बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

चुनाव में कवि का बोलना

ज़ाकिर हुसैन की क़लम से तीन कविता एक ग़ज़लनुमा  1. सुनो! मन व्यथित है इन दिनों। वे हिन्दी फिल्मों की तरह धीरे-धीरे 'सब्जैक्ट की डिमांड' के नाम पर 'लोकतांत्रिक स्क्रीन' में 'राजनीतिक नग्नता' परोसते जा रहे हैं और इसी क्रम में अब...
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बुधवार, 9 अप्रैल 2014

राम कहते रहे किसने क्या कर दिया

5  नज़्म और 6 ग़ज़ल   सलमान रिज़वी की क़लम से  नज़मेंराम कहते रहे किसने क्या कर दियाराम आये नगर में तो ये हलचल देखीजिस शक्ल को पढ़ा उसपे ख़ुशियाँ देखीशोर नारों से बचकर वो चलते रहेहर घड़ी कुछ सवालों को बुनते रहे क्या हुआ...
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शनिवार, 5 अप्रैल 2014

आदिवासियों से ज़रा पूछिए अकाल का होना

  रूखी-सुखी यानी पश्चिमी निमाड़ में अकाल: आदिवासियों का अनुभव  दीपाली शुक्ला की मेल से  एकलव्य से प्रकाशित रूखी-सुखी  किताब पश्चिमी निमाड़ के आम लोगों के अकाल के अनुभवों का एक अनूठा दस्तावेज़ है। इसमें दी गई जानकारी...
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)