बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 17 जून 2013

गाती हुई नदी का रुदन

फोटो  संजय कपरदार चार किमी की नदी यात्रा ने बताया कैसे राँची को कभी नमी देने वाली नदी हरमू हो रही है अब गुम  सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से  मां कभी अपने बच्चों के लिए बददुआ नहीं कह सकती। भले, उनके लाडले उनका...
read more...

बुधवार, 12 जून 2013

शाम की मुंडेर पर कुछ सवाल बैठे हैं

कुलदीप अंजुम की क़लम से    1.शांति   इतिहास में अहिंसा अपंगो का उपक्रम रही ! अमन बुजदिलों का हथियार  तभी तो कबूतर जैसे मासूम और अपेक्षाकृत कम होशियार  परिंदे को बनाया गया शांति...
read more...

शनिवार, 8 जून 2013

मलयाली सिनेमा की पहली अभिनेत्री रोज़ी के दलित दामन पर दबंग दाग

उपेक्षित हैं मलयाली सिनेमा के ओबीसी पिता जेसी डेनियल अश्विनी कुमार पंकज की क़लम से क्या भारतीय सिनेमा के सौ साल में पीके रोजी को याद किया जाएगा? सिनेमा का जो इतिहास अब तक पेश किया जा रहा है उसके मुताबिक तो...
read more...

गुरुवार, 6 जून 2013

राब्ता रखना ज़िंदगी के हर चेहरे से

  कल्याणी कबीर की क़लम से वो क़लम जो उगलती है आग कागजों पे . दिलाती है ये उम्मीद कि बाकी है इंसानियत आतंक बोने वाले लकड़बग्घों पे चीखती है जो , देती है जवाब रज़िया के बदन पर फिसलती ओछी नज़र को . वो कलम जो भूखी रहकर भी दूसरों की...
read more...
(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)