बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

ज़िन्दगी मौत न बन जाय संभालो यारो








शहर की बोलती इबारत
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फ़िल्म जागो के बहाने





मध्य- बिहार माओवादियों की हिंसक वारदातों के कारण हमेशा चर्चा में रहता है . शेरशाह सूरी मार्ग,जिसे अब एन.एच-2 कहा जाता है पर स्थित है मध्य -बिहार का प्राचीन शहर शेरघाटी.वैदिक काल में भी इसका ज़िक्र मिलता है, ऐसा कुछ लोग मानते हैं.एतिहासिक सन्दर्भ मुग़ल काल के अवश्य मिलते हैं.किव्न्दंती है कि शेरशाह ने यहाँ एक वार से शेर के दो टुकड़े किए थे। जंगलों और टापुओं से घिरे इस इलाके को तभी से शेरघाटी कहा जाने लगा.शेरशाह ने यहाँ कई मस्जिदें , जेल , कचहरी और सराय भी बनवाया था.तब ये मगध संभाग का मुख्यालय था.संभवता बिहार-विभाजन तक यही दशा रही.कालांतर में धीरे-धीरे ये ब्लाक बनकर रह गया। 1983में इसे अनुमंडल बनाया गया.मुस्लिम संतों और विद्वानों की ये स्थली रही है. वहीँ प्राचीन शिवालयों से मुखरित ऋचाएं इसके सांस्कृतिक और अद्यात्मिक कथा को दुहराती रहती हैं। १८५७ के पहले विद्रोह से गाँधी जी के '४२ के असहयोग आन्दोलन में इलाके के लोगों ने अपनी कुर्बानियां दी हैं.हिन्दी साहित्य में पंडित नर्मदेश्वर पाठक,यदु नंदनराम, विजय दत्त युवाओं में प्रदीप, सुभाष और उदय आदि की सक्रियता है लेकिन उर्दु अदब यहाँ का काफी उर्वर और संग्रहणीय है। ख्वाजा अब्दुल करीम से असलम सादीपुरी , ज़हीर tishna,सिराज शम्सी से आज के नुमान -उल -हक ,फर्दुल हसन तक लम्बी फेहरिस्त है.शहर से लगे हमजापुर में भी कई नामवर शायर-अदीब रहते हैं।

जब हम चड्डी पकड़ कर दौड़ा करते थे तो रिक्शे के पीछे चिपकी रंगीन तस्वीरें आकर्षण थीं.और ये रिक्शा कस्बे की पहली टाकीज भूषन का रहता.कुछ ही दिनों बाद ये हाल बंद हो गया.टूरिंग सिनेमा हाल के नाम पर बने राजहाल को तीन दशक हुए होंगे, करीब इतना ही कमोबेश यहाँ मंचित हुए किसी नाटक को हुआ.इप्टा यहाँ कभी सक्रीय नहीं रहा , न ही रामलीलाओं की ही परम्परा रही है.लेकिन ऐसी पृष्ठभुमी में भी कई प्रतिभाएं ऐसी हैं जो न सिर्फ़ चमत्कृत करती हैं बल्कि लबरेज़ अपनी संभावनाओं से अग्रिम पंक्ति में खड़े सूरमाओं को ललकारती भी हैं.इमरान अली भी इसमें एक hain .इक्कीसवीं सदी के इस उपभोक्तावादी दौर में आपादमस्तक समाज के लिए प्रतिबद्ध होना, निसंदेह जिंदादिली का काम है.इमरान में ऐसी ही खूबी है.स्थानीय समाचार चैनलों के लिए काम कर चुके सक्रीय सामाजिक कार्यकर्त्ता इमरान ने -जागो का निर्देशन कर अपनी तमन्ना को श्रम के बूते साकार किया, तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपने मिशन में सफल रहा यह युवा फिलहाल बहुरुप्या और शेरघाटी -गाथा नामक दो फिल्मों के लिए काम कर रहा है ।

दो शब्दों का युग्म जागो जहाँ आकर्षक और मोहक भी है वहीँ इस शब्द में उसकी गंभीरता भी निहित है। आम से लगते इस शब्द का इस फ़िल्म में निर्णायक अर्थों में इस्तेमाल हुआ है ।


ग्रामीण कस्बाई परिवेश और उसमें तीन स्कूली बच्चों के अपहरण के मामले से शुरू हुई यह फ़िल्म भ्रष्ट ,लचर प्रशासन , और आम-जन की असहाय स्थिति को सामने लाती है। यह बताती है कि अपराधियों की राजनीतिज्ञों के संग की जुगलबंदी किस तरह समाज के ताने-बाने को भंग कर रही है । स्थानिय बोली-भाषा में बनी इस फ़िल्म का विषय भले बिहार जैसे प्रांत के लिए चिर-परिचित हो लेकिन इसकी प्रस्तुति यह प्रश्न अवश्य खड़ा करती है कि आख़िर कब-तक यह सब देखा और सहा जायगा ?उपभोक्तावादी संस्कृति के रोज़ हावी होते जाने और असमानता की खाई चौड़ी से चौड़ी होते जाने के चलते समाज में उपजी रोजी-रोटी की हताशा और कही जाति तो कहीं वर्ग संघर्ष । और बेकार नवजवानों को प्रलोभन देकर अपराध के बीहड़ में उतार देना--संघर्ष नित्य नए आयाम ले रहा है.फ़िल्म की विशेषता स्थानीय कलाकारों (नवीन सिंह ,जे.पी.पाटली , विष्णुदेव प्रजापति , अमृत अग्रवाल , कंचन गुप्ता,कुंजन कुमार सिन्हा , रामस्वरूप स्वर्णकार, नवीन सिन्हा वंदना,चंद्रभूशन , सचिदानंद ठाकुर ),पत्रकारों (एस.अहमद, एस.के.उल्लाह, कौशलेन्द्र कुमार, मुहम्मद अली बैदावी, ), राजनेताओं (सुशील गुप्ता ,अजित सिंह , शाहिद इमाम ,लखन पासवान ) और कलमकारों (रज़ा शेरघाटवी , रामचंद्र यादव,नुमान-उल-हक,हिलाल हमज़ापुरी, इश्राक़ हमज़ापुरी ,समी-उर रहमान ) के अभिनय से और बढ़ गई है.यूँ तो भोजपुरी फिल्मों के धर्मेन्द्र यादव, बांगला रंगमंच के संजू और वालीवुड के अली खान जैसे नामचीनों ने भी अभिनीत पात्रों को जीवंत किया है.लेकिन बाल कलाकारों ने अपनी सशक्त उपस्थिति हर फ्रेम में बरक़रार राखी है।

फ़िल्म अंत में यह संदेश अवश्य देती है कि अपराध को धर्म और जाति के खाने से हरगिज़ न देखा जाय। मौजूदा हालत के मद्देनज़र फ़िल्म सरफ़रोश के मशहूर गीत ज़िन्दगी मौत बन जाय , संभालो यारो....का इस्तेमाल बेहद सामयिक और महत्वपूर्ण हो जाता है.फ़िल्म में घटनाओं और स्थितियों का क्रमिक दृश्यांकन बहुत सहज लगता है। निर्देशक का श्रम बाल-कलाकारों अनम इमरान , सादिया एमाला और गौरव गुप्ता के अभिनय में कमाल होकर मुखर होता है.शेरघाटी के सिनेतिहास की इस पहली टेली -फ़िल्म में उर्दू के चर्चित शायर नदीम जाफरी aur लेखक- रंगकर्मी विजय दत्त ने भावप्रवण अभिनय किया है.


साजसज्जा ,संगीत और दूसरे पहलुओं में इतनी बारीकी और, भव्यता न बरती गई है.बावजूद व्यवसायिक फूहड़ता से फ़िल्म कोसों दूर है.फ़िल्म में संगीत पटना दूरदर्शन के कलाकार राजू लहरी ने और गया घराने के शास्त्रीय गायक राजेन्द्र सिजुवार ने प्रात: अलाप को स्वर दिया है।

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2 comments: on "ज़िन्दगी मौत न बन जाय संभालो यारो"

श्रद्धा जैन ने कहा…

Aapne itna achcha vivaran diya hai
main ye teli film dekhne ki ichchuk ho gayi hun
india aane par dhoondh kar dekhti hun

Unknown ने कहा…

achchi samikhsatmak report.......sayad jago ham sab ke soye hue zamir ko jagane me saphal ho...bhaiya aisa hi jari rakhe ............Imaran ji ke is pahal ke liye dhero shubhakamnyen............

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- अल्लामा जमील मज़हरी

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