उज्जवला ज्योति तिग्गा की क़लम से
अभिशप्त इतिहास
नहीं चाहिए मुझे
तुम्हारे उस असीम साम्राज्य का
नाम मात्र का राजपाट
जहां रचा जाता है
मेरे खिलाफ़
हर पल षडयंत्रो का खेल
मेरी इच्छाओं/अनिच्छाओं
आकाक्षांओ/स्वप्नों के खिलाफ़
दमन/शमन की व्यूह रचनाओं में
दफ़्न हो जाती है मेरी हर उड़ान
दिनोंदिन बढ़ता जाता है
तुम्हारा साम्राज्य
जिसके हर पत्थर पर
अंकित है मेरा अभिशप्त इतिहास
दोहराता बार-बार
हर पल
पराजय की दारूण गाथा
जहां गूंजती है
मेरी खामोश चीख
मंत्रकीलित पुतले की तरह
जिसमें चुभोया गया
तुम्हारे स्वामित्व का
हर दंश
बहता है विष बन
शिराओं में
क्या करूं?
क्या नीलकंठ बन रम जाऊं!
या हिमशैल सी जम जाऊं!!
किसी कठपुतली सी तन जाऊं!!!
क्या करू मैं?
...
मेरी बेचैन गतियों का दिशाज्ञान
दिमाग के इस कोने से उस कोने तक
मंडराता भटकता है जैसे कोई बवंडर
घिसटते हुए रात और दिन के बीच
गूंजता है एक चिरंतन विलाप!!
...
धरती के दावेदार
एक दिन जुटेंगे कोने कोने से
धरती के दावेदार
और मांगेंगे हिसाब किताब
इस धरती के सौदागरों से
खून पसीने में लथपथ
अपने हर टूटे बिखरे सपनों का
जिसके बूते चला था सदियों
सौदागरों का चक्रवर्तीय राज
धरती से अंतरिक्ष तक
और तब्दील कर दिया जिसने
हर बात को एक बिकाऊ चीज में
...
धरती के दावेदार
धूमिल नहीं होने देंगे
अपने सपनों को
और बाकी दुनिया से
छीन झपट
सभी चटकीले शोख रंगों से
भरेंगे नए रंग
अपने फ़ीके उदास सपनों में
...
अंधेरों की खदबदाती
दलदली जमीन में
छिपे अपने खिलाफ़
षड्यत्रों के मकड़जाल का
करेंगे पर्दाफ़ाश
धरती के दावेदार
मिलकर एक साथ
और किसी के भुलावे में
अब हर्गिज न आएंगे वे
...
...
काश कि मिले मेरे शब्दों को
काश कि मिले मेरे शब्दों को
ढेर सारी खामोशी और अकेलापन
कि हर मौन आहट को
सहेज सकूं अपने अंतर में
काश कि मिले मेरे शब्दों को
इतनी समझ और ज्ञान
कि महसूस करूं उनमें छिपी
झिझक द्वंद्व और भय को
किसी से कहने से पहले
काश कि मिले मेरे शब्दों को
दग्ध खामोशियों में
ठंडी बयार का आधार
कि सपनों की राख में से
बटोर पाऊं कोई नन्ही सी अंगार
काश कि मिले मेरे शब्दों को
काई और कीचड़ से पटा संसार
कि खिलें वे सब के सब
कमल दल बनकर
और फ़ैलाएं सुवास सभी दिशाओं में
काश कि मिले मेरे शब्दों को
पत्थरीले सन्नाटे का संसार
कि गूंजे कोई गीत बनकर
मूक पाषाणों में बसता
उनका अनोखा समूहगान
काश कि मेरे शब्दों को मिले
इतनी दृढ़ता कि
तूफानों के बीच भी रह सके
अविचलित अडिग और अटल/अकेली
काश कि मिले मेरे शब्दों को
इतनी समझदारी कि
ढूंढ सके
इंद्रधनुष गंदले पानी के
डबरे में भी
और अगर
कभी गिरना ही पड़े
कीचड़ या दलदल में तो
निहार सके
आसमान में
जगमगाते हुए सितारों को
कीचड़ की जगह
....
क्यों वाडिस
दौड़ रहे हैं कदम
जाने किस अनजानी चाह के पीछे
अनदेखते/कूदते/फ़ांदते
गिरते/पड़ते
गढ़ों में/कीचड़ में
दलदल में/रेत में
नहीं अभी नहीं
...
नहीं अभी नहीं
...
अभी रूको नहीं
...
अभी ठहरो नहीं
...
जाने कौन
फ़ुसफ़ुसाता है बार-बार
...
नहीं
...
नहीं अभी नहीं हुआ कुछ
...
नहीं
...
नहीं अभी खत्म नहीं हुआ सब
...
और... और... और
एक परिधि से दूसरी परिधि तक
जाने कितनी परिधियों के परे
जाने कहां तक
...
एक अंधा सफ़र!
जाने क्या है उस पार
...
इसलिए/ठहरकर बार-बार
पूछता है मन बार-बार
क्वो वाडिस
...
किधर चलें
.
गुनगुना संसार
गुनगुना संसार...
सही और गलत के सीमारेखा पर
दुविधा अनिश्चय और अनिर्णय की दलदली जमीन
न तो सही को समर्थन
न ही गलत का कोई मुखर विरोध
बीच के खेमे से गूंजता हर पल
महज गत्तों के भोंथरे तलवारों की झंकार
न तो माथे पर पड़ी कभी कोई शिकन
न ही दामन में कभी लगे कीचड़ के कोई दाग
न ही कभी पड़ी हल्की सी भी कोई खरोंच
उनके वैयक्तिक निजी शीशमहलों पर
हर बात से पिंड छुड़ा
हर बहस से हाथ धो
मूक दर्शक तमाशबीन बन महज
लेते हैं मजा भर
सवालों की दुनिया को करके अलविदा
करते हैं गुजारा पीढ़ी दर पीढ़ी
जिंदगी की उतरन और कतरन पर
तुच्छ अभिलाषाओं और झूठे अहंकार के
उथले भंवरजाल में
डूबता उतराता भर रहता है
समस्त गुनगुना संसार
...
उथली गहराईयों के गोताखोर
उथली गहराईयों के गोताखोर
बीनते/ बटोरतें हैं हर बार
काई/ कीचड़/ कंकड़...
उथले गढ़ों/ गर्तों में
और ढ़िंढ़ोरा पीटते/बखानते
सब पर अहसान जताते
अपनी क्षुद्र क्षणजीवी उपलब्धियों का
थकते नहीं जीवन भर
पेश करते है उन्हें
सबके सम्मुख
सजा संवारकर
बारंबार हर बार
मखमली डब्बियों में संजो
बेशकीमती मोतियों की तरह
और उड़ाते हैं मजाक
जान जोखिम में डालकर
समंदर की अतल गहराईयों से
दुर्लभ अनगढ़ मोतियां
लाने वालों का
पागल और मूर्ख कहकर
जो फ़ूंक डालते हैं जीवन
क्षण भर में ही
काई में से भी
कंचन/कमल को तलाशते
बेमकसद/बेसबब
बिना किसी नफ़े नुकसान के
मकड़जाल में फ़ंसे
गोकि काई पटी
धूसर सतह में भी
तलाशते जीवन की स्वर्णिम छटा
गंदगी/बदबू के बीच तलाशते
सुगंधित हवा के बुलबुलों का भंडार
कि धुंए/सीलन में लिपटी घुटन
बनी रहे सांस लेने लायक!
कि जीवन बचा रहे जीने लायक
निरर्थक श्रम में व्यय कर जीवन
मुर्झाते हैं बिन सराहे
रेगिस्तानी फ़ूलों की तरह
या गुम जाते हैं
किसी टूटी हुई बांसुरी की
खोई हुई धुन की तरह
या पानी पर उकेरे
किसी अभिलेख की तरह
या खदबदाते भाप के
बुलबुलों की तरह
कि नींव के पत्थर से
कंगूरे तक का सफ़र
रास न आया कभी
किसी भी तरह
उनके यानी
उथली गहराईयों के गोताखोरों के
सतह पर बने रहने
या टिके रहने के
मुहिम/जद्दोजहद में
जायज है सब कुछ
मुहब्बत और जंग की तरह
कपट झूठ धूर्तता से लबरेज
वक्त पर गधे को भी
बाप बनाने से गुरेज नहीं
क्योंकि मालूम है उन्हें/कि
वास्तविक संसार में
मुख्य पात्रों का
लीलामय रंगमंच ही
बटोरता है सभी वाहवाही/तालियां
फ़ूलों के गुच्छे और भी न जाने क्या क्या
नेपथ्य के हिस्से तो हमेशा से आया है
गुमनामी/अंधेरा और गहन उदासी
तो उन्हें क्या इतना गयागुजरा समझा है
अभागे असहाय और मजबूर
औरों की तरह
जो सहते हैं हर बात
भाग्य के लेखे की तरह
वे तो भला ठहरे
असाधारण/अवतरित
विलक्षण/सर्वगुणसंपन्न
वे भला क्यों सहें
औरों की तरह
मूर्ख अज्ञानी थोड़े ही न हैं वे
जो करें किसी की भी गुलामी
बुद्धि चातुर्य मे किससे कम हैं वे भला
वे उथली गहराईयों के गोताखोर
...
...
काफ़्का के वंशज
काफ़्का के वंशज आज भी
हैं अभिशप्त रेंगने और घिसटने को
और उन अभागों की जिंदगियों पर
अपनी रोटियां सेंकने वाले
मुक्त है आज भी
आकाश में हंस और बगुले बन
विचरने के लिए बिलकुल आजाद
...
और उन अभागों के अनकहे सवाल
उमड़ते हैं बारंबार
उनकी चेतना के आखिरी बिंदु तक
कि/ आखिर क्यों नहीं चाहती है ये दुनिया
कि हम सब उड़ें/कि
शायद हमारा तो जन्म ही हुआ है
रेंगने और घिसटने के लिए
...
वे चाहे तो उड़ें आकाश में
पंछी और तितली बनकर
पर क्या मजाल जो हम
देख पाए आकाश की
जरा सी भी झलक
...
हमारे तो सांस लेने पर भी पाबदी है
यूं तो हर तरफ़ कहने को
आजादी ही आजादी है
और फ़िर सब कुछ पर तो
एकाधिकार और आरक्षण
सिर्फ़ उनका ही है
...
गिनती की सांसे
और चंद एक सपनों के झुनझुने
बस इतना ही हक है हमें
इससे ज्यादा की उम्मीद
और कल्पना भी
राजद्रोह है यहां
जिसकी सजा तय है
मृत्यु दंड से लेकर
देश निकाला तक
...
शायद तुम्हें लगे कि
हमें डरा धमका कर
मार ही डालोगे इस बार
और किसी मूक बांसुरी सी
हमारी आवाजों को दबाकर
खुद चैन की वंशी बजाओगे फ़िर से
बेखटके अपने अपने घर जाकर
...
पर लौटेंगी हमारी प्रतिध्वनियां
दुस्वप्नों की चेतावनियां बनकर
और बिखर जाएगी हवाओं में
रक्तबीजों की आंधी बनकर
जो बनकर हजार आंखे
रखेगी नजर तुम्हारी
एक एक हरकत पर
और जो तुमने कभी सोचा
उनसे बचकर निकल जाने की
कोई भी तरकीब
तो समझ लेना कि
अब नहीं है वे
पहले की तरह बकलौल और मूर्ख
जो तुहारी चाल को न भांप पाएंगे
और तुम्हारी कैसी भी चिकनी चुपड़ी बातो में
फ़िर दुबारा से आ जाएंगे
...
उन्होंने भी एकलव्य बन
सीख लिया है तुम्हारा
हर कौशल हर ज्ञान
और नौसिखिए से वे सभी
बन गए है एक से एक धुरंधर तीरंदाज
अब किसी अर्जुन के लिए नहीं
होगा कुर्बान अंगूठा किसी एकलव्य का
अब तो अर्जुन भी जीतेगा
हर प्रतियोगिता अपने ही दम खम
छल बल झूठ प्रपंच अब
पैठ न बना पाएंगे
अब तो हर तरफ़ और हर जगह
सिर्फ़ एकलव्य और एकलव्य ही
नजर आयेंगे
...
इस बार बच निकल भागने की जगह
भी कम पड़ जाएगी
जब अपने अपने घरों से
भीड़ की भीड़ निकल कर आएगी
और बदला लेगी अपने टूटे सपनों
और बेबस आंसुओं का
वे अपने हजारों लाखों हाथों से
मिलकर देंगी पटखनियां
और रौंद डालेंगी तुम जैसों को
इस बार मौका मिलने पर
...
...
मेरी कविताएं
मेरी हताशाओं/पराजयों की
अंतहीन/निस्पंद/निर्जन
जून सी दुपहरी में
अक्सर आ धमकती है
किसी बिन बुलाए मेहमान सी
मेरी कविताएं
मेरी उन्हें टरकाने/बहलाने की
सभी कोशिशों को नाकाम करती
मेरे आसपास/चारों तरफ़
मचे लूटपाट/मारकाट से
त्रस्त/घायल
मन के/अनगिन मुखौटों/कवचों को
चीरती/भेदती
उनकी तीक्ष्ण तरल
तेजोमय दृष्टि से
नहीं बच पाता है
मेरा कोई भी झूठ
मेरे अनर्थक प्रलापों को अनसुना करती
कि/सब ठीक- ठाक है
कि/मैं ठीक हूं
कि/सब कुछ ठीक चल रहा है
...
जाने किस उम्मीद में
जने किसका संदेशा ले
बीमारी की अधनींद/अधजाग के
दलदली प्रवाह में
डूबती उतराती
जाने किन टेढे मेढे
रास्तों से होकर
जाने किन किन जालों को काटकर
पहुंचती है मेरे घर तक
सपनों की एक लंबी कतार
झकझोरती/झिंझोड़ती
घेर लेती हैं मुझे/हर बार
मेरी कविताएं
...
जाने किस उम्मीद में
भीड़ भरी जगहों में
मुझे अकेला पा
कभी बस में/कभी बाजार में
और मेरी सूनी निष्प्रभ आंखों के सामने
गुजरते है फ़्रेम-दर-फ़्रेम
भूले बिसरे सपनों का
खामोश/वीतरागी जुलूस
किसी सनाका खाए व्यक्ति सा
बौखलाई सी ताकती हूं अपने आसपास
...
काफ़ी थकी/उदास निगाहों से घूरती
जाने आपस में मुड़ मुड़ कर
क्या बतियाती हैं वे
बार बार अपने सिरों को हिलाती
मेरी बेचारगी/दयनीयता का
लेखा जोखा सहेजती
बीती स्मृतियों को एडिट करती
गुम जाती हैं व्यस्तता के भंवर में
छोड़ जाती हैं मुझे हक्का-बक्का
हैरान-परेशान
अगली मुलाकात के लिए
...
झुंझलाई सी उन्हें विदा करने की हड़बड़ी मे
अक्सर किसी गलत स्टाप पर उतर जाती हूं कई बार
दिग्भ्रांत बौखलाई सी
गलत मकान में जा घुसती हू कभी कभार
ताकि वे छोड़ दें मेरा पीछा/तंग आकर
मुझे मेरे हाल पर अकेला छोड़ दें
जब कहीं भी कुछ भी सही नहीं है तो
भला मैं ही क्यों अपना पता सही बताकर
बारंबार उनके चंगुल में फ़ंसू
और बनती रहू बलि का बकरा/हर बार
क्यों न मैं औरों की तरह ही रहूं
...
...
करती है परेशान
करती है परेशान/रोज ही
ढेरों बातें
बेवजह दुखता है मन
उन बातों को सोचकर
जिनपर अक्सर/कभी ध्यान नहीं जाता
किसी का भी/कि आखिर
क्यों होता है वैसा जो होता है
कि क्यों नहीं होता वैसा
जैसा कि होना चाहिए
क्यों छिनता जा रहा/अधिकार तक
सपने देखने/जीने का
उम्मीद की नन्ही सी किरण तक सहेजना
किसी खतरनाक जुर्म से कम नहीं
कुछ करने और कर सकने
के बीच के गहराते धुंधलके में
गर्क हो चुका/निरंतर घटता/मिटता संसार
होने और अनहोने का फ़र्क
किसी गोधूलिवेला क्षेत्र सा
जहां कि धूमिल पड़ चुकी हो
क्षितिज/दिशाओं को दर्शाने वाली सभी रेखाएं
वास्तविकता का संसार
समेटे है सभी संभावनाओं को
पर वक्त की गति/किसी कठपुतली सी
बढ़ी जा रही है/अपने किसी अज्ञात ओरबिट पर
...
कमजोर सा खंडहर
किसी कमजोर सी खंडहर की
थकी हुई दीवार के सहारे
टिक कर भी
सांस लेती है कई बार
जिंदगी/उसके
ढहने और गिरने के मध्य
तमाम उलझनों के बावजूद
और अपनी कमजोर टहनियों से
थाम लेती है उन ढहती दीवारों को
...
उसकी करूण कराह भरी विलाप में
मिला देती है जिंदगी अपना जोशीला संगीत
बीते हुए ठहरे खामोश पलों में घोल देती है जिंदगी
खिलखिलाहट भरे दिनों की अनवरत गूंज
जिसकी अलमस्त अल्हड़ और बेपरवाह
स्मृतियों तक के चूरे को भी परत-दर-परत
छीनता जा रहा है उससे समय हर पल हर क्षण
...
पर जिंदगी उसके अकेले निर्जन मूक संसार की
ढहती हुई मीनारों की कमजोर दीवारों पर
जो खड़ी थी सदियों से अडिग/अविचलित
हर तूफ़ान के सामने, उसकी सत्ता को धता बता
रोप देती है उनपर नए नए रस-रंग की बेलें
...
अपने आसपास के बेआवाज ढहते परिवेश में
आशा और उम्मीद की किरण बनकर
खिलती नन्ही कलियां
खेल रही है आंखमिचौली
समय के धूपछांही परछाईयों से
कि किसी दिन झांकेगी वही कमजोर टहनियां
समय के भंवरजाल से बाहर मजबूत लंगर बन
और देगी प्रश्रय तूफ़ानों मे फ़ंसे कितने ही
डूबते भटकते जहाजों को
जो आएंगे लौटकर किसी रोज
अपने अपने किनारों पर गले लगाने
अपनी भूली बिसरी जिंदगियों को
उनकी शीतल छांव में
खोजने अपना खोया हुआ सुकून
...
...
(लेखिका-परिचय:
जन्म: १७ फ़रवरी १९६० दिल्ली में.
शिक्षा: राजनीतिशास्त्र में स्नातकोत्तर शिक्षा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली से.
सृजन: कविता आलेख अनुवाद आदि.
संप्रति: भारतीय कृषि अनुसधान परिषद् दिल्ली में कार्यरत.
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ख़ामोश फ़लक और
अग्निपाखी
संपर्क:
ujjwalajyotitiga@gmail.com )