बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले!
















सैयद शहरोज़ कमर की कलम से  
 

कई बोलियों भाषा के देश हिन्दुस्तान में अपनी बहुरंगी सांस्कृतिक विविधता की तरह ही बरसों पहले एक हिन्दुस्तानी भाषा का जन्म हुआ.ऐसी ज़बां जिसमें स्थानीय बोली बानी के साथ प्राचीन संस्कृत और फारसी अरबी भी खिल खिला रही थी.कालांतर में इसी लश्करी और हिन्दवी से उर्दू और हिन्दी जैसी भाषा अमल में आई.उर्दू अपनी सोंधी मीठास और गंगा जमनी तहजीब की बतौर प्रतीक अब भी आम जनों के लबों पर आज़ाद है.मौक़ा सितारों  से झिलमिलाती पर्व दीपावली का हो, तो बरबस उर्दू के ख्यात शायर फ़िराक गोरखपुरी याद आते हैं: शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले!



भले आज उर्दू एक सम्प्रदाय विशेष की भाषा बन कर क़ैद हो गयी हों.लेकिन उसके साहित्य ने वसुधव कुटुंब बकम को साकार किया है.ठेठ भारतीय जीवन की तपिश, उसके उल्लास को शायरों ने हमेशा अल्फाजों का झूमर पहनाया है. यह सिलसिला ज़बान की पैदाइश से उसके परवान तक कायम है.  बहुत पहले के शायरों, जैसे मसवी 'कदम राव पदम राव' के रचयिता 'निजामी', सूफीकवि अमीर खुसरो, दक्षिण भारत के वाली दकनी, क़ुतुब अली के नाम से ख्यात मुहम्मद अली कुतुब, 'इंद्रसभा' के कवि 'अमानत', उत्तर भारत के  फ़ाइज़ देहलवी, शायर अफ़जल, गज़लों के इमाम मीर तकी मीर और गंगा-जमनी तहजीब के रूहेरवां 'नज़ीर अकबराबादी' के नाम सहज ही लब पर आ जाते हैं। इस परंपरा को आगे बढ़ाने में आज का उर्दू शायर भी खूने जिगर होम कर रहा है.


सरदार अहमद अलीग जब गुनगुनाते हैं.दीपों की फुलवारी कुछ इस तरह खुशबू लुटाती है:
 
फिर आ गई दीवाली की हँसती हुई यह शाम
रोशन हुए चिराग खुशी का लिए पयाम।
यह फैलती निखरती हुई रोशनी की धार
उम्मीद के चमन पे यह छायी हुई बहार।
यह ज़िंदगी के रुख पे मचलती हुई फबन
घूँघट में जैसे कोई लजायी हुई दुल्हन।
शायर के इक तखय्युले-रंगी का है समां
उतरी है कहकशां कहीं, होता है यह गुमां।




ग़ज़ल के रंग में उमर अंसारी की लंबी नज़्म यूँ चमकती है:


रात आई है यों दीवाली की
जाग उट्ठी हो ज़िंदगी जैसे।
जगमगाता हुआ हर एक आँगन
मुस्कराती हुई कली जैसे।
यह दुकानें यह कूचा-ओ-बाज़ार
दुलहनों-सी बनी-सजीं जैसे।
मन-ही-मन में यह मन की हर आशा
अपने मंदिर में मूर्ति जैसे।


उर्दू के एक विख्यात शायर नाजिश प्रतापगढ़ी का अंदाज़ देखिए:


बरस-बरस पे जो दीपावली मनाते हैं
कदम-कदम पर हज़ारों दीये जलाते हैं।
हमारे उजड़े दरोबाम जगमगाते हैं
हमारे देश के इंसान जाग जाते हैं।
बरस-बरस पे सफीराने नूर आते हैं
बरस-बरस पे हम अपना सुराग पाते हैं।
बरस-बरस पे दुआ माँगते हैं तमसो मा
बरस-बरस पे उभरती है साजे-जीस्त की लय।
बस एक रोज़ ही कहते हैं ज्योतिर्गमय
बस एक रात हर एक सिम्त नूर रहता है।


इस जश्न पर एक नया शायर महबूब राही इन शब्दों में अपनी भावनाओं का इज़हार करता है:
 

दीवाली लिए आई उजालों की बहारें
हर सिम्त है पुरनूर चिरागों की कतारें।
सच्चाई हुई झूठ से जब बरसरे पैकार
अब जुल्म की गर्दन पे पड़ी अद्ल की तलवार।
नेकी की हुई जीत बुराई की हुई हार
उस जीत का यह जश्न है उस फतह का त्योहार।
हर कूचा व बाज़ार चिराग़ों से निखारे
दीवाली लिए आई उजालों की बहारें।


उर्दू के मशहूर आलोचक हैं आल अहमद सुरूर. जब उनकी शायरी कैनवास पर दौडती है, तो दीवाली की दमक में बुराइयों का अँधेरा मिटाने और अच्छाइयों का अंजोर फैलाने की पाक तमन्ना सामने आती है:

यह बामोदर, यह चिरागां
यह कुमकुमों की कतार
सिपाहे-नूर सियाही से बरसरे पैकार।'

यह इंबिसात का गाजा परी जमालों पर
सुनहरे ख्वाबों का साया हँसी ख़यालों पर।
यह लहर-लहर, यह रौनक,
यह हमहमा यह हयात
जगाए जैसे चमन को नसीमे-सुबह की बात।
गजब है लैलीए-शब का सिंगार आज की रात
निखर रही है उरुसे-बहार आज की रात।

इन आँधियों में बशर मुस्करा तो सकते हैं
सियाह रात में शम्मे जला तो सकते हैं।

और चलते-चलते उर्दू के जनकवि नजीर अकबराबादी की बानगी देखिये:
 

हर एकदीवाली मकां में जला फिर दीया दीवाली का
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ
दीवाली का
सभी के दिल में समां भा गया
दीवाली का
किसी के दिल को मज़ा खुश लगा
दीवाली का
अजब बहार का दिन है बना
दीवाली का
मिठाइयों की दुकानें लगा के हलवाई
पुकारते हैं कि लाला दिवाली है आई
बताशे ले कोई, बर्फी किसी ने तुलवाई
खिलौनेवालों की उनसे ज़्यादा बन आई।

भास्कर के लिए लिखा गया.
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