बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 25 जनवरी 2010

मुंबई की जान हैं ये कामवाली बाइयाँ


ज़रा हटके ज़रा बचके ....ये हैं मुंबई मेरी जान ! .

यह गीत अक्सर इस महानगर के सन्दर्भ में लिया जाता है.भाई ! बात ही निराली है. जितना चमकता-दमकता है उतना ही गहरे अन्धकार में भी कुछ ज़िन्दगी यहाँ सिसकती है.गणपर्व के समय यूँ दुखियारों की बात!! लेकिन क्या करूँ  आप हक़ीक़त  से कब तक मुंह छुपाते फिरेंगे.सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद है!
 मुझे इन्हीं सत्तर आदमियों की बात करना हमेशा सुकून-भरा रहा है. खैर मुंबई की कामवालियों के व्यथा-कथा बहुत ही जतन और लगन से हमज़बान के लिए  भेजा है मित्र और ब्लागर साथिन रश्मि रविजा ने .आप इस समय अपने एक उपन्यास लिखने में सक्रिय हैं , लेकिन समय मिलते ही जलते-सुलगते विषयों पर भी लिखने से गुरेज़ नहीं करतीं हैं.उनका आभार!-शहरोज़


हाथ-पैर होती हैं कामवालियां 
 

लोकल ट्रेन मुंबई की धड़कन कही जाती है और इसी तर्ज़ पर  अगर यहाँ की कामवाली बाईयों को  'मुंबई' का हाथ पैर कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी.क्यूंकि इन्हीं की बदौलत,मुंबई के सारे घर शांतिपूर्वक और सुचारू रूप से चलते हैं.सुबह पांच बजे से रात के ग्यारह बजे तक ये कामवालियां दूसरों का घर संभालने में लगी होती हैं.

ये सब कामवालियां,भारत के सुदूर प्रान्तों  से आकर यहाँ बसी हुई होती हैं.बिहार,यू,पी.,मध्यप्रदेश,उडीसा,आसाम,बंगाल,तमिलनाडु,कर्नाटक...शायद  ही कोई ऐसा प्रदेश हो जहाँ की मिटटी में पले,बढे ये हाथ मुंबई के घरों को साफ़-सुथरा रखने में ना लगे हों.कितनी  ही बाईयां ऐसी होती हैं जिन्हें ठीक से हिंदी बोलना भी नहीं आता.पर ये इशारों में ही बात समझ, काम करना शुरू कर देती हैं और एकाध सालों में ही इतनी दक्ष हो जाती हैं कि इन्हें पहचानना भी मुश्किल हो जाता है.कच्चे  घरों और कच्ची  सडकों की आदी ये महिलायें पूरे आत्मविश्वास से लिफ्ट का इस्तेमाल करना और इतने ट्रैफिक के बीच आराम से रास्ता तय करना सीख जाती हैं.अत्याधुनिक उपकरणों से लैस रसोईघर को ये इतनी निपुणता से संभालती हैं कि इनके अनपढ़ होने पर शक होता है.सच है,व्यावहारिक  ज्ञान के आगे,किताबी ज्ञान कितना बौना है.

घर की मालकिनों को सोफे पर बैठ कर टी.वी.देखने का या ऑफिस के ए.सी.कमरे में बैठ कलम चलाने (या नेट पर ब्लॉग लिखने :)) का अवसर देनेवाली इन कामवालियों का खुद का जीवन बहुत ही कठिन होता है.सुबह ४ बजे उठती हैं,अपने घर का खाना बना,नहा धोकर काम पे निकल जाती हैं. हाँ! मुंबई की ज्यादातर बाईयां सुबह नहा धोकर,पूजा और नाश्ता करके ही काम पर जाती हैं.दक्षिण भारतीय और मराठी महिलाओं के तो बालों में फूल भी लगा होता है.मेरी माँ जब मेरे पास आई थीं तो सबसे ज्यादा ख़ुशी, उन्हें मेरी मराठी बाई को देखकर होती थी. सुबह सुबह ही उसके बालों में लगे गजरे से मेरे पूरे घर में  भीनी भीनी खुशबू फ़ैल जाती.
इनकी कठिन दिनचर्या शुरू हो जाती है. औसतन ये ५,६, घरों में जरूर काम करती हैं.किसी घर में सिर्फ झाडू,पोंछा,बर्तन का काम होता है तो कहीं कपड़े धोना,कपड़े फैलाना,डस्टिंग करना,खाना बनाने में मदद करना और कहीं कहीं पूरा खाना भी यही बनाती हैं.

दोपहर को थोड़ी देर को ये अपने घर जाती हैं और अपने घर के बर्तन साफ़ करते,कपड़े धोते इन्हें दो घडी का भी आराम नहीं मिलता.और दूसरी पाली का काम शुरू हो जाता है.बहुत सी बइयां शाम ७ से दस बजे रात  तक घर घर घूम कर रोटियाँ बनाती हैं.ज्यादातर गुजराती घरों में रात के जूठे बर्तन सुबह तक नहीं रखते,उनके यहाँ ये बाईयां रात ग्यारह बजे काम ख़त्म कर वापस जाती हैं.
रात में सोने में इन्हें एक,दो बज जाते हैं क्यूंकि बी.एम्.सी.(ब्रिहन्न्मुम्बाई महानगरपालिका) रात में ही पानी रिलीज़ करती है.बड़ी बड़ी बिल्डिंग्स में तो टैंक में पानी भरता रहता है पर.इन्हें रात में ही बड़े बड़े ड्रमों में पानी भरना पड़ता है ताकि दिन भर काम चल सके.
पर अच्छी बात ये है कि पैसे इन्हें अच्छे मिलते हैं तीन  हज़ार से दस हज़ार तक ये प्रति माह कमा लेती हैं.इन पैसों को ये बहुत ही बुद्धिमानी से खर्च करती हैं.करीब करीब सभी बाईयों के बैंक एकाउंट हैं.हर महीने ये कुछ पैसे जरूर जमा करती हैं और दिवाली में तो अच्छी खासी रकम जमा हो जाती है क्यूंकि यहाँ के रिवाज़ के अनुसार पूरे एक महीने का वेतन इन्हें बोनस के रूप में मिलता है.खुद भी और अपने बच्चों को भी ये साफ़ सुथरे कपड़े पहनाती हैं. मुंबई आने के शुरुआत के दिन में जब मेरी बाई ने बताया था कि उसने ६सौ की बेडशीट खरीदी है तो मैं आश्चर्य में पड़ गयी थी.करीब करीब सभी बाईयां अपने बच्चों को स्कूल भी भेजती हैं और ट्यूशन भी.कुछ बाईयां तो अपने बच्चों को प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाती हैं और फीस भरने को दुगुनी मेहनत करती हैं.इनके दस बाई दस के कमरे में सुख सुविधा की सारी चीज़ें मिलेंगी.गैस,मिक्सी,रंगीन टी.वी..मोबाईल के बिना तो ये घर से बाहर कदम नहीं रखतीं.
इन्हें ज़िन्दगी जीना भी आता है.सिनेमा जाना,बच्चों के साथ' जुहू बीच' जाना ,गरबा और गणपति के समय देर रात तक घूमना,ये सब इनकी ज़िन्दगी के हिस्से हैं.अच्छा लगता है देख अपने बच्चों का बर्थडे भी केक काटकर मनाती हैं.एक बार तो 'वेलेंटाईन डे' पर मेरी बाई अपने पति के साथ सिनेमा देखने चली गयी और मुझे बर्तन साफ़ करने पड़े.(दरअसल उसका पति,रिक्शा चलाता  था और कॉलेज के लड़के लड़कियों की बातें सुन और बाज़ार की रौनक देख,उसका भी मन ''वेलेंटाईन डे' मनाने का हो आया)

पर इनकी ऐसी किस्मत कभी कभी ही होती है.ज्यादातर इनके पति,इनके पैसों पर ऐश ही करते हैं.और इन्हें मारते पीटते भी हैं.शायद ही किसी बाई का पति हो जो रोज काम पर जाता हो.महीने में बीस दिन अपने साथियों के साथ पत्ते खेलता है और शराब पीता है.पैसे नहीं देने पर इन्हें मारता पीटता भी है.पर ये बाईयां मध्यम वर्गीय महिलाओं की तरह चुप नहीं बैठतीं.पुलिस में भी रिपोर्ट कर देती हैं और कई बार पति को घर से निकाल भी देती हैं.और कुछ दिनों बाद ही पति दुम हिलाता हुआ,माफ़ी मांग वापस लौट आता है.फिर वही सब शुरू हो जाता  है,ये अलग बात है.पर सबसे दुःख होता है,इनके बेटों का व्यवहार  देख.बेटियाँ फिर भी पढ़ लेती हैं पर बेटे ना स्कूल जाते हैं,ना ट्यूशन.एक ही क्लास में फेल होते रहते हैं और जब भी मौका मिले अपनी माँ से पैसे छीन  भाग जाते हैं,एक बार मेरी बाई ने बड़ी मासूमियत से पूछा था,"कोई ऐसी दवा होती है,भाभी जिस से इनका पढने में मन लगे."

ये बाईयां मेहनतकश होने के साथ साथ बहुत ही ईमानदार और प्रोफेशनल भी होती हैं.कई घरों में पड़ोस से चाबी ले,फ़्लैट खोलकर ये सारा काम करती हैं और चाबी वापस कर चली जाती हैं.एक युवक अपने घर के बाहर doormat के नीचे चाबी रखकर चला जाता था.बाई घर खोल उसे मिस कॉल देती और वह फोन करके बताता कि क्या खाना बनाना है.कितने ही घरों का काम ऐसे ही चलता है.महीने में दो छुट्टी इनका नियम है,इसके अलावा बीमार पड़ने या बहुत जरूरी होने पर ही ये छुट्टियाँ लेती हैं.वरना मैंने देखा है,छोटे शहरों में जरा सा मूड नहीं हुआ,या नींद नहीं खुली,सर में दर्द था,कोई आ गया,ऐसे बहाने बना बाईयां छुट्टी कर जाती हैं.

यहाँ एक और अलग रूप है इन काम वाली बाईयों का. एक बार 'बॉम्बे टाईम्स' में एक रिपोर्ट छपी थी कि या बाईयां अपनी मालकिनों के  emotional  anchor का रोल भी बखूबी निभाती हैं.मुंबई में अपने पड़ोसियों की भी कोई खबर नहीं होती.ऐसे में उनकी परेशानियां बांटने वाली एकमात्र ये बाईयां ही होती हैं.कई महिलाओं ने अपने अनुभव बांटे थे.एक युवती ने बताया था कि उसका डिवोर्स हो गया था और वह घोर डिप्रेशन में थी.उड़ीसा के किसी  गाँव से आई एक सीधी साधी बाई ने उसका पूरा घर संभाला.उसके बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना,उसे भी जबरदस्ती खाना खिलाना,उसे समझाना,इक ने अपना  पति खो दिया था,एक की नौकरी चली गयी थी,सबको उनकी बाई ने ही सहारा दिया था.बरसों पहले रिलीज़ हुई फिल्म अर्थ में 'रोहिणी हट्टनगडी' का किरदार कपोल कल्पित नहीं था.मुंबई के जीवन में यह अक्षरशः सत्य है.

अगर सिर्फ दो दिन के लिए ही,मुंबई की बाईयां कहीं अंतर्ध्यान हो जाएँ तो कितने ही घरों में खाना नहीं बने,बच्चे स्कूल नहीं जा पायें,घर बिखरा पड़ा रहें कपड़े नहीं धुले और घर की मालकिन अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठे..इसलिए
LONG LIVE
KAAMWAALI BAAI    


लेखिका-परिचय:
जन्म-रांची (झारखंड) में,शिक्षा-एम्.ए.(राजनीति शास्त्र), सम्प्रति - मुंबई आकाशवाणी में वार्त्ताकार
लेखिका-उवाच:
"पढने का शौक तो बचपन से ही था। कॉलेज तक का सफ़र तय करते करते लिखने का शौक भी हो गया. धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, मनोरमा  वगैरह में रचनाएँ छपने भी लगीं .पर जल्द ही घर गृहस्थी में उलझ गयी और लिखना,पेंटिंग करना सब 'स्वान्तः सुखाय' ही रह गया . जिम्मेवारियों से थोडी राहत मिली तो फिर से लेखन की दुनिया में लौटने की ख्वाहिश जगी.मुंबई आकाशवाणी से कहानियां और वार्ताएं प्रसारित होती हैं..यही कहूँगी:

मंजिल मिले ना मिले ,
ये ग़म नहीं...
मंजिल की जुस्तजू में, 
मेरा कारवां तो है   

                                                                  .
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बुधवार, 20 जनवरी 2010

लन्दन में लड़की

एक अकेली एक शहर में आशियाना ढूंढती है, 
आबूदाना ढूंढती है!!

उसे भी बच्चों की किलकारी और कोयल की कूक भली लगती है.उसके पास ठाठे मारता अल्हड बांकपन है! आम इंसान का दिल है. भले ग़म का हुजूम हो लेकिन खुशियों की लज्ज़तें  उसे भी चाहिए, आखिर क्यों नहीं! रंग-बिरंगी दुनिया के बीच ऐसे लोगों का भी एक कोना है जो अंधेरों से पटा है, लेकिन उनकी बदरंग  होती बेतरतीब ज़िंदगी के आँगन -गलियारे  में खिलखिलाती मासूमियत भी है! 

लंदन जो एक शहर है, आलम में इन्तिखाब यानी संसार-भर में जिसकी तूती बोलती है.वो दिन बीत गए जब अँगरेज़ और उनके देश को हिक़ारत भरी नज़र से देखा जाता था.आला पढ़े-लिखे से आधा-आखर जानकार भी शिक्षा और , इस से भी ज़्यादा रोज़ी-रोटी की जुगत के लिए इस शहर की तरफ हमारे देश से भी कूच करते हैं.लेकिन वहाँ पहुंची एक लडकी या औरत की स्थिति किन राहों से होंकर गुज़रती है,यह सर्वे इसकी बारीकबीनी करता है.
 इसे संभव किया है स्वतंत्र-पत्रकार और ब्लॉगर साथिन 
शिखा वार्ष्णेय  ने.उनका आभार!-शहरोज़ 

आर्थिक,सामाजिक और धार्मिक समस्याओं  से जूझती जान!!


एक कहावत है कि हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती ..मुझे ये कहावत  लन्दन  में  बसी भारतीय मूल की महिलाओं पर एकदम चरितार्थ जान पड़ती है,
 भले ही भारत में रहने वाली महिलाएं यहाँ लन्दन में रहने वाली महिलाओं की किस्मत पर रश्क करें , परन्तु यहाँ रहने वाली भारतीय मूल की महिलाओं के लिए ये जीवन  कदापि सहज नहीं होता...., ......यहाँ रहने वाली महिलाओं को आर्थिक,सामाजिक और धार्मिक कई तरह की समस्याओं  से जूझना  पड़ता है.सबसे पहले आती है आर्थिक समस्या - जिससे यहाँ आते के साथ ही दो चार होना पड़ता है क्योंकि परिवार में एक की कमाई  से यहाँ नहीं निर्वाह किया  जा सकता ऐसे  में सभी को अपने लिए आर्थिक साधन ढूँढने  पड़ते हैं जो की यहाँ के क़ानूनी अधिकार और  नियमों की जानकारी न होने से बहुत ही जटिल होता है.. आप चाहे कितने भी पढ़े लिखे हो जरुरी नहीं कि आपकी योग्यता के  अनुसार  आपको यहाँ काम मिल जाये खासकर तब जब आपको ज़रुरत हो .इसलिए  अधिकाशंत:  महिलाओं को  मजबूरी में टेस्को जैसे किसी सुपर स्टोर में ही काम करना पड़ता  हैं
35 वर्षीय नुबला जो अपने देश में प्रवक्ता के पद  पर कार्य करती थीं ,उनका कहना है की वह अपने को यहाँ बहुत बेबस पाती हैं उनकी सिक्षा और अनुभव का यहाँ कोई मोल नहीं और यहाँ आकर मोटी  फीस देकर यहाँ का course   करके भी उन्हें किसी शिक्षण संसथान में कोई काम नहीं मिला  अंतत उन्हें एक सुपर स्टोर में एक मामूली सा काम करना पड़ा और फिर वे आर्थिक बोझ के चलते वहीँ अटक कर  रह गईं हैं. जिसके चलते वो अपने आप को कभी संतुष्ट नहीं पाती और मानसिक तनाव झेलती हैं..
और फिर इसी से जुडती है सामाजिक समस्याएँ. जो एक समस्या  आमतौर पर देखने में आती है वो है ... confusion ....आम तौर पर भारतीय महिलाएं - भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति के बीच  अपने आपको फंसा पाती है ...यहाँ आने के बाद उसे सामना करना पड़ता है  एक अलग परिवेश का .....जहाँ वह एक तरफ पाश्चात्य महिला की तरह बाहर  काम करके कुछ पैसे कमा कर आत्म निर्भर होकर,आजादी से  जीना चाहती है , वहीँ अपने घर में भारतीय परिवेश को निभाने का मोह भी  नहीं छोड़ पाती और बदले में पाती है दोहरा बोझ , बाहर  सारा दिन काम करने के वावजूद घर पर आकर उसे एक भारतीय  घरेलू  महिला का  दायित्व  भी निभाना पड़ता है, घरेलू  कामों में कोई मदद न मिलने की वजह से और  अपनी  भारतीय आदतों की वजह से वो मजबूर होती है दोहरे मापदंड जीने के लिए .....वो चाहती तो है कि भारत से दूर यहाँ विदेशी परिवेश में आकर उन लोगों में घुल मिल जाये उनकी तरह ही बन जाये ,परन्तु उसकी मानसिकता उसे वहां तक पहुँचने नहीं देती ....और उसका व्यक्तित्व  लटक जाता है अधर में .ऐसी ही एक भारतीय महिला ने बताया की "हम भारतीय महिलाएं अपने आप को अपनी  ही संस्कृति और मूल्यों में क़ैद महसूस करती हैं और गोरे रंग  में ढलने के चक्कर में अपना रंग भी गवां देती हैं..."  यही वजह है कि भारत से दूर रह रहे भारतीय मूल के लोगों  में हमें ज्यादा भारतीयता का दिखावा देखने को मिलता है ..आपने  कभी भारत के किसी डिस्को में या किसी modren पार्टी में किसी युवती को साड़ी  में देखा है? परन्तु यहाँ आपको किसी भी डांस पार्टी में भारतीय  युवतियां  साड़ी  में डांस करती हुई दीख जाएँगी.आज की किसी भी भारतीय महिला से ज्यादा धार्मिक यहाँ की एशियन महिलाएं आपको नजर आयेंगीं.  आज आप यहाँ आकर देखें तो पाएंगे की ये महिलाएं कहीं ज्यादा पिछड़ी हुई हैं आज की हिन्दुस्तानी महिलाओं से, क्योंकि उनके लिए भारतीयता के पैमाने आज भी वही  हैं जो आज से ३० -३५ साल पहले थे और इस विदेशी धरती पर वो उसे अपनी  मूल पहचान के तौर पर सहेजकर रखना चाहती हैं   ....वे  ये तो चाहती है कि उसकी बेटी भी यहाँ रह रहे बाकी लोगों की तरह पढ़े ,बोले परन्तु उन्हीं की तरह आचरण करते हुए उसे देखना उन्हें  गंवारा नहीं होता , वहीँ वो बेटी परेशान रहती है इस दोहरे मापदंड से उसे समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है? जब वो उन्हीं बच्चों के साथ उसी स्कूल में एक ही तरह से पढ़ती हैं  तो वो उनकी ही तरह आचरण क्यों नहीं कर सकती ? और इन सबका नतीजा होता है एक अजीब असमंजस की स्तिथी एक मानसिक उलझन  . ..जिससे यहाँ रहने वाली ज्यादातर महिलाओं  को मैने  जूझते  देखा है.. ...इसके अलावा जो एक बात यहाँ की महिलाओं को सालती है वो है अकेलापन...... एक मर्द तो फिर भी यहाँ आकर यहाँ के परिवेश, काम काज में घुलमिल जाता है  ..परन्तु एक भारतीय महिला लाख कोशिशें करने के वावजूद यहाँ की  संस्कृति नहीं अपना पाती. और अपने परिवेश और अपने लोगों के साथ की कमी हर क्षण महसूस करती है.....भारतीय तीज त्यौहार ,उत्सव आदि पर अपने लोगों में शामिल न हो पाने की विवशता उसे हमेशा ही सताती रहती है .और इससे उपजती हैं अवसाद ,आत्मविश्वास की कमी, और  निराशा वादी दृष्टिकोण जैसी समस्याएं. यहाँ तक की कुछ तबके की औरतों को यहाँ घरेलु हिंसा का शिकार होता भी पाया जाता है जो यहाँ की व्यवस्था और कानून की जानकारी के बिना एक विवशता  भरा जीवन जीने  को मजबूर होती हैं.

हाल  ही में अपने पति की बीमारी की वजह से तंजानिया से आई ४५ वर्षीय रिया का हाल तो बहुत ही दयनीय  है २ बेटियों की ये माँ के लिए एक तरफ  घर,बच्चों और पति की जिम्मेदारी है ,दूसरी तरफ आर्थिक रूप से संबल होने के लिए अपनी पढाई और नौकरी   .इन सब में एक साथ वो बिना किसी मदद के कैसे सामंजस्य  बिठाये  उसकी समझ में नहीं आता और  अपनी बेबसी का उसे कोई हल दिखाई नहीं देता.
अर्थार्त भारतीय स्त्रियों जीवन यहाँ भी फूलों की सेज नहीं है उसमें भी बहुत संघर्ष है ,त्याग है, जिम्मेदारियां हैं .शायद अपनी धरती से ज्यादा ही.
(लन्दन में रह रहीं  कुछ भारतीय और पाकिस्तानी मूल की महिलाओं पर किये, सर्वे पर आधारित .)


 [लेखिका-परिचय - जन्म: नई दिल्ली में , स्कूली शिक्षा :रानीखेत से हुई
च्च शिक्षा :मास्को  स्टेट यूनिवर्सिटी से TV जर्नलिस्म  में गोल्ड मेडल के साथ मास्टर्स डिग्री
अनमोल वचन: अँग्रेज़ी अथवा अन्य भाषाएँ जानना उतने गर्व की बात नही है , जितना अपनी मातृ भाषा को महत्व देना ।
पसंदीदा कवि: हरिवंश राय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर
रूचि: ग़ज़ल सुनना, कविताएँ लिखना , पेंटिंग करना , ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण करना आदि
आज प्रासांगकिक:  अभिव्यक्ति का सबसे अच्छा माध्यम ब्लॉग्स
सम्प्रति: सॉफ़्टवेयर इंजीनियर  पति श्री पंकज गुप्ता  के साथ लन्दन में रहकर स्वतंत्र लेखन ]
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शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

रश्मि प्रभा की कविता और उनका संसार

रश्मि प्रभा.! यानी हम जैसे अधिकाँश ब्लागरों  की दीदी.शायद ही कोई होगा जो इनकी काव्य-रश्मियों से अलक्षित रहा हो....प्रभा .यह  की सुमित्रा नंदन पन्त जैसे शिखर-आचार्य कवि ने न केवल आपका नामकरण किया अपितु  "सुन्दर जीवन का क्रम रे, सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन" ,जैसी अमर-पंक्ति आपको समर्पित की !  शब्दों की इस विरासत को आप बखूबी सुरक्षित रखते हुए..भारतीय-साहित्य की परम्परा को संवर्धित करने में सक्रीय योगदान दे रही हैं..इनका मन जहाँ तक जाता है, इनके शब्द उसकी अभिव्यक्ति बन जाते हैं। यकीनन ये शब्द ही इनका सुकून हैं...कब शब्द इनके साथी हुए, कब इनके ख़्वाबों के सहचर बन गए, कुछ नहीं पता.... इतना याद है कि शब्दों से खेलना इन्हें इनकी माँ ने सिखाया. जिस तरह बच्चे खिलौनेवाला घर बनाते हैं, माँ ने शब्दों की टोकरी दी और कभी शाम, कभी सुबह, कभी यात्रा के मार्ग पर शब्दों को रखते हुए ये शब्द-शिल्पी बन गईं। व्यस्तताओं का क्रम बना, पर भावनाओं से भरे शब्द दस्तक देते गए .... शब्दों की जादुई ताकत माँ ने दी, कमल बनने का संस्कार पिता (स्व.रामचंद्र प्रसाद) ने, परिपक्वता समय की तेज आँधी ने।
सपने इनकी नींव हैं - क्योंकि इनका मानना है कि सपनों की दुनिया मन की कोमलता को बरकरार रखती है...हर सुबह चिड़ियों का मधुर कलरव - नई शुरूआत की ताकत के संग इनके मन-आँगन में उतरा...ख़ामोश परिवेश में सार्थक शब्दों का जन्म होता रहा और ये अबाध गति से बढती गईं और यह एक और सौभाग्य कि आज यहाँ हैं....अपने सपने, अपने आकाश, अपने वजूद के साथ!

अपने बारे में कहती हैं: . अगर शब्दों की धनी मैं ना होती तो मेरा मन, मेरे विचार मेरे अन्दर दम तोड़ देते...मेरा मन जहाँ तक जाता है, मेरे शब्द उसके अभिव्यक्ति बन जाते हैं, यकीनन, ये शब्द ही मेरा सुकून हैं...बहुत पहले ही दीदी ने मुझे सामग्री उपलब्ध करा दी थी.महज़ एक आग्रह पर! लेकिन मैं अभागा आज आपके बीच हाज़िर हो रहा हूँ.आप और आपके रचना-संसार के मुताल्लिक कुछ कहना , फिलहाल अपुन के  वश का नहीं.आप खुद उनसे रूबरू हों.उनकी माताजी श्रीमती सरस्वती प्रसाद का संस्मरण आपको एक अलग  दुनिया में ले जाता है, जहां संघर्ष और सात्विकता की जुगलबंदी बहुत ही मोहक तथा प्रभावपूर्ण हो जाती  है. शहरोज़ 
________________पन्तजी व उनकी मानस-पुत्री यानी रश्मिजी की माताश्री



सरस्वती प्रसाद का अविस्मरणीय संस्मरण  



ज़िन्दगी के मेले में - 'अपनी खुशी न आए थे............' पर आ गए। आरा शहर की एक संकरी सी गली के तिमंजिले मकान में मेरा जन्म २८ अगस्त को हुआ था। समय के चाक पर निर्माण कार्य चलता रहा। किसी ने बुलाया 'तरु' (क्योंकि माता-पिता की इकलौती संतान होने के नाते मैं उनकी आंखों का तारा थी)। स्कूल (पाठशाला) में नामांकन हुआ 'सरस्वती' और मेरी पहचान - सरू,तरु में हुई। प्रश्नों के आईने में ख़ुद को देखूं और जाँचूं तो स्पष्टतः मुझे यही कहना होगा -
मेरे मन के करीब मेरी सबसे अच्छी दोस्त मेरी माँ थी । खेल-खिलौने , साथी तो थे ही ,पर मैं 'उसे' नहीं भूल सकी, जिसने सबसे पहले मेरे मन को रौशन किया - वह था , मेरे कमरे का गोलाकार रोशनदान । सूरज की पहली किरणें उसी से होकर मेरे कमरे के फर्श पर फैलती थीं । किरणों की धार में अपना हाथ डालकर तैरते कणों को
मुठ्ठी में भरना मेरा प्रिय खेल था । यह खेल मेरे अबोध मन के अन्दर एक अलौकिक जादू जगाता था ।
मेरी आँखें बहुत सवेरे पड़ोस में रहनेवाली नानी की 'पराती' से खिलती थी। नानी का क्रमवार भजन मेरे अन्दर अनोखे सुख का संचार करता था । मुंह अंधेरे गलियों में फेरा लगनेवाले फ़कीर की सुमधुर आवाज़ इकतारे पर - ' कंकड़ चुन-चुन महल बनाया
लोग कहे घर मेरा है जी प्यारी दुनिया
ना घर मेरा ना घर तेरा , चिडिया रैन बसेरा जी
प्यारी दुनिया ......' । मेरे बाल-मन में किसी अज्ञात चिंतन का बीजारोपण करती गई। फ़कीर की जादुई आवाज़ के पीछे - पीछे मेरा मन दूर तक निकल जाता था। मेरे कुछ प्रश्नों पर मेरे माँ , बाबूजी गंभीर हो जाते थे। मेरा बचपन शायद वह छोटी चिडिया बन जाता था,जो अपनी क्षमता से अनभिज्ञ नभ के अछोर विस्तार को माप लेना चाहती थी। मुझे लगता था सूरज का रथ मेरी छत पर सबसे पहले उतरता है। चाँद अपनी चांदनी की बारिश मेरे आँगन में करता है। तभी मैं अपने साथियों के साथ 'अंधेरिया-अंजोरिया'का खेल खेलते हुए मुठ्ठी में चांदनी भर-भर कर फ्रॉक की जेब में डालती थी और खेल ख़त्म होने पर उस चांदनी को निकालकर माँ के गद्दे के नीचे छुपा देती थी....
मैंने पढ़ना शुरू किया तो बहुत जल्दी ही पुस्तकों ने मुझे अपने प्रबल आकर्षण में मुझे बाँधा। इस प्रकार कि देखते-ही-देखते मेरी छोटी सी आलमारी स्कूली किताबों के अलावा और किताबों से भर गई। 'बालक,चंदामामा,सरस्वती,' आदि पत्रिकाओं के अलावा मैं माँ के पूजा घर से 'सुख-सागर,प्रेम-सागर,रामायण का छोटा संस्करण ' लेकर एकांत में बैठकर पढ़ती थी। राजेंद्र बाबू की आत्मकथा (मोटी पुस्तक)मैंने बचपन में ही पढ़ी थी। आलमारी खोलकर पुस्तकें देखना , उन्हें करीने से लगाना ,उन पर हाथ फेरना मुझे अत्यन्त सुख पहुंचाता था । शायद यही वजह रही होगी या मेरे घर का एकाकीपन कि मेरे मन को कोई तलाश थी। कल्पना के ताने-बाने में कोई उद्वेग भरता था,छोटे से मन कि छोटी सी दुनिया में कोई अनजानी उदासी चक्कर काटती थी। मन के कोने में रंगीन तितली पालनेवाली तरु को किसकी खोज थी?-शायद रिश्तों की। और इसी खोज ने मेरी कल्पना को पंख दिए ,जो मैं देखती थी उससे परे जाकर भी सोचती थी।
मैं जिस मुहल्ले में रहती थी वहां हर जाति और तबके के लोग थे। बड़े-छोटे का भेदभाव क्या था,कितना था - इससे परे चाचा,भैया,काका का ही संबोधन मैं जानती थी। कई मौके मेरी आंखों के आगे आए - रामबरन,रामजतन काका को गिडगिडाते देखा -' मालिक,सूद के ५०० तो माफ़ कर देन,जनम-जनम जूतों की ताबेदारी करूँगा'......बिच में टपक कर तरु बोल उठती - 'छोड़ दीजिये बाबूजी, काका की बात मत टालें' और तरु का आग्रह खाली नहीं जाता।
कुछ कर गुजरने की खुशी को महसूस करती तरु को लगता कोई कह रहा है, ' तरु - तू घंटी की मीठी धुन है,धूप की सुगंध,पूजा का फूल ,मन्दिर की मूरत.....मेरे घर आना तेरी राह देखूंगा....' कौन कहता था यह सब?रामबरन काका ,रामजतन काका , बिलास भैया , या रामनगीना .........
अपनी ही आवाज़ से विस्मय - विमुग्ध हो जाती थी तरु। खाली-खाली कमरों में माँ माँ पुकारना और ख़ुद से सवाल करना,साथ-साथ कौन बोलता है? जिज्ञासु मन ने जान लिया यह प्रतिध्वनि है। छोटी तरु के मुंह से प्रतिध्वनि शब्द सुनकर उसके मास्टर जी अवाक रह गए थे और माथे पर हाथ रखा था ' तू नाम करेगी ' । पर किसने देखा या जाना था सिवा तरु के कि खाली-खाली कमरों से उठता सोच का सैलाब उसे न जाने कहाँ-कहाँ बहा ले जाता है। फिर वह यानी मैं - अपने एकांत में रमना और बातें करना सीख गई,शायद इसीका असर था कि उम्र के २५ वे मोड़ पर आकर मेरी कलम ने लिखा - 


 शून्य में भी कौन मुझसे बोलता है,
मैं तुम्हारा हूँ,तुम्हारा हूँ
किसकी आँखें मुझको प्रतिपल झांकती हैं
जैसे कि चिरकाल से पहचानती हैं
कौन झंकृत करके मन के तार मुझसे बोलता है
मैं तुम्हारा हूँ,तुम्हारा हूँ..........

 
धरती से जुड़े गीत-संगीत कि दुनिया मेरे चारों ओर थी,इसलिए मुझे गीत-संगीत से गहरा लगाव था,उसके प्रति प्रबल आकर्षण था।
चिडियों का कलरव , घर बुहारती माँ के झाडू कि खुर-खुर, रामबरन काका के घर से आती गायों के गले कीघंटियों की टूनन -टूनन , काकी के ढेंकी चलाने की आवाज़ ,नानी की पराती,गायों का रम्भाना,चारा काटने की खटर -खुट-खट ,बंसवाड़े से आती हवा की सायं-सानी (सीटियों जैसी)....... संगीत ही संगीत था मेरे चारों ओर। वकील चाचा के घर से ग्रामोफोन पर के.सी.डे और सहगल की आवाज़ बराबर आती। सहगल का यह गीत आज भी याद आता है तो अपनी सोच पर हँसी आ जाती है , 'करेजवा में हाय राम लग गई चोट ' , सुनकर मुझे दुःख होता था किकिसने इसे इस प्रकार ज़ोर से मारा कि बराबर गाता है लग गई चोट ! यह बात तो बचपन की थी,पर बरसों बाद जाना कि चोट जो दिल पर लगती है,वह जाती नहीं। दिनकर जी के शब्दों में "आत्मा में लगा घाव जल्दी नहीं सूखता"।
इन्ही भावनाओं में लिपटी मैं घर गृहस्थी के साथ १९६१ में कॉलेज की छात्रा बनी । हिन्दी प्रतिष्ठा की छात्रा होने के बाद कविवर पन्त की रचनाएं मेरा प्रिय विषय बनीं । ६२ में साथियों ने ग्रीष्मावकाश के पहले सबको टाइटिल दिया ।कॉमन रूम में पहुँची तो सबों ने समवेत स्वर में कहा ' लो, पन्त की बेटी आ गई'...... अब ना मेरी माँ थी और ना बाबूजी । साथियों ने मुझे पन्त की बेटी बनाकर मेरी भावनाओं को पिता के समीप पहुँचा दिया। उस दिन कॉलेज से घर जाते हुए उड़ते पत्तों को देखकर होठों पर ये पंक्तियाँ आई ," कभी उड़ते पत्तों के संग,मुझे मिलते मेरे सुकुमार"......

 
"उठा तब लहरों से कर मौन
निमंत्रण देता मुझको कौन"..........

 
अगले ही दिन मैंने पन्त जी को पत्र लिखा , पत्रोत्तर इतनी जल्दी मिलेगा-इसकी उम्मीद नहीं थी। कल्पना ऐसे साकार होगी,ये तो सोचा भी नहीं था.....'बेटी' संबोधन के साथ उनका स्नेह भरा शब्द मुझे जैसे सपनों की दुनिया में ले गया। अब मैं कुछ लिखती तो उनको भेजती थी,वे मेरी प्रेरणा बन गए । वे कभी अल्मोडा भी जाते तो वहां से मुझे लिखते.......हमारा पत्र-व्यवहार चलता रहा। पिता के प्यार पर उस दिन मुझे गर्व हुआ , जिस दिन प्रेस से आने पर 'लोकायतन' की पहली प्रति मेरे पास भेजी,जिस पर लिखा था 'बेटी सरस्वती को प्यार के साथ'
........
M.A में नामांकन के बाद ही मेरे साथ बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई,अचानक ही हम भंवर में डूब गए - इसके बाद ही हम इलाहबाद गए थे। पिता पन्त जब सामने आए तो मुझे यही लगा , जैसे हम किसी स्वर्ग से उतरे देवदूत को देख रहे हैं। उनका हमें आश्वासित करना,एक-एक मृदु व्यवहार घर आए कुछ साहित्यकारों से मुझे परिचित करवाना,मेरी बेटी को रश्मि नाम देना, और बच्चों के नाम सुंदर पंक्तियाँ लिखना और मेरे नाम एक पूरी कविता....
जिसके नीचे लिखा है 'बेटी सरस्वती के प्रयाग आगमन पर' यह सबकुछ मेरे लिए अमूल्य धरोहर है। उन्होंने मुझे काव्य-संग्रह निकालने की सलाह भी दी,भूमिका वे स्वयं लिखते,पर यह नहीं हो पाया।
अंत में अपने बच्चों के दिए उत्साह और लगन के फलस्वरूप , उनके ही सहयोग से मेरा पहला काव्य-संग्रह "नदी पुकारे सागर" प्रकाशित हुआ। उस संग्रह का नामकरण मेरे परम आदरनिये गुरु भूतपूर्व अध्यक्ष एवं प्रोफेसर डॉ पूर्णेंदु ने किया....भूमिका की जगह उन्होंने लिखा " इन रचनाओं के बीच से गुजरते हुए...." मैं हमेशा आभारी रहूंगी- 


 कौन से क्षण थे वे
जो अपनी अस्मिता लिए
समस्त आपाधापी को परे हटा
अनायास ही अंकित होते गए
मैं तो केवल माध्यम बनी............! 
 


रश्मि प्रभा की कवितायें 













एक सपना,एक मुस्कान.......

मेरे पास सपने हैं,
खरीदोगे?
आसमानी , रूमानी , ख्याली.....
कीमत तो है कुछ अधिक ,
पर कोई सपने बेमानी नहीं.......
जो भी लो-हकीकत बनेंगे,
शक की गुंजाइश नहीं!
.....कीमत है - एक मुस्कान,
सच्ची मुस्कान,
झरने-सी खिलखिलाती,
हवाओं - सी गुनगुनाती,
बादलों- सी इठलाती.......
आज की भागमभाग में
इसी की ज़रूरत है !
तुम एक सपना लो-
और मेरे पास एक मुस्कान दे जाओ,
.......
इनसे ही मेरे घर का चूल्हा जलता है!


स्वयं का आह्वान...........

हम किसे आवाज़ देते हैं?
और क्यूँ?
क्या हम में वो दम नहीं,
जो हवाओं के रुख बदल डाले,
सरफरोशी के जज्बातों को नए आयाम दे जाए,
जो -अन्याय की बढती आंधी को मिटा सके...........
अपने हौसले, अपने जज्बे को बाहर लाओ,
भगत सिंह,सुखदेव कहीं और नहीं
तुम सब के दिलों में हैं,
उन्हें बाहर लाओ...........
बम विस्फोट कोई गुफ्तगू नहीं,
दुश्मनों की सोची-समझी चाल है,
उसे निरस्त करो,
ख़ुद का आह्वान करो,
ख़ुद को पहचानो,
भारत की रक्षा करो !...........

आओ तुम्हे चाँद पे ले जाएँ...........

रात रोज आती है,
हर रात नए सपनों की होती है,
या - किसी सपने की अगली कड़ी.....
मैं तो सपने बनाती हूँ
लेती हूँ एक नदी,एक नाव, और एक चांदनी........
...नाव चलाती हूँ गीतों की लय पर,
गीत की धुन पर सितारे चमकते हैं,
परियां मेरी नाव में रात गुजारती हैं...
पेडों की शाखों पर बने घोंसलों से
नन्ही चिडिया देखती है,
कोई व्यवधान नहीं होता,
जब रात का जादू चलता है.....
ब्रह्म-मुहूर्त में जब सूरज
रश्मि रथ पर आता है-
मैं ये सारे सपने अपने
जादुई पोटली में रखती हूँ...
परियां आकर मेरे अन्दर
छुपके बैठ जाती हैं कहीं
उनके पंखों की उर्जा लेकर
मैं सारे दिन उड़ती हूँ,
जब भी कोई ठिठकता है,
मैं मासूम बन जाती हूँ.......
अपनी इस सपनों की दुनिया में मैं अक्सर
नन्हे बच्चों को बुलाती हूँ,
उनकी चमकती आंखों में
जीवन के मतलब पाती हूँ!
गर है आंखों में वो बचपन
तो आओ तुम्हे चाँद पे ले जायें
एक नदी,एक नाव,एक चाँदनी -
तुम्हारे नाम कर जायें..........................


मैं हौसला हूँ.......

मैं हौसला हूँ,
मेरी ऊँगली थाम के तुम चल सकते हो,
ऐसा नहीं कि मैं अनाम सुनामियों से नहीं गुजरता,
पर , उसके छींटे मैं तुम पर नहीं पड़ने दूंगा...
मुझे अंधेरों से डर भी लगता है,
पर अंधेरों की ठेस से तुम्हे बचा लूँगा...
आँखें भर जाती हैं कभी,
पर तुम्हारे लिए वह मोती बन जायेंगे,
यकीन तो करो हौसले का,
हौसला बनता ही है गिरने के बाद.......
मैं एक बार नहीं.......कई बार गिरा हूँ,
अँधेरे रास्तों को भी पहचान गया हूँ,
तुम मेरी ऊँगली थाम सकते हो,
मेरे पदचिन्हों पर भरोसा कर सकते हो......
-


आलोचना होती रही है.......

सतयुग हो,द्वापरयुग या कलयुग!
आलोचना होती रही है॥
राम ने राज्य का परित्याग किया,
पिता के वचन को उनकी आज्ञा मान-
कैकेयी का मान रखा,
१४ वर्ष का वनवास लिया..............
सीता के मनुहार में,
स्वर्ण-मृग का पीछा किया,
सीता हरण से व्याकुल रावण का संहार किया,
फिर प्रजा हितबध होकर ,
सारे सुखों का त्याग किया...........................

कृष्ण ने राम से अलग दिखाई नीति,
लीला के संग छल का जवाब छल से दिया,
'महाभारत' के पहले-
कुरुक्षेत्र का दृश्य दिखाया,
दुर्योधन से संधि-प्रस्ताव रखा,
स्वयं और पूरी सेना का चयन भी
उसके हाथ दिया-
दुर्योधन ने जाना इसे कृष्ण की कमजोरी,
ग्वाले को बाँध लेने की ध्रिष्ठता दिखलाई...
कृष्ण ने विराट रूप लिया,
महाभारत के रूप में,
रिश्तों का रक्त तांडव चला...

फिर आया कलयुग!
१०० वर्षों की गुलामी का चक्र चला-
गाँधी का सत्याग्रह ,नेहरू की भक्ति,
भगत सिंह का खून शिराओं में दौड़ा ......
एक नहीं,दो नहीं-पूरे १०० वर्ष,
शहीदों की भरमार हो गई,
जाने-अनजाने कितने नाम मिट गए-
'वंदे-मातरम्' की आन पर!
हुए आजाद हम अपने घर में,
१०० वर्षों के बाद
और जन-गण-मन का सम्मान मिला...........

सतयुग गया,गया द्वापर युग,
हुए आजादी के ६० साल........
स्वर उभरे-
राम की आलोचना,
कृष्ण की आलोचना,
गाँधी की खामियां...
दिखाई देने लगीं-
क्या करना था राम को,
या श्री कृष्ण को,
या गाँधी को.............
इसकी चर्चा चली!

आलोचकों का क्या है,
आलोचना करते रहेंगे...
आलोचना करने में वक्त नहीं लगता,
राम,कृष्ण,गाँधी बनने को,
जीवन का पल दूसरो को देना होता है,
मर्यादा,सत्य,स्वतन्त्रता की
राहों को सींचना होता है....

गर डरते हो आलोचनाओं से,
देवदार नहीं बन सकते हो,
नहीं संभव है फिर चक्र घुमाना-
सतयुग नहीं ला सकते हो!!!!!!!!!!!!

[ कवयित्री परिचय:जन्म- 13 फरवरी, सीतामढ़ी (बिहार)
शैक्षणिक योग्यता- स्नातक (इतिहास प्रतिष्ठा)
रुचि- कलम और भावनाओं के साथ रहना।
प्रकाशन- "कादम्बिनी" , "वांग्मय", "अर्गला", "गर्भनाल" और कुछ महत्त्वपूर्ण अखबारों में रचनायें  तथा अनमोल संचयन नामक संकलन  प्रकाशित]






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