बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

देसी तालिबानियों को बिदेसी मदद


विश्व मुकम्मल तौर पर आज दो खेमे में बँट चुका है.तीसरा खेमा है तो ज़रूर, लेकिन उल्लेखनीय नहीं.पहले साम्यवाद और साम्राज्यवाद  ...लेकिन रूस जैसे संघ के विभाजन के बाद लोगों का सारा ध्यान इस्लामी मुल्कों की तरफ गया.आखिर क्या कारण है कि साम्राजवादी शक्तियों को फासीवादी तत्वों से अपेक्षित सहायता मिलती है.आज तालिबानी जो हैं किस की  उपज हैं.....या भारतीय तालिबानियों को किस की मदद मिल रही है..ये लेख  शीत युद्ध के बाद की स्थितियों का बारीक विश्लेषण करता है...शहरोज़









की कलम से 


आर एस एस अमरीका भाई-भाई


साम्प्रदायिकता का आक्रामक उभार और विकास हमारे देश में शीतयुध्द के साथ तेजी से हुआ है। यह विश्व में उभर रही आतंकी-साम्प्रदायिक विश्व व्यवस्था का हिस्सा है। यह दिखने में लोकल है किंतु चरित्रगत तौर ग्लोबल है। इसकी ग्लोबल स्तर पर सक्रिय घृणा और नस्ल की विचारधारा के साथ दोस्ती है। याराना है। भारत में राममंदिर आंदोलन का आरंभ ऐसे समय होता है जब शीतयुद्ध चरमोत्कर्ष पर था।
शीतयुध्द के पराभव के बाद अमरीका ने खासतौर पर इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ हमलावर रूख अख्तियार कर लिया है। इसके नाम पर अंतर्राष्ट्रीय मुहिम भी चल रही है, ग्लोबल मीडिया इस मुहिम में सबसे बड़े उपकरण बना हुआ है। मुसलमानों और इस्लामिक देशों पर तरह-तरह के हमले हो रहे हैं। इस विश्वव्यापी इस्लाम -मुसलमान विरोधी मुहिम का संघ परिवार वैचारिक-राजनीतिक सहयोगी है। फलत: ग्लोबल मीडिया का गहरा दोस्त है।
संघ परिवार ने इस्लाम धर्म और मुसलमानों को हमेशा विदेशी ,अनैतिक ,शैतान और हिंसक माना । इसी अर्थ में वे इस्लाम और मुसलमान के खिलाफ अपने संघर्ष को देवता अथवा भगवान के लिए किए गए संघर्ष के रूप में प्रतिष्ठित करते रहे हैं। अपनी जंग को राक्षस और भगवान की जंग के रूप में वर्गीकृत करके पेश करते रहे हैं। शैतान के खिलाफ जंग करते हुए वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन तमाम राष्ट्रों के साथ हैं जो शैतानों के खिलाफ जंग चला रहे हैं। इस अर्थमें संघ परिवार ग्लोबल पावरगेम का हिस्सा है। चूंकि इस्लाम-मुसलमान हिंसक होते हैं अत: उनके खिलाफ हिंसा जायज है,वैध है। हिंसा के जरिए ही उन्हें ठीक किया जा सकता है। वे मुसलमानों पर हमले इसलिए करते हैं जिससे हिन्दू शांति से रह सकें। हिन्दुओं के शांति से रहने के लिए मुसलमानों की तबाही करना जरूरी है और यही वह तर्क है जो जनप्रियता अर्जित करता जा रहा है। दंगों को वैध बना रहा है। दंगों को गुजरात में बैध बनाने में इस तर्क की बड़ी भूमिका है। 'शांति के लिए मुसलमान की मौत' यही वह साम्प्रदायिक स्प्रिट है जिसमें गुजरात से लेकर सारे देश में दंगों और दंगाईयों को वैधता प्रदान की गई है। यही वह बोध है जिसके आधार साम्प्रदायिक हिंसा को वैधता प्रदान की जा रही है।
     संघ परिवार पहले प्रतीकात्मक हमले करता है और बाद में कायिक हमले करता है। प्रतीकों के जरिए संघ परिवार जब हमले करता है तो प्रतीकों के दबाव में सत्ताा को भी ले आता है। वे कहते हैं यदि एक हिन्दू मारा गया तो बदले में दस मुसलमान मारे जाएंगे। वे मौत का बदला और भी बड़ी भयानक मौत से लेने पर जोर देते हैं। वे मुसलमानों की मौत के जरिए व्यवस्था को चुनौती देते हैं। हिन्दुओं में प्रेरणा भरते हैं। व्यवस्था को पंगु बनाते हैं। अपने हिंसाचार को व्यवस्था के हिंसाचार में तब्दील कर देते हैं। साम्प्रदायिकता आज पिछड़ी हुई नहीं है। बल्कि आधुनिकता और ग्लोबलाईजेशन के मुखौटे में जी रही है। मोदी का विकास का मॉडल उसका आदर्श उदाहरण है। इस्लाम,मुसलमान के प्रति हिंसाचार,आधुनिकतावाद और भूमंडलीकरण ये चारों चीजें एक-दूसरे अन्तर्गृथित हैं। इस अर्थ में साम्प्रदायिकता के पास अपने कई मुखौटे हैं जिनका वह एक ही साथ इस्तेमाल कर रही है और दोहरा-तिहरा खेल खेल रही है।
      आज प्रत्येक मुसलमान संदेह की नजर से देखा जा रहा है। प्रत्येक मुसलमान को राष्ट्रद्रोही की कोटि में डाल दिया गया है। मुसलमान का नाम आते ही अपराधी की शक्ल, आतंकवादी की इमेज आंखों के सामने घूमने लगती है। कल तक हम मुसलमान को नोटिस ही नहीं लेते थे अब उस पर नजर रखने लगे हैं। इसे ही कहते हैं संभावित अपराधीकरण। इस काम को संघ परिवार और ग्लोबल मीडिया ने बड़ी चालाकी के साथ किया है। इसे मनोवैज्ञानिक साम्प्रदायिकता भी कह सकते हैं।
      साम्प्रदायिक दंगों को संघ परिवार साम्प्रदायिक दंगा नहीं कहता,बल्कि जबावी कार्रवाई कहता है। यही स्थिति भाजपा नेताओं की है वे भी साम्प्रदायिक दंगा पदबंध का प्रयोग नहीं करते। बल्कि प्रतिक्रिया कहते हैं। उनका तर्क है हिंसा हमेशा 'वे' आरंभ करते हैं। 'हम' नहीं। साम्प्रदायिक हिंसाचार अथवा दंगा कब शुरू हो जाएगा इसके बारे में पहले से अनुमान लगाना संभव नहीं है।  इसी अर्थ में दंगा भूत की तरह आता है। भूतघटना की तरह घटित होता है। दंगा हमेशा वर्चुअल रूप में होता है सच क्या है यह अंत तक नहीं जान पाते और दंगा हो जाता है। हमारे पास घटना के कुछ सूत्र होते हैं,संकेत होते हैं। जिनके जरिए हम अनुमान कर सकते हैं कि दंगा क्यों हुआ और कैसे हुआ। दंगे के जरिए आप हिंसा अथवा अपराध को नहीं रोक सकते। (संघ परिवार का यही तर्क है कि दंगा इसलिए हुआ क्योंकि मुसलमानों ने अपराध किया,वे हिंसक हैं) ,दंगे के जरिए आप भगवान की स्थापना अथवा लोगों की नजर में भगवान का दर्जा भी ऊँचा नहीं उठा सकते।
      दंगे के जरिए आप अविवेकपूर्ण जगत को विवेकवादी नहीं बना सकते।  मुसलमानों का कत्लेआम करके जनसंख्या समस्या का समाधान नहीं कर सकते। मुसलमानों को भारत में पैदा होने से रोक नहीं सकते। मुसलमानों को मारकर आप सुरक्षा का वातावरण नहीं बना सकते। मुसलमानों को पीट-पीटकर तटस्थ नहीं बनाया जा सकता। मुसलमानों की उपेक्षा करके ,उनके लिए विकास के सभी अवसर छीनकर भी सामाजिक जीवन से गायब नहीं कर सकते। हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करना होगा कि मुसलमान और इस्लाम धर्म हमारी वैविध्यपूर्ण संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। आप इस्लाम और मुसलमान के खिलाफ चौतरफा आतंक और घृणा पैदा करके इस देश में सुरक्षा का वातावरण और स्वस्थ लोकतंत्र स्थापित नहीं कर सकते।   
       मुसलमान और इस्लाम लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं है। लोकतंत्र को कभी अल्पसंख्यकों से खतरा नहीं हुआ बल्कि बहुसंख्यकों ने ही लोकतंत्र पर बार-बार हमले किए हैं। जिन दलों का बहुसंख्यकों में दबदबा है वे ही लोकतंत्र को क्षतिग्रस्त करते रहे हैं। आपात्काल, सिख जनसंहार,गुजरात के दंगे,नंदीग्राम का हिंसाचार आदि ये सभी बहुसंख्यकों के वोट पाने वाले दलों के द्वारा की गई कार्रवाईयां हैं। मुसलमानों के खिलाफ हिंसाचार में अब तक साम्प्रदायिक ताकतें कई बार जीत हासिल कर चुकी हैं। साम्प्रदायिक जंग में अल्पसंख्यक कभी भी जीत नहीं सकते बल्कि वे हमेशा पिटेंगे।
                 


साभार भड़ास



[लेखक-परिचय :  कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर। मीडि‍या और साहि‍त्‍यालोचना का वि‍शेष अध्‍ययन। अब  तक दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित , प्रशंसित और पुरस्कृत.आप से यहाँ  और  यहाँ संपर्क संभव है  मोबाइल नं. 09331762360। घर - 033-23551602। ई मेल- jagadishwar_chaturvedi@yahoo.co.in]
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मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

स्विस बैंक में बंद रक्तक्रांति

 














आवेश की कलम से


माओवादी लीडरों  के अरबों  रूपए स्विस बैंक में जमा

 
पश्चिम बंगाल के लालगढ़ से लेकर छत्तीसगढ़ के लालबाग तक रक्तक्रांति की बदौलत सामाजिक क्रांति का दावा करनेवाले नक्सली संगठनों का एक नया चेहरा सामने आया है , आदिवासी-गिरिजनों की मसीहाई का दावा करने वाले कुछ एक माओवादी नेताओं के खाते स्विस बैंक में होने के पुख्ता सबूत मिले हैं | भारत के कतिपय माओवादी नेता  न सिर्फ अपने खातों का संचालन स्विस बैंक के माध्यम से कर रहे हैं ,बल्कि नेपाल के भी माओवादी नेताओं का धन भी हिंदुस्तान होता हुआ स्विस बैंक पहुँच रहा है | स्विस बैंक "क्रेडिट सुईस "के अधिकारी  हल्शी बाश ने अपने सनसनीखेज मेल में  खुलासा किया है कि बैंक में जामा राशि लाखो यूरो के बराबर हैं ,जो कि बैंकों को ,उनके  खाताधारकों का नाम गुप्त रखने के लिए प्रभावित करता है | कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि युरोपियन यूनियन के साथ साथ  चीन भी इन खातों के संचालन में माओवादी नेताओं की मदद कर रहा है  गौरतलब है कि हिंदुस्तान में माओवादियों द्वारा फिरौती के रूप में सालाना प्रतिवर्ष तीन से चार हजार करोड़  रूपए की वसूली की जा रही है ,अकेले छत्तीसगढ़ में हर वर्ष माओवादी ३५० -४५० करोड़ की वसूली करते हैं | ऐसा  नहीं है कि माओवादियों का आर्थिक स्रोत सिर्फ फिरौती की रकम है इसके अलावा  नेपाल ,बर्मा ,म्यांमार,बंगला देश आदि से भी माओवादियों  को भारी धन प्राप्त हो रहा है ,इतना ही नहीं देश में चल रहे कई एन,जी,ओ भी इन्हें फंडींग  कर रहे हैं | हालाँकि  सरकार माओवादियों को विदेशों से मिलनेवाले आर्थिक मदद की  बात से साफ़ इनकार करती रही है | अफ़सोस इस बात का है कि न सिर्फ केंद्र बल्कि राज्य सरकारें भी माओवादियों के आर्थिक तन्त्र को तोड़ पाने में विफल रही हैं ,नतीजा यह है कि  नक्सली उन्मूलन की सारी कार्यवाही बेमानी साबित हुई है |

स्विस बैंक क्रेडिट सुईस  के अधिकारी का 
सनसनीखेज खुलासा

तस्वीर के कई रूप हैं क्या आप यकीन करेंगे कि देश की मुख्यधारा से अलग-थलग कर दिए गए आदिवासी गिरिजनों को सब्ज बाग़ दिखाने वाले कई माओवादी नेता  रक्तक्रांति की आड़ में अपार धन की उगाही कर रहे हैं इनके स्विस बैंक में  खाते हैं   दिल्ली ,मुंबई ,कलकत्ता आदि महानगरों में आलिशान मकान हैं और उनके बच्चे बेहद महंगे स्कूलों में पढ़ रहे हैं | पैसों की इस हवस का नतीजा यह  है  कि माओवादी संगठनों में मौजूदा समय में पैसे को लेकर कैडर आपस में ही लड़-भीड़ रहे हैं ,हत्याएं हो रही हैं , विद्रोह हो रहे हैं , विश्वासघात हो रहे हैं माओवादियों नेताओं द्वारा स्विस बैंक के खातों में जो पैसा ट्रान्सफर किया गया है उसको लेकर चौंका देने वाली  जानकारी मिली है माओवादियों ने स्विस बैंक में धन स्थानान्तरण से पहले देश के ही कई बैंकों में फर्जी खाते खुलवाये गए उसके बाद पैसों का स्थानांतरण एक बैंक से दूसरे बैंक में करके ,पहले वाले खाते को बंद कर दिया गया ,जिसे इस बात का पताया लगाया ही न जा सके कि ये पैसा आखिर किस जगह से आया | बैंक में सहायक प्रबंधक और "रोने लेन जेनेवा " के रहने वाले हल्शी  बाश का कहना है कि नेपाल के माओवादी नेताओं प्रचंड , हिशिला यामी,कृष्णा महारा के अलावा भारत  के जिन नेताओं के खाते स्विस बैंक में है ,उनमे से नियमित क्रम में धन का आहरण होता रहा है ,सूत्रों की माने तो नेपाल के माओवादियों का खाता हिंदुस्तान में छदम नामों से खोला जा रहा है ,भारत नेपाल सीमा पर स्थित कई बैंकों के अधिकारी  भी इस गडबडझाले में पूरी मदद करते रहे हैं |








नक्सली संगठनों में पैसे के इस पूरे खेल का सच बताने के लिए यही सच काफी है कि माओवादी संगठनों में फिरौती की  रकम के बंटवारे को लेकर पिछले छः माह  के दौरान ही  लगभग आधा दर्ज़न हत्याएं हुई हैं ,उत्तर प्रदेश और झारखण्ड में आतंक का पर्याय माने जाने वाले रामवृक्ष और शिव प्रकाश कुशवाहा को उनके ही साथियों ने मौत के घाट उतार दिया ,वहीँ ५० लाख की लेवी और बड़े पैमाने पर असलहे  लेकर फरार एम.सी.सी के बसंत यादव और उसके साथियों के खिलाफ मौत का फरमान जारी कर दिया , मौजूदा समय में एक ही बैनर के तले  काम करने वाले माओवादी अलग अलग गुटों में बंटकर ठेकेदारों और व्यवसाइयों से लेवियां वसूल कर रहे हैं जिसका परिणाम खूनी संघर्ष के रूप में सामने आ रहा है | बताया जाता है कि पीपुल्स वार ग्रुप के सब जोनल कमांडर मुन्ना विश्वकर्मा ने ही लेवी की  रकम को लेकर  अपने वरिष्ठ रामवृक्ष की हत्या कर दी थी वहीँ कुछ दिनों बाद ही पीपुल्स वार ग्रुप से ही जुड़े 'सोन गंगा विन्ध्याचल कमेटी' के शिवप्रकाश की  भी हत्या इन्ही परिस्थितियों में हुई | उत्तर प्रदेश कैडर के  एक वरिष्ठ आई .पी एस  कहते हैं कि लेवी की रकम को लेकर नक्सली संगठनों में खून खराबे के मामले पिछले चार महीनो में बढे  हैं ,रामवृक्ष और मुन्ना विश्वकर्मा के बीच विवाद फिरौती की  रकम के बंटवारे को लेकर शुरू हुआ था ,कुछ समय बाद ही दोनों अलग अलग ग्रुपों में काम करने लगे | महत्वपूर्ण है कि  मौजूदा समय में अकेले बिहार ,झारखण्ड और उत्तर प्रदेश में लगभग १४ की संख्या में अलग अलग ग्रुप काम कर रहे हैं आश्चर्यजनक ये है कि ये नए  ग्रुप न सिर्फ सरकारी तंत्र के खिलाफ काम कर रहे हैं बल्कि एक दूसरे के  खिलाफ भी कर रहे हैं ,इसके पहले गढ़वा का रामस्वरूप दो करोड़ रूपए का सोना लेकर ही फरार हो गया |
माओवादियों के इस धनतंत्र से जुड़े सच को समझने के लिए उनके आर्थिक स्रोतों को भी समझना होगामाओवादियों द्वारा फिरौती के तौर पर  प्रतिवर्ष दो हजार करोड़ रूपए  की वसूली किये जाने  जाने की बात स्वीकार करते हुए आई .बी के संयुक्त निदेशक रंजन कहते हैं कि यह  सिर्फ कागजी आंकड़ा नहीं है यह  तथ्य माओवादियों की  धर पकड़ में मिले कैश बुक और अन्य दस्तावेजों पर आधारित है ,छत्तीसगढ़ के इस पूर्व डी.जी.पी का कहना है कि माओवादी जो भी पैसा अलग अलग स्रोतों  से प्राप्त कर रहे हैं उसके केवल १० फीसदी हिस्सा ही संगठन के निचले कैडर पर खर्च किया जाता है बाकी नब्बे फीसदी हिस्सा सी पी आई (एम् एल ) के बड़े कैडरों के जेब में जा रहा है | चौंका  देने वाला तथ्य यह  है कि माओवादियों को आर्थिक मदद  देने में नक्सल प्रभावित  राज्यों के बड़े औद्योगिक उपक्रम भी पीछे नहीं हैं ,सूत्रों की  माने तो छत्तीसगढ़ में मौजूद स्टील के एक बड़े कारखाने से ही माओवादी लीडरान को सालाना लगभग सौ करोड़ रूपए मिलते हैं | यही हाल झारखण्ड का है जहाँ  लेवी के रूप में सर्वाधिक वसूली की  जाती है ,जो जानकारी मिली है कि स्विस बैंकों के खातों में जिन माओवादी लीडरों के धन हैं वो  इन्ही दो राज्यों में से आते हैं | एक ऐसे वक़्त में जब भारी सुरक्षा बल लगाकर माओवाद के कथित तौर पर खात्मे कि कवायद की जा रही है यह  सवाल महत्वपूर्ण है कि  धनकुबेर  माओवादी लीडरों के राजफाश के बजाय दिन रात  बुनियादी जरूरतों के लिए कराह  रहे मजलूमों के खिलाफ ग्रीन हंट जैसे युद्ध छेड़ने का आखिर तर्क क्या है |

                                                                                                                                           
[लेखक-परिचय : बहुत ही आक्रामक-तीखे तेवर वाले इस युवा पत्रकार से आप  इनदिनों हर कहीं मिलते होंगे, ज़रूर.! हमज़बान के लिए  विकलांगता का अभिशाप झेलते आदिवासी से हमें रूबरू कराया था.आपका का ब्लॉग है कतरने.  लखनऊ और इलाहाबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में ब्यूरो प्रमुख। पिछले सात वर्षों से विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद की पर्यावरणीय परिस्थितियों का अध्ययन और उन पर रिपोर्टिंग कर रहे हैं। 
आवेश से awesh29@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। ]

                                                                                                  
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सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

स्खलित होता समाज -- अपने ही हाथों में














गुन्जेश की कवितायें


 (1)
ज्ञान, शांति, मैत्री
हमारे दौर के
सबसे प्रतिष्ठित शब्द हैं........
इतने प्रतिष्ठित शब्द कि
ये हमें प्रतिष्ठित कर सकते थे!!
थे?
हाँ, थे!!!!!!!
ज्ञान अब --तथ्य है,
शांति     --प्रतिबन्ध
मैत्री    --चाटुकारिता
और हम अपने समय के सबसे बड़े
शोर.........

 (2)

उसके आवाज़ में
भारीपन था,
स्वर में गहराई,
विचारों में स्पष्टता ,
समय ने
आवाज़, स्वर, और विचार को
अगवा कर लिया
बचा रह गया
भारीपन ----व्यक्तित्व  का
गहराई ----संबंधों में
स्पष्टता ---अधिकारों की..........

 (3)

आज लिखी जाएँगी
जम कर कुछ पंक्तियाँ,
पंक्तियाँ प्रेम पगी
बहुत रस भरी पंक्तियाँ,
नहीं.....
कोई इन्कलाब नहीं हुआ......
सिंहासन भी ज्यूँ का त्यूं है ...
भाई, जंग तो अभी शुरू ही नहीं हुई, तुम जीतने की बात करते हो???
फिर भी चूंकि बहुत-बहुत नकारात्मक नहीं  होना चाहिए
इसलिए लिखी जा रही हैं पंक्तियाँ,
दो शब्द आस-पास रखे गए हैं --
जैसे कैमरे के सामने दो जिस्म ......
जिसे देख कर रत है पूरा समय हस्तमैथुन में
लिखी जाएँगी पंक्तियाँ इसलिए कि
स्खलित हो जाये पूरा समाज -- अपने ही हाथों में
कि रजा को अब और प्रजा की ज़रूरत  नहीं.....

(4)

एक होती है कविता की भाषा
और एक भाषा
की कविता
ठीक वैसे ही
जैसे
होती है
राजनीति की 'शिक्षा'
और
'
शिक्षा'
की राजनीति ......


***********************************************
परिचय:
बिहार-झारखंड के किसी अनाम से गाँव में -09/07/1989 को जन्मे इस टटके कवि-कथाकार [ गुन्जेश कुमार मिश्रा ] ने जमशेदपुर से वाणिज्य में स्नातक किया.सम्प्रति महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,  वर्धा में एम. ए. जनसंचार के छात्र हैं.
परिकथा में इनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई जिसे हमने भी साभार हमज़बान में प्रस्तुत किया था.खबर है कि उसी पत्रिका के ताज़े अंक में उनकी दूसरी कहानी भी शाया हुई है.उन्हें मुबारक बाद!!
कविता के बारे कोई राय देना नहीं चाहता..वो खुद मुखर हैं.यूँ गुन्जेश स्वीकार करते हैं कि जितना समय वह पाठ्य-पुस्तकों को देते हैं,उस से कम साहित्यिक पुस्तकों को नहीं देते!उनका विश्वास है : संसार में जो भी बड़ा से बड़ा बदलाव हुआ है, उसके पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गंभीर लेखन की भूमिका अवश्य रही है. ..माडरेटर
 


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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

रंगों के संग प्रीत

जब दिल और दिमाग के खूबसूरत संयोजन रंगों से बतियाते हैं तो एक ऐसे संसार का सृजन होता जहां चित्र महज़ मनोरंजन का नाम नहीं होता कुछ सोच-विचार की भी मांग करता है.ऐसी दुनिया रचती हैं सूरत की प्रीती मेहता
.मैं और कुछ न कहूँगा.एक चित्र ही हज़ारों शब्द कहता है..आप खुद इनकी पेंटिंग्स को देखें, महसूस करें..

रंगों की प्रीती 


.
शब्दों की प्रीती 

प्रीती शब्दों के होती हैं तो कुछ इस तरह मुखर होती हैं:

कौन हूँ मैं ?


एक अनसुलझी पहेली सी ,
या -
किसी की सहेली सी हूँ मैं ?

रागनी लिए मौन वार्तालाप सी ,
या -
सात सुरों के आलाप सी हूँ मैं ...

बलखाती हवा सी ,
या -
दरिया के लहरों सी हूँ मैं ?

जिंदगी की राह में गुमनाम सी ,
या -
अपनी अलग पहचान सी हूँ मैं ?

हौसलों से पस्त , ध्वस्त सी ,
या -
समर्थ , सशक्त सी हूँ मैं ?

सबके लिए मान – अपमान सी ,
या -
अपने आप् में सम्मान सी हूँ मैं ?

कौन हूँ मैं ?
क्या -
प्रेम, प्यार, एहसासों का पर्याय "प्रीति" सी हूँ मैं ?

___________
अपने सतरंगी सपनो की चमक लिए
 
मैं - एक् आमंत्रण हूँ ..;
विश्वास का ,
अपनेपन का ,
अंतरंगता का ,

 यकीन करो –
पहचान हूँ ,अनकही बात हूँ ,
अटूट रिश्ता हूँ ...




 







 [प्रीती महेता का जन्म - २३ जनवरी , सूरत में  
शिक्षा - बी.कॉम, डिप्लोमा  इन  फैशन डिज़ाइनिंग , कंप्यूटर डिज़ाइनिंग और ज्वेलरी डिज़ाइनिंग
      रूचि - क्रियेटिव डिज़ाइनिंग, drawing और पेंटिंग्स, कल्पनाओं को शब्दों में पिरोना......
      सम्प्रति फ्रीलांस डिज़ाइनिंग ]
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)