केदारनाथ अग्रवाल की कलम से
हमको,
तुमको,
एक-दूसरे की बाहों में
बँध जाने की
ईद मुबारक।
बँधे-बँधे,
रह एक वृंत पर,
खोल-खोल कर प्रिय पंखुरियाँ
कमल-कमल-सा
खिल जाने की,
रूप-रंग से मुसकाने की
हमको,
तुमको
ईद मुबारक।
और
जगत के
इस जीवन के
खारे पानी के सागर में
खिले कमल की नाव चलाने,
हँसी-खुशी से
तर जाने की,
हमको,
तुमको
ईद मुबारक।
और
समर के
उन शूरों को
अनुबुझ ज्वाला की आशीषें,
बाहर बिजली की आशीषें
और हमारे दिल से निकली-
सूरज, चाँद,
सितारों वाली
हमदर्दी की प्यारी प्यारी
ईद मुबारक।
हमको,
तुमको
सब को अपनी
मीठी-मीठी
ईद-मुबारक।
रचनाकाल: २१-११-१९७१
हिंदी के इस अहम कवि का यह जन्मशती वर्ष है!
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बाबुषा कोहली की कवितायें
कुरआन की पहली आयत
"सब खूबियाँ
अल्लाह को,
मालिक जो -
सारे जहां वालों का ;
सारी तारीफें
तेरी ही हैं ! "
यही है न ,
पहली आयत !
मेरे मौला,
मेरे मालिक -
तेरी ही तो हैं,
सब तारीफें !
गुज़ारिश है ,
एक छोटी-सी -
मानेगा तू?
ले -ले मेरी
कमजोरियां;
तू अपने सर !
ले- ले मेरे
गुनाह भी तू ,
अपने सर !
ले - ले मेरी
ये संगदिली ;
तू अपने सर -
एकदम मेरे
बाप की तरह !
दे दे मुझे तू
हुक्म ,
ये आयत !
क्या पता -
शायद ,
कुछ शर्म
आ जाए मुझे !
शायद -
दुरुस्त हो जाऊं ,
मेरे मालिक !
(मार्च २४,२०११)
नहीं जाती
'मक्क़ा' को -
लेकिन
पहुंचाती है
आख़िर में -
'मक्क़ा' ही !
(अप्रैल 30 , 2011)
वसीयत
अपने पूरे होशो - हवास में
लिख रही हूँ आज मैं
वसीयत अपनी !
मर जाऊं जब मैं
खंगालना मेरे कमरे को
टटोलना हर एक चीज़ -
दे देना मेरे ख़्वाब
उन तमाम स्त्रियों को
जो किचन से बेडरूम
और बेडरूम से किचन की दौड़ाभागी में
भूल चुकी हैं सालों पहले ख़्वाब देखना !
बाँट देना मेरे ठहाके
वृद्धाश्रम के उन बूढों में
रहते हैं जिनके बच्चे -
अमेरिका के जगमगाते शहरों में !
टेबल में मेरे देखना
कुछ रंग पड़े होंगे
दे देना सारे रंग -
उन जवानों की विधवाओं को
शहीद हो गए थे जो
बॉर्डर पर लड़ते-लड़ते !
शोखी मेरी ,मस्ती मेरी
भर देना उनकी रग - रग में -
झुक गए कंधे जिनके
बस्ते के भारी बोझ से !
आंसू मेरे दे देना
तमाम शायरों को
हर बूँद से होगी ग़ज़ल पैदा
मेरा वादा है !
मेरी गहरी नींद और भूख
दे देना 'अंबानियों' औ' 'मित्तलों' को
बेचारे न चैन से सो पाते हैं
न चैन से खा पाते हैं !
मेरा मान , मेरी आबरू
उस वेश्या के नाम है -
बेचती है जिस्म जो
बेटी को पढ़ाने के लिए !
इस देश के एक-एक युवक को
पकड़ के लगा देना 'इंजेक्शन'
मेरे आक्रोश का
पड़ेगी इसकी ज़रुरत
क्रान्ति के दिन उन्हें !
दीवानगी मेरी
हिस्से में है
उस सूफ़ी के
निकला है जो सब छोड़ कर ,
ख़ुदा की तलाश में !
बस !
बाक़ी बचे -
मेरी ईर्ष्या,
मेरा लालच ,
मेरा क्रोध ,
मेरे झूठ ,
मेरे दर्द -
तो -
ऐसा करना ;
उन्हें मेरे संग ही जला देना !
( मार्च ९,२०११)
तिलिस्म
मत ढूंढो मुझे शब्दों में
मैं मात्राओं में पूरी नहीं
व्याकरण के लिए चुनौती हूँ
न खोजो मुझे रागों में
शास्त्रीय से दूर आवारा स्वर हूँ
एक तिलिस्मी धुन हूँ
मेरे पैरों की थाप
महज कदमताल नहीं
एक आदिम जिप्सी नृत्य हूँ
अपने पैने नाखूनों को कुतर डालो
मेरी तलाश में मुझे मत नोचो
एक नदी जो सो रही है भीतर कहीं
उसे छूने की चाह में मुझे मत खोदो
मत चीरो फाड़ो
कि मेरी नाभि से ही उगते हैं रहस्य
इस सुगंध को पीना ही मुझे पीना है
मुझे पा लेना मुट्ठी भर मिट्टी पाने के बराबर है
मुझमें खोना ही अनंत आकाश को समेट लेना है
स्वप्न हूँ भ्रम हूँ मरीचिका मैं
सत्य हूँ सागर हूँ मैं अमृत ..
परिचय : बाबुशा लिखती हैं, बड़ी झिझक हो रही है . परिचय तो है ही नहीं मेरा ..सच मानिए इस बात को ..! भला एक आवारा रूह का क्या परिचय बनाया जाए ?
क्या परिचय दे दिया जाए ..मैं दो दिन यही बात सोचती रही और ख़लील जिब्रान लगातार याद आते रहे जो जीवन में एक ही बार ठिठके जब किसी ने पूछा कि तुम कौन हो ?
बड़ी मुश्किल !
सच में मेरी पात्रता नहीं है कि कुछ भी मेरे बारे में लिखा जाए.
आप चाहें तो कविताओं के नीचे सिर्फ़ 'बाबुषा कोहली' लिख सकते हैं .
विजय के सारे पदक एक दिन पानी में बह जायेंगे..
कुछ भाव गढ़े जो शब्दों में , वो ही बाक़ी रह जायेंगे..
(यह जानकारी उनके फेसबुक प्रोफाइल से मिली:
जन्म: कटनी में ६ फरवरी , १९७९
शिक्षा: रानी दुर्गावती विश्विद्यालय से
सम्प्रति: केन्द्रीव विद्यालय जबलपुर में अंग्रेजी अध्यापन
संपर्क:babusha@gmail.com
ब्लॉग:
कुछ पन्ने और
बारिस्ता )
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1
मुझसे इतना भी हौसला न हुआ
जब बुरा बन गया, भला न हुआ
ज़ख्म के फूल अब भी ताज़ा हैं
दूर होकर भी फासला न हुआ
तेरी आहट क़दम-क़दम पर थी
ज़िंदगी में कभी खला न हुआ
होने वाली है कोई अनहोनी
वक़्त पर एक फ़ैसला न हुआ
रेज़ा-रेज़ा बिखर गए सपने
लोग कहते हैं मसअला न हुआ
हादसा होते सबने देखा पर
कोई उलझन से मुब्तला न हुआ
2.
जैसे होती थी किसी दौर में, हैवानों में
बेसकूनी है वही आज के इंसानों में
जल्द उकताते हैं हर चीज़ से, हर मंजिल से
ये परिंदों की सी आदत भी है दीवानों में
उम्र भर सच के सिवा कुछ न कहेंगे, कह कर
नाम लिखवा लिया अब हमने भी नादानों में
जिस्म दुनिया में भी जन्नत के मज़े लेता रहा
रूह इक उम्र भटकती रही वीरानों में
उसकी मेहमान नवाजी की अदाएं देखीं
हम भी सकुचाए से बैठे रहे बेगानों में
नाम, सूरत तो हैं पानी पे लिखी तहरीरें
मेरी पहचान रहेगी मेरे अफसानों में
झूठ का ज़हर समाअत से उतर जाएगा
बूंद सच्चाई की उतरे तो मेरे कानों में
जो भी होना है वो निश्चित है, अटल है ‘श्रद्धा’
क्यूँ न कश्ती को उतारे कभी तूफानों में
3.
नज़र में ख़्वाब नए रात भर सजाते हुए
तमाम रात कटी तुमको गुनगुनाते हुए
तुम्हारी बात, तुम्हारे ख़याल में गुमसुम
सभी ने देख लिया हमको मुस्कराते हुए
फ़ज़ा में देर तलक साँस के शरारे थे
कहा है कान में कुछ उसने पास आते हुए
हरेक नक्श तमन्ना का हो गया उजला
तेरा है लम्स कि जुगनू हैं जगमगाते हुए
दिल-ओ-निगाह की साजिश जो कामयाब हुई
हमें भी आया मज़ा फिर फरेब खाते हुए
बुरा कहो कि भला पर यही हक़ीकत है
पड़े हैं पाँव में छाले वफ़ा निभाते हुए
4.
जब कभी मुझको गम-ए-यार से फुर्सत होगी
मेरी गजलों में महक होगी, तरावत होगी
भुखमरी, क़ैद, गरीबी कभी तन्हाई, घुटन
सच की इससे भी जियादा कहाँ कीमत होगी
धूप-बारिश से बचा लेगा बड़ा पेड़ मगर
नन्हे पौधों को पनपने में भी दिक्क़त होगी
बेटियों के ही तो दम से है ये दुनिया कायम
कोख में इनको जो मारा तो क़यामत होगी
आज होंठों पे मेरे खुल के हंसी आई है
मुझको मालूम है उसको बड़ी हैरत होगी
नाज़ सूरत पे, कभी धन पे, कभी रुतबे पर
ख़त्म कब लोगों की आखिर ये जहालत होगी
जुगनुओं को भी निगाहों में बसाए रखना
काली रातों में उजालों की ज़रूरत होगी
वक़्त के साथ अगर ढल नहीं पाईं 'श्रद्धा'
ज़िंदगी कुछ नहीं बस एक मुसीबत होगी
कविता कोश के पाँच वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में
प्रथम कविता कोश सम्मान से आज 7 अगस्त को जयपुर में श्रद्धा जैन को भी अलंकृत किया जाना है.हमज़बान की ओर से उन्हें अनगिनत मुबारकबाद.
परिचय :
जन्म : ८ नवम्बर,१९७७] विदिशा, मध्यप्रदेश में
शिक्षा: रसायन में स्नातकोत्तर
सृजन: गजलों का शतक
सम्प्रति: ग्लोबल इंटर नेशनल स्कूल, सिंगापूर में हिन्दी का अध्यापन
संपर्क: shrddha8@gmail.com
ब्लॉग :
भीगी ग़ज़लें
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