बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 17 जून 2013

गाती हुई नदी का रुदन


फोटो  संजय कपरदार

चार किमी की नदी यात्रा ने बताया कैसे राँची को कभी नमी देने वाली नदी हरमू हो रही है अब गुम 




सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से 



मां कभी अपने बच्चों के लिए बददुआ नहीं कह सकती। भले, उनके लाडले उनका ध्यान न रखें। अपने स्वार्थ के लिए उसे तार-तार तक कर डालें। मैं भी तो मां हूं, न! कुदरत के अनमोल धरोहर झारखंड के कभी 40 किलोमीटर के दायरे में कल-कल, छल-छल करने वाली मैं आज अपने जार-जार आंचल को देख सुबकने बैठती हूं, तो आंसू भी नसीब नहीं हो पाता। 40 फ़ीट चौड़ा मेरा आंचल अब इतना सिकुड़ गया है कि लाज भी बचाना मुश्किल है। मेरे लाडले! मैंने तो हमेशा तुम्हारा भला चाहा। तुम्हें और तुम्हारे खेत-खलिहानों, बाग-बगिचों को सींचा। तुमने मेरे आसपास हरियाते पेड़-पौधों को भी नहीं बख्शा। अब मैं कैसे तुझे अपने आंचल में छुपाकर समय की तपशि से झुलसने से बचाऊं! हर जगह तुमने अतिक्रमण कर घर-दुकानों से पाट दिया है। शहर की सारी गंदगी मेरी ही गोद में डाल देते हो। वहीं पॉलीथीन का ढेर मेरे माथे पर रह-रह कर काँटा बन चुभता है। (भास्कर के 5  जून 20 1 3 के अंक में प्रकाशित  )

मेरे प्रिय नागरिको!

पहले बहुत पहले से दो दशक पूर्व  तक  मैं हरमू नदी की  जल धारा मधुर सा गान सुनाती हुई बढ़ती रही। मुंडारी में मुझे लोग ‘दुरंग दह’ कहते थे. यानी ‘गाती हुई नदी’. मैं गांव से ऊंचे पर्वतों से उतर झरनों के  संग छोटे-छोटे पत्थरों से बतियाती सुंदर राग सुनाती थी। हर मुसीबत और संकट को झेलते हुए मैं आगे बढ़ती रही। इधर,
तुम अपने कार्य में लगे रहो। कभी शाम-सवेरे मेरे आंचल में कभी सुबकते, हंसते गुनगुनाते रहे। बिना किसी भेदभाव के  हर एक  को  स्नेह, प्रेम बांटती रही। तुम मेरे आंगन में उतर कर अर्घ्य  देते रहे। किसी ने मेरे जल से वुजू किया, तो किसी ने मंदिर में चढ़ाया। लेकिन मेरी पावनता का  तिलक कहो, तो सही। अब कैसे  अपने माथे पर लगाओगे। मेरा कल-कल निनाद प्रदूषण की  गुफा  में आकर लुप्त हो गया। हरितिमा के  झुरमुटों को  पॉलिथिन ने लील लिया है। बाइपास हरमू से नीचे की  ओर मेरा तट भले चौड़ा है। पर ड्रेनेज और डस्टबीन बतौर मेरा इस्तेमाल यहां भी है। जब आप यहां से आगे बढ़ें, तो एएजी कॉलोनी  और नदी टोला, इदरीसिया कॉलोनी  के  बीच तुमने कचरे, पालीथीन  और अतिक्रमण  से मेरी धार  मंद कर दी। मेरा जब कंठ  ही प्यास  से सूखा है। पास की बच्चियों  को  डेढ़ किमी से पानी लाते कैसे  रोक लूं। यहां से चंद गज के फ़ासले पर मुझे अतिक्रमण  ने दबोच कर महज 5 फीट  कर दिया। आजादी के  दीवाने और धर्म  के  परवानों -का आश्रय  रहा  मेरा आंचल अब सि-कुड  चुका  है। धीरे-धीरे  मेरे साथ चलो, तो जान पाओगे। क डरू, निवारणपुर और खेत मोहल्ला के  दरमयान भी मेरी आबरू को  तुमने कितनी बार तार-तार किया है। कहीं अपना शौचालय बना दिया, कहीं खटाल। कहीं मेरी नाजुक  रही उंगलियों को  कंकरीट वॉल से कुचल डाला। लाजपत स्कूल  के  पास मैं सिसकते हुए, दुबक -दुबक  आगे बढ़ी। यहां ठहर सांस ली। तुम्हें  भी यहां मेरे आसपास हरियाते पेड़-पौधे को  देख अच्छा  लगा होगा। लेकिन मेरा खिलखिलाना तुम्हें  रास नहीं आया। रेडिसन ब्लू  की  पुलिया के पास उसे तुमने पॉलीथिन के  अंबारों से रोक  दिया। मेरे साथ चलते हुए तुम्हारा  रूमाल से नाक  ढंकना अब बुरा नहीं लगता। हंसी आती है। और गुस्सा भी। बजबजाती नलियों और नाले में मुझे किसने तब्दील कर दिया। बिल्कुल  शांत, नीरव तुम्हारे घर -आंगन, बाग-बगिचे से दूर तट से हरहराती मेरी धार को  गंदगी और पॉलीथिन से अवरुद्ध कि सने किया। तुम्हारे  इस विनाश रूपी विकास को  देख मेरा अब रोम-रोम भीगता नहीं, लरजता है। नदियों को  आराध्य  व पावन मानने वाले तुम मुझे टुकड़ों में बांट कर कैसे  खामोशी की चादर तान लेते हो! मुझे तुमने निचोड़ जरूर लिया है। लेकिन मैं पूरी तरह सूखी नहीं हूं। तुम्हारी  करतूतों से मेरा रंग काला पड़ गया। मेरी सांसें किसी कुम्हार  की धौंकनी की  तरह अब भी कहती हैं, बचा लो मुझे। धरती के  गर्भ में समा जाना नहीं चाहती मैं निस्पंद, निर्विकार! तुम भूल गए कि पत्थर  भी मेरे साथ इठला चहक कर चलते थे। उसके गुंजन से सारा वातावरण  प्रकृति रस में मदहोश हो जाता। मैंने कभी बहती मिट्टी, पत्थर , जलकुम्भी किसी को  भी नहीं रोका । तुम तो मेरे फूल  हो! मेरा न सही , अपना तो ख्याल करो। कैसा शहर छोड़ जाओगे तुम आने वाले कल के लिए !

(भास्कर के 1 1 जून 20 1 3 के अंक में प्रकाशित) 


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बुधवार, 12 जून 2013

शाम की मुंडेर पर कुछ सवाल बैठे हैं













कुलदीप अंजुम की क़लम से 


 
1.शांति 

 इतिहास में अहिंसा अपंगो का उपक्रम रही !
अमन बुजदिलों का हथियार 
तभी तो कबूतर जैसे
मासूम और अपेक्षाकृत कम होशियार 
परिंदे को बनाया गया शांति का प्रतीक !!

 2.जंग 
 
 इन्सान और जिंदगी 
के बीच की जंग 
शाश्वत और ऐतिहासिक है |
यदि केवल कर्म ही 
इस प्रतिस्पर्धा का 
आधार होता 
तो सुनिश्चित सी थी
इन्सान की जीत ,
मगर इस जंग के 
अपने कुछ एकतरफा 
उसूल हैं ,
भूख , परिवार ,परम्पराएं 
मजबूरी ,समाज, जिम्मेदारियां 
खेंच देती हैं
हौसलों के सामने 
इक लक्छ्मन रेखा 
और फिर कर्म 
का फल भी तो 
हमेशा नहीं मिलता ,
लटकती रहती है 
भाग्य की तलवार |
दमतोड़ देते हैं हौसले
और घट जाती है
जीवटता के जीतने की 
प्रत्याशा ||


 3. अष्टावक्र

आज फिर उसी दरबार पँहुचे अष्टावक्र  
फिर  हो हो कर हंस पड़े उदंड दरबारी
फिर लज्जित हो गए हैं जनक 
अष्टावक्र इस बार नहीं दुत्कारते किसी को
नीचा कर लिया है सर 
शायद समझ गए हैं
दरबारियों की ताकत 
जनक की मजबूरी  
चमड़े की अहमियत 
और ज्ञान की मौजूदा कीमत !

 4.जबाब

शाम की मुंडेर पर
कुछ सवाल बैठे हैं
हाल पूछते हैं वो

हाल क्या बताऊ में
दिल की इस तबाही का
ख्वाब ख्वाब सेहरा है
जार जार बीनाई
एक ही तो किस्सा है
फूल की जवानी का
तुमने भी तो देखा है
अंत इस कहानी का

फिर भी उनसे कह देना
मैं अभी भी जिंदा हूँ
खूब सोचता हूँ मैं 
ख्वाब देखता हूँ मैं !!
हाल क्या बताऊ में
5. मैंने ईश्वर को देखा है 

 मैंने ईश्वर को देखा है !
जाड़े कि निष्ठुर रातों में !
गहरी काली बरसातों में !
कंपकपी छोडती काया में !
पेड़ों कि धुंधली छाया में !
ज़र्ज़र कम्बल से लड़ते !
मैंने ईश्वर को देखा है !!

फुटपाथों पे जीते मरते !
सांसों की गिनती करते !
भूख मिटाने की खातिर !
मजबूरी में जो हुए शातिर !
खुद से ही धोखा करते ?
मैंने ईश्वर को देखा है !!

कुछ टूटी सी झोपड़ियों में !
भूखी सूखी अंतड़ियों में !
बेबस से ठन्डे चूल्हों में !
ताज़े मुरझाये फूलों में !
कुछ आखिर मद्धम साँसों में !
ठंडी पड़ती सी लाशों में !
इंसानियत खोजते दुनिया में !
मैंने ईश्वर को देखा है !!

 6. गेहूं बनाम गुलाब 
 निजाम के बदलने के साथ ही
रवायतें बदलने की रस्म में
सब कुछ तेज़ी से बदला
पिछली बार की तरह ....
खेत खेत जाके
ढूंढा गया गेंहू
उखाड़ फेंकने के लिए
रोपा गया कृपापात्र गुलाब.....
अधमरे गेहूं के लिए
कोई और जगह न थी
सिवाए एक
कविता के छोटे से ज़मीन के टुकड़े पर  
जहाँ वह जिंदा तो रह  सकता है 
सब्ज़ हाल  नहीं ......!!


7. अगस्त्य 


टिटहरियां आज भी चीखती हैं ...
मजबूर हैं अगस्त्य 
घट गयी है उनकी कूबत 
नहीं पी सकते समुद्र .......!!


8. हुनर

तुम्हे मालूम है 
मैंने पा ली है ऊंचाई 
और हो गया हूँ आलोचना से परे 
इसलिए नहीं कि 
मैंने उसूलों को सींचा है उम्रभर 
वरन  इसलिए 
कि मुझे आता है हुनर 
पलटने का 
आंच के रुख के मुताबिक .........!



(:परिचय
जन्म: पच्चीस नवम्बर १९८८ उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में
शिक्षा: बी टेक (कंप्यूटर साइंस )
सृजन : कविता और ग़ज़ल
सम्प्रति : इंफ़ोसिस में एनालिस्ट
संपर्क: kuldeeps.hcst@gmail.­com)




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शनिवार, 8 जून 2013

मलयाली सिनेमा की पहली अभिनेत्री रोज़ी के दलित दामन पर दबंग दाग




















उपेक्षित हैं मलयाली सिनेमा के ओबीसी पिता जेसी डेनियल



अश्विनी कुमार पंकज की क़लम से

क्या भारतीय सिनेमा के सौ साल में पीके रोजी को याद किया जाएगा? सिनेमा का जो इतिहास अब तक पेश किया जा रहा है उसके मुताबिक तो नहीं. सुनहले और जादूई पर्दे के इस चमकीले इतिहास में निःसंदेह भारत के उन दलित कलाकारों को कोई फिल्मी इतिहासकार नहीं याद कर रहा है जिन्होंने सिनेमा को इस मुकाम तक लाने में अविश्वसनीय यातनाएं सहीं. थिकाडु (त्रिवेन्द्रम) के पौलुस एवं कुंजी के दलित क्रिश्चियन परिवार में जन्मी रोजम्मा उर्फ पीके रोजी (1903-1975) उनमें से एक है जिसे मलयालम सिनेमा की पहली अभिनेत्री होने का श्रेय है. यह भी दर्ज कीजिए कि रोजी अभिनीत ‘विगाथाकुमरन’ (खोया हुआ बच्चा) मलयालम सिनेमा की पहली फिल्म है. 1928 में प्रदर्शित इस मूक फिल्म को लिखा, कैमरे पर उतारा, संपादित और निर्देशित किया था ओबीसी कम्युनिटी ‘नाडर’ से आने वाले क्रिश्चियन जेसी डेनियल ने. 

रोजी के पिता पौलुस पलयम के एलएमएस चर्च में रेव. फादर पारकेन के नौकर थे. जबकि वह और उसकी मां कुंजी घर का खर्च चलाने के लिए दिहाड़ी मजदूरी किया करते थे. परंपरागत दलित नृत्य-नाट्य में रोजी की रुचि थी और वह उनमें भाग भी लेती थी. लेकिन पेशेवर कलाकार या अभिनेत्री बनने के बारे में उसने कभी सोचा नहीं था. उस जमाने में दरअसल वह क्या, कोई भी औरत फिल्मों में काम करने के बारे में नहीं सोचती थी. सामाजिक रूप से फिल्मों में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था. पर जब उसे जेसी डेनियल का प्रस्ताव मिला तो उसने प्रभु वर्ग के सामाजिक भय को ठेंगे पर रखते हुए पूरी बहादुरी के साथ स्वीकार कर लिया. 

मात्र 25 वर्ष की उम्र में जोसेफ चेलैया डेनियल नाडर (28 नवंबर 1900-29 अप्रैल 1975) के मन में फिल्म बनाने का ख्याल आया. नाडर ओबीसी के अंतर्गत आते हैं और आर्थिक रूप से मजबूत होते हैं. डेनियल का परिवार भी एक समृद्ध क्रिश्चियन नाडर परिवार था और अच्छी खासी संपत्ति का मालिक था.  डेनियल त्रावणकोर (तमिलनाडु) के अगस्तीवरम तालुका के बासिंदे थे और त्रिवेन्दरम के महाराजा कॉलेज से उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की थी. मार्शल आर्ट ‘कलारीपट्टू’ में उन्हें काफी दिलचस्पी थी और उसमें उन्होंने विशेषज्ञता भी हासिल की थी. कलारी के पीछे वे इस हद तक पागल थे कि महज 22 वर्ष की उम्र में उस पर ‘इंडियन आर्ट ऑफ फेंसिंग एंड स्वोर्ड प्ले’ (1915 में प्रकाशित) किताब लिख डाली थी. कलारी मार्शल आर्ट को ही और लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से उन्होंने फिल्म के बारे में सोचा.  फिल्म निर्माण के उस शुरुआती दौर में बहुत कम लोग फिल्मों के बारे में सोचते थे. लेकिन पेशे से डेंटिस्ट डेनियल को फिल्म के प्रभाव का अंदाजा लग चुका था और उन्होंने तय कर लिया कि वे फिल्म बनाएंगे.

फिल्म निर्माण के मजबूत इरादे के साथ तकनीक सीखने व उपकरण आदि खरीदने के ख्याल से डेनियल चेन्नई जा पहुंचे. 1918 में तमिल भाषा में पहली मूक फिल्म (कीचका वधम) बन चुकी थी और स्थायी सिनेमा हॉल ‘गेइटी’ (1917) व अनेक फिल्म स्टूडियो की स्थापना के साथ ही चेन्नई दक्षिण भारत के फिल्म निर्माण केन्द्र के रूप में उभर चुका था. परंतु चेन्नई में डेनियल को कोई सहयोग नहीं मिला. कई स्टूडियो में तो उन्हें प्रवेश भी नहीं करने दिया गया. दक्षिण भारत का फिल्मी इतिहास इस बात का खुलासा नहीं करता कि डेनियल को स्टूडियो में नहीं घुसने देने की वजह क्या थी. इसके बारे में हम अंदाजा ही लगा सकते हैं कि शायद उसकी वजह उनका पिछड़े वर्ग (ओबीसी) से होना हो. 

बहरहाल, चेन्नई से निराश डेनियल मुंबई चले गए. मुंबई में अपना परिचय उन्होंने एक शिक्षक के रूप में दिया और कहा कि उनके छात्र सिनेमा के बारे में जानना चाहते हैं इसीलिए वे मुंबई आए हैं. इस छद्म परिचय के सहारे डेनियल को स्टूडियो में प्रवेश करने, फिल्म तकनीक आदि सीखने-जानने का अवसर मिला. इसके बाद उन्होंने फिल्म निर्माण के उपकरण खरीदे और केरल लौट आए.

1926 में डेनियल ने केरल के पहले फिल्म स्टूडियो ‘द त्रावणकोर नेशनल पिक्चर्स’ की नींव डाली और फिल्म निर्माण में जुट गए. फिल्म उपकरण खरीदने और निर्माण के लिए डेनियल ने अपनी जमीन-संपत्ति का बड़ा हिस्सा बेच डाला. उपलब्ध जानकारी के अनुसार डेनियल की पहली और आखिरी फिल्म की लागत उस समय करीब चार लाख रुपये आई थी. आखिरी इसलिए क्योंकि उनकी फिल्म ‘विगाथाकुमरन’ को उच्च जातियों और प्रभु वर्गों के जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा. फिल्म को सिनेमा घरों में चलने नहीं दिया गया और व्यावसायिक रूप से फिल्म सफल नहीं हो सकी. इस कारण डेनियल भयानक कर्ज में डूब गए और इससे उबरने के लिए उन्हें स्टूडियो सहित अपनी बची-खुची संपत्ति भी बेच देनी पड़ी. हालांकि उन्होंने कलारी पर इसके बाद एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाई, लेकिन तब तक वे पूरी तरह से कंगाल हो चुके थे. 

फिल्म निर्माण के दौर में डेनियल के सामने सबसे बड़ी समस्या स्त्री कलाकार की थी. सामंती परिवेश और उसकी दबंगता के कारण दक्षिण भारत में उन्हें कोई स्त्री मिल नहीं रही थी. थक-हार कर उन्होंने मुंबई की एक अभिनेत्री ‘लाना’ से अनुबंध किया. पर किसी कारण उसने काम नहीं किया. तब उन्हें रोजी दिखी और बिना आगे-पीछे सोचे उन्होंने उससे फिल्म के लिए हां करवा ली. रोजी ने दैनिक मजदूरी पर ‘विगाथाकुमरन’ फिल्म में काम किया. फिल्म में उसका चरित्र उच्च जाति की एक नायर लड़की ‘सरोजम’ का था. मलयालम की इस पहली फिल्म ने जहां इसके लेखक, अभिनेता, संपादक और निर्देशक डेनियल को बरबाद किया, वहीं रोजी को भी इसकी भयानक कीमत चुकानी पड़ी. दबंगों के हमले में बाल-बाल बची रोजी को आजीवन अपनी पहचान छुपाकर गुमनामी में जीना पड़ा.

त्रिवेन्दरम के कैपिटल थिएटर में 7 नवंबर 1928 को जब ‘विगाथाकुमरन’ प्रदर्शित हुई तो फिल्म को उच्च जातियों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा. उच्च जाति और प्रभु वर्ग के लोग इस बात से बेहद नाराज थे कि दलित क्रिश्चियन रोजी ने फिल्म में उच्च हिंदू जाति नायर की भूमिका की है. हॉल में पत्थर फेंके गए, पर्दे फाड़ डाले. रोजी के घर को घेर कर समूचे परिवार की बेइज्जती की गई. फिल्म प्रदर्शन की तीसरी रात त्रावणकोर के राजा द्वारा सुरक्षा प्रदान किए जाने के बावजूद रोजी के घर पर हमला हुआ और दबंगों ने उसकी झोपड़ी को जला डाला. चौथे दिन भारी विरोध के कारण फिल्म का प्रदर्शन रोक दिया गया. 

दक्षिण भारत के जानेमाने फिल्म इतिहासकार चेलंगट गोपालकृष्णन के अनुसार जिस रात रोजी के घर पर हमला हुआ और उसे व उसके पूरे परिवार को जला कर मार डालने की कोशिश की गई, वह किसी तरह से बच कर निकल भागने में कामयाब रही. लगभग अधमरी अवस्था में उसे सड़क पर एक लॉरी मिली. जिसके ड्राईवर ने उसे सहारा दिया और हमलावरों से बचाते हुए उनकी पकड़ से दूर ले गया. उसे बचाने वाले ड्राईवर का नाम केशव पिल्लई था जिसकी पत्नी बन कर रोजी ने अपनी शेष जिंदगी गुमनामी में, अपनी वास्तविक पहचान छुपा कर गुजारी. 

रोजी की यह कहानी फिल्मों में सभ्रांत परिवारों से आई उन स्त्री अभिनेत्रियों से बिल्कुल उलट है, जिनकी जिंदगियां सुनहले फिल्म इंडस्ट्री ने बदल डाली. फिल्मों ने उन्हें शोहरत, धन और अपार सम्मान दिया. लेकिन रोजी को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. उसे लांछन, अपमान व हमले का सामना करना पड़ा. दृश्य माध्यम से प्रेम की कीमत आजीवन अदृश्य रहकर चुकानी पड़ी. 

जेसी डेनियल को तो अंत-अंत तक उपेक्षा झेलनी पड़ी. बेहद गरीबी में जीवन जी रहे डेनियल को केरल सरकार मलयाली मानने से ही इंकार करती रही. आर्थिक तंगी झेल रहे कलाकारों को वित्तीय सहायता देने हेतु जब सरकार ने पेंशन देने की योजना बनाई, तो यह कह कर डेनियल का आवेदन खारिज कर दिया गया कि वे मूलतः तमिलनाडु के हैं. डेनियल और रोजी के जीवन पर बायोग्राफिकल फीचर फिल्म ‘सेल्युलाइड’ (2013) के निर्माता-निर्देशक कमल ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि केरल के पूर्व मुख्यमंत्री करूणाकरन और ब्यूरोक्रेट मलयाट्टूर रामकृष्णन नहीं चाहते थे कि नाडर जाति के फिल्ममेकर को ‘मलयालम सिनेमा का पिता’ होने का श्रेय मिले. हालांकि बाद में, 1992 में केरल सरकार ने डेनियल के नाम पर एक अवार्ड घोषित किया जो मलयाली सिनेमा में लाइफटाईम एचिवमेंट के लिए दिया जाता है. 

रोजी और जेसी डेनियल के साहस, रचनात्मकता और बलिदान की यह कहानी न सिर्फ मलयालम सिनेमा बल्कि भारतीय फिल्मोद्योग व फिल्मी इतिहासकारों के भी सामंती चेहरे को उधेड़ती है. रोजी और डेनियल हमें सुनहले पर्दे के पीछे उस सड़ी दुनिया में ले जाते हैं जहां क्रूर सामंती मूंछे अभी भी ताव दे रही हैं. सिनेमा में वंचित समाजों के अभूतपूर्व योगदान को स्वीकार करने से हिचक रही है. यदि चेलंगट गोपालकृष्णन, वीनू अब्राहम और कुन्नुकुजी एस मनी ने डेनियल व रोजी के बारे में नहीं लिखा होता तो हम मलयालम सिनेमा के इन नींव के पत्थरों के बारे में जान भी नहीं पाते. न ही जेनी रोविना यह सवाल कर पाती कि क्या आज भी शिक्षा व प्रगतिशीलता का पर्याय बने केरल के मलयाली फिल्मों कोई दलित अभिनेत्री नायर स्त्री की भूमिका अदा कर सकती है? 


(परिचय: वरिष्‍ठ पत्रकार। झारखंड के विभिन्‍न जनांदोलनों से जुड़ाव।
सृजन: साहित्य, कला , संस्कृति पर प्रचुर लेखन-प्रकाशन। कई किताबें प्रकाशित। आदिवासी सौन्दर्य शास्त्र पर केन्द्रित पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य।
संप्रति: संताली पत्रिका जोहार सहिया और रंगकर्म त्रिमासिक रंगवार्ता का सम्पादन. इंटरनेट पत्रिका अखड़ा की टीम के सदस्‍य।
संपर्क:akpankaj@gmail.com )         


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गुरुवार, 6 जून 2013

राब्ता रखना ज़िंदगी के हर चेहरे से


 









कल्याणी कबीर की क़लम से

वो क़लम
जो उगलती है आग कागजों पे .
दिलाती है ये उम्मीद कि बाकी है इंसानियत
आतंक बोने वाले लकड़बग्घों पे चीखती है जो ,
देती है जवाब रज़िया के बदन पर फिसलती ओछी नज़र को .

वो कलम जो भूखी रहकर भी दूसरों की रोटी के लिए शोर करती है ,
वो कलम जो जंगलों में छिपी जिंदगियों में भोर करती है ,
जो घंटो जगा करती है , चला करती है
किसी पहरुए की तरह
उस कलम से
 प्यार है मुझे .


2. 

सोचती हूँ
और डरती हूँ
जब हौसलों के चेहरे पर पड़ जायेंगी झुर्रियाँ
मुझे रोटी के लिए तेरे दर की  तरफ देखना होगा
जब बुढापा रुलाएगा कदम दर कदम पे
तब महफूज़ छत की जरुरत होगी मेरी बूढी नींद को
गर दूंगी तेरे हाथों में दवाओं की कोई लिस्ट
तू भूल तो न जाएगा उन दवाओं को खरीदना
अभी तो चूमता है मुझको बेसबब घड़ी -घड़ी 
कहीं तरसेंगे तो नहीं हम तेरे हाथों की छुअन को
जाने कल के आईने में कैसे दिखेंगे हमारे रिश्ते
फिलवक्त तो यही सच है हमारे दरम्यान मेरे बच्चे.
'' मेरे जिस्म का टुकड़ा तू मेरी जान रहेगा
मेरे लिए हमेशा तू नादान रहेगा

 3. 


ज़िन्दगी के इशारों पर .
जब बजते हैं सितार दर्द के
तभी गुनगुनाती है ज़िन्दगी
खिलती है तभी वो एक गुलाब के मानिंद
जब घेरते हैं हालात नुकीले ख़ार की तरहI
आफताब बनकर चमकने से पहले ये ज़िन्दगी
हताशा की काली रात से गुजराती जरुर हैI
यह जलती है, तपती है धूप के झरने में हर रोज़
ताकि मुफलिसी में भी मुस्कुराती रहे किसी फ़क़ीर की तरह I
तभी तो ,,
राब्ता रखना ज़िन्दगी के हर चेहरे से मगर
मत झांकना कभी इसकी जादुई आँखों में I
मानकर इसे इस वक्त का सबसे बड़ा खुदा
जी लेना अपनी साँसें ज़िन्दगी के इशारों परI


(परिचय:
जन्म: ५ जनवरी को मोकामा ,बिहार में .
शिक्षा: स्नातकोत्तर रांची विश्वविद्यालय से, शोधार्थी - महाकाव्य विषय पर .
सृजन: स्थानीय साहित्यिक पत्रिकाओं और समाचारपत्रों में रचनाएं प्रकाशित .
सम्प्रति: शिक्षिका .( जमशेदपुर )
जमशेदपुर आकाशवाणी में आकस्मिक उद्घोषिका
संपर्क:  kalyani.kabir@gmail.­com)



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