हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया....
सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से
सितम्बर की कोई तारीख. साल २००८.रायपुर को मैं अलविदा कर चुका था. देशबंधु के प्रबंधन से ऊब थी, वहीँ दिल्ली आकर कुछ अलग कर गुजरने का ज्वार रह-रह कर उबल रहा था. 'भासा' के राजेश व उसके साथियो की तरह दिल्ली अपन भी फतह करना चाहते थे. दोपहर ढल आई थी. पंडित जी (कथादेश के संपादक हरिनारायण जी) कनाट प्लेस के दफ्तर गए थे. उनके एक अफसर मित्र की पत्नी ज्योतिष की पत्रिका निकालती थीं. जिसका दफ्तर एक बड़ी इमारत में था. वहीँ कथादेश को एक कोना नसीब हो गया था. दोपहर बाद पंडित जी वहीँ चले जाते. पन्त जी (लक्ष्मी प्रसाद पन्त , सम्प्रति भास्कर जयपुर में सम्पादक) ने कथादेश को बाय कर दिया था. विश्वनाथ त्रिपाठी की बदौलत मार्फ़त विष्णु चन्द्र शर्मा जी उनकी जगह मैंने ले ली थी. खैर! दस्तक हुई दरवाज़े पर! दिलशाद गार्डेन का सूना पहर. मैंने झांकर देखा. लहीम शहीम एक शख्स बाहर खडा है. सरों पर हलकी सुफैदी ..बदन पर लंबा सा कुर्ता और पाजामा. भदेस सज्जन जान मैंने दरवाज़ा खोला. नमस्कार किया. शाइस्तगी से लबरेज़ जवाब पाकर मेरी झुर-झुरी कम हुई.
आप नए आये हैं..
जी.....
कहाँ के हैं...
बिहार..
वहाँ कहाँ के..
..गया.
..अरे वाह! मैं बेगुसराय का एक किसान हूँ. कलम की मजदूरी करता हूँ.
इस मासूमियत पर कौन न मर मिटे! हिचकते हुए नाम पूछ बैठा...अरुण प्रकाश! सुनते ही मैं खिल उठा. उनकी कुछ कहानियां, उन जैसे ही किरदारों का कोलाज़ झिलमिलाने लगा. इस अनूठे लेखक से यह हमारा पहला साबका था. बाद में लोगों से उनके आत्मकेंद्रित रहने, बहुत कम खुलने.. की बात मैं आज तक नहीं हज़म कर पाया..उनकी अपनी सी लगती कहानियों का मैं दीवाना तो पहले से ही था. पहली मुलाक़ात ने लव इन फर्स्ट साईट सा जादुई असर किया था. जिसका यथार्थ मेरे लिए कभी कटु न रहा.
पहले अरुण जी, फिर भाई साहब उन्हें कहने लगा.वो कब मेरे भैया बन गए मुझे पता ही न चला. दिल्ली के इस दूसरे प्रवास में करीब दस बारह सालों तक कंक्रीट के जंगलों में मुझे बेतहाशा गुज़ारने पड़े. कभी कहीं ठौर मिली. कहीं चाँद गोद में भी आया. इस अवधि में अरुण जी से मिलना कई बार हुआ. महेश दर्पण जी के बाद मैंने उन्हें सबसे ज्यादा श्रम करते देखा. मुझे लगता है कि वह संभवत चार से पांच घंटे ही विश्राम ले पाते होंगे. सुबह उठ कर टहलने निकल जाते. इस प्रात:भ्रमण में उनके साथ रहते विश्वनाथ त्रिपाठी जी. युवा व्यंग्यकार रवींद्र पाण्डेय, उन्हीं की तरह दूसरे मसिजीवी रमेश आज़ाद आदि. सूरज के ज़रा परदे से निकल आते ही उनका घर आना होता. फिर हलके नाश्ते के बाद जो अपनी स्टडी( तब बालकोनी को ही घेर कर उन्होंने अपना अध्ययन कक्ष बना लिया था) में जाते. फिर लिखना, लिखना और लिखना. कागजों पर जो उतरता जाता. उसमें किसी अहम किताब का अनुवाद होता. किसी सीरयल की पटकथा होती. संवाद होता..या नई कहानी का पुनर्लेखन.
ग़ज़ल का तगज्जुल
ग़ज़ल गो रामनारायण स्वामी( तब वो अन्क़ा नहीं हुए थे) के पहले
ग़ज़ल संग्रह रौशनी की धुंध की चर्चा के लिए सादतपुर में महफ़िल जमी.
वीरेंद्र जी (जैन) के यहाँ हुई उस दोपहरी गोष्ठी में स्वामी जी की गजलों
पर आधार आलेख मैंने ही पढ़ा. सादतपुर के लेखकों के अलावा अरूण जी, जानकी प्रसाद जी, इंडिया टुडे वाले
अशोक जी, विश्वनाथ जी, रमेश आज़ाद, कुबेर जी आदि ढेरों लोग थे. लेकिन अरुण
जी के बोलने की बारी आई तो उन्होंने कहा, ग़ज़ल पर यदि शहरोज़ जी न कहते तो
उसकी तगज्जुल न रहती. या खुदा! इतने बड़े बड़े दक्काक के रहते इन्हें क्या
हुआ..जबकि हिंदी समाज में उर्दू के प्रमाणिक शख्स जानकी जी मौजूद हैं.
अरूण जी ने जिस सहजता से मेरी बातों को सराहा, असहमति भी जतलाई. ऐसे लोग
मुझे दिल्ली में कम ही मिले. बमुश्किल दो-चार नाम ऐसे स्मरण में हैं. सर्दी
की एक दोपहर हम सभी कृषक जी की छत पर जमा हुए. यहाँ भी दिलशाद से अरूण जी,
विश्वनाथ जी, रमेश आज़ाद पहुंचे. मेरी 'अकाल और बच्ची' कविता उन्होंने दो
बार सुनी. इस कविता में अकाल के इलाके से रोज़गार की तलाश में परिवार दिल्ली
आया है. उस परिवार की बच्ची के बचपन को मैंने शब्द देने की कोशिश की है.
ये अकारण नहीं हुआ होगा. दिल्ली हो, कोलकता या मुंबई उनके साथ उनका गाँव
निपनिया हर दम साथ रहा. उनकी कहानियों में भी यह ज़मीनी सोंधापन मिलता है.
हिंदी में ऐसे कथाकार आज़ादी के बाद कम हुए, जिन्होंने हाशिये के लोगों को
अपना केंद्र बनाया हो. उनकी अधिकाँश कथाओं में घर से बेघर नयी जगह में आसरा
तलाश करते लोगों की ज़िंदगी को उन्वान मिला है. भैया एक्सप्रेस हो, या
मझदार,विषम राग हो या नहान, भासा आदि कहानियां गौरतलब हैं.
शेरघाटी पर उपन्यास लिखो
कथादेश के पहले युवांक में मेरी पहली कहानी 'पेंडोलम' छपी. मैं राजकमल में था. उनका फोन आया.
यार! कहानी भी लिखते हो..बताया ही नहीं कभी!
जी..भैया ..
दूसरी लिखो तो बताना. यूँ इस कहानी को विस्तार दो. आप (तुम कहते कहते वो आप बोल जाते..) अपने घर- कस्बे शेरघाटी को केंद्र में रख कर एक उपन्यास प्लान कीजिये. मुस्लिम जीवन अब हिन्दी में न के बराबर आ रहे हैं. आपसे उम्मीदें हैं.
जी! कोशिश करूँगा..
लेकिन ग़म-ए-रोज़गार ने इतनी मोहलत ही न दी कि मैं उपन्यास कलम बंद करता. यूँ उन्होंने एक-दो बार याद भी कराया, 'शहरोज़ जी क्या हुआ..कुछ बात बनी.' मेरे नफी में सर हिलाने पर थोडा तुनक भी जाते..'पहचान सिर्फ एक कहानी से नहीं बनती..'
शेरघाटी पर उपन्यास लिखो
कथादेश के पहले युवांक में मेरी पहली कहानी 'पेंडोलम' छपी. मैं राजकमल में था. उनका फोन आया.
यार! कहानी भी लिखते हो..बताया ही नहीं कभी!
जी..भैया ..
दूसरी लिखो तो बताना. यूँ इस कहानी को विस्तार दो. आप (तुम कहते कहते वो आप बोल जाते..) अपने घर- कस्बे शेरघाटी को केंद्र में रख कर एक उपन्यास प्लान कीजिये. मुस्लिम जीवन अब हिन्दी में न के बराबर आ रहे हैं. आपसे उम्मीदें हैं.
जी! कोशिश करूँगा..
लेकिन ग़म-ए-रोज़गार ने इतनी मोहलत ही न दी कि मैं उपन्यास कलम बंद करता. यूँ उन्होंने एक-दो बार याद भी कराया, 'शहरोज़ जी क्या हुआ..कुछ बात बनी.' मेरे नफी में सर हिलाने पर थोडा तुनक भी जाते..'पहचान सिर्फ एक कहानी से नहीं बनती..'
गया गया मिल गया
प्रेमचंद जी की जयन्ती पर हंस द्वारा सामयिक विषय पर कई सालों से गंभीर विमर्श का आयोजन होता आया है. राजेन्द्र जी जिसके कर्ताधर्ता हों, उस मजमे में भीड़ न जुटे. मैं उन दिनों रमणिका जी की पत्रिका युद्धरत आम आदमी से जुड़ा हुआ था. वहाँ से निकलते निकलते थोड़ा विलम्ब हो गया. जैसे ही राजेन्द्र भवन पहुंचा. संजय सहाय पर नज़र पडी तो मैं उधर ही लपक गया. उन्होंने दोनों हाथ फैला दिए. और हम यूँ मिले जैसे बिछुड़े हुए हों. मुद्दत बाद मिलना भी हो रहा था.
'गया गया मिल गया!' जानी पहचानी आवाज़ से हम अलग हुए. अरुण जी पास मुस्कुरा रहे थे. उनकी यही मुस्कान दूसरों की ज़िंदगी बख्शती रही. उनकी जीवटता से हम उर्जस्वित होते रहे. बाद में उनसे बहुत कम मिलना हुआ. दिनों बाद फोन पर बात हुई. लेकिन उन्होंने एहसास ही न होने दिया की वो बेहद अस्वस्थ हैं. जबकि गौरीनाथ से उनकी दिनों दिन बदतर होती तबियत का मुझे इल्म हो गया था.आज ढेरों कह रहे हैं कि काश सिगरेट छूट जाती तो शायद उनकी उम्र ....