बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

चुनाव में कवि का बोलना

















ज़ाकिर हुसैन की क़लम से

तीन कविता एक ग़ज़लनुमा



 1.

सुनो!
मन
व्यथित है
इन दिनों।
वे
हिन्दी फिल्मों की तरह
धीरे-धीरे
'सब्जैक्ट की डिमांड' के नाम पर
'लोकतांत्रिक स्क्रीन' में
'राजनीतिक नग्नता'
परोसते जा रहे हैं
और
इसी क्रम में
अब उन्होंने
भाषणों के झीने वस्त्र पहन
अपनी-अपनी
जुबानों के
'धमकियाते कर्व्स'
और 'नफरती क्लीवेज'
पूरी 'क्लासिकता' के साथ
दिखाने शुरू कर दिये हैं।
अपनी
जन स्वीकार्यता के लिए
वे
पहले ही
एक ऐसा
'विशेष वर्ग'
तैयार कर चुके हैं
जो
उनके इस 'मादक'
प्रदर्शन की डोज से
'उत्तेजनाओं' की 'लहर' पर सवार
'कामुक' दरिन्दा-सा
निकल पडा है
गलियों और सड़कों  पर
कालिजों और दफ्तरों में
गांवों और शहरों की तरफ।
देखना
अब फिर
किसी शहर में डोलती
'सामाजिक एकता' से
'गैंग रेप' किया जाएगा।
देखना
अब फिर
किसी गांव में रहने वाले
'भाई-चारे' की
लाश गिरायी जाएगी।

2.

डरो मत!
कुछ नहीं होगा।
न तुम्हारी दिवाली
मेरे बिना मनेगी
न मेरी ईद
तुम्हारे बिना।
कुछ नहीं होगा।
चुनावों का मौसम है।
इस मौसम में
कुछ लोग
अपनी-अपनी
देह के
कीचड से बाहर
आ ही जाते हैं।
कुछ
तुम्हारे घर की नाली से
निकलेंगे
कुछ
मेरे घर की नाली से।
टर्रायेंगे।
गुर्रायेंगे।
गन्धायेंगे।
फिर
उसी कीचड में चले जायेंगे।
फिर भी
आदत डाल लो इनकी।
जब-जब चुनाव आयेंगे
ये भी पैदा हो जायेंगे।
तुम्हारे ही आजू-बाजू से।
चुपचाप।
अचानक।
अप्रत्याशित।
इतने चुपचाप
कि
तुम इन की पैदाइश न रोक सको।
इतने अचानक
कि
तुम इनकी पैमाइश न कर सको।
इतने अप्रत्याशित
कि
तुम इन्हें सामाजिक न बना सको।
ये
लोकतंत्र की नाजायज संताने हैं।
अविकसित।
असामाजिक।
मानवीय विकास में
पिछडी हुई।
और
इन्सान बनने से
ठीक उसी तरह डरती हैं
जिस तरह
तुम
जानवर बनने से।

3. 

सुनो!
मैं जानता हूं
तुम्हारी
मुझसे कोई दुश्मनी नहीं
दोस्ती भी नहीं
कोई रिश्ता भी नहीं
फ़क़त इसके
कि
हम दोनों
एक ही देश के वासी हैं
समझो तो अर्थ बडा-सा है
न समझो
तो बात जरा-सी है
और
तुम मानो चाहे न मानो
इस बात को तुम भी जान गये
''मैं भारत भाग्य विधाता हूं
मैं कुरसी तक पहुंचाता हूं
बदकिस्मत हूं, मतदाता हूं''

4.

लोग मिलते हैं मिलते रहते हैं
सिलसिले यूं ही चलते रहते हैं.

लाख मुश्किल हो पेट का पलना
ख्वाब आंखों में पलते रहतें हैं.

प्यास से होंट सूख जायें भले
अश्क हैं कि उबलते रहते हैं.

ये हौसला है कुछ दुआओं का
हम जो गिर के सम्भलते रहते हैं.

और क्या खाक इन्तेहां होगी
दिल चरागों से जलते रहते हैं.

जिन्दगी तू भी सोच ले कुछ तो
वक्त सबके बदलते रहते हैं।



(कवि -परिचय:
ज़ाकिर हुसैन 'जवाहर'  नाम से भी लेखन
जन्म:  19 फरवरी 1978 मुराद नगर  ग़ाज़ियाबाद (यूपी)
शिक्षा: हिंदी से स्नातकोत्तर और जामिया मिल्लिया इस्लामिया से मॉस मीडिया में पीजी डिप्लोमा
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख, रपट व कहानी-कविताएं प्रकाशित
संप्रति: जयपुर में एक विज्ञापन कंपनी में हिंदी कॉपी राइटर
ब्लॉग: ख़ामोश बोल (जो पांच सालों से खामोश है)
संपर्क: anjum.zakir@gmail.com)  

हमज़बान पर ज़ाकिर की एक कविता पहले भी आ चुकी है

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बुधवार, 9 अप्रैल 2014

राम कहते रहे किसने क्या कर दिया

5  नज़्म और 6 ग़ज़ल




 
















सलमान रिज़वी की क़लम से
 

नज़में

राम कहते रहे किसने क्या कर दिया

राम आये नगर में तो ये हलचल देखी
जिस शक्ल को पढ़ा उसपे ख़ुशियाँ देखी

शोर नारों से बचकर वो चलते रहे
हर घड़ी कुछ सवालों को बुनते रहे

 क्या हुआ है मेरे घर में मजमा है क्यूँ
नज़रें जैसे पड़ी भीड़ पर उनकी ज्यूँ

देखा कुछ नौजवानों का शोरो फ़ुग़ाँ
थोड़ा आगे बढ़े जल रही थी दुकाँ

मुफ़लिसों और बेचारों के जलते मकाँ
उनकी प्यारी अयोध्या में हर सू धुआँ

तेज़ क़दमों से जब वो महल को चले
रास्ते में लगे जैसे वहशत पले

हर सिम्त में वहाँ पे थे मजमें लगे
उनके अपने महल में थे झंडे सजे
सबकी शक्लों पे ख़ुशियों की वहशत रजे
जैसे हर एक डगर पर थे बाजे बजे

सोचकर जैसे क़दमों से आगे बढ़े
कुछ अवाज़ें थी कानों में कैसे लड़े
फिर दुबारा महल की थे सीधी चढ़े
जिससे मजमें की शक्लों को फिर से पढ़ें

दूर नज़रों ने देखा कहीं पर धुआँ
जल्दी-जल्दी क़दम से वो पहुंचे वहाँ
एक मजमा था उनकी सदा दे रहा
और कहता गिरा दो ये ढाँचा यहाँ

नामे बाबर मिटा दो सदा के लिए
कह दो तैय्यार हैं वो सज़ा के लिए

माँ के माथे का कालिख गिराएंगे हम
राम के नाम को फिर सजायेंगे हम
नामे भगवन का डंका बजायेंगे हम
ए अयोध्या तेरे गीत गायेंगे हम

इतना कहके वो मस्जिद गिराने लगे
उनके क़ायद भी जल्दी से आने लगे
नाम भगवन के सब गीत गाने लगे
उसकी मिट्टी तिलक से सजाने लगे

ज़ोर से शोर उट्ठा फ़लक गिर गया
शर्म से सारे इन्सां का झुक सिर गया
राम कहते रहे किसने क्या कर दिया
मेरी आँखों को आंसू से क्यूँ भर दिया

कौन है ये वहाँ पर जो सब कर रहे
जिससे हर सिम्त इन्सां फ़क़त डर रहे

पाक मेरी ज़मीं पर लहू बह गया
क्यूँ सियासत में इन्सां ज़हर सह गया
सदियों पहले ज़माने से मैं कह गया
देखना था जो कलयुग में ये रह गया

देखते-देखते सारी धरती जली
और सियासत की गोदी में साज़िश पली

मुल्क जलता रहा लोग बढ़ते रहे
सीढ़ियां सब सियासत  की चढ़ते रहे
ख़ौफ़ सारी नज़र में वो गढ़ते रहे
सारे इंसान आपस में लड़ते रहे

सदियों-सदियों का रिश्ता कहाँ खो गया
बोले लक्ष्मण से भाई ये क्या हो गया
कौन रंजिश दिलों में यहाँ बो गया
सारे दिल से मुहब्बत को ख़ुद धो गया
पल में ख़ुशियों का अम्बर कहाँ सो गया
कुछ न बोले लबों से था दिल रो गया

कौन थे मुझसे ही साज़िशें कर गए
मेरी अपनी अयोध्या में लड़ मर गए


काशी गवाह रहना तेरे इम्तेहाँ की ख़ातिर
काशी गवाह रहना तेरे इम्तेहाँ की ख़ातिर
चेहरे बदलके फिर से कुछ लोग आ रहें हैं!
जो लोग तल्ख़ियों के बेताज रहनुमा थे!
गंगा तेरी लहर पे बंसी बजा रहे हैं!

जिनकी सियासतों ने अपनों का घर जलाया!
देवों की सरज़मीं पर एहसास गा रहे हैं!
जन्नत का रास्ता भी जाता हो जिस ज़मीं से!
कुछ लोग उस ज़मीं से इंसाफ़ खा रहें हैं!

गलियों से बुनकरों के करघों की ये सदा है!
कांधों पे लदके अरमाँ जलने को जा रहें हैं!
बहती हुयी लहर पर उपदेश के भिखारी!
सदियों सदी के रिश्ते ख़ुद से जला रहें हैं!

कुछ लोग फिर भी मिलके तूफ़ान के मुख़ालिफ़!
लहरों से लड़के फिर भी कश्ती बचा रहें हैं!
पाकीज़गी मुहब्बत रिश्तों की धड़कने हैं!
बुनकर की उँगलियों से सदियाँ सुना रहें हैं!

 आवाज़े अल्ला हू और ख़ुद शोर घंटियों  के!
अमनों अमाँ की ख़ातिर दिल को मिला रहें हैं!


रोकना है अँधेरे की उस रात को!

जिसने मज़लूम की ज़िन्दगी लूट ली!
हँसते चेहरों से ज़िंदा हँसी लूट ली!
ख़ौफ़ एक रस्म है हर ख़ुशी लूट ली!
दिल के कोनों से हर दिल्लगी लूट ली!

देखिये किस तरह से रिवाजों में है!
जिसका हर जश्न झूठी किताबों में है!
आज वो जेहल क़समें वफ़ा खा रहा!
और मज़लूम झूठे जफ़ा खा रहा!

रोकना है अँधेरे की उस रात को!
रौशनी के लिए ऐसी ख़ैरात को!
बदज़ुबानी लिए है जो बारात को!
कुंद ख़ंजर की मानिंद जज़्बात को!

क़ीमतें लग रहीं हैं ज़बानों की जब!
धज्जियाँ उड़ रहीं हैं ख़िताबों की तब!
गद्दियां बिक रहीं हैं बिसातों में अब!
क्यूँ ख़मोशा हुयी हैं निगाहें भी सब!

आबे गंगा की उस आबरू के लिए!
जिससे बहती है तहज़ीब सदियों सदी!
इज़ज़तें लग गयी हैं फ़क़त दांव पर!
जिसकी माटी में दिखती नहीं है बदी!

क़र्ज़ है आप पर आज मज़लूम का!
जिसकी आहों पे मसनद सजायी गयी!
ख़ुद क़ानूनों की आँखों के हर मोड़ पर!
जश्ने उम्मीद घर-घर जलायी गयी!


इसलिए उट्ठो हर एक ज़ुल्म के लिए!
अपनी मिट्टी की हर आबरू के लिए!
हक़ की हर राह में आरज़ू के लिए!
बेकसों के लिए एक सुकूँ के लिए!


भरोसा ही तो दरिया से मिलाता है मुझे!

लिखने वाले ने ख़ुदी नाम छुपा रख्खा है!
वर्ना बाज़ार में एहसास की क़ीमत क्या है!
एक भरोसा ही तो दरिया से मिलाता है मुझे!
भीड़ के बीच में एक बात की क़ीमत क्या है!
प्यार एक लफ्ज़ है उड़ते हुए परवानों सा!
डूबती फ़िक्र में जज़्बात की क़ीमत क्या है!
राज़ तो राज़ है अंधेर फ़िज़ाओं में मगर!
बिकती आवाज़ में एक रात की क़ीमत क्या है!
भीड़ तोहमत की हो इंसाफ़ भी ठोकर खाये!
झूठ की भीड़ में हर हाथ की क़ीमत क्या है!
आइना देख के मीज़ान पे न तौल ज़मीर!
शख्सियत बेच के इस ज़ात की क़ीमत क्या है!
 

झूठ से कह दो कि ख़बरदार रहे!

फ़सलें अफ़वाह की बोने का वचन चलता है!
मुल्क में ख़ौफ़ दिखाने का चलन पलता है!
कितना मगरूर वो रहबर है ज़माने वालो!
जिसकी नज़रों में यतीमो का वतन जलता है!

 शोर शोहरत का मचाने से नहीं हो सकता!
हक़ की आवाज़ दबाने से नहीं हो सकता!
बचपना लुट गया अब और नहीं खो सकता!
आपकी गन्दी सियासत पे नहीं रो सकता!

 मुल्क में शोर है गद्दी का तलबगार है वो!
ख़ूने मज़लूम बहा कर भी असरदार है वो!
जितने हमदर्द हैं अब ठंडी हवा के सुन लें!
ख़ामशी कहती है ज़ुल्मत में मददगार हैं वो!

 इसलिए खींच दो परदे को ज़माने वालों!
मुल्क की आबरू दुश्मन से बचाने वालों!
सुबह मिट्टी को अंधेरों से दिलानें वालों!
सूलियाँ ख़ुद को रहे हक़ में लगाने वालों!

गुल भी रोता है गुलिस्ताँ में अंधेरों के लिए!
रौशनी ख़ुद भी तरसती है सवेरों के लिए!
उसकी आवाज़ से लर्ज़िश दिले मासूम में है!
कितनी जल्दी है उसे अपने बसेरों के लिए!

 बस्तियाँ क्या थी उसे ख़ौफ़ मज़ारों से भी था!
आपके हस्ते गुलिस्ताँ के नज़ारों से भी था!
वक़्त शाहिद है कि हालात गवाही देंगे!
शामें रंगीन में डूबी सी बज़ारों से भी था!

पत्तियाँ शाख़ की हमदर्द नहीं हो सकती!
बूढ़ी अम्मा अब जवाँ ख़ून नहीं सह सकती!
बुद्ध सा कोई हमारा भी अलमदार रहे!
इसलिए झूठ से कह दो कि ख़बरदार रहे!



ग़ज़लें


1.

सादे कागज़ पे सजाया हुआ डर आपका है!
दिल में मज़लूम के बैठा जो सहर आपका है!

रोटियाँ शाम को चूल्हे पे पकेंगी कैसे!
जब मिला वक़्त बताया है कि घर आपका है!

रास्ते कितने है अंजान मेरी चौखट के!
साठ सालों ने दिखाया जो सफ़र आपका है!

पुश्तहा पुश्त सजाया था जिन्होंने गुलशन!
आज कुछ लोग ये कहते हैं समर आपका है!

कुछ भी हो जाये कहीं कोई भी धुआँ उट्ठे!
उंगलिया कहती हैं ये सारा ग़दर आपका है!


2.

लुट चुके जंगल नदी सूखी कहानी क्या करें!
मुल्क में हर रोज़ लुटती है जवानी क्या करें!

जब किसानों के घरों से आ गये गद्दी नशीं!
है ख़मोशाँ ख़ुद हुकूमत वो सयानी क्या करें!

पत्थरों को काटकर लूटा पहाड़ों को जहाँ!
सुन रही जनता फ़क़त कोरी बयानी क्या करें!

छप रहीं हैं झूठ  के बाज़ार में जब तोहमतें!
ख़ुद क़लम ख़ामोश है या फिर नदानी क्या करें!

जब सियासत की नदी काली में मोती आ गया!
गद्दियाँ ख़ामोश हैं बहती रवानी क्या करें!

है भरोसा मुफ़लिसों को न छिनेगी रोटियाँ!
मुल्क एक आवाज़ है टाटा, अदानी क्या करें!


3.

भूख के एहसास की क़ीमत लगायी जाएगी!
बस इसी के वास्ते बस्ती जलायी जायेगी!

मुल्क में कुछ लोग क्यूँ मायूस दिखते हैं रक़ीब!
इन सवालों के लिए संसद बिठाई जायेगी!

क़ातिलों नें खादियों से ज़ुल्म का पर्दा किया!
झूठ के सरदार को गद्दी दिलायी जायेगी!

शोहरतों की प्यास में इंसान ख़ुद नापाक है!
घोलकर मज़हब उसे मय में पिलायी जायेगी!

सैकड़ों बरसों के रिश्ते को कफ़न में बांधकर!
देखिएगा किस तरह दिल्ली घुमायी जायेगी!

4.

बुज़ुर्ग बोले थे एक अंजुमन में रुक जाना
सुरीले गीत किसी भी दहन में रुक जाना

बताना फूल को शाख़ों से तल्ख़ियाँ क्या हैं
हज़ार आँधियाँ आये चमन में रुक जाना

जहाँ भी जाओगे ख़ुशबू बदन से महकेगी
उरूज कितना भी पाओ वतन में रुक जाना

हमारे मुल्क में बातों की क़ीमतें न रहीं
ज़बान खोलो तो सबके ज़ेहन में रुक जाना

छत कभी आँगन से तोहमतें निकलें
हर एक रंज भुला के सहन में रुक जाना

सियासतें जो कभी प्यार से सिला बख्शें
वतन की याद समेटे कफ़न में रुक जाना

ये पूछना तो सही किस लिए जला गुलशन
जवाब न भी मिले तो हवन में रुक जाना

5.

गद्दियाँ जब उठ के ख़ुद दरबार से घर में गयीं
यूँ समझ लो पैर की थी जूतियाँ सर में गयीं

जब लुटी थी मुफ़लिसों की रोटियों की आबरू
देख लो हालात वो सब ख़ुद बख़ुद डर में गयीं

रहज़नों ने मुल्क में क़ानून को उरियाँ किया
बेगुनाहों की सदा जब रहबरी शर में गयीं

खेत थे खलियान था इज़ज़त और शोहरत पास थी
जल के वो सब नेमतें ख़ुद दूर पल- भर में गयीं

आपकी आवाज़ तो क़ायद ने तन्हा बेच दी
जो बची थी देख लो वो दर बदर- दर में गयी

6.

अलग वजूद की ज़िंदा मिसाल रख देंगे
मिटाने वाले तेरा ख़ुद ज़वाल रख देंगे

नमी लिए हुए सीने में याद ज़िंदा है
ज़माना देखेगा हम फिर कमाल रख देंगे

ये कैसा फ़ख्र है लिपटा हुआ लहू से फ़रेब
तेरे सुकूँ के लिए फिर से लाल रख देंगे

ख़मोश हो गयी मस्जिद की सारी मेहराबें
ज़मीं-जहाँ पे मिले फिर से गाल रख देंगे

जलाया क्यूँ था सियासत की  आग में गुलशन
हज़ार ज़ख्म लिए दिल पे ढाल रख देंगे

अजब सी आस मिटानें की  आरज़ू क्यूँ है
बुझे दिलों में नया सा गुलाल रख देंगे



(लेखक-परिचय:
पूरा नाम:   सलमान रिज़वी आज़मी
जन्म: 15 फ़रवरी 1984 को उत्तर प्रदेश के  आज़मगढ़ में
शिक्षा: शिब्ली महाविद्यालय,  आज़मगढ़ से स्नातक करने के बाद  मुम्बई यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता में मास्टर्स
सृजन: सोशल मीडिया में सक्रिय लेखन
संप्रति:  कुछ दिनों पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद फ़िलहाल खाड़ी देश में नौकरी
संपर्क : ssayyedrizvi@gmail.com)

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शनिवार, 5 अप्रैल 2014

आदिवासियों से ज़रा पूछिए अकाल का होना


 















रूखी-सुखी यानी पश्चिमी निमाड़ में अकाल: आदिवासियों का अनुभव
 


दीपाली शुक्ला की मेल से
 एकलव्य से प्रकाशित रूखी-सुखी  किताब पश्चिमी निमाड़ के आम लोगों के अकाल के अनुभवों का एक अनूठा दस्तावेज़ है। इसमें दी गई जानकारी जि़ला पश्चिमी निमाड़ के साकड़ गांव में बसे आधारशिला शिक्षण केन्द्र  में पढ़ने वाले विद्यार्थियों ने साकड़, चाटली, मोगरी व कुंजरी गांव के बड़े-बूढ़ों से पूछकर एकत्रित की है। इस किताब में अकाल के अलग-अलग हिस्सोंड पर चर्चा है। जैसे, अकाल क्यो पड़ा?
मोगरी के रामा भाई ने बताया कि एक बार उन्दडर काल पडा़ था। उस साल चूहे बहुत बढ़ गए थे। चूहों ने सारी फसल खा ली। अनाज भी चूहे खा गए। इसीलिए इसे उन्देर काल कहते हैं। इसी तरह एक साल बहुत बड़ी संख्यान में टिड्डे आ गए थे। टिड्डों ने पूरी फसल खा ली। इस कारण से भी अकाल पड़ा।
आदिवासियों का यह भी मानना है कि नमक को मटके में भर के गाड़ दें तो अकाल पड़ता है।

अकाल में लूटपाट
दूधखेड़ा के जगादार भाई ने बताया कि दिन में भी अनाज चोरी करने लोग आते थे। चोरियों के डर से, जिसके पास अनाज था वह ज़मीन में गाड़कर रखता था। थोड़ा-थोड़ा निकालकर खाते थे।

अकाल की किंवदन्तियां
एक लोककथा ऐसी है कि एक परिवार को एक मक्काा का दाना मिल गया। उस दाने को उबालकर उसका पानी पीते थे। दूसरे दिन फिर से उबालकर उसका पानी पीते थे। एक दिन एक बच्चेर को वह दाना मिल गया। उसने वह दाना खा लिया। तो सारे परिवार के लोग मर गए।












 





आधारशिला शिक्षण के बारे
लोगों की भागीदारी और पहल से इसकी शुरुआत 1998 में हुई। यह एक आवासीय स्कूल है जहां आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं। कुछ करते हुए सीखना, अपने समाज की समस्याउओं के साथ जूझते हुए सीखना – यह आधारशिला की पढ़ाई की विशिष्टता है।


 
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)