बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 30 मार्च 2010

मसल, मनी, मीडिया, मोदी और मुसलमान

  










गुंजेश  की क़लम से 

नरेन्द्र मोदी से रविवार 29 मार्च को दो बैठकों में 9 घंटे पूछताछ हुई. उनसे मैराथन बातचीत  कर यह पता लगाने का प्रयास किया गया होगा कि 2002 के दंगों, खास तौर से उस घटना, जिसमें गुलबर्ग सोसायटी में रहने वाले सांसद सहित 62 लोगों को जिंदा जला दिया गया था , में सरकार की  भूमिका ? . आरोप है कि अगर सरकार और मुख्यमंत्री चाहते तो ऐसा होने से रोका जा सकता था. इस मामले में दायर याचिका में कहा गया है कि 'बार-बार फ़ोन करने पर भी पुलिस अधिकारियों  द्वारा ध्यान नहीं दिया गया.समय पर मदद क्या भेजते, उलटे मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने  जाफरी को ही फटकार सुनाई थी.'

उपर्युक्त सारी बातें अख़बारों में लिखी जा चुकीं है, टेलिविज़न चैनलों पर कही जा चुकी  है . बल्कि इससे एक कदम आगे, जैसा  कि समय का चरित्र है, पूरी मीडिया 'नरेन्द्र मोदी से हुई लम्बी पूछताछ का महोत्सव मना रही है.
अभी हाल में केरल जाना हुआ था, वहीँ एक सार्वजनिक सभा में भारतीय महिला मुस्लिम आन्दोलन की संस्थापक 'ज़किया सोमेन' दक्षिण एशिया में महिलाओं पर बढती हिंसा पर बोल रहीं थी. वह  मूलत: गुजरात से हैं,और समाजिक  कार्य करने का उनका कार्य क्षेत्र भी ज़्यादातर गुजरात ही रहा है इसलिए ऐसा हुआ होगा कि बोलते हुए उन्हें पता न चला हो कि वह कैसे गुजरात के दंगों और उसमें सरकार की  भूमिका पर बोलने लगी . हालाँकि यह विषयांतर था लेकिन किसी भी तरह की हिंसा का दंगों से ज्यादा बड़ा छदम रूप क्या हो सकता है कि मारने वाला नहीं जनता हो कि वह किस कारण से किसी को मार रहा है, या अगर जनता भी हो तो वह कारण ही निराधार हो जिसका पता मारने वाले को शायद कभी नहीं चलता और न ही मरने वाले को पता होता है कि उसने जिसे 'मारते' (हत्या करते) हुए उसने देखा है दरअसल वह उसे नहीं मार रहा....
बहरहाल, ज़किया  ने कहा -- हम ने बचपन से ही देखा है , जब भी शहर में तनाव होता था, वे (मुसलमान) जो मुस्लिम इलाकों के सीमा पर रहते थे घर छोड़ कर बीच बस्ती में अपने रिश्तेदारों के यहाँ चले जाते. तनाव कम होता तो वापस आते. जले हुए घरों को ठीक करते, जान बच जाने के लिए अल्लाह का शुक्रिया अदा करते---
इन घरों में ज़किया  के नाना का घर भी था .
लेकिन बकौल ज़किया  2002 के दंगे अपनी संरचना में, अपनी कार्यशैली में, और अपने उद्देश्य में ( पाठक आश्चर्य कर सकते हैं लेकिन अब  दंगों की भी अपनी संरचना होती है,  एक तयशुदा कार्यक्रम से भड़काए जाते हैं एक उद्देश्य के साथ) अलग थे . जिसने ज़किया  और उन जैसी कई 'ज़कियाओं'  की ज़िन्दगी के तानेबाने को, उसकी संरचना को, उसकी कार्यशैली को सबसे ज्यादा प्रभावित किया.
2002 तक गुजरात काफी तरक्की (आर्थिक विकास) कर चुका था, अहमदाबाद  महानगर से टक्कर ले रहा था.इसलिए वहां के मुसलमान भी (मध्यम वर्गीय) आर्थिक रूप से समृद्ध हुए थे जो अब बस्तियों से निकल कर रिहायशी फ्लेटों में रहने लगे थे.[यह भी विडंबना ही रही है कि उसी शहर में दंगे हुए हैं ! जहां-जहां मुस्लिम आर्थिक रूप से सक्षम और समृद्ध रहे हैं -सं.].
2002 के दंगों में दंगाइयों के पास पूरी लिस्ट थी कि कौन से अपार्टमेन्ट के किस फ्लेट में मुसलमान रहता है [मुंबई में भी ऐसा ही हुआ था]......क्या यह महज़ एक समाज का उग्र मन था या एक सुनियोजित आक्रामकता ? क्या सरकारी तंत्र को इसकी भनक पहले से नहीं रही होगी जबकि गुजरात एक तथाकथित संवेदनशील राज्य माना जाता है ...और अगर नहीं भी थी तो फिर सूचना-सुरक्षा पर इतना खर्च क्यूँ ? खबर न होने की सज़ा किसको मिलेगी ? इसकी नैतिक ज़िम्मेदारी कौन लेगा ? क्या कोई भी व्यक्ति जिसको राज्य व्यवस्था की थोड़ी भी समझ हो वह यह मान सकता है कि  2002 में जो कुछ हुआ उसके लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है ?
खैर, ज़किया कह रही थी कि 2002 के दंगों में उसने दोस्त खोये,वे साथी जिनके साथ उठना-बैठना था, एकदम से हिन्दू-या-मुसलमान हो गए और ऐसा ही अब भी है. लोग लगातार हिन्दू या मुसलमान होते चले जा रहे हैं..........

 क्या ऐसा सिर्फ एक रात में अचानक से हो गया ?
ज़किया ने जो बताया वह बहुत महत्वपूर्ण है, वह दंगों से पहले सरकार (अगर हम अब भी मानें कि वहाँ कोई ऐसी सरकार थी जो जनता के द्वारा जनता के लिए चुनी गई थी ) की भूमिका पर संदेह पैदा करती है और हमारे सामने उन 'टूल्स' को खोलती है जिसके माध्यम से राजनीतिक ताकतें सामान्य भावनाओं का इस्तेमाल  अपने हक में कर ले जाती है .....
ज़किया ने कहा कि वहां (गुजरात में) सम्प्रदायवादी ताकतें ( जाहिर है ज़किया का इशारा बी.जे.पी., आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद्, आदि की ओर है) ऐसे अनुष्ठानों, यज्ञों का आयोजन करते हैं, [जिनका उद्देश्य होता है, लोगों को सत्कर्म की  तरफ ले जाना] लेकिन  बहुत चालाकी से ऐसे मानवीय व्यवहारों को जो मुसलमानों में प्रचलित है को अपयशकारी बताया जाता है. ज़किया ने तो उन किताबों का भी ज़िक्र किया जिनमें यहाँ तक लिखा होता है कि एक अच्छी माँ को चाहिए कि वह अपने बच्चे को मुसलमानों से मिलने से रोके, या साइकिल का पंचर कभी भी किसी मुस्लिम कारीगर से नहीं बनवाना चाहिए इससे पाप होता है..........
क्या अगर ये सब कुछ एक लोकतान्त्रिक सरकार की उपस्थिति में हो रहा है तो उस सरकार की, सरकार की पुलिस की ज़िम्मेदारी तभी बनती है जब कोई ऍफ़ आई आर दर्ज हो ....या जब अमानवीयता अपने चरम पर हो (वैसे आरोप तो है कि गुजरात में सरकार (!) ही अमानवीय थी/है ) ?
दरअसल, ये वो तरीकें हैं जिससे समाज के सोच को नियंत्रित कर लिया जाता है ताकि बाद में जो भी हो उसको जस्टिफाय किया जा सके ......
आप सोच रहे होंगे कि इन जानी हुई बातों को दुहराने का क्या मतलब ?  जब नरेन्द्र मोदी से लम्बी पूछताछ ( का नाटक, आस पास देखिये कहीं कोई चुनाव नहीं है और इस पूछताछ से किसी को कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होने वाला) हो चुकी  है लगता है कि कुछ न कुछ हो रहेगा अब ...
मीडिया कभी इसे न्याय की जीत तो कभी मोदी का घमंड टूटना कह रहा है

....तो मुझे याद आ रहा है [ शायद बी. जे. पी. का काल था जब] लालू यादव को चारा घोटाले के मामले में जेल जाना पड़ा था तब भी लगा था कि कुछ न कुछ हो रहेगा क्या हुआ वो हम सब जानते है .......

फिर भी अगर नरेन्द्र मोदी पर वापस लौटें, एस आई टी पर वापस लौटें और गुजरात में मोदी के होने के मायनों को तलाशें, 2002 में सरकार (!) की भूमिका को परखें तो हम यही पाएंगे कि 9 घंटे काफी नहीं है, ( शायद यह भावुकता हो पर मुझे लगता है कानून को इतना संवेदनशील तो होना ही चाहिए) 90 दिन का रिमांड चाहिए, सिर्फ एक गुलबर्ग सोसायटी में नहीं मोदी ने ज़हर  पूरे  गुजरात में फैलाया है .

मीडिया में जो मोदी महोत्सव (रावण वध की  तरह ही सही ) चल रहा है वह यही समझाता है कि मोदी सबसे ज्यादा शक्तिशाली आदमी है/था इस देश के संविधान और कानून से भी ज्यादा शक्तिशाली और इस शक्तिशाली आदमी जो (दुर्भाग्य से) एक राज्य का मुख्यमंत्री भी है को पहली बार कानून के आगे झुकना पड़ा है .
पहली बार किसी मुख्यमंत्री को दंगे जैसे संवेदनशील मामले में इस तरह से पूछताछ के लिए बुलाया गया ........इसे एक सौभाग्य की  तरह पूरा मीडिया प्रचारित कर रहा है ......ऐसा अगर हुआ तो सिर्फ इसलिए कि भारत के संवैधानिक इतिहास में पहली बार ऐसा नरभक्षी मुख्यमंत्री हुआ है, पहली बार किसी राज्य के मुख्यमंत्री की भूमिका इतनी संदिग्ध है और उससे इस्तीफे की मांग करने वाला कोई विपक्ष नहीं है .....
कोई केंद्र सरकार वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की बात नहीं कर रहा ? क्या सिर्फ भौतिक परिस्थितोयों का बिगड़ना ही राष्ट्रपति शासन की पहली शर्त होनी चाहिए?
और वे जो इस बात को भुना रहे हैं कि मोदी ने कानून का सम्मान किया उन्हें यह समझ लेना  जाना चाहिए कि मोदी के पास यही एक मात्र उपाय था इसके अलावा वह कर भी क्या सकते थे......

______________________________________________________________________
इसी सन्दर्भ में समय के अहम कार्टूनिस्ट इरफ़ान की यह बानगी इतनी सी बात से साभार.

























[लेखक-परिचय:बिहार-झारखंड के किसी अनाम से गाँव में -09/07/1989 को जन्मे इस टटके कवि-लेखक-पत्रकार  [ गुन्जेश कुमार मिश्रा ] ने जमशेदपुर से वाणिज्य में स्नातक किया.सम्प्रति महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,  वर्धा में एम. ए. जनसंचार के छात्र हैं.
परिकथा में इनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई जिसे हमने भी साभार हमज़बान में प्रस्तुत किया था.खबर है कि उसी पत्रिका के ताज़े अंक में उनकी दूसरी कहानी भी शाया हुई है.उन्हें मुबारक बाद!!पिछले दिनों यहीं आप इनकी कविताओं से रूबरू हो चुके हैं.
गुन्जेश का विश्वास है : संसार में जो भी बड़ा से बड़ा बदलाव हुआ है, उसके पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गंभीर लेखन की भूमिका अवश्य रही है. ..माडरेटर]
read more...

रविवार, 28 मार्च 2010

बस्तर में भगवा जुडूम



नक्सलियों के नाम पर आदिवासियों और दलितों को उनकी ज़मीन से बेदखल करने के लिए सरकार ने कमर कस ली है और इसके लिए बजाप्ता सेना की मदद ली जा रही है.इसे ग्रीन हंट नाम दिया गया है.अंग्रेज़ी की एक लेखिका और इधर एक्टिविस्ट के नाते ज़्यादा चर्चित अरुंधती राय की एक पत्रिका में छपी रपट को पढने के बाद वेब पत्रिका रविवार में पिछले वर्ष की शुरुआत  में प्रकाशित छत्तीसगढ़ के जुझारू-प्रतिबद्ध पत्रकार साथी आलोक प्रकाश पुतुल की इस आँखिन-देखी रिपोर्ताज को पढना सकते में डाल देता है.लेकिन आज स्थिति जितनी भयावह दिखती है कल इस से किसी भी मायने में कम नहीं थी खौफनाक! 
लेकिन सवाल अब भी ज्यों का त्यों है कि आखिर इन मासूम आदिवासियों की गलती क्या है?
साहित्य में दखल रखने वाले जैसा वह खुद को मानते हैं छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन का यह कहना कि सब झूठ है तो सच क्या है?
और सच यह नहीं कि बेक़सूर आदिवासियों को पूँजी के खेल में लाश और हथियार बनाया जा रहा है.    
यहाँ हम उस लम्बी रपट का सिर्फ कुछ अंश दे रहे हैं उनके आभार सहित जिसमें उस आश्रम और  उसके संचालक नारायण राव का ज़िक्र है जो इसी महीने आश्रम के बच्चों को बेचने के आरोप में अब जेल में है..माडरेटर 
____________________________________________________________
 अथः बस्तर वध कथा

आलोक प्रकाश पुतुल की क़लम से

यह 14वीं शताब्दी की बात है.

बस्तर के राजा पुरुषोत्तम देव तब पुरी की तीर्थयात्रा पर गये थे. जाहिर है, राजा के साथ आदिवासियों का एक बड़ा लाव लश्कर भी था. लेकिन जब महाराजा लौटे तो उनके साथ गये आदिवासी बदल चुके थे. पुरी के दर्शन करने वाले आदिवासियों को महाराजा ने पवित्र घोषित कर दिया था और अब ये सारे आदिवासी हिंदू थे. आदिवासी देवी-देवताओं के बजाय भगवान जगन्नाथ, शुभद्रा और बलभद्र उनके अराध्य देव थे.

आश्चर्य नहीं है कि बस्तर के बेहद लोकप्रिय दशहरा पर्व में राम-रावण का कहीं अता-पता नहीं होता और दशहरा के लिये पुरी की ही तर्ज पर बस्तर में भी रथयात्रा निकाली जाती है.

ऐतिहासिक संदर्भों को देखें तो पता चलता है कि आदिवासियों के हिंदूकरण की यह पहली शुरुवात थी. पुरुषोत्तम देव के बाद आदिवासियों को हिंदू बनाने की सफल-असफल कोशिशें चलती रहीं. 600 साल बाद चपका में बाबा बिहारी दास ने बड़े पैमाने पर आदिवासियों को कंठीमाला दे कर पर हिंदू बनाने का सिलसिला शुरु किया. संदर्भों को देखें तो बस्तर में 7-7 रुपये लेकर आदिवासियों को जनेउ बांटे गये और उन्हें हिंदू यहां तक की ब्राह्मण भी बनाया गया. फिर संघ परिवार और गायत्री परिवार ने इन इलाकों में “हिंदू अलख” जगाने की शुरुआत की.

14वीं शताब्दी में शुरु हुआ राजा पुरुषोत्तम देव का धर्मांतरण 21वीं शताब्दी में मर्यादा पुरुषोत्तम राम तक पहुंचता है. आप चाहें तो इसकी गवाही माड़वी हिड़मा से ले सकते हैं. लेकिन अब उसका नाम अब माड़वी हिड़मा नहीं है. वह कहता है- “ मेरा नाम नितिन है.”

बस्तर के आखरी छोर में बसा है कोंटा और इसी कोंटा के बटेर गांव का है माड़वी हिड़मा. 14 साल का यह मुरिया आदिवासी जब तक आपके सामने मुंह न खोले, तब तक आप यही समझेंगे कि यह किसी ब्राह्मण परिवार का लड़का है. सुबह पांच बजे उठना और उठते ही नहा-धो कर महाआरती, फिर घंटे भर तक योगा, फिर नाश्ता और थोड़ी पढ़ाई के बाद फिर शिव, लक्ष्मी, दुर्गा की पूजा. शाम को भी घंटे भर तक आरती, भजन और पूजा-पाठ.


माड़वी हिड़मा को बताया गया है कि हिंदू इस दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म है और अब हिंदू रीति रिवाज उसके जीवन के अभिन्न अंग बन गये हैं. उसे सारे हिंदू देवी-देवताओं के नाम पता हैं, उनकी प्रार्थनायें याद हैं, आरती कैसे करनी है और आदिवासी कैसे सभ्य होंगे. और यह भी कि मोक्ष कैसे मिलेगा. यह सब कुछ.

आज से दो साल पहले तक वह यह सब नहीं जानता था. बटेर और कोंटा तक उसकी दुनिया थी और गोंडी उसकी भाषा. फिर रातों रात सब कुछ बदल गया.
 
हिड़मा बताता है कि दो साल पहले नक्सलियों ने उसके पिता और भाई की हत्या कर दी. इसके बाद सलवा जुड़ूम चलाने वाले उसकी मां और बड़े भाई के साथ उसे भी कोंटा में चलने वाले सरकारी कैंप में ले आये. तब से वह वहीं था.

इस बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सेवा भारती, गायत्री शक्ति पीठ, गुरुकुल जैसे संगठनों ने राज्य की भाजपा सरकार के साथ मिल कर इन आदिवासी बच्चों को गोद लेना शुरु किया. हिड़मा को भी गुरुकुल आश्रम ने गोद लिया और पिछले 2 सालों से वह रायपुर गुरुकुल आश्रम में रह रहा है.

सबसे पहले हिड़मा का नाम बदला, फिर रोज की दिनचर्या, फिर वह सब कुछ, जिसके कारण उसे आदिवासी कहा जा सके. गुरुकुल में उसे हिंदूत्व की दीक्षा मिली और अब वह कट्टर हिंदू है.

मुरलीगुड़ा गांव का नामपोड़ियम लच्चू अब अपने गांव में नहीं रहता. सरकार द्वारा चलाये जाने वाले कैंप में भी नहीं. हां, कोंटा बेस कैंप में आप चाहें तो लच्चू के भाई से जरुर मिल सकते हैं. हालांकि लच्चू के भाई को नहीं पता कि उसका छोटा भाई कहां है. कोई आश्रम वाले उसे ले गये, इतनी जानकारी तो उसके पास है लेकिन कहां, यह उसे नहीं पता. पता चले भी तो कैसे ? 11 साल का नामपोड़ियम लच्चू का तो अब नाम भी बदल गया. अब वह आकाश है.
छत्तीसगढ़ जन कल्याण संघ नामक एक स्वयंसेवी संस्था के गुरुकुल में रहने वाला लच्चु नामपोड़ियम बड़ा हो कर क्या बनना चाहता है, यह तो उसे नहीं पता लेकिन धार्मिक कार्यों में उसकी बहुत रुचि है. आदिवासी देवी-देवताओं को पूजने वाले लच्चु का भाई चौंक जाएगा, अगर उसे पता चले कि लच्चु हनुमान जी और मर्यादा पुरुषोत्तम राम का भक्त है. उसका दोस्त रवि भी उसके ही जैसा है.

चिंता कोंटा के पंडरुम यानी इस गुरुकल के रवि ने अपनी पढ़ाई छठवीं तक बस्तर के कोंटा में की. पिता बीमार हो कर मर गये और जब सलवा जुड़ूम चला कर उनका गांव खाली कराया गया तो वह अपनी मां के साथ कोंटा सरकारी शिविर में ले आया गया. यहां उसकी मां कहीं और चली गई और पंडरुम अकेला हो गया.

पंडरुम को अपने स्कूल के सारे साथी याद हैं. तालाब में नहाना और दिन-दिन भर दोस्तों के साथ मस्ती. जंगल-जंगल घुमना और तरह-तरह की आवाज निकाल पर जंगल के जानवर और पंक्षियों को मूर्ख बनाना. और हां, सल्फी के पेड़ पर सरपट चढ़ जाना भी. कई बार जब रात को उसे अपने गांव और घर की याद आती है तो वह गुरुकुल के महाराज द्वारा बताये गये भजन गुनगुनाने लगता है और अपने मन को धार्मिक तौर-तरीके से समझाने की कोशिश करता है.


इस आश्रम के संचालक यानी गुरु महाराज नारायण राव एक कॉलेज में लैब टेक्नीशियन हैं. वे आश्रम में नहीं रहते क्योंकि आश्रम राजधानी रायपुर से दूर जंगल वाले इलाके में है. राव कहते हैं-“ हम सरकार और जन सहायता से यह आश्रम चला रहे हैं और हम चाहते हैं कि बच्चों में नैतिकता आये, वे धार्मिक भाव से ओतप्रोत रहें.”
नक्सलियों से प्रभावित 25 आदिवासी बच्चे इस गुरुकुल में रखे गये हैं और उनकी परवरिश का जिम्मा अब गुरुकुल पर है. नारायण राव के अनुसार उन्हें गुरुकुल चलाने के लिए राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह से आर्थिक सहायता मिली थी और दूसरे सामाजिक लोग भी अब दान देने लगे है. अब श्री राव इस गुरुकुल को हिंदू आदर्श का केंद्र बनाना चाहते हैं. उड़ीसा के इलाकों में भी इस तरह के गुरुकुल खेलने की तैयारी चल रही है.
नारायण राव आश्रम की खाली जमीन की ओर इशारा करते हुए बताते हैं कि यहां मोक्ष भवन बनाया जायेगा. इसके अलावा नाग-नागिन का एक मंदिर अलग से शिवलिंग के साथ बनाने की योजना है. एक ओर रुद्राक्ष के बाग, दूसरी ओर दुनिया भर में पाई जाने वाली पवित्र तुलसी के पौधों की बगिया, फिर गौ परिक्रमा...फिर.

अपने हाथ को पीछे बांध कर जमीन की ओर देखते हुए राव दार्शनिक अंदाज में कहते हैं-“हम संस्कारहीन आदिवासी बच्चों को संस्कारवान बनाना चाहते हैं. ”

और कट्टर हिंदू भी ?

राव कहते हैं-“ आदिवासी तो हिंदू ही हैं. यह तो हम शहरी लोगों का भ्रम है कि उनकी अपनी धार्मिक परंपरा या मान्यता है. वह आपसे-हमसे ज्यादा हिंदू हैं.”

मध्य भारत के आदिवासी समाज पर पिछले 50 सालों से काम कर रहे निरंजन महावर कहते हैं- “ छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में कई सालों से आदिवासियों पर हिंदू रीति रिवाज थोपने का काम चल रहा है. और अब सलवा जुड़ूम शुरु होने के बाद इन बच्चों को सरकारी संरक्षण में संघ संचालित या संघ समर्थक संस्थाओं में डाल कर आदिवासी संस्कृति और परंपरा में हिंदू घुसपैठ को और तगड़ा बनाया जा रहा है.”

जगदलपुर में हिंदी के एक पत्रकार आंकड़ों के साथ बताते हैं कि जिस बस्तर में 80 फिसदी आबादी आदिवासियों की थी, वहां अब जनगणना के आंकड़े बदल रहे हैं और अब आंकड़ों में भी हिंदू जनसंख्या बढ़ रही है.

जाहिर है, अपनी आदिवासी पहचान खो चुके नितिन, रवि और आकाश आने वाले दिनों में इसी जनसंख्या में शुमार होंगे और उनकी आदिवासी संस्कृति और परंपरा केवल स्मृतियों का हिस्सा होगी. जैसे अब बस्तर है, उनके गांव है, घर है, सल्फी के पेड़ हैं.


[लेखक-परिचय : पिछले 20 सालों से पत्रकारिता के पेशे में। ग्रामीण पत्रकारिता और नक्सल आंदोलन में कुछ शोधपरक काम. कविताई कभी-कभार. ज्यादातर छद्म नामों से कवितायेँ प्रकाशित .
कुछ पत्रिकाओं, अखबारों, संदर्भ ग्रंथों का संपादन,देशबंधु ,अक्षरपर्व और सन्दर्भ छत्तीसगढ़ आदि . वृत्तचित्रों में भी सक्रिय. बीबीसी समेत कई देशी-विदेशी मीडिया संस्थानों के लिए कार्य. कभी-कभी विश्वविद्यालयों में अध्यापन. कुछ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान, पुरस्कार और फेलोशीप.

सम्प्रतिः  वेब पत्रिका रविवार  का संपादन.






हमज़बान में ही पुतुल की कविता : क्लिक करें
       

read more...

सोमवार, 22 मार्च 2010

एक दंगे को याद करते हुए

इन दिनों भारत का ह्रदय प्रदेश कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश में दंगों का मौसम है.लहलहाता हुआ! जब भी ऐसी ख़बरें आती हैं रूह लरज़ जाती है, जिस्म कांपने लगता है.कि  उर्दू के कहानीकार ज़की अनवर का चेहरा सामने आ जाता है, जिन्हें जमशेदपुर के फसाद में उन्हीं लोगों ने उन्हें मार डाला था जिसका घर कुछ देर पहले ज़की बुझाकर आये थे.तब काशिफ़ भाई छोटे थे.लेकिन उनके मानस पर अंकित कई जलते. लरज़ते चित्र घूम जाते हैं.उनके इस संस्मरण को पढना एक ऐसी अंधेरी सुरंग में जा घुसना है, जहां इंसानियत नंगी हो अट्हास करती है.-माडरेटर 


जमशेदपुर का दंगा १९७९ : जब मैं बहुत छोटा था 













काशिफ़-उल-हुदा की क़लम से


1979 के इसी अप्रैल महीने में, जमशेदपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगे ने 108 लोगों की जानें ले ली थीं. मरने वालों की संख्या 114 भी हो सकती थी, लेकिन मैं और मेरे परिवार के लोग ज़िंदा बच गये, शायद इसलिए कि आज 30 साल बाद उस दिल दहला देने वाली घटना को बयान कर सकें. 

यह दुर्भाग्यपूर्ण हादसा तब हुआ था, जब मेरी उम्र केवल 5 साल थी. परन्तु इस हादसे की यादें मेरे मस्तिष्क में साफ-साफ उभरी हुई हैं और दुर्भाग्य से ये मेरी प्रारंभिक जीवन की चुनिंदा यादों में से है. इस बात को पूरे 30 साल गुजर चुके हैं लेकिन इस हादसे के भयानक दृश्य आज भी ताज़ा हैं.

 11 अप्रैल 1979 को उस दिन हवा में तनाव के कुछ भयानक संकेत थे. पता नहीं कैसे, मेरी माँ को यह संकेत समझ में आ गए और वो रामनवमी के दिन, अपने भाई और दो छोटी बहनों के साथ पास के मुसलमान इलाके, गोलमुरी में चली गयीं. मेरे पिताजी आदर्शवादी थे और उन्हें पूरा भरोसा था कि कुछ नहीं होगा. यदि कुछ हो भी गया तो पिताजी ने एक हिन्दू व मुसलमान लोगों का संयुक्त रक्षा दल बनाया हुआ था और उन्हें उम्मीद थी कि यह दल हिन्दू और मुसलमान गुटों के आक्रमण से बचायेगा.

मैं और मेरा भाई, जो मुझसे 2 साल बड़ा है, पिताजी के साथ रुक गए और मेरी माताजी और बहनें सुबह को गोलमुरी चली गयीं. जैसे-जैसे दिन बीत रहा था, वैसे-वैसे लोगों की भीड़ बाहर बढ़ने लगी. मेरा भाई कुछ परेशान होने लगा और दोपहर के खाने के समय तक हमने अपने पिताजी को मना लिया कि वो हम दोनों भाइयों को माँ के पास गोलमुरी छोड़ आयें. जब हम लोग गोलमुरी में अपने रिश्तेदार कमाल चाचा के यहाँ भोजन कर रहे थे, लोगों के चिल्लाने की आवाजें आयीं कि दंगा शुरु हो गया है.

यह देखने के लिए कि क्या हो रहा है, हम लोग जल्दी से बाहर गए और देखा कि कुछ ही दूरी पर धुआं उठ रहा था. इसके बाद की घटनाएं मुझे टुकड़े-टुकड़े में याद हैं. मुझे याद है कि हम जिस घर में रह रहे थे, वहाँ पर सिर्फ़ महिलाएं और बच्चे थे. मुझे यह याद है कि मैं खाना नहीं खाना चाहता था क्योंकि वह पूरी तरह से पका हुआ नहीं होता था. बहुत कम उम्र में ही बतौर शरणार्थी मेरे लिए जीवन का यह कड़वा अनुभव था.

मुझे याद है कि रात में हम छत के ऊपर जा कर देखते थे, जहाँ से देख कर लगता था जैसे पूरा शहर ही जल रहा हो. मुझे यह भी याद है कि कोई मुझे चेतावनी दे रहा था कि ऊपर छत पर नहीं जाना चाहिए क्योंकि हमें आसानी से गोली का निशाना बनाया जा सकता है. मुझे यह भी याद है कि मैं अपने पिताजी से बहुत ही कम मिल पाता था और बहुत सहमा हुआ रहता था.

कई सालों बाद पता लगा कि जमशेदपुर के टिनप्लेट इलाके में हमारा घर ही अनेकों स्थानीय मुसलमानों को शरण दिए हुआ था क्योंकि संयुक्त परिवारों में रहने वाले हिन्दू लोग धीरे-धीरे इस इलाके को छोड़ कर जा रहे थे.

उस दिन, मेरे पिताजी कुछ सामान देने के लिए गोलमुरी आए हुए थे परन्तु जब वो वापस जाने को हुए तब तक कर्फ्यू लग गया था. इसलिए वो वापस नहीं पहुंच सके थे.


उधर टिनप्लेट में रह रहे मुसलमानों ने देखा कि वो हर ओर से घिर रहे हैं, इसीलिए टिनप्लेट फैक्ट्री में वे लोग मदद मांगने गए. परन्तु वहाँ उन सब को उन्हीं के सहकर्मियों ने बर्बरतापूर्वक मार डाला. मेरे पिताजी सिर्फ़ इसलिए बच गए क्योंकि कर्फ्यू लग जाने की वजह से वो गोलमुरी से टिनप्लेट वापस नहीं जा सके थे.




हमारा घर तो लुट गया था पर हम लोग भाग्यशाली थे क्योंकि और लोगों का तो सब कुछ जला कर राख कर दिया गया था. महीनों बाद हम सब एक नए इलाके में रहने के लिए गए, जिसका नाम एग्रिको कालोनी था, जो मुसलमानों की एक अन्य कालोनी भालूबासा के सामने थी.

हालांकि इन घरों में नई पुती हुई सफेदी भी आग और लूट के दाग नहीं छुपा पा रही थी. हमें यह भी नहीं पता था कि इन घरों में किसी की हत्या हुई थी या नहीं, पर लूट के निशान सब तरफ साफ़ नजर आ रहे थे.

समय बीतता गया और मेरी ऐसे अनेक लोगों से मुलाकात हुई, जिन्होंने जमशेदपुर दंगे को झेला था. इनमें से हरेक के पास उनके हिस्से की दिल दहला देने वाली कहानी थी.


मुझे एक महिला याद है, जिसके शरीर पर जलने के निशान थे. यह महिला उस एंबुलेंस में भी बच गई थी, जिसको यह सोच कर जलाया गया था कि एंबुलेंस के साथ-साथ उसके भीतर बैठे सभी लोग भी जल जायेंगे.

इस दंगे के कई महीनों बाद रोज स्कूल जाते हुए हम उस जली हुई एंबुलेंस को देखते थे, जो पुलिस स्टेशन के बाहर खड़ी कर दी गई थी.

मरने वाले जिन 108 लोगों का मैंने जिक्र किया, उसमें 79 मुसलमान थे और 25 हिंदू. बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे, जो घायल हुए थे. कुछ थे, जिनका सब कुछ खत्म हो गया था.


जमशेदपुर एक औद्योगिक शहर है, जहाँ टाटा की फैक्ट्रियां हैं. इस शहर में रहने वाले अधिकाँश लोग टाटा की इन्हीं फैक्ट्रियों में काम करते हैं. शहर का बहुत बड़ा हिस्सा टाटा की जागीर है, जिसके क्वार्टर में हर मजहब के लोग शांतिपूर्वक रहते आए हैं.

यह समझ से परे है कि ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण और बर्बर कृत्य इस शहर में आखिर कैसे हुआ, जहाँ हर धर्म के लोग सद्भावना के साथ रहते थे. यहां रहने वाले अधिकांश लोग अविभाजित बिहार या देश के दूसरे हिस्सों के थे और कंपनी में ईमानदारी से काम करते हुए अपने घर-परिवार के पालन पोषण में खुश थे. जमशेदपुर के दंगों में सिर्फ़ मुसलमान ही नहीं मरे, बल्कि हिन्दू भी तो मरे थे- तो फिर इस दंगे का लाभ किसको मिला था?

जमशेदपुर के इस हादसे से कोई दस रोज पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख बाला साहेब देवरस ने जमशेदपुर का दौरा किया था और आह्वान किया था कि हिंदूओं को अपने हितों की रक्षा के लिए अब उठ खड़ा होना चाहिए. उसके बाद 11 अप्रैल 1979 को जमशेदपुर दंगों की आग में जलने लगा.

तीस साल पहले जमशेदपुर में जिस व्यक्ति ने शहर को बंधक बना लिया था, उसका नाम था दीनानाथ पांडेय. स्थानीय विधायक. जीतेंद्र नारायण कमीशन ने माना कि इस दंगे में आरएसएस के विधायक दीनानाथ पांडेय की भूमिका रही है. इस घटना के बाद भाजपा ने दो बार बिहार विधानसभा के चुनाव में पांडेय को टिकट दी और पांडेय ने इस जमशेदपुर सीट को भारतीय जनता पार्टी के लिए 'सुरक्षित' सीट बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

  जब हम लोग यह टिप्पणी करते हैं कि राजनीति में गुंडे या अपराधी पृष्ठभूमि के लोग आ गए हैं, तब हम यह भूल जाते है कि इन लोगों को राजनीति में वोट दे कर लाने के लिए भी हम लोग ही जिम्मेदार हैं. दीनानाथ पाण्डेय जैसे लोगों के लिए, जिन पर सामूहिक हत्या का आरोप है, राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार की टिकट काट कर कांग्रेस ने सराहनीय काम किया है, परन्तु यह वही पार्टी है, जिसके शासनकाल में आंध्र प्रदेश में युवा मुसलमानों को गैरकानूनी तरीकों से गिरफ्तार किया जा रहा था और पुलिस उनपर अमानवीय अत्याचार करते हुए ऐसे अपराधों की स्वीकरोक्ति चाहती थी, जिसके लिए वो जिम्मेवार ही नहीं थे. सरकार ने तब तक इस मामले में कार्रवाई नहीं कि जब तक लोगों ने सरकार के इस तरीके के खिलाफ आक्रोश नहीं जाहिर किया.

यदि पार्टियाँ समयोचित कदम लेने से कतरायेंगी और अपराधी पृष्ठभूमि वाले लोगों को चुनाव में उतारेंगी, तो ऐसे नफरत और वैमनस्यता से भरे हुए लोगों के लिए मतदान करना हमारे जैसी आम जनता के लिए संभव नहीं होगा और हमारे पास मतदान से इंकार के सिवा कोई चारा नहीं होगा.



इसी सन्दर्भ में जमशेदपुर के वरिष्ठ नागरीक एम्.जेड.हुदा सन १९६४ और १९७९ के फसाद को कुछ इस तरह ब्यान करते हैं.आप ज़रूर सुनें. 

[लेखक-परिचय: जमशेदपुर यानी झारखंड के इस्पात नगर टाटा में बचपन बीता.लखनऊ और मुजफ्फरपुर में भी रहे.सालों से कम्ब्रिज  में रहकर शोध्य-कार्य और पत्रकारिता.आप टू सर्किल नेट  के प्रबंध संपादक हैं.आपका अंग्रेजी में  ब्लॉग है Logging life.
आपसे  kashif@urdustan पर संपर्क किया जा सकता है.]
  
read more...

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

इंजिनियर बनाता मदरसा रहमानी

मुझको जाना है अभी ऊंचा हदे परवाज़ से

यानी इक़बाल के इस मिसरे को मदरसे के प्रबंधकों ने भी अमली-पैराहन पहनाने की कोशिश तेज़ कर दी है.कल तक जो मदरसे खुद को धार्मिक शिक्षा-दीक्षा तक सीमित रखे हुए थे.उन्होंने अब अपने विद्यार्थियों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की बातें भी बतानी शुरू कर दी हैं.बिहार जैसे प्रांत में बिहार अंजुमन नाम का एक याहू ग्रुप कई सालों से मुस्लिम युवाओं के बीच जागृति फैलाने में लगा हुआ है.अब राजधानी पटना का एक मदरसा रहमानी जिसे इन दिनों रहमानी-३० के नाम से ख्याति मिली है, अपने छात्रों से IIT की तैयारी  करवा रहा है. पहले अंग्रेज़ी और अब हिंदी में उपलब्ध बीबीसी की इस रपट से आप भी रूबरू हों..हम साभार प्रस्तुत कर रहे हैं..माडरेटर

मदरसा में आईआईटी की तैयारी



संजय मजूमदार
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली




आईआईटी प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए रहमानी-30 काफ़ी लोकप्रिय हो रहा है.


भारत में मुसलमानों की समाजिक और आर्थिक स्थिति बहुत खराब है. एसे में किसी मदरसा में मिल रही तालीम से क्या मुसलमान छात्रों का भला हो सकता है?
इस सवाल का जवाब हमें बिहार की राजधानी पटना में मिलता दिखाई दे रहा है.
बिहार में आईआईटी प्रवेश परीक्षा की तैयारी को लेकर सबसे पहले अभ्यानंद ने सुपर-30 के नाम से एक अनोखा प्रयोग किया था जो काफ़ी सफल रहा.
इसी सुपर-30 की कामयाबी से प्रेरित होकर पटना के एक मदरसे में रहमानी-30 की शुरुआत की गई. ये मदरसा क़रीब 100 वर्ष पुराने मकान में चलता है.
इस मदरसा में देश के उच्च तकनीकी संस्थान यानि आईआईटी में दाख़िले की तैयारी हो रही है.
विद्यार्थियों का एक साथ रहना, खाना और पढ़ाई करना मदरसा का मूलमत्र है. यहां कोई भेदभाव नहीं है, सब बराबर है.:मौलाना वली रहमानी
यहां विद्यार्थियों को न तो बैठने के लिए बेंचे हैं और न ही पढ़ाई करने के लिए पर्याप्त रोशनी.
इतनी विषम परिस्थितियों के बावजूद मौलाना वली रहमानी अत्यंत ग़रीब मुसलमानों के प्रतिभावान बच्चों को मुफ़्त में प्रवेश परीक्षा की तैयारी करवा रहे हैं.
दोनों केंद्रों का मकसद एक ही है ग़रीब विद्यार्थियों को मुफ़्त में आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराना.
सरकारी संस्था या निज़ी संस्था में नौकरी के कम अवसर के डर से बच्चे मदरसे छोड़ रहे थे, लेकिन मौलाना वली रहमानी की इस कोशिश से यहां एक बार फिर से बच्चे पढ़ने आ रहे हैं.


इरफ़न अहमद, मदरसा का छात्र
ग़रीब मुस्लिम के बच्चों के लिए यह एक वरदान साबित हो रहा है.

कामयाब छात्र
अभ्यानंद कहते हैं, “हमारे देश में कोई भी प्रतियोगिता परीक्षा हो बहुत ज़्यादा परीक्षार्थी होने के कारण इसमें कुछ ही सफल होते हैं जिससे परीक्षार्थी काफ़ी भयभीत रहते हैं.”
रहमानी-30 में पढ़ रहे विद्यार्थियों के बारे वे कहते हैं कि वहां पढ़ रहे बच्चे काफ़ी ग़रीब हैं, लेकिन जीवन में आगे बढ़ने के लिए दृढ़संकल्प हैं. अगर वे लोग ऐसा नहीं करते हैं तो समाजिक और आर्थिक रुप से पिछड़े ही रह जाएंगे.
रहमानी-30 के एक छात्र इरफ़ान आलम जिसकी उम्र मात्र 15 वर्ष है, 2011 की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं. उनके पिताजी गांव में नाई हैं.
इरफ़ान आलम कहते हैं, “मैं अपनी ज़िंदगी में कुछ करना चहता हूं, कुछ बनकर दिखाना चाहता हूं.”
मौलाना वली रहमानी कहते हैं, “विद्यार्थियों का एक साथ रहना, खाना और पढ़ाई करना मदरसा का मूलमत्र है. यहां कोई भेदभाव नहीं है, सब बराबर है.”

मैं अपने ज़िंदगी में कुछ करना चहता हूं, कुछ बनकर दिखाना चाहता हूं.इरफ़ान आलम, छात्र

रहमानी-30 के पहले बैच से सफल हुए सद्दाम अनवर अब आईआईटी दिल्ली में पढ़ाई कर रहे हैं.
सद्दाम अनवर कहते हैं, “यहां आकर मेरा सपना सच हो गया है. मैं नहीं समझता हूं कि मैं दूसरे छात्रों से अलग हूं.”
भारत में मुस्लिम समुदाय को समान्य रुप से रूढ़िवादी, ग़रीब और कम शिक्षित कहा जाता है.

लेकिन बिहार की राजधानी में एक छोटी सी पहल से ऐसी धारणाओं को तोड़नें की कोशिश की जा रही है.
read more...

बुधवार, 10 मार्च 2010

मुस्लिम औरत:देहलीज़ से सियासत तक











फ़िरदौस ख़ान की क़लम से

सदियों की गुलामी और दमन का शिकार रही भारतीय नारी अब नई चुनौतियों का सामना करने को तैयार है। इसकी एक बानगी अरावली की पहाड़ियों की तलहटी में बसे अति पिछड़े मेवात ज़िले के गांव नीमखेडा में देखी जा सकती है। यहां की पूरी पंचायत पर महिलाओं का कब्जा है। ख़ास बात यह भी है कि सरपंच से लेकर पंच तक सभी मुस्लिम समाज से ताल्लुक़ रखती हैं। जिस समाज के ठेकेदार महिलाओं को बुर्के में कैद रखने के हिमायती हों, ऐसे समाज की महिलाएं घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर गांव की तरक्की के लिए काम करें तो वाक़ई यह काबिले-तारीफ़ है।

गांव की सरपंच आसुबी का परिवार सियासत में दखल रखता है। क़रीब 20 साल पहले उनके शौहर इज़राइल गांव के सरपंच थे। इस वक्त उनके देवर आज़ाद मोहम्मद हरियाणा विधानसभा में डिप्टी स्पीकर हैं। वे बताती हैं कि यहां से सरपंच का पद महिला के लिए आरक्षित था। इसलिए उन्होंने चुनाव लडने का फैसला किया। उनकी देखा-देखी अन्य महिलाओं में भी पंचायत चुनाव में दिलचस्पी पैदा हो गई और गांव की कई महिलाओं ने पंच के चुनाव के लिए परचे दाखिल कर दिए।

पंच मैमूना का कहना है कि जब महिलाएं घर चला सकती हैं तो पंचायत का कामकाज भी बेहतर तरीके से संभाल सकती हैं, लेकिन उन्हें इस बात का मलाल जरूर है कि पूरी पंचायत निरक्षर है। इसलिए पढाई-लिखाई से संबंधित सभी कार्यों के लिए ग्राम सचिव पर निर्भर रहना पड़ता है। गांव की अन्य पंच हाजरा, सैमूना, शकूरन, महमूदी, मजीदन, आसीनी, नूरजहां और रस्सो का कहना है कि उनके गांव में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। सडक़ें टूटी हुई हैं। बिजली भी दिनभर गुल ही रहती है। पीने का पानी नहीं है। महिलाओं को क़रीब एक किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है। नई पंचायत ने पेयजल लाइन बिछवाई है, लेकिन पानी के समय बिजली न होने की वजह से लोगों को इसका फ़ायदा नहीं हो पा रहा है।सप्लाई का पानी भी कडवा होने की वजह से पीने लायक़ नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं की हालत भी यहां बेहद खस्ता है। अस्पताल तो दूर की बात यहां एक डिस्पेंसरी तक नहीं है। गांव में लोग पशु पालते हैं, लेकिन यहां पशु अस्पताल भी नहीं है। यहां प्राइमरी और मिडल स्तर के दो सरकारी स्कूल हैं। मिडल स्कूल का दर्जा बढ़ाकर दसवीं तक का कराया गया है, लेकिन अभी नौवीं और दसवीं की कक्षाएं शुरू नहीं हुई हैं। इन स्कूलों में भी सुविधाओं की कमी है। अध्यापक हाज़िरी लगाने के बावजूद गैर हाज़िर रहते हैं। बच्चों को दोपहर का भोजन नहीं दिया जाता। क़रीब तीन हज़ार की आबादी वाले इस गांव से कस्बे तक पहुंचने के लिए यातायात की कोई सुविधा नहीं है। कितनी ही गर्भवती महिलाएं प्रसूति के दौरान समय पर उपचार न मिलने के कारण दम तोड़ देती हैं। गांव में केवल एक दाई है, लेकिन वह भी प्रशिक्षित नहीं है। पंचों का कहना है कि उनकी कोशिश के चलते इसी साल 22 जून से गांव में एक सिलाई सेंटर खोला गया है। इस वक़्त सिलाई सेंटर में 25 लड़कियां सिलाई सीख रही हैं।


गांववासी फ़ातिमा व अन्य महिलाओं का कहना है कि गांव में समस्याओं की भरमार है। पहले पुरुषों की पंचायत थी, लेकिन उन्होंने गांव के विकास के लिए कुछ नहीं किया। इसलिए इस बार उन्होंने महिला उम्मीदवारों को समर्थन देने का फ़ैसला किया। अब देखना यह है कि यह पंचायत गांव का कितना विकास कर पाती है, क्योंकि अभी तक कोई उत्साहजनक नतीजा सामने नहीं आया है। खैर, इतना तो जरूर हुआ है कि आज महिलाएं चौपाल पर बैठक सभाएं करने लगी हैं। वे बड़ी बेबाकी के साथ गांव और समाज की समस्याओं पर अपने विचार रखती हैं। पंचायत में महिलाओं को आरक्षण मिलने से उन्हें एक बेहतर मौका मिल गया है, वरना पुरुष प्रधान समाज में कितने पुरुष ऐसे हैं जो अपनी जगह अपने परिवार की किसी महिला को सरपंच या पंच देखना चाहेंगे। काबिले-गौर है कि उत्तत्तराखंड के दिखेत गांव में भी पंचायत पर महिलाओं का ही क़ब्जा है।

गौरतलब है कि संविधान के 73वें संशोधन के तहत त्रिस्तरीय पंचायतों में महिलाओं के लिए 33 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। केंद्रीय पंचायती राज मंत्री मणिशंकर अय्यर द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पंचायती राज संस्थाओं में 10 लाख से ज़्यादा महिलाओं को निर्वाचित किया गया है, जो चुने गए सभी निर्वाचित सदस्यों का लगभग 37 फ़ीसदी है। बिहार में महिलाओं की यह भागीदारी 54 फ़ीसदी है। वहां महिलाओं के लिए 50 फ़ीसदी आरक्षण लागू है। मध्यप्रदेश में भी गत मार्च में पंचायत मंत्री रुस्तम सिंह ने जब मध्यप्रदेश पंचायत राज व ग्राम स्वराज संशोधन विधेयक-2007 प्रस्तुत कर पंचायत और नगर निकाय चुनाव में महिलाओं को 50 फ़ीसदी आरक्षण देने की घोषणा की। पंचायती राज प्रणाली के तीनों स्तरों की कुल दो लाख 39 हज़ार 895 पंचायतों के 28 लाख 30 हज़ार 46 सदस्यों में 10 लाख 39 हज़ार 872 महिलाएं (36।7 फ़ीसदी) हैं। इनमें कुल दो लाख 33 हजार 251 पंचायतों के 26 लाख 57 हज़ार 112 सदस्यों में नौ लाख 75 हज़ार 723 (36.7 फ़ीसदी) महिलाएं हैं। इसी तरह कुल छह हज़ार 105 पंचायत समितियों के एक लाख 57 हज़ार 175 सदस्यों में से 58 हजार 328 (37.1 फ़ीसदी) महिलाएं हैं। कुल 539 ज़िला परिषदों के 15 हज़ार 759 सदस्यों में पांच हज़ार 821 (36.9 फ़ीसदी) महिलाएं हैं। क़ाबिले-गौर यह भी है कि भारत में पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू होने की वजह से ही वे आगे बढ़ पाईं हैं।

हालांकि देश की सियासत में आज भी महिलाओं तादाद उतनी नहीं है, जितनी कि होनी चाहिए। यह कहना भी क़तई गलत नहीं होगा कि अपने पड़ौसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन के मुकाबले संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत अभी भी बहुत पीछे है। दुनियाभर में घोर कट्टरपंथी माने जाने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश में महिलाएं प्रधानमंत्री पद पर आसीन रही हैं। यूनिसेफ द्वारा कई चुनिंदा देशों में 2001-2004 के आधार पर बनाकर जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 8।3 फ़ीसदी, ब्राजील में 8.6 फ़ीसदी, इंडोनेशिया में 11.3 फ़ीसदी, बांग्लादेश में 14.8 फ़ीसदी, यूएसए में 15.2 फ़ीसदी, चीन में 20.3 फ़ीसदी, नाइजीरिया में सबसे कम 6.4 फ़ीसदी और पाकिस्तान में सबसे ज़्यादा 21.3 फ़ीसदी रहा। इस मामले में पाकिस्तान ने विकसित यूएसए को भी काफी पीछे छोड़ दिया है। वर्ष 1996 में भारत की लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 7.3 फ़ीसदी और 1999 में 9.6 फ़ीसदी था। हालांकि चुनाव के दौरान कई सियासी दल विधानसभा और लोकसभा में भी महिलाओं को आरक्षण देने के नारे देते हैं, लेकिन यह महिला वोट हासिल करने का महज़ चुनावी हथकंडा ही साबित होता है। बहरहाल, उम्मीद पर दुनिया कायम है। फिलहाल यही कहा जा सकता है कि नीमखेडा और दिखेत की महिला पंचायतें महिला सशक्तिकरण की ऐसी मिसालें हैं, जिनसे दूसरी महिलाएं प्रेरणा हासिल कर सकती हैं।


लेखिका-परिचय:युवा पत्रकार, शायरा और कहानीकार... उर्दू, हिन्दी और पंजाबी में लेखन. देशी-विदेशी कई भाषाओं का ज्ञान... दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों दैनिक भास्कर, अमर उजाला और हरिभूमि में कई वर्षों तक सेवाएं दीं...अनेक साप्ताहिक समाचार-पत्रों का सम्पादन भी किया... ऑल इंडिया रेडियो, दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर कार्यक्रमों का प्रसारण...  देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं और समाचार व फीचर्स एजेंसी के लिए लेखन... .  गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत नामक एक किताब प्रकाशित...  . उत्कृष्ट पत्रकारिता, कुशल संपादन और लेखन के लिए अनेक पुरस्कार.
सम्प्रति: 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' में समूह संपादक इसके अलावा डिस्कवरी चैनल सहित अन्य टेलीविज़न चैनलों के लिए स्क्रिप्ट लेखन .




स्टार. न्यूज़ एजेंसी से साभार.आप यहाँ भी पढ़ें , चाहें तो .
read more...

बुधवार, 3 मार्च 2010

पगडंडी वापस नहीं लौटती



 














ख़ालिद ए ख़ान की क़लम से


पहले की  तरह
धुंधली आँखों से
बस देखती रहती है
गाँव की सीमा से लगती 
बडी सड़क की ओर
 
अब   पगडंडी वापस नहीं लौटती

चौपाल में फैला हुआ है
मरघट सा सन्नाटा
शाम को बैठे रहते है
कुछ पुरनिया
हुक्के के साथ
अपनी शेष स्मृति
को धुएँ  में  उड़ाते  हुए


खूँटी  से लटके
ढोल मंजीरे
रह रह कर हिल
उठते है
हवा के झोके के साथ
अब इनेह कोई नहीं पूछता है

गाँव के चौराहे की
चाय की दुकान पर
अब नहीं लगता
लोगो का मजमा
वो बुढ़ा पंडित
खुद से ही बतियाता
रहता है

गाँव को छुकर निकलती
दुबली सी नदी
ठिठक कर ठहर सी गयी है
अब नहीं आता कोई
बच्चो का झुंड
करने इससे अठखेलियाँ


गाँव का सबसे बुढ़ा
बरगद
उसकी डालियाँ
अतीत से छनती
रहती है कुछ यादे
उससे चिमटी
एक पुरानी पतंग
की सरसराहट
उसे भविष्य में
ला पटकती है
और वह देखने लगता है
इधर से उधर

शहर से आती हवा ने
भर दिए नए सपने
यहाँ की  नयी पीढ़ी में
और यह उड़ पहुँचे
बड़े से शहर के बड़े से
कारखानों में
 
 
अब यहाँ
जवान होती नस्लों
में भी शहर के ख्वाब
तैरते रहते है


जब ये गाँव से कटे लोग
कारखानों से लौटते हैं
अपनी अपनी मांदों में
थक कर
रात को करवट
बदलते  हुए

 
गाँव का झोंका
छु जाता है इनकी देह से
तो आकार लेने लगता है
इनके बहुत अन्दर बैठ हुआ
इनका गाँव


ढोल मंजीरे की
थाप तेज होने लगती है
बरगद की छाँव
ढक लेती है
 
इन्हें
पूरा का पूरा


दुबली सी नदी का
पानी
गिला कर देता
इनकी आँखों को


अब यह सभी
उड़ जाना चाहते हैं
वापस
पर

अब




 









पगडंडी वापस नहीं लौटती .







[कवि-परिचय: जन्म सुल्तानपुर में.और शिक्षा लखनऊ से वाणिज्य स्नातक .गत कई सालों से दिल्ली में रहकर रोज़ी-रोटी की तलाश.साहित्य,कला में रूचि.]

read more...
(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)