बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

तीन कविताएँ : तीन रंग

                                                          














रोशनी मुरारका की क़लम से 



अब नहीं रहा वो बचपन

पैदा होते ही रोना-बिलखना,
उठना फिर गिरना, गिरकर संभलना,
याद आता है अक्सर,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
परीयों की कहानी, चंदा मामा की कविता पुरानी,
सपनों की दुनिया भी लगती थी प्यारी,
याद आती है रातें वो सारी,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
भागा-दौड़ी, मस्ती-ठिठोली और क्रिकेट की टोली,
पिचकारी भर-भर खेली मित्रों संग होली,
अब रह गई किस्सों में वो केवल,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
पापा की उंगली पकड़कर स्कूल जाना,
पढ़ना, लिखना, मौज-मनाना,
बीत गया वो सारा जमाना,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
रूठना-इतराना, दादा का वो मनाना-फुसलाना,
कंधों पर बैठ मेले दिखाना,
अब अपने में ही कैद हो गया मेरा ये जीवन,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
मामा के संग मजाक में लड़ना-झगड़ना,
सिनेमा में जाकर शोर मचाना,
याद आए ननिहाल वो अपना,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
चिंता और उम्र के बढ़ते कदमों ने छिन लिया बचपन,
जिम्मेदारियों की आड़ में छिप गया बचपन,
अक्सर तन्हाइयों के क्षणों में याद आ जाता है बचपन,
पता नहीं क्यों जुदा हो जाता है बचपन,
उलझी-सी ज़िंदगी में गुँथ जाता है बचपन।

तन्हाइयाँ ये तन्हाइयाँ
 
तन्हाइयाँ ये तन्हाइयाँ,
घर की चार दिवारी में कैद जीवन की परछाईयाँ,
बिखरी-सी है ज़िंदगी, टुकड़े चंद बिखरे हुए,
समेटते हुए थक गई, हाथों की ये लकीरें,
ढूँढती है मंजिल, देखती है सपने ये आँखें,
नज़र नहीं आती मंज़िल, सिर्फ दूर तक फैली है तनहाइयों की ये रातें,
बिना वजह की ये ज़िंदगी बस यूँ ही बिती जा रही,
वक्त की रेत हाथों से फिसलती जा रही,
ज़िंदगी में अब कोई नहीं लगता अपना, सिवा उस खुदा के,
स्वार्थी इस दुनिया में, रंगमंच के इस देश में,
न गिला है किसी से, न शिकवा किसे से,
ये ज़िंदगी मिली है ईश्वर से, चाहे तन्हाइ ही मिली हो मुझे।

एक दिन फिर तुम आओंगे
 
कल जब किसी ने दस्तक दी तो मुझे लगा तुम आए,
मैं भागी उस ओर जहाँ तुम्हारे होने का भास था
लेकिन अब भी मैं वही गलती कर रही थी
अपने टूटे हुए सपनों को यूँ ही समेट रही थी
जानती हूँ नदी सागर में मिलने पर उससे जुदा नहीं हो सकती
लेकिन हम उसी नदी के दो किनारे है जो कभी मिल नहीं सकते।
सब जानती हूँ बस दिल को समझाना नहीं जानती,
आँखों से रोती हूँ पर दिल की ही सुनती हूँ।
पता नहीं अब भी क्यों लगता है,
तुम जरूर आओंगे और एक दिन फिर नदी अपने अंतिम गंतव्य तक पहुँच जाएगी।

( रचनाकार परिचय:
जन्म: 11 जुलाई 1985       Name-Roshni Murarka
शिक्षा: महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा से एम-फिल  
सृजन: कविता और लेख
संप्रति: वर्धा में रहकर स्वतंत्र लेखन 
संपर्क: roshni.boltoye@gmail.com)

 

                                                                
                                                              















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3 comments: on " तीन कविताएँ : तीन रंग "

रजनीश 'साहिल ने कहा…

चूंकि यहां लिखा है कि ‘रचना की न केवल प्रशंसा हो अपितु कमियों की ओर ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है’, इसलिए बिना लागलपेट के सीधे प्रतिक्रया पर आता हूं। क्योंकि मेरे विचार से जब कोई रचनाकार अपनी रचनाएं सार्वजनिक करता है तो उसे किसी भी तरह की प्रतिक्रिया के लिए तैयार रहना चाहिए।
असल में रोशनी जी की तीनों रचनाओं में मुझे ऐसा कुछ ख़ास नज़र नहीं आया जिसकी तारीफ़ कर सकूं। एक अख़बार में दो साल तक साहित्य पेज देखने की नौकरी के दौरान हर दूसरे-तीसरे दिन मेरे पास इन तीनों विषयों पर रचनाएं चली आती थीं और उनमें थोड़े-बहुत शब्दों के हेरफेर के साथ वही बात होती थी, जो रोशनी जी की रचनाओं में मिली। वही बचपन की यादों का ज़िक्र, वही अकेलेपन में निर्लिप्तता की और किसी को दोष न देने की बात और वही इन्तज़ार और उम्मीद की घड़ियां। भाषा व शिल्प के स्तर पर भी एक जैसी।
काॅलेज में कदम रखने के बाद जब कविता की रूमानियत तारी होती है, तब अक्सर ऐसी रचनाएं उपजती हैं। मैं रोशनी जी के लेखन के दायरे से परिचित नहीं हूं, न ही यह जानता हूं कि वे लेखन के क्षेत्र में कितने समय से हैं। एक पाठक के लिहाज से मुझे ये कविताएं कविता की रूमानियत में डूबे काॅलेज में नये-नये भर्ती हुए किसी छात्र/छात्रा की रचनाएं ही लगीं। परंतु आपने रचनाकार का जो परिचय दिया है, उसके मुताबिक देखूं तो यही कहूंगा कि यह बहुत कच्ची रचनाएं हैं, जिन्हें लिखने के लिए किसी विशेष अनुभव या मेहनत की आवश्यकता तो नहीं ही है, क्योंकि तकरीबन लोग यही सब कई-कई बार लिख चुके हैं।
यदि उन्होंने हाल ही में इस क्षेत्र में कदम रखा है तो निश्चित ही उन्हें बधाई, नये रचनाकारों का उत्साहवर्धन होना ही चाहिए, इस सलाह के साथ कि वे बहुत-बहुत पढ़ें, मेहनत करें और नवीनता के साथ सृजन करें।

कविता रावत ने कहा…

रौशनी जी की सुन्दर कविताओं की प्रस्तुति हेतु धन्यवाद..

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

तीनो कवितायेँ बहुत सुन्दर है और भाव पूर्ण
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)