हुसैन नहीं रहे.जब थे तब भी यह सवाल गर्दिश में था.उन्होंने देश में रहकर ही अपने खिलाफ उठी आवाजों का सामना क्यों नहीं किया.जबकि उन्हें करना था.अलग हो जाना ऐसे विमर्श की धार को कुंद ही करता है.दूसरे शब्दों में, कुछ इसे कायरता भी कह सकते हैं.
लेकिन आज जो स्यापा हो रहा है.उनके रहते कोशिशें क्यों नहीं हुई की उन्हें देश में रहने दिया जाए.या हुसैन से कहा जाता. उनके अपने वतन में दफन होनी की तो बात की जाती.ज़फ़र से कितना अलग था हुसैन का दर्द!
कितना है बदनसीब ज़फर दफन के लिए
दो गज ज़मीं न मिल सकी इस कुए यार में
उनके नहीं रहने पर यह प्रश्न तीव्र हुआ है की कला में क्या अश्लील भी कुछ होता है. इस सन्दर्भ में विभा जी का यह लेख हमें कुछ राह दे पायेगा!! आप खुद फैसला करें.
हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते
विभा रानी की कलम से
नया ज्ञानोदय के अप्रैल 2009 अंक में प्रकाशित सुप्रसिद्ध मलयाली कवि के सच्चिदानंद की एक कविता उद्धृत है
मैं एक अच्छा हिन्दू हूं
खजुराहो और कोणार्क के बारे में मैं कुछ नहीं जानता
कामसूत्र को मैंने हाथ से छुआ तक नहीं
दुर्गा और सरस्वती को नंगे रूप में देखूं तो मुझे स्वप्नदोष की परेशानी होगी
हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते
जो भी थे उन्हें हमने काशी और कामाख्या में प्रतिष्ठित किया
कबीर के राम को हमने अयोध्या में बंदी बनाया
गांधी के राम को हमने गांधी के जन्मस्थान में ही जला दिया
आत्मा को बेच कर इस गेरुए झंडे को खरीदने के बाद
और किसी भी रंग को देखूं तो मैं आग-बबूला हो जाऊंगा
मेरे पतलून के भीतर छुरी है
सर चूमने के लिए नहीं, काट-काट कर नीचे गिराने के लिए…
यह मात्र संयोग ही नहीं है कि हम कहीं भी कभी भी प्यार की बातें करते सहज महसूस नहीं करते। यहां प्यार से आशय उस प्यार से है, जो सितार के तार की तरह हमारी नसों में बजता है, जिसकी तरंग से हम तरंगित होते हैं, हमें अपनी दुनिया में एक अर्थ महसूस होने लगता है, हमें अपने जीवन में एक रस का संचार मिलाने लगता है। मगर नहीं, इस प्यार की चर्चा करना गुनाह है, अश्लीलता है, पाप है और पता नहीं, क्या-क्या है। हमारे बच्चों के बच्चे हो जाते हैं, मगर हम यह सहजता से नहीं ले पाते कि हमारे बच्चे अपने साथी के प्रति प्यार का इज़हार करें या अपने मन और काम की बातें बताएं। और यह सब हिंदुत्व और भारतीय संस्कृति के नाम पर किया जाता है।
जिस प्रेम से हमारी उत्पत्ति है, उसी के प्रति इतने निषेध भाव कभी-कभी मन में बड़ी वितृष्णा जगाते हैं। आखिर क्यों हम प्रेम और सेक्स पर बातें करने से हिचकते या डरते हैं? ऐसे में सच्छिदानंदन जी की बातें सच्ची लगती हैं कि हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते, और अब उन्हीं के अनुकरण में हमारे भी नही होते। आखिर हम उन्हीं की संतान हैं न। भले वेदों में उनके शारीरिक सौष्ठव का जी खोल कर वर्णन किया गया है और वर्णन के बाद देवियों को माता की संज्ञा दे दी जाती है, मानो माता कह देने से फिर से उनका शरीर, उनके शरीर के आकार-प्रकार छुप जाएंगे। वे सिर्फ एक भाव बनाकर रह जाएंगी।
यक्ष को दिया गया युधिष्ठिर का जवाब बड़ा मायने रखता है कि अगर मेरी माता माद्री मेरे सामने नग्नावस्था में आ जाएं तो मेरे मन में पहले वही भाव आएंगे, जो एक युवा के मन में किसी युवती को देख कर आते हैं। फिर भाव पर मस्तिष्क का नियंत्रण होगा और तब मैं कहूंगा कि यह मेरी माता हैं।
समय बदला है, हम नहीं बदले हैं। आज भी सेक्स की शिक्षा बच्चों को देना एक बवाल बना हुआ है। भले सेक्स के नाम पर हमारे मासूम तरह-तरह के अपराध के शिकार होते रहें। आज भी परिवारों में इतनी पर्दा प्रथा है कि पति-पत्नी एक साथ बैठ जाएं, तो आलोचना के शिकार हो जाएं। उत्पीडित दुनिया से साभार संपादित अंश
2 comments: on "दो गज ज़मीं न मिल सकी ....."
kathin prashn aur usse bhi kathin uttar
क्या ऐसा ही खुलापन अन्य धर्मों में भी है.
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी