला उसको सहर्ष स्वीकार कर लेना.. और जीवन पूरी उत्फुल्लता से जीना.यही रंगरेज़ की खुश रंगत है.



(लेखक-परिचय:

जन्म: 31 जनवरी
शिक्षा:मास्टर ऑफ़ जर्नलिज्म , ऍम ए-क्लिनिकल साइकोलोजी |
सृजन: पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट लेखन-प्रकाशन
सम्प्रति: कुछ अखबारों में सम्बद्ध रहने के बाद स्वतंत्र लेखन
आत्म-कथ्य: मैं बहुत ही साधारण और  सामान्य हूँ | दिखावे से दूर | लिखने के कोई नियम और कानून नहीं मेरे पास | ना भारीभरकम शब्द और ना बात | ना कोई सामाजिक संदेश ना राजनीति | जो महसूस करता है मन | वही लिख देती हूँ |
सम्पर्क : कोटरा सुल्तानाबाद, भोपाल

 ब्लॉग : मनवा   )

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