बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

तिल-तिल आस्था, रोम-रोम राममय

 रांची में हर्ष-आस्था का रंग  फोटो : माणिक बोस सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से वही "नवमी तिथि मधुमास पुनीता' यानी चैत्र महीना की नौवीं तारीख। मौसम भी मध्यान्ह में वही "शीतल मंद सुरभि बह बाऊ।' हर्ष-उल्लास की बानगी भी वही, बस तब...
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बुधवार, 6 अप्रैल 2016

शहीद तंज़ील के ख़ानदान की बिटिया जब बोली....

तंज़ील अहमद काश तुम लौट आते ! सीमा आरिफ़ की क़लम से तारीख़ 3 अप्रैल। रात 12 बज कर 40 मिनट। तारीकियों की आग़ोश से फायरिंग की आवाज़। जो खामोशियों का सीना चीरती हुई जब मेरे गावं सहसपुर (बिजनौर) तक...
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