अभी हम सब लगातार हुए बम-विस्फोटों की तबाहियों और मासूमों की असामयिक मौत से पूरी तरह उबर भी नहीं पाये थे कि कंधमाल और कर्णाटक में दहशतगर्दों(जिन्हें पुलिस और मीडिया उग्र भीड़ कहती हैजबकि
अरविन्द शेष जैसा प्रबुद्ध तबका कुछ और )के तांडव से रूबरू हुए.कंधमाल में अब तक ५० आदिवासी-दलित ईसायिओं को धर्म-परिवर्तन करने का सबक सिखाया गया है.अर्थात वो सारे चमकते त्रिशूल-तलवार का शिकार हो चुके हैं.कईयों को ज़िंदा जलाए जाने तक की ख़बर है।
इक नन के साथ कई लोगों ने बलात्कार किया फिर उसे नंगा घुमाया गया।
असम में छोटी-सी बात को लेकर बोडो के लोग मुसलमानों पर टूट पड़े.जिन्हें ये बँगला देशी कहते हैं।
सरकारी आंकडे के अनुसार दो दिन में ३६ लोग मारे गए।
वहाँ से लौटे स्वयं-सेवी संगठनं के लोगों ने बताया कि मामूली-सी बात इक बहाना थी.ख़ास मानसिकता के लोग और उनका संगठन बहुत दिनों से बोडो संगठन को बरगला रहा था।
अब मालेगाँव, धोलिया, थाने जैसे महाराष्ट्र के कस्बे दंगे की चपेट में हैं।
कई दुकाने और जानें जा चुकी हैं।
गाज अब भी लटक रही है.लेकिन प्रशाशन कभी लिखी गई हमारी ही दो पंक्ति का ब्यान है:
तालाबों से लाश मिली है
शहर लेकिन अमन में है
लेकिन सबसे खतरनाक है पत्रकारों को सताया जाना ।
मध्य प्रदेश पुलिस प्रताड़ना नसीब हुई
युवा-पत्रकार नदीम अहमद को.लेकिन थाने के बुजुर्ग-पत्रकार (उम्र:७० साल)
सलमान माह्मी का कुसूर क्या है कि वहाँ की पुलिस उन्हें गिरफ्तार करना चाहती है धरा ३०० के तिहत.उनपर मिटटी का तेल छिड़क कर फसादी जला रहे थे.उनके घर पर हमला हुआ था.और उनका कुसूर यही था कि उन्हों ने पुलिस में मामला दर्ज करवा दिया था।
हिन्दुस्तान टाईम्स के पत्रकार आफताब खान ने अपने अखबार के ७ अक्टूबर के अंक में अपनी रुदाद दर्ज की है ।
वो धुले रिपोर्टिंग के लिए पहुंचे हैं.कर्फियु लगा है.वो कलेक्टर के दफ्तर से महज़ आधा किलो मीटर स्थित खड़े हैं.अब उनकी जुबानी :
और मौत छूकर गुज़र गई
मैं हालत का जायज़ा ले रहा था। रिपोर्ट लिख रहा था.और साथ ही तस्वीरें भी खींच रहा था, जोकि एक संवाददाता
का मामूल होता है। वहाँ पर दूसरे संवाद दाता भी मौजूद थे, इसलिए घबराने और परेशान होने की कोई बात नहीं थी। लेकिन अचानक एक आदमी ने मुझ से सवाल किया, क्या तुम पत्रकार हो? मैं ने कहा, हाँ तो उसका अगला सवाल था कि मेरे ख्याल में इस फसाद में किस सम्प्रदाय के लोग सबसे ज्यादा प्रभावित हुए होंगे। हिंदू या मुसलमान? ये एक गैर-डिप्लोमैटिक सवाल था.मैं जानता था कि मुसलमान सबसे ज्यादा प्रभावित हुए होंगे । लेकिन मैं ने ख़ुद को तटस्थ रखना ही उचित समझा। शायद इस लिए कि अपनी रिपोर्ट में ज्यादा से ज्यादा सचाई लिख सकूं।
जब उन्हों ने जवाब जान ने की जिद की, तो मैं ने गैर-जानिबदारी का सबूत देते हुए कहा, मेरे ख्याल से दोनों सम्प्रदाय के लोगों का बराबर नुकसान हुआ होगा। सामान्यत: इस प्रकार के दंगे में ऐसा ही होता है। है कि नहीं?
यह एक ऐसा जवाब था जो वहाँ पर मौजूद किसी भी व्यक्ति को पसंद नहीं आया। मेरा जवाब सुनते ही वहाँ की फ़िज़ा में अचानक तनाव सा पैदा हो गया। हथित्यारों से लैस वहाँ पर मौजूद एक समूह मेरे पास आने लगा। यह लोग मेरी शर्ट में पिन से लगे कर्फियु -पास में मेरा नाम पढने की कोशिश करने लगे.और जैसे ही उन्हों ने मेरा नाम आफताब खान पढ़ा अपने-अपने हथियारों को हवा में लहराने लगे।
इन में से एक व्यक्ति ने आधे-अधूरे शब्दों में कहा, तुम चाहे जो कर लो ......चारों तरफ़ से मेरे साथ धक्का-मुक्की की जाने लगी। मुझे ऐसा लगा कि मेरी ज़िन्दगी का आखिरी दिन आ पहुँचा है। पहले तो यह ख्याल किया कि यह लोग मुझे मार-पीट कर छोड़ देंगे। लेकिन जब इनके हाथों में चाकू देखा तो यकीन हो गया कि यह लोग मेरी हत्या कर देंगे।
लेकिन ठीक इसी समय वहाँ पुलिस वाले आ गए । उन्हों ने हमलावरों को रोका । पुलिस वालों की उनसे कहा-सुनी चल ही रही थी कि मोटर सयकिल पर सवार एक स्थानीय पत्रकार सुनील बहलकर तेज़ गाड़ी चलाता हुआ भीड़ के बीच पहुँचा , उसने पुलिस वालों और दंगाईयों से कहा कि वोह मुझे पहले से जानता है। और मुझे मोटर साइकिल पर बिठाकर वहाँ से निकल गया।