गुंजेश की क़लम से
नरेन्द्र मोदी से रविवार 29 मार्च को दो बैठकों में 9 घंटे पूछताछ हुई. उनसे मैराथन बातचीत कर यह पता लगाने का प्रयास किया गया होगा कि 2002 के दंगों, खास तौर से उस घटना, जिसमें गुलबर्ग सोसायटी में रहने वाले सांसद सहित 62 लोगों को जिंदा जला दिया गया था , में सरकार की भूमिका ? . आरोप है कि अगर सरकार और मुख्यमंत्री चाहते तो ऐसा होने से रोका जा सकता था. इस मामले में दायर याचिका में कहा गया है कि 'बार-बार फ़ोन करने पर भी पुलिस अधिकारियों द्वारा ध्यान नहीं दिया गया.समय पर मदद क्या भेजते, उलटे मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जाफरी को ही फटकार सुनाई थी.'
उपर्युक्त सारी बातें अख़बारों में लिखी जा चुकीं है, टेलिविज़न चैनलों पर कही जा चुकी है . बल्कि इससे एक कदम आगे, जैसा कि समय का चरित्र है, पूरी मीडिया 'नरेन्द्र मोदी से हुई लम्बी पूछताछ का महोत्सव मना रही है.
अभी हाल में केरल जाना हुआ था, वहीँ एक सार्वजनिक सभा में भारतीय महिला मुस्लिम आन्दोलन की संस्थापक 'ज़किया सोमेन' दक्षिण एशिया में महिलाओं पर बढती हिंसा पर बोल रहीं थी. वह मूलत: गुजरात से हैं,और समाजिक कार्य करने का उनका कार्य क्षेत्र भी ज़्यादातर गुजरात ही रहा है इसलिए ऐसा हुआ होगा कि बोलते हुए उन्हें पता न चला हो कि वह कैसे गुजरात के दंगों और उसमें सरकार की भूमिका पर बोलने लगी . हालाँकि यह विषयांतर था लेकिन किसी भी तरह की हिंसा का दंगों से ज्यादा बड़ा छदम रूप क्या हो सकता है कि मारने वाला नहीं जनता हो कि वह किस कारण से किसी को मार रहा है, या अगर जनता भी हो तो वह कारण ही निराधार हो जिसका पता मारने वाले को शायद कभी नहीं चलता और न ही मरने वाले को पता होता है कि उसने जिसे 'मारते' (हत्या करते) हुए उसने देखा है दरअसल वह उसे नहीं मार रहा....
बहरहाल, ज़किया ने कहा -- हम ने बचपन से ही देखा है , जब भी शहर में तनाव होता था, वे (मुसलमान) जो मुस्लिम इलाकों के सीमा पर रहते थे घर छोड़ कर बीच बस्ती में अपने रिश्तेदारों के यहाँ चले जाते. तनाव कम होता तो वापस आते. जले हुए घरों को ठीक करते, जान बच जाने के लिए अल्लाह का शुक्रिया अदा करते---
इन घरों में ज़किया के नाना का घर भी था .
लेकिन बकौल ज़किया 2002 के दंगे अपनी संरचना में, अपनी कार्यशैली में, और अपने उद्देश्य में ( पाठक आश्चर्य कर सकते हैं लेकिन अब दंगों की भी अपनी संरचना होती है, एक तयशुदा कार्यक्रम से भड़काए जाते हैं एक उद्देश्य के साथ) अलग थे . जिसने ज़किया और उन जैसी कई 'ज़कियाओं' की ज़िन्दगी के तानेबाने को, उसकी संरचना को, उसकी कार्यशैली को सबसे ज्यादा प्रभावित किया.
2002 तक गुजरात काफी तरक्की (आर्थिक विकास) कर चुका था, अहमदाबाद महानगर से टक्कर ले रहा था.इसलिए वहां के मुसलमान भी (मध्यम वर्गीय) आर्थिक रूप से समृद्ध हुए थे जो अब बस्तियों से निकल कर रिहायशी फ्लेटों में रहने लगे थे.[यह भी विडंबना ही रही है कि उसी शहर में दंगे हुए हैं ! जहां-जहां मुस्लिम आर्थिक रूप से सक्षम और समृद्ध रहे हैं -सं.].
2002 के दंगों में दंगाइयों के पास पूरी लिस्ट थी कि कौन से अपार्टमेन्ट के किस फ्लेट में मुसलमान रहता है [मुंबई में भी ऐसा ही हुआ था]......क्या यह महज़ एक समाज का उग्र मन था या एक सुनियोजित आक्रामकता ? क्या सरकारी तंत्र को इसकी भनक पहले से नहीं रही होगी जबकि गुजरात एक तथाकथित संवेदनशील राज्य माना जाता है ...और अगर नहीं भी थी तो फिर सूचना-सुरक्षा पर इतना खर्च क्यूँ ? खबर न होने की सज़ा किसको मिलेगी ? इसकी नैतिक ज़िम्मेदारी कौन लेगा ? क्या कोई भी व्यक्ति जिसको राज्य व्यवस्था की थोड़ी भी समझ हो वह यह मान सकता है कि 2002 में जो कुछ हुआ उसके लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है ?
खैर, ज़किया कह रही थी कि 2002 के दंगों में उसने दोस्त खोये,वे साथी जिनके साथ उठना-बैठना था, एकदम से हिन्दू-या-मुसलमान हो गए और ऐसा ही अब भी है. लोग लगातार हिन्दू या मुसलमान होते चले जा रहे हैं..........
क्या ऐसा सिर्फ एक रात में अचानक से हो गया ?
ज़किया ने जो बताया वह बहुत महत्वपूर्ण है, वह दंगों से पहले सरकार (अगर हम अब भी मानें कि वहाँ कोई ऐसी सरकार थी जो जनता के द्वारा जनता के लिए चुनी गई थी ) की भूमिका पर संदेह पैदा करती है और हमारे सामने उन 'टूल्स' को खोलती है जिसके माध्यम से राजनीतिक ताकतें सामान्य भावनाओं का इस्तेमाल अपने हक में कर ले जाती है .....
ज़किया ने कहा कि वहां (गुजरात में) सम्प्रदायवादी ताकतें ( जाहिर है ज़किया का इशारा बी.जे.पी., आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद्, आदि की ओर है) ऐसे अनुष्ठानों, यज्ञों का आयोजन करते हैं, [जिनका उद्देश्य होता है, लोगों को सत्कर्म की तरफ ले जाना] लेकिन बहुत चालाकी से ऐसे मानवीय व्यवहारों को जो मुसलमानों में प्रचलित है को अपयशकारी बताया जाता है. ज़किया ने तो उन किताबों का भी ज़िक्र किया जिनमें यहाँ तक लिखा होता है कि एक अच्छी माँ को चाहिए कि वह अपने बच्चे को मुसलमानों से मिलने से रोके, या साइकिल का पंचर कभी भी किसी मुस्लिम कारीगर से नहीं बनवाना चाहिए इससे पाप होता है..........
क्या अगर ये सब कुछ एक लोकतान्त्रिक सरकार की उपस्थिति में हो रहा है तो उस सरकार की, सरकार की पुलिस की ज़िम्मेदारी तभी बनती है जब कोई ऍफ़ आई आर दर्ज हो ....या जब अमानवीयता अपने चरम पर हो (वैसे आरोप तो है कि गुजरात में सरकार (!) ही अमानवीय थी/है ) ?
दरअसल, ये वो तरीकें हैं जिससे समाज के सोच को नियंत्रित कर लिया जाता है ताकि बाद में जो भी हो उसको जस्टिफाय किया जा सके ......
आप सोच रहे होंगे कि इन जानी हुई बातों को दुहराने का क्या मतलब ? जब नरेन्द्र मोदी से लम्बी पूछताछ ( का नाटक, आस पास देखिये कहीं कोई चुनाव नहीं है और इस पूछताछ से किसी को कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होने वाला) हो चुकी है लगता है कि कुछ न कुछ हो रहेगा अब ...
मीडिया कभी इसे न्याय की जीत तो कभी मोदी का घमंड टूटना कह रहा है
....तो मुझे याद आ रहा है [ शायद बी. जे. पी. का काल था जब] लालू यादव को चारा घोटाले के मामले में जेल जाना पड़ा था तब भी लगा था कि कुछ न कुछ हो रहेगा क्या हुआ वो हम सब जानते है .......
फिर भी अगर नरेन्द्र मोदी पर वापस लौटें, एस आई टी पर वापस लौटें और गुजरात में मोदी के होने के मायनों को तलाशें, 2002 में सरकार (!) की भूमिका को परखें तो हम यही पाएंगे कि 9 घंटे काफी नहीं है, ( शायद यह भावुकता हो पर मुझे लगता है कानून को इतना संवेदनशील तो होना ही चाहिए) 90 दिन का रिमांड चाहिए, सिर्फ एक गुलबर्ग सोसायटी में नहीं मोदी ने ज़हर पूरे गुजरात में फैलाया है .
मीडिया में जो मोदी महोत्सव (रावण वध की तरह ही सही ) चल रहा है वह यही समझाता है कि मोदी सबसे ज्यादा शक्तिशाली आदमी है/था इस देश के संविधान और कानून से भी ज्यादा शक्तिशाली और इस शक्तिशाली आदमी जो (दुर्भाग्य से) एक राज्य का मुख्यमंत्री भी है को पहली बार कानून के आगे झुकना पड़ा है .
पहली बार किसी मुख्यमंत्री को दंगे जैसे संवेदनशील मामले में इस तरह से पूछताछ के लिए बुलाया गया ........इसे एक सौभाग्य की तरह पूरा मीडिया प्रचारित कर रहा है ......ऐसा अगर हुआ तो सिर्फ इसलिए कि भारत के संवैधानिक इतिहास में पहली बार ऐसा नरभक्षी मुख्यमंत्री हुआ है, पहली बार किसी राज्य के मुख्यमंत्री की भूमिका इतनी संदिग्ध है और उससे इस्तीफे की मांग करने वाला कोई विपक्ष नहीं है .....
कोई केंद्र सरकार वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की बात नहीं कर रहा ? क्या सिर्फ भौतिक परिस्थितोयों का बिगड़ना ही राष्ट्रपति शासन की पहली शर्त होनी चाहिए?
और वे जो इस बात को भुना रहे हैं कि मोदी ने कानून का सम्मान किया उन्हें यह समझ लेना जाना चाहिए कि मोदी के पास यही एक मात्र उपाय था इसके अलावा वह कर भी क्या सकते थे......
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इसी सन्दर्भ में समय के अहम कार्टूनिस्ट इरफ़ान की यह बानगी इतनी सी बात से साभार.
[लेखक-परिचय:बिहार-झारखंड के किसी अनाम से गाँव में -09/07/1989 को जन्मे इस टटके कवि-लेखक-पत्रकार [ गुन्जेश कुमार मिश्रा ] ने जमशेदपुर से वाणिज्य में स्नातक किया.सम्प्रति महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में एम. ए. जनसंचार के छात्र हैं.
परिकथा में इनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई जिसे हमने भी साभार हमज़बान में प्रस्तुत किया था.खबर है कि उसी पत्रिका के ताज़े अंक में उनकी दूसरी कहानी भी शाया हुई है.उन्हें मुबारक बाद!!पिछले दिनों यहीं आप इनकी कविताओं से रूबरू हो चुके हैं.
गुन्जेश का विश्वास है : संसार में जो भी बड़ा से बड़ा बदलाव हुआ है, उसके पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गंभीर लेखन की भूमिका अवश्य रही है. ..माडरेटर]