ध्रुव गुप्ता की क़लम से
छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं पर नक्सली हमले के बाद कुछ मित्रों के फ़ेसबुक स्टेटस देखकर ऐसा लगता है कि नक्सलियों के बारे में उनका ज्ञान किताबों पर ज्यादा आधारित है जो उन्होंने महाश्वेता देवी और अरुन्धती राय जैसे आतंकवाद के समर्थक लेखकों से प्राप्त किया है। बिहार के कई नक्सल प्रभावित जिलों में अपने व्यक्तिगत अनुभव और कई नक्सली नेताओं से पूछताछ के आधार पर नक्सलियों के बारे में कुछ बहुप्रचलित भ्रमों का मैं बिन्दुवार निवारण करना चाहूंगा। मुझे पता है कि बहुत से मानवाधिकारवादी और वामपंथी मित्रों को यह नागवार गुज़रेगा, लेकिन सच तो सच ही होता है !
लुटेरों का है समूह
यह आम धारणा है कि नक्सलवादी शोषक सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध युद्धरत हैं। हकीकत यह है कि यह वर्गसंघर्ष की आड़ में यहां अपराधियों और लूटेरों का एक समूह कार्यरत है जो पहले स्थानीय आदिवासियों और दलितों की मदद से पहले जंगलों, पहाड़ों और खेती के लिए उर्वर जमीनों पर अपना वर्चस्व स्थापित करता है, जिसके बाद आरंभ होता है वन पदाधिकारियों, कीमती लकड़ी और बीड़ी पत्ते के ठेकेदारों, सड़क या भवन निर्माण में लगी कंपनियों, बालू तथा पत्थर के ठेकेदारों और इलाके के किसानों से रंगदारी उगाहने का अंतहीन सिलसिला। लूटपाट की सुविधा के लिए उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र को एरिया और जोन में बांट रखा है। एक एक नक्सली जोन की कमाई करोड़ों में है। यह मत सोचिए कि यह कमाई क्षेत्र के आदिवासियों और दलितों की शिक्षा, रोजगार और कल्याण पर खर्च होता है । इसका आधा हिस्सा आंध्र प्रदेश और बंगाल में बैठे नक्सलवाद के आकाओं को भेजा जाता है और आधा स्थानीय नक्सलियों के हिस्से आता है। लगभग तमाम नक्सली नेताओं के पास महानगरों में आलीशान फ्लैट्स और भारी बैंक बैलेंस है। यक़ीन मानिए, इस लूट का कोई हिस्सा आदिवासियों या दलितों के पास नहीं जाता।
स्थानीय दलित-आदिवासियों के शोषक
यह आम धारणा है कि नक्सलवाद के बैनर तले समाज का वंचित तबका - आदिवासी और दलित अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे है। शायद लोगों को पता नहीं कि किसी भी जोन का नेतृत्व आंध्र या बंगाल में बैठे आक़ा तय करते हैं। किसी जोन में नेता और हमलावर दस्ते के लोग आमतौर पर स्थानीय नहीं होते, बाहर से भेजे जाते हैं। हर जोन में ऐसे 10 से 20 लोग बाहर से पोस्ट किये जाते हैं जिनपर निर्णय और कार्रवाई की ज़िम्मेदारी होती है। स्थानीय लोगों की भूमिका महज़ हमलों के वक़्त संख्या बढ़ाने, नक्सलियों के हथियार ढोने और छुपाने, दस्तों के लिए आसपास के गावों से भोजन जुटाने और उनकी हवस के लिए अपने गांव-टोलों से लडकियां भेजने तक सीमित है। इतनी सेवा के बदले उन्हें सौ-पचास रूपये और कभी-कभी किसी किसान की जमीन पर कब्ज़ा कर खेतीबारी का आदेश मिलता है। किसी ऑपरेशन के बाद नक्सली नेता तो कुछ समय के लिए बड़े शहरों में छुपकर एय्याशी करते हैं, पुलिस के दमन का शिकार स्थानीय आदिवासियों और दलितों को होना पड़ता है।
क्या निशाने पर पूंजीपति और सामंत भी!
ज्यादातर लोगों का मानना है कि नक्सलवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा लेती है। मित्रों, आप भ्रम में हैं। यदि इनका कोई विचार है तो वह कागजों में होगा। पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक हर चुनाव के पहले ये लोग पहले चुनावी वहिष्कार का नारा और कुछ छिटपुट घटनाओं को अंजाम देकर अपनी क़ीमत बढ़ाते हैं और फिर सबसे ज्यादा कीमत देने वाले किसी उम्मीदवार, चाहे वह कितना बड़ा शोषक और अनाचारी क्यों न हो, के पक्ष में फतवे ज़ारी करते है। आंकड़े एकत्र कर के देख लीजिये कि कितने सामंतों और पूंजीपतियों के विरुद्ध नक्सलियों ने हिंसात्मक कारवाई की है। आपको निराशा हाथ लगेगी। इनकी नृशंसहिंसा के शिकार हमेशा से निहत्थे ग्रामीण, गरीब सिपाही तथा छोटे और सीमांत किसान ही होते रहे हैं और होते रहेंगे !
जन्म:पहली सितंबर 19 50
शिक्षा: गोपालगंज से स्नातक और मुजफ्फरपुर से स्नातकोत्तरकिया
भारतीय पुलिस सेवा में बड़े पदों पर रहे. खगड़िया, सुपौल, बांका, मुंगेर, समस्तीपुर, मोतिहारी और सीतामढ़ी आदि के सीआईडी और पुलिस मुख्यालयों में रहे। बाद में रिटायरमेंट ले लिया।
सृजन: कविता और सामयिक आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
संप्रति: दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन
संपर्क:dhruva.n.gupta@gmail.com )