बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

आदिवासियों से ज़रा पूछिए अकाल का होना


 















रूखी-सुखी यानी पश्चिमी निमाड़ में अकाल: आदिवासियों का अनुभव
 


दीपाली शुक्ला की मेल से
 एकलव्य से प्रकाशित रूखी-सुखी  किताब पश्चिमी निमाड़ के आम लोगों के अकाल के अनुभवों का एक अनूठा दस्तावेज़ है। इसमें दी गई जानकारी जि़ला पश्चिमी निमाड़ के साकड़ गांव में बसे आधारशिला शिक्षण केन्द्र  में पढ़ने वाले विद्यार्थियों ने साकड़, चाटली, मोगरी व कुंजरी गांव के बड़े-बूढ़ों से पूछकर एकत्रित की है। इस किताब में अकाल के अलग-अलग हिस्सोंड पर चर्चा है। जैसे, अकाल क्यो पड़ा?
मोगरी के रामा भाई ने बताया कि एक बार उन्दडर काल पडा़ था। उस साल चूहे बहुत बढ़ गए थे। चूहों ने सारी फसल खा ली। अनाज भी चूहे खा गए। इसीलिए इसे उन्देर काल कहते हैं। इसी तरह एक साल बहुत बड़ी संख्यान में टिड्डे आ गए थे। टिड्डों ने पूरी फसल खा ली। इस कारण से भी अकाल पड़ा।
आदिवासियों का यह भी मानना है कि नमक को मटके में भर के गाड़ दें तो अकाल पड़ता है।

अकाल में लूटपाट
दूधखेड़ा के जगादार भाई ने बताया कि दिन में भी अनाज चोरी करने लोग आते थे। चोरियों के डर से, जिसके पास अनाज था वह ज़मीन में गाड़कर रखता था। थोड़ा-थोड़ा निकालकर खाते थे।

अकाल की किंवदन्तियां
एक लोककथा ऐसी है कि एक परिवार को एक मक्काा का दाना मिल गया। उस दाने को उबालकर उसका पानी पीते थे। दूसरे दिन फिर से उबालकर उसका पानी पीते थे। एक दिन एक बच्चेर को वह दाना मिल गया। उसने वह दाना खा लिया। तो सारे परिवार के लोग मर गए।












 





आधारशिला शिक्षण के बारे
लोगों की भागीदारी और पहल से इसकी शुरुआत 1998 में हुई। यह एक आवासीय स्कूल है जहां आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं। कुछ करते हुए सीखना, अपने समाज की समस्याउओं के साथ जूझते हुए सीखना – यह आधारशिला की पढ़ाई की विशिष्टता है।


 

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