बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 8 मई 2013

कहीं सिर पर सींग तो न उग आए
















आशीष मिश्रा  की क़लम से 


हादसों की गूँज में इंसान का मातम


इन हाथों का काम ही क्या है? सुबह उठकर अखबार की पोथी थाम लेते हैं। चश्मा आगे पीछे खिसका कर देखते हैं। कसमसाते हुए पढ़ते हैं,   दिल्ली में बस में रेप कर दिया। दारू के नशे में कहीं नीम की छांहों में पड़ा पुलिसकर्मी भी एक फोटो कैपशन के साथ है। मामा मंत्री ने भांजे को करोड़ की घूस दिला दी। सरकार ने किसी चिट्ठी में व्हाइटनर घिस डाला। मंत्री का बच्चा गुंडागर्दी करते पकड़ा गया। मां के कड़ों के लिए बेटे ने पैर काट डाले। पति ने प्रेमिका के साथ मिलकर बीवी की हत्या कर दी। 55 साल के बुजुर्ग ने बच्ची को फुसलाया। फिर ताली पीटने लगते हैं ये हाथ, ओत्तेरी, गेल ने छक्कों की झड़ी लगा दी? मॉडल ने टॉपलैस शूट कराया? अचानक कुछ होने लगता है। भीतर कुछ बेचैनी सा। विचलित होकर यहां वहां ताकने लगता हूं। घर में सब ठीक है। ऑफिस ठीक चल रहा है। तनख्वाह सही समय पर मिल रही है। किसी का उधार नहीं है। फिर? कुछ तो है कहीं।
अपने सिर, पंजों और पैरों की उंगलियों के पोरे सहलाकर देखता हूं। डर लगा रहता है। इंसान ही हूं ना अभी। कहीं सिर पर सींग तो न उग आए हैं। कहीं उंगलियों के नाखून नुकीले और गोल तो नहीं हो गए हैं। कहीं पैरों की जगह खुर तो नहीं निकल आए हैं। कहीं पशुत्व का कोई बीज तो मुझमें नहीं आ रहा है। कभी कभी सीने पर हाथ रखकर सहलाता हूं। आवाज देता हूं अपने ही भीतर झांक कर-’ओ दिल, ज़िन्दा है ना, ये धड़कन नकली तो नहीं।’ धड़कन का अपना उतार चढाव होता है। डरता हूं ये समतल न हो जाए। कहीं ऐसा न हो कचरे के ढेर पर थैली में लिपटी नवजात बच्ची देखूं और धड़कन की रफ्तार को कोई फर्क ही न पड़े। चार दिन मां से बात न हो और ये उतरे ही ना। किसी गरीब को चिटफंड में लुटता देखकर ये पसीजना तो बंद न कर देगा। कभी कभी दांत भी टटोलता हूं। गौर से देखता हूं। ये सामान्य से ज्यादा तो नहीं बढ़ आए हैं। कहीं इनकी भूख अन्न और जल से ज्यादा तो नहीं हो गई है। कहीं ये लहू तो न मांग बैठेंगे। कहीं किसी स्त्री की देह तो न मांग बैठेंगे। क्या पता। आजकल हम खुदको कहां टटोलते हैं। मोटरसाईकिल पर पीछे बंधे बैग की तरफ बार बार ध्यान जाता है। कहीं रास्ते में गिर न जाए। पर अपने ही तरफ...? कहीं कुछ गिर न जाए। चरित्र या सोच। कहां सोचते हैं हम? सोचने का वक्त भी कहां है। बस, एक निर्मम दौड़ में शामिल हैं। थकना मना है। युवराज ने कहा था। युवराज थका तो सलमान ने कहना आरंभ किया। दौड़ बराबर करनी है। दौड़ नहीं थकनी है। ऐसे में क्या पता। कब अवसर मिले और हम गिर पड़ें। अपने आप में। कब अचानक से मालूम हो कि सिर पर सींग उगे हैं, उंगलियों के आगे गोल और नुकीले नाखून निकले हैं और पैर खुर हो गए हैं। हम तब शायद ये समझें कि ये सब अचानक हुआ। लेकिन अचानक तो कुछ नहीं होता। अच्छा है कुछ होने की नब्ज ली जाए। टटोला जाए। हर वक्त, हर घड़ी। अपने आप को टटोलना अच्छा है।
वरना किसी दिन अखबार में कोई पढ रहा होगा, चिटफंड का फर्जीवाड़ा कर भागी कंपनी, और हम अपना फोन स्विच ऑफ कर कहीं छुपे होंगे। छपा होगा बस में छेड़छाड़ के आरोपी को धरा, और हम भीड़ को सफाई दे रहे होंगे कि गलती से हाथ लग गया। लिखा होगा रिश्वत लेते कर्मचारी रंगे हाथ गिरफ्तार, और हम कह रहे होंगे ये पैसे तो उसने रिश्तेदार के इलाज के लिए दिए थे। जाने क्या क्या लिखा होगा और हम हथकड़ियों, कोर्ट परिसर, थाने या भीड़ न जाने कहां होंगे। अगर अखबार में हमारा जिक्र नहीं, या हम इनमें से किसी जगह नहीं, इसका ये मतलब तो नहीं कि हममें पशुत्व नहीं। हम हंस न रहे हों कि ’मैं पकड़ा नहीं गया।’

(लेखक-परिचय:
जन्म : 10 नवंबर 1982 को राजस्थान में
शिक्षा: एमए हिन्दी एवं राजनीति विज्ञान, बीजेएमसी
सृजन: वर्चुअल संसार में छिटपुट। किसी ब्लॉग पर पहली बार 

सम्प्रति:  पिंकसिटी डॉट कॉम में कंटेंट राइटर
संपर्क: vinaysagar.mishra@gmail.com)


Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

2 comments: on "कहीं सिर पर सींग तो न उग आए "

dr.mahendrag ने कहा…

कहना चाहूँगा---
हादसों के शहर में किसे फुर्सत है मातम की,
जब हर कोई अपना जनाजा खुद ढो रहा हो.
ढूंढ तो ले ग़ालिब उस शख्स को तू
,जो अपने गम में रो न रहा हो

व्यथा तो आपने कह दी,पर इसका हल अभी कहीं नजर नहीं आता.

anwar suhail ने कहा…

’मैं पकड़ा नहीं गया।’

बेशक हम इसलिए हंस रहे हैं, मज़े ले रहे हैं कि हम पकडे नहीं गए..

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)