बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता। इससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता। कई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.
एक अरसे बाद ब्लॉग पर आपकी मौजूदगी देखकर अच्छा लगा...इसे बरक़रार रखें...ब्लॉग की इस दुनिया में आप जैसे तजुर्बेकार लोगों की बहुत ज़रूरत है...पिछले कुछ वक़्त से जो कुछ चल रहा है उसकी वजह से ब्लॉग पर आने का मन नहीं करता...
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एक अरसे बाद ब्लॉग पर आपकी मौजूदगी देखकर अच्छा लगा...इसे बरक़रार रखें...ब्लॉग की इस दुनिया में आप जैसे तजुर्बेकार लोगों की बहुत ज़रूरत है...पिछले कुछ वक़्त से जो कुछ चल रहा है उसकी वजह से ब्लॉग पर आने का मन नहीं करता...
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी