बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 26 मई 2013

सुकमा के बहाने नक्सलियों की पड़ताल

ध्रुव गुप्ता की क़लम से  छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं पर नक्सली हमले के बाद कुछ मित्रों के फ़ेसबुक स्टेटस देखकर ऐसा लगता है कि  नक्सलियों के बारे में उनका ज्ञान किताबों पर ज्यादा आधारित है जो उन्होंने...
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शनिवार, 25 मई 2013

"आई डोंट बीलिव इन गॉड"

शिखा वार्ष्णेय की क़लम से  संदर्भ लंदन की आतंकी घटना  अपने देश से लगातार , भीषण गर्मी की खबरें मिल रही हैं, यहाँ बैठ कर उन पर उफ़ , ओह , हाय करने के अलावा हम कुछ नहीं करते, कर भी क्या सकते...
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मंगलवार, 21 मई 2013

कारखानों की प्यास बुझाते सूख गयीं जलथल नदियाँ

रश्‍मि शर्मा की क़लम से  संदर्भ झारखंड उर्फ़ गाँव की गलियाँ  नदि‍यां जीवनदायि‍नी हैं। हमारे अस्‍ति‍त्‍व की पहचान भी। सरकार कभी नदि‍यों को जोड़ने के फि‍राक में रहती है तो कभी बांटने के। नदि‍यों...
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सोमवार, 13 मई 2013

ज्यों मिली आह, वैसे 'वाह' मिले

धीरेन्द्र सिंह की क़लम से  मेरी बात की बात कुछ भी नहीं है कहूँ क्या सवालात कुछ भी नहीं है तुम्हारी नज़र में ये दुनिया है सब कुछ हमारे ये हालात कुछ भी नहीं है? गमे- ज़िन्दगी में अगर तुम जो हो तो सितारों की सौगात कुछ भी नहीं...
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बुधवार, 8 मई 2013

कहीं सिर पर सींग तो न उग आए

आशीष मिश्रा  की क़लम से  हादसों की गूँज में इंसान का मातम इन हाथों का काम ही क्या है? सुबह उठकर अखबार की पोथी थाम लेते हैं। चश्मा आगे पीछे खिसका कर देखते हैं। कसमसाते हुए पढ़ते हैं,   दिल्ली में बस में रेप...
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)