बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

पहले नक्सलियों ने मारा अब बेसहारा

रांची। महज छह साल की सुलेखा आज भी सहम सहम जाती है। तब वह साल भर की रही होगी कि उसके अब्बा को नक्सलियों ने गला रेत कर मार दिया था। वह 11 सितंबर 2005 की बरसाती रात थी। मस्जिद से इशा की अजान हो चुकी थी। शाम के आठ बजे भाकपा माओवादी के दस्ते ने गांव को घेर लिया। घनघोर बारिश के बीच जब बम और गोलियों की बौछार हुई तो रात रविवार की और स्याह हो गई। मंसूर मियां...
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रविवार, 6 मार्च 2011

रोमांच की हुई जीत, क्रिकेट मैच हुआ टाई

रांची.होली आने को है, लेकिन रंग और मस्ती आज राजधानी के बिरसा मुंडा स्टेडियम में शबाब पर रही। मौका था दैनिक भास्कर द्वारा आयोजित सेलिबेट्रीज क्रिकेट मैच का। सितारे थे, बल्ले में चमकती धूप सी ऊर्जा थी और स्पिन बॉलिंग में जुल्फों के पेचोखम थे। सरकार को विपक्ष का भी साथ था। शाम के धुंधलके में दूधिया रोशनी के बीच बॉलीवुड की चमक झारखंड के मंत्रियों व...
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)