बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

आओ! आज नई कविता लिखें

 मानसी मिश्रा की क़लम से 1. आओ! आज नई कविता लिखें सूरज चाँद की उपमाओं से परे जो नाचे भूख की परिधि पर गोलगोल घूमकर केंद्र पर आये अर्धवृत्ताकार चेहरों को घूरे उन्हें चिढाये, मुह बिचकाए। एक रात जागी कविता नहीं नींद में चलती कविता...
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