बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2008

देशभक्तों ज़रा इधर भी देखो!

चाँद की फ़िज़ा में खुशबू किसी एक मुसलमान के आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने पर पानी पीपी कर सारे मुसलामानों को आतंकवादी बताने वाले देशभक्तों क्या आपने कभी ऐसे लोगों पर भी नज़र-ऐ-इनायत की है। पाठको, सम्भव है किसी भी खबरिया ने अमरोहा की खुशबू मिर्ज़ा...
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शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008

अब पत्रकार निशाने पर

अभी हम सब लगातार हुए बम-विस्फोटों की तबाहियों और मासूमों की असामयिक मौत से पूरी तरह उबर भी नहीं पाये थे कि कंधमाल और कर्णाटक में दहशतगर्दों(जिन्हें पुलिस और मीडिया उग्र भीड़ कहती हैजबकि अरविन्द शेष जैसा प्रबुद्ध तबका कुछ और )के तांडव से रूबरू हुए.कंधमाल...
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)