मानसी मिश्रा की क़लम से
1.
आओ!
आज नई कविता लिखें
सूरज चाँद की उपमाओं से परे
जो नाचे भूख की परिधि पर
गोलगोल घूमकर केंद्र पर आये
अर्धवृत्ताकार चेहरों को घूरे
उन्हें चिढाये, मुह बिचकाए।
एक रात जागी कविता नहीं
नींद में चलती कविता लिखें.
न हो लघु- दीर्घ संधियाँ तो क्या
अलंकारों को भरमाये, लजाये।
नदी संग बहती कविता नहीं
समंदर पर तैरती कविता लिखें
आओ!
आज नयी कविता लिखें.
2.
ज़िन्दगी
तू एक अदालत
मैं मुवक्किल
कितने बरस हो गए
एक मुक़दमा डाला था।
तू देती है
तारीख पर तारीख
नहीं होती सुनवाई
कब तक इन्साफ की बाट जोहूँ
तूने तराजू में लटका दिया है
एक तरफ मेरा दिल
दूसरे में दो आँखे
दिल भारी पड़ता है
तो आँखे भर आती हैं
आँखे रिसती हैं तो
दिल मचल पड़ता है.. और
तू कानून का हवाला देकर
फिर लौटा देती है खाली हाथ।
3.
तुम देखना एक दिन..
जब सारी रवायतें दम तोड़ देंगी
तो ! जी उठेगा प्यार
और जी उठेंगे हम-तुम
जी उठेंगे वो, जिन्हें
जबरन सुला दिया है।
न पत्थर मुंह चिढ़ायेंगे
न इंसान पथरायेंगे
न ज़िन्दगी सुनसान होगी
न मौत आसान होगी
बस आसान होगा सांस लेना
खुलकर हँसना, हँसते जाना
रूठना-मनाना, मुस्कराना
..और चलते जाना।
4.
तुम्हारी क़लम
मेरा नाम
न लिख सकी
तो क्या!!..
तुम्हारा नाम
शुरू मुझसे
ख़त्म
मुझसे है।
क्यूँ लगता है
तुम्हारे अल्फाजो में
ज़िक्र मेरा है
तुम्हारे लहजे में
रंग मेरा है..
तुम्हारे लफ्जों में
हैं मानी ज़िन्दगी के।
तुम जिंदा शायर हो
मेरे ज़ेहन में सही
ज़िंदा हो मुझमे.
मेरी ज़िन्दगी तक.
5.
मैंने दर्द लिखना चाहा
सामने उबलती नदी आ गयी।
याद लिख्जने लगे, तो उसका पानी
आन्क्ल्हों में छल-छल करने लगा।
जबकि दिल सहरा ही रहा!
.....
मैं ख्याल बनकर तेरे ज़ेहन में चस्पाँ हूँ
खुरदुरी सतह पे कभी इश्तहार नहीं लगते!
.....
रोज़ आते हो तुम यादों का तलातुम लेकर
आंसुओं के बाँध से टकराकर चले जाते हो!
साथ बैठो तो कभी, कि समझौता करें
रोज़ के खेल से तुम कैसे बहल जाते हो!
.......
नैनों के बाँध बड़े कच्चे
दो पल में ढलने वाले हैं।
आओ पहलू में बैठो तुम
हम कुछ तो कहने वाले हैं!
......
फिर रात की रानी महकी है।
कोई आग पुरानी दहकी है।
कुछ आज तो खुल कर बोलेंगे
जो गुमसुम रहने वाले हैं।
हर एक सलीक़ा छोडो भी
बातों का रुख मोड़ो भी
बस आंसू बहने वाले हैं!
(कवि-परिचय:
जन्म: 31 मार्च को कानपुर में।
शिक्षा: प्रारम्भिक पढ़ाई घाटमपुर कस्बे से। स्त्री-अध्ययन में स्नातकोत्तर, लखनऊ विवि से।
मॉस कॉम भी।
सृजन: अखबारों के लिए प्रचुर लिखा। कई विशेष रपट के लिए मिली पहचान।
सम्प्रति: दैनिक हिन्दुस्तान के मेरठ संस्करण में।
संपर्क:mansimeets@rediffmail.com)
तो ! जी उठेगा प्यार
और जी उठेंगे हम-तुम
जी उठेंगे वो, जिन्हें
जबरन सुला दिया है।
न पत्थर मुंह चिढ़ायेंगे
न इंसान पथरायेंगे
न ज़िन्दगी सुनसान होगी
न मौत आसान होगी
बस आसान होगा सांस लेना
खुलकर हँसना, हँसते जाना
रूठना-मनाना, मुस्कराना
..और चलते जाना।
4.
तुम्हारी क़लम
मेरा नाम
न लिख सकी
तो क्या!!..
तुम्हारा नाम
शुरू मुझसे
ख़त्म
मुझसे है।
क्यूँ लगता है
तुम्हारे अल्फाजो में
ज़िक्र मेरा है
तुम्हारे लहजे में
रंग मेरा है..
तुम्हारे लफ्जों में
हैं मानी ज़िन्दगी के।
तुम जिंदा शायर हो
मेरे ज़ेहन में सही
ज़िंदा हो मुझमे.
मेरी ज़िन्दगी तक.
5.
मेरी लड़ाई किसके खिलाफ है
आधी रात के सन्नाटे
या मुर्दा सपनो से।
जिंदा चेहरों से है या
मेरे ही अपनों से।
फिर लगा शायद लड़ाई
ज़ंग लगी दीवार से है
धोखे या प्यार से है
या उन पहरों से है
जहां घुटी है मुस्कान
जैसे शीशे का मकान
लड़ाई, तुमसे भी तो है
इन आँखों की नमी से ...
तुम्हारी हरेक कमी से .
हाँ, मानती हूँ मैं कि..
बस खुद से लड़ नहीं पाई
तभी किसी मोर्चे पर
जमकर अड़ नहीं पाई।
6.
आधी रात के सन्नाटे
या मुर्दा सपनो से।
जिंदा चेहरों से है या
मेरे ही अपनों से।
फिर लगा शायद लड़ाई
ज़ंग लगी दीवार से है
धोखे या प्यार से है
या उन पहरों से है
जहां घुटी है मुस्कान
जैसे शीशे का मकान
लड़ाई, तुमसे भी तो है
इन आँखों की नमी से ...
तुम्हारी हरेक कमी से .
हाँ, मानती हूँ मैं कि..
बस खुद से लड़ नहीं पाई
तभी किसी मोर्चे पर
जमकर अड़ नहीं पाई।
6.
दफ़न आवाज़ और,
दिल की घुटन से पैदा शोर
मैं ही तो हूँ!
दिल, दिमाग और,
हर पल तुम्हारे चारों ओर,
मैं ही तो हूँ !
जगा ख्वाब और,
भीगी भीगी पलकों की कोर,
मैं ही तो हूँ!
घना जंगल और,
अपनी धुन में नाचता मोर,
मैं ही तो हूँ!
ये सुर्ख चेहरा और,
तुम्हारी रग-रग, पोर-पोर,
मैं ही तो हूँ!!
दिल की घुटन से पैदा शोर
मैं ही तो हूँ!
दिल, दिमाग और,
हर पल तुम्हारे चारों ओर,
मैं ही तो हूँ !
जगा ख्वाब और,
भीगी भीगी पलकों की कोर,
मैं ही तो हूँ!
घना जंगल और,
अपनी धुन में नाचता मोर,
मैं ही तो हूँ!
ये सुर्ख चेहरा और,
तुम्हारी रग-रग, पोर-पोर,
मैं ही तो हूँ!!
7.
..अकेला प्रेम।।
इन दिनों,
एक फुफकारते नाग सा
मणि तलाश रहा है
जिसे वो
एक अप्सरा के माथे पर
जड़कर भूला था,
आजकल
वो टटोलता है
हर माथा,
खोजता है वही
चमकदार
अनमोल मणि
कभी
ज्ञान के सम्मोहन से
कभी रूप
कभी बुद्धि से
कभी अनजान
कभी दीवाना बनके
लगाता है हज़ार बोलियाँ
पहुंचता है
औरतों के माथे तक
अफ़सोस....
ये वो अप्सरा नहीं
जो माथे पर
प्रेममणि मढ़कर
भाग रही है
खुद को बचाने के लिए
बाज़ार के जौहरियों से.....
औरत जात जो ठहरी।।।
(अकेला प्रेम।।। ....सौ बोलियाँ।।।। ...हज़ार तराजू ।।।)
इन दिनों,
एक फुफकारते नाग सा
मणि तलाश रहा है
जिसे वो
एक अप्सरा के माथे पर
जड़कर भूला था,
आजकल
वो टटोलता है
हर माथा,
खोजता है वही
चमकदार
अनमोल मणि
कभी
ज्ञान के सम्मोहन से
कभी रूप
कभी बुद्धि से
कभी अनजान
कभी दीवाना बनके
लगाता है हज़ार बोलियाँ
पहुंचता है
औरतों के माथे तक
अफ़सोस....
ये वो अप्सरा नहीं
जो माथे पर
प्रेममणि मढ़कर
भाग रही है
खुद को बचाने के लिए
बाज़ार के जौहरियों से.....
औरत जात जो ठहरी।।।
(अकेला प्रेम।।। ....सौ बोलियाँ।।।। ...हज़ार तराजू ।।।)
अंदाज़ शायराना ज़रा-ज़रा
मैंने दर्द लिखना चाहा
सामने उबलती नदी आ गयी।
याद लिख्जने लगे, तो उसका पानी
आन्क्ल्हों में छल-छल करने लगा।
जबकि दिल सहरा ही रहा!
.....
मैं ख्याल बनकर तेरे ज़ेहन में चस्पाँ हूँ
खुरदुरी सतह पे कभी इश्तहार नहीं लगते!
.....
रोज़ आते हो तुम यादों का तलातुम लेकर
आंसुओं के बाँध से टकराकर चले जाते हो!
साथ बैठो तो कभी, कि समझौता करें
रोज़ के खेल से तुम कैसे बहल जाते हो!
.......
नैनों के बाँध बड़े कच्चे
दो पल में ढलने वाले हैं।
आओ पहलू में बैठो तुम
हम कुछ तो कहने वाले हैं!
......
फिर रात की रानी महकी है।
कोई आग पुरानी दहकी है।
कुछ आज तो खुल कर बोलेंगे
जो गुमसुम रहने वाले हैं।
हर एक सलीक़ा छोडो भी
बातों का रुख मोड़ो भी
बस आंसू बहने वाले हैं!
(कवि-परिचय:
जन्म: 31 मार्च को कानपुर में।
शिक्षा: प्रारम्भिक पढ़ाई घाटमपुर कस्बे से। स्त्री-अध्ययन में स्नातकोत्तर, लखनऊ विवि से।
मॉस कॉम भी।
सृजन: अखबारों के लिए प्रचुर लिखा। कई विशेष रपट के लिए मिली पहचान।
सम्प्रति: दैनिक हिन्दुस्तान के मेरठ संस्करण में।
संपर्क:mansimeets@rediffmail.com)