बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 26 मार्च 2014

गूंजती है हथोड़े सी आवाज़, औरत भी शामिल है इंसानो में




 






शहनाज़ इमरानी की कविताएं
 

हथोड़े की आवाज़ गूंजती है

एक वक़्त ऐसा भी था
जब दरख्त लोगों का
सारा सच सुनते थे
दरख्तों के तनों में बने
लकड़ी के कानों में
सब कहा करते थे
दरख्तों के पास अनगिनत
राज़ जमा हो गए थे
और वो कुल्हाड़ियों से नहीं डरते थे
उनकी जड़ें लोगों के ख़्वाबों में
हुआ करती थीं
और ख़्वाबों की चाबी
किसी ख़ुदा या भगवान के
हाथ में नहीं थी.

फिर समय ने कुछ रंग दिये 
दबे पाँव लोग मिट्टी से
बाहर निकल कर
अपनी पहचान में रंग भरने लगे
गाँव आदमी के तजुर्बों का
सबसे मुश्किल हिस्सा हो गया
लालसाओं के छुपे नाख़ून पंजों से बाहर निकले
सड़ते ज़हनों की बदबू फैलने लगी
चौराहों पर भ्रामक इश्तहारों की तरह
आश्वासनों से भरी
पीढ़ी गुज़रती गयी क़तार से
विकल्प की संभावना के हाथ कट गए
हर तरफ चेहरे ही चेहरे
दुखी, फ़ीके, उदास
भूखे, धूल खाये, बदहवास
ज़ख़्मी, गुस्साये, बौखलाए
बढ़ता गया अँधेरा और
परावर्तन के डर ने किरणों का प्रवेश बंद कर दिया
फासिस्टी कचरे और उन्माद की गंध से 
पूँजीवादी बिलों से निकले बेशुमार कीड़े
और दरख्तों के कानों में घुस कर
उनको बहरा कर दिया
कुछ दिन बाद दरख्तों ने
बिना मिलावट के सच उगल दिये
और एक-एक करके सारे दरख्त मरने लगे
कई ख्वाब टूटे कुछ पर लगा कर उड़ गये
कई हिस्सों में बंटा विरोध।

अब जुर्म कैसे साबित हो
लोग कीड़ों के साम्राज्य से डरते है
मिट्टी में रेडियोएक्टिव किटाणु अब भी
दरख्तों का बदन कुतरते रहते है
सन्नाटे में हथोड़े की आवाज़ें गूंजती है
लोग अभी भी कीड़ों को मार रहे हैं।

मोहबब्त फेयरीटेल्स नहीं है

पार्क  तो वही है
गहरी शाम ओढ़े हुये
कई लोग हैं सभी की आँखों की
इबारत अलग है
बेंच पर बूढा आदमी चेहरे पर
आखरी इंतज़ार लिए सो रहा है
एक बच्चा बॉल से खेल रहा है
सब कुछ भूल कर एक कोने में
एक लड़का और एक लड़की हाथ पकड़े बैठे हैं
पार्क में सब कुछ कल जैसा ही है
बदलाव भी अजीब होता है
शायद चीज़ें नहीं बदलतीं हैं
देखने का नज़रिया बदलता जाता है
मोहबब्त फेयरीटेल्स नहीं होती है
रिश्तों को एक ही पैटर्न पर चलते हुए पाते हैं
शुरुआती थ्रिल, ऊब, उपेक्षा और
तनाव फिर सब ख़त्म
मोहबब्त अनकंडीशनल क्यों नहीं होती !

चुनाव का माहोल

बदल जाता है सच
परिस्थतियों के साथ 
किस लफ्ज़ ने किस लफ्ज़ से
क्या कहा
सब अनसुना सा हो जाता है
फुल स्टाप के बाद
दिन मांगते हैं न्याय
अटकलों, संदेहों, और अंदेशों पर
लटका समय गुजरने के बाद
शुरू हो गई है खोखली बहस
जिसकी धार मर गयी है
देखने का नज़रिया कैसे बदले
नेता माँ बाप नहीं
जनता के नौकर हैं
जनता हाथ जोड़े खड़ी रहती है
लाठी किसी के भी हुक्म से चले
सहना जनता को पड़ता है
योजनाये बहुत हैं, करोड़ों का बजट है
पर सरकार खुशहाली का निवाला
कुबेरों को खिलाती है
बेशर्मी की चर्बी बढ़ती जाती है
बढ़ती जाती स्लम बस्तियाँ
खत्म हो रहा मध्यवर्ग
धर्म एक हथियार बना है
उन्माद से भरे हैं लोग
पुलिस बनी शिकारी कुत्ता
और जनता को दौड़ाती है
हविस, हिंसा, होड़
सारे विकल्पों को खुला रख कर
चुनाव का माहोल बना है।


एक लड़की है शबाना

सड़क किनारे खड़ी  होती है
वो लड़की शबाना
कस्टमर के इंतज़ार में
सुना है अपना घर और ज़मीन गाँव में
गिरवी रख कर आई है.

तुम्हे यहाँ नहीं आना चाहिए था
उसने मुझसे कहा
एक कमरा मटमैले अँधेरे से घिरा हुआ
जिसकी दीवारों का रंग उड़ा हुआ था
आख़री बार पता नहीं पुताई कब हुई थी
दीवार में एक छोटा सा रोशनदान
जिससे धुँधली फ़ीकी
धूप गिर रही थी
एक पलंग पर सिलवटों से भरी
चादर बिछी थी और दो तकिये रखे थे
शराब की खाली बोतल पड़ी थी पलंग के नीचे
कोने में जल रही अगर बत्तियों में से
कुछ राख में बदल चुकी थीं.

सुना था तुम नज़रों का जाल बुनकर
लोगों को फँसाती हो
जो कुछ सुना था
उसके विपरीत हो तुम
निचोड़े गये नीबू जैसा जिस्म
उम्र की सारी बरसातें
बर्फ़ में बदल गयी हो जैसे
एक बेरंग दुनियाँ
लोग भी तो काली रातों के होगें
जिनके चेरहे दिन में पहचानना
बहुत मुश्किल है
तुम्हारी आवाज़ से मैं
चौंक गई तुम कह रही थी
यहाँ से चली जाओ
तुम्हे मेरे बारे में जानने की
इत्ती क्या पड़ी है
एक फ़ायदा भी हुआ है तुम्हारे आने से
मोहल्ले के लोग कुछ दिन मुझे
शरीफ़ लोगों में शामिल कर लेंगे
और जब पता चलेगा तो 
हमेंशा की तरह फिर जगह बदलना पड़ेगा
तुम्हारी बैचेनी का गवाह तुम्हारा चेहरा
भूख, बेरोज़गारी, ग़रीबी का आत्मविलाप
सोच रही थी सरकार ने
कई योजनायें बनायीं हैं
और एन.जी.ओ.वाले
कंडोम बाँट कर
मदद करते हैं तुम्हारी
तुम्हे एक नाम भी मिला है
सेक्स वरकर्स
आख़िर समाज की
सभ्यता बनाए रखने के लिए
तुम्हारी ज़रूरत है
कब तक खड़ी रहोगी तुम
सड़क के मोड़ों पर
पुलिस खदेड़ देगी या
और लड़कियों के साथ
भेड़ों की तरह पुलिस वैगन में
भर कर ले जायेगी 
और फिर हवालात।
 
गरीब की झोपड़ी में
साँप, बिच्छू या कोई भी
जानवर के आने पर पाबंदी नहीं होती
यह सब में तुमसे कहना चाहती थी
मगर पीली थकी बीमार हाँपती हुई
तुम्हारी आँखों में देख कर
खुद से नफरत की
आज शुरूआत हुई।



अब डर लगता है

जायज़ या नाजायज़ हालात
समय की पैदाइश हैं
ग़ायब हो चुके पार्क में
वो झूले याद आते है
तेज़ झूले का डर
छिपकलियों और कॉकरोचों से डर
परीक्षा में फ़ेल होने का डर
भूत, चुड़ैलों का डर.

डर भी कितने छोटे होते थे
शरारत और डांटों के बीच
डर अँधेरे के साथ ही रोज़ रात आता
डराता और सुबह होते चला जाता
साल-दर साल मेरे साथ-साथ
डर भी बड़े हुए
में तो एक हूँ यह अनन्त हुए.

अब डर लगता है
लोगों की चालाक मुस्कानो से
दोस्ती में छुपी चालों से
शतरंज की बिसातों से
नफरतों से चाहतों से
आतंक, विस्फोट, और इंसानी जिस्मों के टुकड़ों से
दंगाइयों से, आग से, लाठीचार्ज से
पुलिस, नेताओं, चुनाव और फसाद से
मस्जिद में अल्लाहो अकबर और
मंदिर में हर हर महादेव के नारों से
भीड़ में और बस में पास बैठे अजनबी के स्पर्श से
रास्ता चलते हुए जिस्म का जायज़ा लेती नज़रों से !


कानों में तेल डालने से पहले

कितना आसान होता है आगे बढ़ना
अगर सामने रास्ते होते है
मगर रास्ते सब के लिये कहाँ होते हैं
कुछ लोग चुनौती को स्वीकारते है
कभी -कभी शुरुआत मंज़िल से
पहले ही हार जाती है
फिर भी लोग
रास्ता तलाशने में लगे हैं
खेतों, कारखानों में कई करोड़
किसान और मज़दूर
कई करोड़ बेरोज़गार युवा
जिनकी कोशिश जारी है
एक सम्पादक लिखता है
विद्रोह न्यायसंगत है
अन्याय के ख़िलाफ़
एक चित्रकार चित्रित करता है
किसान की खुदकशी
एक कवि लिखता है
धर्म के ठेकेदारों के षड्यंत्रों के विरुद्ध
कुछ लोग ढूँढ़ते हैं मसीहा
विचारहीन सम्मोहित भीड़ चल पड़ती है
उसके पीछे-पीछे
क्या तानशाह का ह्रदय परिवर्तन हुआ है.

तुम्हारे कानों में तेल डालने से
पहले की बात है यह
गोधरा के बाद सत्ता द्वारा आयोजित नरसंहार
विधर्मियों को आग में झोंक कर
गुजरात में नरमेंघ यज्ञ
धर्म के ठेकेदारों के पास तुम्हारी
तकलीफों से रिहाई की कोई राह नहीं
और तुम्हारे पास ज़ंजीरों के
सिवा खोने को कुछ नहीं*।

* कॉल मार्क्स

वो आदमी

जिसे सब पागल कहते हैं।
पत्थर तो पहले से थे
पत्थरों से आग पैदा हुई
और फिर आग को बेचने वाले
वक़्त जितना गुज़र गया है
उतना ही ठहरा हुआ है
लोग बना रहे है अपना
आज, कल और परसों
उनकी तकलीफें
दूसरों का मनोरंजन
बुझे अलाव की मद्धिम सी आँच में
बूढ़े बरगद के नीचे
सड़क के कुत्तों के साथ
वो आदमी फिर सो गया है
उसे सब पागल कहते हैं।

 चटोरी गली
शाम को सूरज डूबने के बाद
चटोरी गली की रौनक़ बढ़ जाती है
यह एक अलग दुनियाँ है
उन्हें पता नहीं फाइव स्टार होटल और हाइजीनिक फ़ूड
उधड़ी सड़क, काला धुआँ दीवारों और चेहरो पर
टूटी-फूटी टेबल कुर्सियां और उन पर रखे मटमैले गिलास
सूरज तो सही वक़्त पर निकला था
और अँधेरा जब हुआ भूख की आवाज़ ऊँची होने लगी
रात ने कहा अगर सन्नाटे न टूटे तो
जमाई आती है
67 साल लम्बी उम्र होती है
एक आदमी बनियान में कमज़ोर सा , काला रंग
पसीने से शराबोर भट्टी पर
बड़ी-बड़ी रोटियां पकाता है
पान चबाता हुआ पीले-पीले बल्ब की उदास रौशनी
बड़े-बड़े काले तवों पर सिकते परांठे, शामी कबाब, मछली
मसाला लगे मुर्गे लटके हुए
नानवेज में सब कुछ मिलता है चटोरी गली में
जो अंदर बैठे है और जो बाहर खड़े हैं उनमें
आधे लोगों से ज़यादा पढ़ना नहीं जानते होंगे
किसी के मुहँ में पान है किसी के हाथ में बीड़ी है
मटमैले कपड़ों में होटल का मालिक गल्ले पर बैठा
हिसाब किताब में उलझा है 
दो लड़के बातें कर रहे है
अरे खां वो अपने धोनी की तो फिलिम उलझ गयी
क्या केरिये हो मियाँ
सच केरिया हूँ फिक्सिंग में नाम आ गिया है
लम्बे बालों वाला लड़का दूसरे से
अबे भूरे फिर क्या हुआ
जब साले अरशद ने तेरी सब्ज़ परी (पतंग का नाम )
पर लंगर डाल दिया था
अबे मैंने कोई कच्ची गोलियाँ थोड़ी खेली है
मैने भी छत पर ग़टटे (पत्थर) जमा कर लिए हैं
मिला-मिला के दिये साला चप्प्लें (चप्पल) छोड़कर भाग गिया
कुछ उम्र दराज़ लोग जो इस दुनियां से बहुत परेशान लगते है
उन्हें क्या खाना है किसी की दाढ़ में दर्द है
किसी का पेट खराब किसी के मुँह में छाले हैं
अरे मियाँ पीर सलीम मियाँ क्या पोह्ची हुई हस्ती है
दर्द से तड़प रिया था मेरा पोता
मियाँ ने ऊँगली पकड़ली और जो पड़ना शुरू किया
तो पिशाब करा दिया हाथ जोड़ने लगा
इमली वाला था बच्चे पे आ गिया था
क्यों खां तुम्हारी औरत घर आ गई
उन्ही में से एक शातिर सा दिखने वाला आदमी
सर में तेल और आँखों में सुरमा
हाथों में मेहँदी थोड़े साफ़ कपडे पहने हुए
एक मरियल बूढ़े से आदमी ने पीले दाँत निकाल कर पूछा
आएगी नहीं तो जायेगी कहाँ तुक (सीधा) कर दिया है
जब से भूत उतारा है (मारना बेहरहमी से)
इस इस्तेमे (इज्तिमा) में लड़की का निकाह करवा रिया हूँ
वो भी अपनी माँ की तरह लल्लो (ज़ुबान) चलाती है.

एक और मेज़ पर बिरयानी खाते हुए कुछ लोग
कुछ गालियां बक रहे है एक दूसरे को
ज़ोर-ज़ोर से हँसते हैं गंदे लतीफों पर
एक आदमी कहता है
भाई मियाँ शहर क़ाज़ी ने अच्छा किया
औरतो के बज़ार (बाज़ार) जाने पर पाबंदी लगा दी
रमज़ान के महीने में क्या धक्का-मुक्की होती है
उनमें से एक बोला
हमारी बीवी हर साल पैसे जोड़ती
और सब लूटा देती थी कपड़ों पर
अब ले लो सब हँसते हैं

एक आदमी साईकिल घसीटता हुआ
टूटी चप्पल जगह-जगह से फटे कपड़े 
एक कट (आधी ) चा (चाय) ला और दो तोस (टोस्ट) देना
यहाँ कोई टिप नहीं मिलता 
रात को कुछ औरतें बुर्क़ा ओढ़े
कुपोषित बच्चो को लिये आ जाती है
अल्लाह के नाम पर दे दो तुम्हारे बच्चों का सदक़ा
रात बढ़ती जाती है कुछ लोग इन औरतों को गाली देते है
कहते हैं इस तरह माँग कर मुसलमानों
का नाम ख़राब कर रही है
बाहर कुत्ते सूंघ-सूंघ कर खा रहे हैं
कुछ गुर्रा रहे हैं
रात और गहराने लगी है।
_________________

हम भी भारत वासी है

हम भी जीना चाहते है
हमें भी चाहिये
हमारे हिस्से की हवा
हमारे हिस्से की ज़मीन
हमारे हिस्से का आसमान
हमारे हिस्से का सब कुछ
ओ मेंरे वक़्त तुम सुनों
की ज़िन्दगी में
इन्सान मोहब्ब्तों के लिये
और चीज़ें इस्तमाल के लिये थीं
लेकिन हवस ने हमारी आत्मा
कि गठरी बना कर
एक गहरे काले समन्दर में
पत्थरों से बाँध कर फ़ेंक दिया
अब हम चीज़ों से मोहबब्त करते हैं
और इन्सानो का इस्तमाल करते हैं
अपनी तमाम अमानवीय क्रूरताओं के साथ
हर जगह क़ब्ज़ा करती जा रही है
बढ़ती ज़रूरतें और लालसायें।

 लकड़ी को जलने और जलाने में
मासूम चेहरा धुला-धुला सा तन-मन
आज दुनियाँ में जब चाँद पर घर और
अंतरिक्ष में फसल उगा रहे है
सब कुछ बदल रहा है
पर गाँव अब भी वैसा ही है
सुबह से लट्टू की तरह घूमती है
मोमबत्ती सी गलती लड़की
आँखों को जिंदगी दिखेगी कैसे
अगर आँखों में खारा पानी हो
भीगा चूल्हा गीली लकड़ी
कितनी तकलीफ है
लकड़ी को जलने और जलाने में
जैसे बुखार से भरी हुई नसें
आदिवासी स्त्रियों का शोक गीत
भूख की चमक का चढ़ता पारा
वो बतिया रही थी आग से
जल जा न कहे परेसान करती है।

औरत भी शामिल है इंसानो में

आज लोग ज़िन्दगी के बड़े से बड़े हादसे को
सोशल साइट के स्टेटस की तरह देखते हैं
हमारी बिगड़ती जा रही मानसिकता
या ख़त्म होती जा रही इन्सानियत
सतीत्व, शिष्टता, सौन्दर्य
इन शब्दों से नारी का चेहरा उभरता है
पुरुष का नहीं, और पुरुष शिष्ट नहीं हुआ तो क्या
हमारा समाज भी तो पुरूष प्रधान है
नारी को सम्पति मानने वाला पुरुष
नारी जब पूरे कपड़ों में ढँकी रहती हैं
फिर भी कई पुरूषों को नग्न नज़र आती हैं
नारी को उसके अंगों से हटकर सोचने की आदत
बहुत कम पुरूषों में होती है
बहुत छोटी उम्र में 
जब बीमार मानसिकता का पुरूष छूता है
स्कूल में जब शिक्षक महोदय
पीठ पर अजीब तरह से हाथ फेरते हैं
भीड़ भरे रास्ते, बस, ट्रेन
पड़ोस,  मुहल्‍ले, परिवार, रिश्तेदार
हर कहीं कुछ घटता है
और डरी हुई नारी जो
सामना, करना, लड़ना नहीं सीखती
इस भेद-भाव की क्रूरता और
समाज का असली चेहरा नहीं दिखाती
डरती हैं, पति से परिवार से समाज से
लड़की को डरा कर उसे दोषी ठहरती है
तुम्हारे कपड़े, तुम्हारा मेकअप
तुम्हारा हँसना, तुम्हारी दोस्त  
तुम कितनी देर तक बाहर रहती हो
उसके मन में अँधेरा भर देती है
उसे अपने ही जिस्म से डर लगने लगता है
और फिर सीख जाती है बलात्कृत होने के बाद
मुंह बंद रखने का सबक़
माँ ने लड़की को अपने जिस्म को पाकीज़ा
रखने और लड़की होने के कई सबक़ दिये
मगर लड़के को बलात्कार न करने का
और औरत को इंसान मानने का
कोई सबक़ नहीं दिया
संघर्ष से जूझती हुई हालात को टक्कर देती
खुद की तलाश गहरे अँधेरे में
बैचेनी छटपटाहट और कई
सवालिया निशान ?


वजहें बहुत सारी हैं

ख़याल बहुत खूबसूरत होते हैं
भूली नज़्म का न जाने कौन सा हिस्सा
इन ख्यालों की दुनिया भी अजीब होती है
कभी चाहकर भी कुछ नहीं
और कभी न चाहते हुए भी दिल के दरवाज़े पर
एक भीड़ सी लग जाती है
ख्यालों की दुनिया में दिमाग का कोई काम नहीं है
खयालो की एक तवील महक है
रोज सुबह कई मुखोटे डाल कर सब निकलते है
ओर दिन पर सच का मुलम्मा चढ़ाकर
रात की ओर धकेल देते है
और फिर खुद से नज़रे बचा कर उस पर
"दुनियादारी ' का बोर्ड लगा देते है
ख़यालों में जीना ऐसा ही है शायद
जैसे हादसों से भरे वक्त की चादर ओढ़े
आगे बढ़ते जाना
जो बिछड़ गए उनका इंतज़ार और जो साथ हैं
उनकी चहरे की चमक से आँखों की नमी तक  
एक उम्मीद सबसे खूबसुरत है
दुखों के गहरे कुंए में या रास्तों के जंगल में
खो गए लम्हों की यादें
एक दिन जिस्म के साथ ही बुझ जायेंगी
और इन सब के बीच ज़िन्दगी का
शुक्रिया अदा करने की वजहें बहुत सारी हैं।



( रचनाकार-परिचय :

जन्म: भोपाल में
शिक्षा:  पुरातत्व विज्ञान (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर
सृजन: पहली बार कवितायेँ  "कृति ओर " के जनवरी अंक में छपी है।
संप्रति: भोपाल में  अध्यापिका
संपर्क: shahnaz.imrani@gmail.com )
साहित्यकार पिता मक़सूद इमरानी  स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे। )

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मंगलवार, 18 मार्च 2014

मां उबालती रही पत्थर तमाम रात, बच्चे फ़रेब खाकर चटाई पे सो गए



 
















अमित राजा  की क़लम से

कहानी: बारह साल का बुड्ढा


 हालांकि देश के बीसियों मनभावन जगहों की मैंने सैर की है।  मगर जमशेदपुर का महज़  चार दिनों का प्रवास स्मृति में अजीब तरह से चस्पां हो गया है। जमशेदपुर की सैर से जुड़ी यादें एक उन्माद और बुखार की तरह आती हैं और मैं कई बार जागी आंखों से बुरे सपने देखने लगता हूं।
       ००० ००० ०००
‘‘साहेब सिगरेट...’’ मेरे पीछे-पीछे दौड़ते हुए एक बच्चा  पास आ गया। एक पूरा ‘सिगरेट, माचिस, तंबाकू और पान मसाला’ भंडार उसके  बेजान गर्दन पर लटका हुआ था।
‘‘हां... लेंगे, एक डब्बा सिगरेट और एक माचिस दे दो. ’’ जमशेदपुर रेलवे प्लेटफार्म पर उतरते ही मुझे सिगरेट की तलब महसूस हुई।
सिगरेट के गोल-गोल छल्ले और लंबे धुंए निकालते हुए मैं जमशेदपुर रेलवे स्टेशन से निकला और अपने अजीज दोस्त अभिजीत के घर होकर जाने वाली  लोकल बस पर बैठ गया। धीरे-धीरे सुलगते हुए सिगरेट को देखते हुए  बेतरह उस बच्चे का गुमसुम चेहरा मेरी आंखों में ताक-झांक करने लगा।
‘‘बमुश्किल वह दस-बारह बरस का होगा।  सिगरेट बेच रहा है। ओह! कैसा देश, कैसा शहर है! कैसे मां-बाप...?’’ ऐसी अनेकों बातें मुझे परेशान किए जा रही थी।
दिल को बहलाने के लिए थकान के वक्त अमूमन मैं ख्वाब में अपनी प्रतिबंधित प्रेमिका की जुल्फें अपने चेहरे पर गिरा लेता हूं। थकान एकदम जाती हुई प्रतीत होती है। शायद ये मेरे दिल को बहलाने का गालिब तर्ज़ ख्याल अच्छा लगता है। मगर उस रोज कमबख्त इस ख्वाब ने धोखा दे दिया। उस रोज अपने चहेरे पर प्रतिबंधित प्रेमिका की गिरी हुई जुल्फों को ख्वाब में महसूसने की तमाम कोशिशें नाकाम साबित हुई। मेरे दिलो-दिमाग में सिगरेट बेचने वाला वह बच्चा था।
  ००० ००० ०००
‘‘ये हुआ तुम्हारा कमरा। पहले फ्रेश हो लो।’’ अभिजीत ने मेरे हाथ से बैग लेकर एक कोने में रख दिया।
‘‘हां-हां, बिल्कुल...! जो आदेश!’’ मैंने इशारे में कहा।
‘‘फिर कहीं घूमने-उमने चलेंगे।’’ अभिजीत ने कनखी मारी।
‘‘नहीं यार आज काफी थक गया हूं, शाम भी हो चुकी है... कहीं निकलूंगा-उकलूंगा नहीं।’’ मैंने दोनों बाहें उठाकर लंबी सांस ली।
‘‘ठीक है जैसी मर्जी...मैं तुम्हारे लिए चाय-नाश्ते के लिए बोल देता हूं।’’ अभिजीत दूसरी मंजिल के मेरे कमरे से निकला।
फ्रेश होने के बाद अभिजीत ने मेरे और अपने सोने का इंतजाम ऊपर वाले कमरे में कर दिया। जब तक मैं वहां रहा वह मेरे ही साथ सोया। इससे उसकी पत्नी पर क्या गुजरी,  मैं गाफिल रहा।
जमशेदपुर की वह रात बड़ी खामोश थी। इसे कोई करे या न करे  मैंने महसूस किया और फिर वहां की रात में बहने वाली नींद ने मुझसे दुश्मनी नहीं की, उसे मनाते-मनाते मेरा उससे झगड़ा भी नहीं हुआ। यह पहला मौका था जब नींद मेरे पास बैठकर मुझ पर झुक गई, फिर मुझे बांहों में भर लिया। आगे मुझे कुछ याद नहीं।
सुबह लंबे-लंबे दरख्तों को छूती सर्द हवा खिड़की से मेरे कमरे में घुस रही थी। पलाश  के फूलों से छनकर लाल-लाल धूप मेरे कमरे की दीवारों पर ठिठक रही थी। वह धूप जब मेरी देह और मेरे कपड़ों पर गिरती तो मेरा कपड़ा व मेरी देह लाल रंग से रंग जाती। बासंती हवा, धूप, सुबह और वातावरण से मैं पुलक रहा था। मगर, प्रकृति के इस सान्निध्य में मैंने जो नवमिजाज पाया उसकी एक दृश्य ने चिंदी-चिंदी उड़ा दी। खिड़की के पास मैं खड़ा हो गया। फिर बाहें डालकर अंगड़ाई ली। तो खिड़की से दिखने वाले मैदान में मुझे दिखा कि अलग-अलग समूह में बंटकर बारह से बीस और 25 की उम्र के बच्चे-लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। तो वहीं फटा-सुथन्ना पहने एक दस-बारह साल का बच्चा मूंगफली बेच रहा था।
‘‘अरे यह तो वही बच्चा है, जिसने मुझे कल सिगरेट पिलाई थी... मेरी आंखों के सामने रेलवे प्लेटफार्म पर सिगरेट बेचने वाले उस बच्चे का चेहरा घूम गया।
‘‘नहीं भई मूंगफली बेच रहा यह बच्चा वह नहीं है जो तुम समझ रहे हो। गौर से देखो सिगरेट बेचने वाले बच्चे के बाल काफी बड़े-बड़े थे, मगर मूंगफली बेचने वाले इस बच्चे के बाल छोटे हैं।’’ अचानक जोर से किसी ने मुझे झकझोरा। मगर मैंने देखा तो आसपास कोई नहीं था।
‘‘एक तरफ बचपन में खेलने कूदने का मजा 20-25 की उम्र में लेने वाले ये बच्चे हैं। दूसरी तरफ एक यह बच्चा है जो खेलने की उम्र में अन्न की जुगाड़ में खट रहा है। मैं गंभीर सोच में डूबकर चुपचाप और बेसाख्ता पलंग पर बैठ गया।
००० ००० ०००
पांच बजकर दस मिनट। महकी हुई सांझ। पानी का फव्वारा। दूर तक जहां-तहां बैठी स्त्री-पुरुषों की युवा जोडि़यां। दृश्य है जमशेदपुर के जुबली पार्क का। इसे जमशेदजी टाटा ने बनवाया था। लोग सच ही कहते हैं कि अगर पार्क यहां नहीं बनाया जाता तो यहां जुए का अड्डा, शराबखाना, बीयरबार होता। ऐसे में यहां निश्चित तौर पर बदमाश, चोर, उचक्कों, गुंडे, पुलिस, नेता, व्यवसायियों, अफसरों और पत्रकारों का जमावड़ा लगा रहता। फिर इस जगह का नाम जुबली पार्क नहीं रेगिस्तान, मर्डरिस्तान, चोर पाड़ा, डाकू टोला, मनचला नगर या अलकापुरी होता। लेकिन खैरियत है यहां जुबली पार्क है।
‘‘अबे चुतिया दार्शनिक की औलाद! आसमान क्या झांकता है उधर देखो।’’ अभिजीत ने मेरे कान के नीचे ऊंगली गड़ाई और दाहिने तरफ देखने का इशारा किया।
मैंने देखा एक नौजवान औरत दो युवा मर्दों के साथ जा रही है। औरत बीच में थी और दोनों पुरुष औरत का हाथ थामे आजू-बाजू। वे तीनों कुछ दूर जाकर घास पर बैठ गए। अभिजीत की इच्छा पर उन तीनों से थोड़ी दूरी बनाकर हम दोनों भी घास पर बैठ गए। हम दोनों ने देखा कि कुछ देर आपस में बात करने के बाद उस औरत के साथ वाला पहला आदमी उस औरत को अपनी बांहों में भरकर बैठा हुआ था तो दूसरा आदमी उस औरत की गोद में सर रखकर उसे निहार रहा था। मोटे तौर पर देर तक दोनों आदामी का उस औरत के साथ का व्यवहार यही साबित कर रहा था कि वह दोनों की पत्नी हो।
‘‘जरूर ये औरत आधुनिक समाज की द्रौपदी है, जिसके पांच नहीं दो पति हैं।’’ मैंने खुद से कहा।
तभी उन तीनों का अभिवादन करने के अंदाज में हाथ उठाता हुआ मेरी बगल से एक आदमी गुजरा और कहा ‘‘हाय डार्लिंग सोमा, हाय रोहित, हाय साबिर।’’
इस तीसरे आदमी ने उस औरत की ओर हाथ बढ़ाया और उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए उसे पहले अपनी बांहों में भर लिया फिर उसे चूम लिया। ये सब देखकर अभिजीत और मैं अवाक् था। अब मैं उस औरत से इन तीनों पुरुषों के रिश्ते के बारे में सोचता ही कि एक बच्चे ने मेरी सोच के रास्ते में एक अवरोध-सा खड़ा कर दिया।
‘डेली न्यूज लीजिए, डेली न्यूज पढि़ए’ की आवाज मेरे कानों में देर से आ रही थी। पर, यह आवाज लगाकर सांध्य दैनिक बेचने वाला बच्चा अब मेरे बेहद करीब था।
‘‘साहब, ‘डेली न्यूज’ ले लो’’। मेरी ओर देखकर बोल रहे उस बच्चे  की आवाज में आग्रह घुला हुआ था।
उस बच्चे की ओर मैं बोक्का की तरह देखता रह गया। डेढ़ रुपए लेकर मुझे सांध्य दैनिक ‘डेली न्यूज’ देने वाला यह बच्चा वही था, जिससे रेलवे स्टेशन में मैंने सिगरेट ली थी और जो मुझे खिड़की के पार मैदान में खेलते लड़कों के बीच मूंगफली बेचते हुए दिखा था।
‘‘आखिर यह कौन बच्चा है इतना क्यों खटता है? क्या इसे अपनी बेटी या बहन की शादी करनी है (?) जो दो दिनों के भीतर बेतहाशा कभी सिगरेट, बीड़ी, पान-मसाला कभी मूंगफली तो कभी सांध्य दैनिक बेच रहा है।’’ मैं जोर-जोर से सोच रहा था।
मेरे जोर-जोर से सोचने को सुनकर किसी ने मेरे कान में धीरे से कहा- ‘‘अरे नहीं दोस्त ये वह बच्चा नहीं है जो तुम सोच रहे हो। सिगरेट बेचने वाले, मूंगफली बेचने वाले और ये अखबार बेचने वाले तीनों बच्चे अलग-अलग हैं। सिगरेट बेचने वाला बच्चा बिल्कुल काला था। इसे देखो ये तो गोरा है।’’ मैंने बाजू देखा तो कोई नहीं था, मगर हां चारेक फूल गाछी की पत्तियों की सरसराहट बिल्कुल आदमी की तरह बोल रही थी।
‘‘ओह...’’ मैं अपने दुःखते हुए सर को दबा रहा था। मैं उस बच्चे के ही बारे में सोच रहा था। मैं जानना चाहता था कि आखिर ये बच्चा कौन है और क्यों इस कदर हाड़-तोड़ मेहनत करता है। हालांकि उस बच्चे से ये सब जानने के मैंने दो मौके खो दिए। एक तो उस वक्त जब वह बच्चा मूंगफली बेच रहा था- मैं अगर चाहता तो दो रुपए की मूंगफली खरीदकर उससे पूछ सकता था कि ‘‘बेटे तुम इतना काम क्यों करते हो?’’ मगर मैं इस संकोच से नहीं पूछ सका कि अभिजीत और दूसरे लोग क्या कहेंगे।
दूसरा मौका तब आया जब वह बच्चा सांध्य दैनिक बेच रहा था। उस वक्त मैं पूछ सकता था कि - ‘‘बेटे तुम्हारा घर कहा है - तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं? तुम इतना काम क्यों करते हो?’’ मगर मैं नहीं पूछ सका, क्योंकि मन में झिझक थी कि जुबली पार्क में मौज-मस्ती कर रहे लोग क्या कहेंगे? यही न कि ‘‘साला पागल है’’।
‘‘ओह...’’मैं धीरे-धीरे निःस्संगता में खोता जा रहा था।
‘‘क्या हुआ चलो’’, अभिजीत ने मेरी पीठ पर हाथ रखकर मुझसे कुछ इस अंदाज में कहा। जैसे मुझे वह गहरी नींद से जगा रहा हो और मैं बिना ऊंह-आंह किए कुछ इस तरह से उठा कि मुझे नींद से जागना ही न आता हो।
००० ००० ०००

‘‘आज क्वाइल लाना भूल गया। बहुत मच्छर है।’’ मेरे बगल में सोया अभिजीत अपनी ही देह में चट-चट कर मच्छर मार रहा था।
‘‘हां मच्छर है।’’ मेरे मुंह से निकला, मगर मैं गहरी नींद सो रहा था।
‘‘सो रहे हो क्या।’’ दस मिनट की खामोशी तोड़ते हुए अभिजीत ने कहा।
‘‘हां सो रहा हूं, गहरी नींद में सो रहा हूं।’’ मैंने कहा।
फिर कुछ देर खामोशी रही! बाद में पलंग से उतरकर अभिजीत ने बल्व जलाया और अलगनी से मच्छरदानी लेकर मेरे पास खड़ा हो गया। ‘‘चलो हटो, उठो, थोड़ा मसहरी लगा दूं, बहुत मच्छर है।’’
‘‘नहीं मैं नहीं उठूंगा, मैं बहुत गहरी नींद में सो रहा हूं। नींद टूट जाएगी। मुझे मच्छर नहीं काट रहा, मैं गहरी नींद में सो रहा हूं।’’ मैं कह रहा था।
‘‘अजीब आदमी है, आंखें खुली है, बातें कर रहा है और कहता है गहरी नींद में सो रहा हूं’’ अभिजीत मच्छरदानी लगाते हुए बुदबुदा रहा था।
एक घंटे के बाद नींद में मैंने कहा ‘‘अभिजीत सो रहे हो क्या?’’ अभिजीत इस कदर बेसुध सो रहा था कि मेरी बात का जवाब भी नहीं दिया। तभी किसी बच्चे की जोर-जोर से रोने-चिल्लाने की आवाज से मेरी नींद टूट गई। फिर कुछ देर ठहरकर मैं बालकनी गया और वहां रखी कुर्सी पर बैठ गया। यूं ही वहां बहुत देर बैठे-बैठे मैंने देखा आसमान बादलों से घिर गया। पहले बिजली चमकी, बाद में बारिश की पतली-पतली, छोटी-छोटी फिर मोटी-मोटी, बड़ी-बड़ी बूंदे टपकने लगी। इतने मैं मैंने देखा कि बालकनी के सामने वाले मकान के बरामदे पर एक बच्चा पानी से बचने के लिए दौड़ते हुए आया और बरामदे पर लगी ग्रील के पास छज्जे के नीचे खड़ा हो गया। वहां खड़ा-खड़ा वह थोड़ा भींग रहा था, थोड़ा बच रहा था। तभी टॉर्च की लाइट की तरह बिजली की चमक इस बच्चे के चेहरे पर गिरी। बाद में एक झलक में मुझे वह बच्चा वही दिखने लगा, जो पहले मुझे सिगरेट, मूंगफली और सांध्य दैनिक बेचते हुए दिखा था। उस रात मैं उस बच्चे के बारे में जानने के लिए मिले मौके को खोना नहीं चाहता था।
‘‘ऐ बच्चा तू कौन है? क्या तुम्हारा कोई घर नहीं है? जो इस बारिश की रात में तुम भींग रहे हो...! या कि तुम सांध्य दैनिक बेचने के बाद घर जाते हुए बारिश में फंस गए हो?...बच्चा क्या तुम मेरी बात नहीं समझ रहे हो या नहीं सुन रहे हो...! देखो मुझे देखो...।’’ मैं लगातार जोर-जोर से बोले जा रहा था, मगर शायद मेरी आवाज बारिश की बूंदों की आवाज और बिजली की कड़क में गुम हुए जा रही थी। लेकिन, मैंने हिम्मत नहीं हारी और उस बच्चे से चिल्ला-चिल्ला कर पूछता रहा।
‘‘क्या हो गया तुझे, ये सुबह-सुबह क्यों चिल्ला रहा है? आखिर लोग क्या कहेंग।’’ मेरी दोनों बाहें पकड़कर अभिजीत एकदम मुझे उस तरह से झकझोरने लगा जैसे मैं कोई पागल होऊं और वह पागलों का डॉक्टर।
‘‘य...यार...अ...अभिजीत, बा...बारिश, बिज्जली, बबब बच्चा।’’ मैं अभिजीत की मजबूत पकड़ से अपनी बाहें छुड़ाने की कोशिश करता हुआ एकदम से हकला रहा था।
‘‘तुझे क्या हो गया दोस्त, न तो बारिश हो रही है, न ही बिजली गरज रही है और यहां कोई बच्चा भी नहीं है।’’
‘‘अरे तुझे तो बुखार भी है।’’ अभिजीत मेरे ललाट, गाल और गले को छू-छू कर मेरे बुखार का तापमान मापने की कोशिश करने लगा।
उस रोज अभिजीत ने मेरे नहाने, धोने, घर से निकलने और टहलने पर एकदम रोक लगा दी। उसने फौरन अपने फेमिली डॉक्टर को भी बुलवा लिया था।
‘‘कुछ नहीं बस उन्हें थोड़ी-सी हरारत है, अभी ये दो गोली खिलाकर इनको सो जाने कहिए फिर रात में दो गोली दे दीजिएगा।’’ डॉ ने अभिजीत को अपनी बैग से निकालकर कुछ दवाईयां दे दी।
००० ००० ०००

‘‘क्यों भाई साहब आप कल ही चले जाएंगे?’’ अंजू भाभी ने बेहद सलीके से मेरी ओर चाय का ट्रे बढ़ाते हुए पूछा।
‘‘हां भाभी हर हाल में कल सुबह ही निकल जाना होगा।’’ मैंने ट्रे से चाय का प्याला उठा लिया।
‘‘मगर इन्होंने तो कहा था कि आप आएंगे तो पूरे दस रोज ठहरेंगे।’’ भाभी मेरे बगल में सोफे पर बैठ गई।
‘‘क्या करूं भाभी बहुत काम बाकी है, अपने शहर लौटकर उसे पूरा करना है। हालांकि अगली बार आया तो जरूर दस दिन ठहरूंगा।’’ भाभी को मनाने के लिए मैंने बात बनाया।
‘‘हां-हां, आप दोनों दोस्त झूठ बोलना बहुत अच्छी तरह जानते हैं।’’ भाभी की आंखों में हंसी और जुबान पर गुस्सा था।
‘‘अच्छा-अच्छा बहस-वहस छोड़ो आज कुछ खास बनाकर खिलाओ। शादी के पहले तुम्हारे सात गुणों में तुम्हारे कुकिंग कोर्स की खूब चर्चा सुनी थी। मगर शादी के बाद इधर के तीन बरस में तुमने मुझे रोज दाल-भात, सब्जी और दाल, रोटी, चोखा ही खिलाया है।’’ अभिजीत तपाक से बोला।
‘‘मैं क्या कर सकती हंू, आपकी मां से जब भी पूछती हूं रोज-रोज वो दाल-भात सब्जी बनाने को कहती हैं। अब आज आप खास बनाने कह रहे हैं तो जरूर कुछ खास बनाने की कोशिश करूंगी।’’ भाभी का मुंह बंद था, मगर उनके भीतर से ये शब्द-वाक्य फूट रहे थे।
तुरंत बाद भाभी ने मुंह खोला ‘‘ठीक है आज कुछ खास बनाऊंगी।’’


कुछ देर तक अभिजीत मुझसे बातें करता रहा. फिर   अचानक किचन की ओर गया। ‘‘खाना बना कि नहीं जी’ (जोर से) क्या खास बनी रही हो। (धीरे से)।’’
‘‘जी ला रही हूं।’’ किचन की ओर से आवाज आई। कुछ देर बाद डाइनिंग हॉल से आवाज आई ‘‘आईए खाना लग गया है।’’
बाद में अभिजीत और मैंने डायनिंग टेबल पर बैठकर कुछ खास व्यंजन के बारे में सोचते हुए दाल, भात, सब्जी, रोटी, पापड़ आदि निकालकर खाने लगा। शायद रंजू भाभी ने भी कुछ खास व्यंजन बनाने की सोचते हुए दाल-भात, सब्जी, रोटी और पापड़ बना लाई हो।
००० ००० ०००

कुछ दिन और ठहरने के लिए मुझे मनाने की कोशिश में परास्त होने के बाद अभिजीत और अंजू भाभी को आखिरकार मुझे विदा करना ही पड़ा। फिर अभिजीत ने स्कूटर से मुझे रेलवे स्टेशन तक छोड़ दिया।
‘‘गाड़ी खुलने में अभी 40 मिनट देर है, चलो एक-एक चाय पीता हूं।’’ अभिजीत एक ढाबानुमा चाय दुकान की ओर बढ़ा।
‘‘ना-ना चाय नहीं, एक-एक सिगरेट पी जाए! क्या?’’ मुझे सिगरेट पीने की इच्छा हो रही थी।
‘‘ठीक है ‘सिगरेट’ भी साथ-साथ लेंगे।’’ अभिजीत मुस्कुराया।
मैंने चाय की घूंट ली। फिर, सिगरेट का कश भरा। धीरे-धीरे हलक से निकलता हुआ धुंआ मेरी आंखों के पास आकर जमा हो गया। धुंए को चीरती हुई मेरी आंखे इस चाय-नाश्ते की दुकान पर हुकूम ठोंकते साहबों की खिदमत में लगे एक दस-बारह साल के बच्चे पर ठहर गई।
‘‘ये तो संयोग है। मैंने तो सोचा भी नहीं था कि यह बच्चा मुझे इस चाय-नाश्ते की दुकान में मिल जाएगा। आज मैं इससे सब कुछ पूछ लूंगा-सब कुछ।’’ मैं खुशी से एकदम चहक उठा। गोया शायद मुझे इस बच्चे की वर्षों से तलाश हो।
लेकिन दूसरे ही क्षण मैं निराश और दुखी हो गया। क्योंकि जैसे ही मेरी आंखों के सामने जमा ‘धुंआ’ गायब, वह बच्चा भी गायब... मेरा मन भारी हो गया। टिकट काउंटर से टिकट खरीदकर अभिजीत ने मुझे दिया। ‘‘सोलह मिनट बाद तुम्हारी गाड़ी खुलेगी।’’
‘‘शुक्रिया अभिजीत अपनी और भाभी का ख्याल रखना, चिट्ठी लिखना, फोन करना और हां भाभी को लेकर आना। मैं भी दोबारा आऊंगा।’’ मैंने विदाई ली। दूर तक विदाई देते हुए अभिजीत मुझे इस कदर तक रहा था जैसे कुछ बोल रहा हो।
प्लेटफार्म नंबर-1 के प्रवेश द्वार पर मेरी नजर अपने जूते पर गई। जूते पर धूल जमी थी और वहीं पर बैठा एक बच्चा लोगों के जूते पॉलिश करता दिखा। जूता पॉलिश कराने के लिए मैं भी आगे बढ़ा कि मेरी नजर उसके चेहरे पर रूकी। मैं चौंक गया। मेरी बांछे खिल गई...। अरे यह तो वही बच्चा है, जिसकी मुझे तलाश थी। आज मैं इस बच्चे से खूब बातचीत करूंगा। पूछ लूंगा कि वह इतना काम क्यों करता है।’’
‘‘अबे ले इस जूते पर बरस मार।’’ एक आदमी ने उस बच्चे की ओर अपना बायां पैर बढ़ा दिया।
दूसरे आदमी ने एकदम रईसजादे की तरह उस बच्चे के आगे पांच रुपए का सिक्का उछाल दिया, गोया खैरात बांट रहा हो ‘‘ऐ लो जी पैसा लो।’’
अब मेरी बारी थी। बच्चा मेरे जूते पर पॉलिश कर रहा था। और मैं उस बच्चे से यह पूछने के लिए बेताब था कि वह इतना काम क्यों करता है। ऐसी क्या जरूरत है कि कभी वह सिगरेट, कभी मूंगफली, कभी अखबार बेचता है तो कभी मजदूरी तो कभी जूता पॉलिश करता है। लेकिन बूट पॉलिश के लिए बेचैन वहां खड़े शूट-टाई-पैंट पहने दो लोगों की ‘एलिटियाना हरकत’ देखकर मैं बच्चे से कुछ नहीं पूछ पाया। अब तक बच्चा मेरे दोनों जूते पॉलिश कर चुका था।
‘हां’ मैंने झुककर बच्चे की ओर पैसा बढ़ाया।
‘हां साहब!’ बच्चे ने हाथ बढ़ाया, उसकी आंखों में विस्मयजनित चमक थी। अब मैं आगे बढ़ने को ही था कि कुछ देखकर चौंकते हुए थोड़ी देर रूक गया। दरअसल, जहां बच्चे ने जूता पॉलिश की दुकान सजाई थी, वहीं मुझे एक बैसाखी और बच्चे का घुटने तक कटा एक पैर दिखा। बच्चा अपाहिज था। मगर मैंने बच्चे के अपाहिज होने के कारणों के बारे में उससे पूछ नहीं सका। क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि उस बच्चे से बात करने की जहमत के रूप में वहां खड़े एलिटों की हेय नजर मुझपर पड़े।
‘‘प्लेटफार्म पर सिगरेट या सड़क पर अखबार बेचते हुए जरूर किसी हादसे में इस बच्चे ने अपना एक पैर गवांया होगा।’’ मैंने गेस किया। तब तक गाड़ी लग चुकी थी। मैं बोगी के अंदर गया और फिर अपने बर्थ पर खिंच गया। बस मन में बच्चे से बात न कर पाने का मलाल रह गया।


(लेखक-परिचय:
 जन्म: 09 मार्च 1976
शिक्षा: बीए ऑनर्स,     
सृजन:   झारखंड की बेटी, रूप की मंडी ;शोध रिपोतार्ज का सह लेखन, आग में झरिया ;पुस्तक प्रकाशित। देश के कई नामी पत्र-पत्रिकाओं में  पुस्तक समीक्षा, कविता, कहानी आदि.     
 पेनोस साउथ एशिया से पर्यावरण, खनन और दलित महिलाओं के स्वास्थ्य व मानवाधिकार विषय पर फेलोशिप।  
 संप्रति: दैनिक भास्कर गिरिडीह में ब्योरो चीफ।
संपर्क: amitraja.jb@gmail.com, 9431169152 )

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गुरुवार, 13 मार्च 2014

चुनावी बुखार की गुलेल गोली


अभिषेक तिवारी का कार्टून साभार

 शहरोज़  की दो अख़बारी फूलझड़ी
 कहीं सच तुम बदल तो नहीं जाओगे
भैया की धडक़नें इनदिनों शहर के  मौसम की तरह  बदल रही हैं। दरअसल उनकी प्रेयसी पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। इसके  लिए भाप तो बहुत पहले से ही उठने लगे थे। जब अंगीठी जलाई गई थी। इसके  ताप को बढ़ाने के  लिए खंड-खंड होते या  किए जा रहे झार-झंखाड़ से कोयले मंगाए जाने लगे थे। भैया को  यूं तो मुंशी-गुमाश्ते  कमी न रही, पर उनके  झक्क  सफेद कुरते पर पता नहीं कैसे कालिख लग गई। हालांकि  इसको  छुड़ाने के  जतन इतना  किये कि  राजधानी एक्सप्रेस हो गए। लेकिन उनके  चेहरे की  हवाई जहाज भी नहीं उड़ा सका । मठ से दरगाह तक  की  जियारत-परिक्रमा कर डाली। पर कमबख्त फिल्म 'दाग'  थी कि परदे से उतरने का नाम नहीं ले रही थी। असर यह हुआ कि सियासी ताप अफवाह सा बढऩे ही लगा। इसके  गुबार से दिल्ली तक  छींक  गई। जाहिर है, ताप बढ़ा, तो वाष्पीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई। अब यही वाष्प बादल बनकर उनके  ईर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा है। कभी वह ऐसा ही चक्कर इसी प्रेयसी को हासिल करने के लिए लगाया करते थे। खैर! अब बादल है कि  घुमड़ते-घुमड़ते बरस जाने को बावरा हुआ जा रहा है।


ई कइसा लहरिया बाबू
होशियार ! खबरदार!! बड़का भोंपू से ई बात सुनकर मंगरू चा अपनी गठरी पोटली में बाँधने लगे. हम जब तक उनके पास पहुँचते उन्होंने वहाँ से लत्ती ले ली. हम भी उनके पीछे ऐसा भागे मानो पेट  खराब हो, और कहीं जाकर जल्दी ही निर्वृत हो लूं. हमरे पुकारने पर चच्चा बोले, तुम काहे हमरा पीछा कर रहे हो. तुमको भी का कोई लाल कपड़ा दिखा दिया है.  ऊ कौने फेके वा है जिसको कजरारे वाला नचवा लाल कपड़ा सा बुझा रहा है. और रह-रह के ऊ इधर-उधर बौखलाहट में का-का अनाप-शनाप बोल रहा है. टीविया मा इहो सुने हैं कि उसका कुर्सी बनाने में बड़का-बड़का लोग मदद कर रहा है. अभियो पंडित जी बतात रहींन।  ऊ अभी कासी से ही आये हैं सुनकर!   हम बोले, न मंगरू चा! हम तो आपके भागे के देख दौड़ लगा दिए. आप काहे खिसक लिए ई जगह से? 'लो सुन आउ  देख नहीं रहे हो. होशियार!खबरदार!!'  पता न का आफत है.' अरे कोनो आफत-वाफत न है चच्चा। इ कोई खेल हॉवे वाला है. पर खिलाड़ी चुनबे  न किये कप्तान का घोषणा कर दिए. आउ बोल रहे हैं कि ई बार तो कप्वा हमहीं जीतेंगे! अरे भैया कौन मना  कर रहा है, पर खिलाड़ी चूने मा काहे देरी कर रह हो। जबकि दुसरका टीम का खिलाडी सब प्रेक्टीसो करने लगा है, अपना- अपना मैदान में. औउ ई कप्तनवा सोच रहा है कि सभे मैदान का मैच अकेलिये खेल लेंगे। हमरी बात को सुन अभी -अभी पहुंचे  पंडित जी मुस्कुराए, 'बाबू ई कप्तनवा तो अपना ही मैदान छोड़ कर दुस्सर मैदान देख रहा है. अब भला भांग के आगे कासी में ढोकला चलिहें का.'  
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मंगलवार, 11 मार्च 2014

दुपट्टे को बांध दूंगी बरगद की ऊंची शाख पर परचम की तरह


 






























ब्लॉगर्स की कविताओं की रंगत बेशुमार @ शब्द संवाद

सैयद शहरोज क़मर
की क़लम से

'अपने दुपट्टे को  बांध दूंगी
उस पक्की  सडक़ के  कि नारे वाले
बरगद की  ऊंची शाख पर परचम की  तरह।'

 इसे पढ़ते हुए तुरंत ही मशहूर शायर मजाज का शेर जेहन में उतर आता है,
'तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इससे परचम बना लेती तो अच्छा था।'
बरसों बाद युवा कवयित्री रश्मि शर्मा दुपट्टे को परचम बना लेने की बात कहती हैं। उनके साहस को  सलाम! वर्ना अब ऐसे बदलाव तो कविताओं से भी लुप्त होते जा रहे हैं। उनकी कविता अंतिम गांठ की यह पंक्ति है। ऐसी कई कविताएं वीना श्रीवास्तव के संपादन में प्रकाशित कविता संकलन 'शब्द संवाद' में संगृहित हैं। रश्मि की  रचनाओं में मौन का  जंगल पसरा है, जिसमें हवाओं की  अलगनी पर झूलते कई सवाल पूछते हैं कि हम इंसान हैं या जानवर। मौजूदा हिंसक  वातावरण में स्त्री पूछती है, 'क्या एक  औरत कर पाएगी / कभी किसी पर विश्वास/ कौन देगा/ इन अनगिनत प्रश्नों का  जवाब।'

इस संकलन में ब्लॉग पर सक्रिय  22 कवियों की रचनाएं शामिल हैं। इनमें 70 वर्षीय अशोक  सलूजा 'अकेला' से लेकर बीस साल के  टटका कवि मंटू कुमार भी हैं। पुस्तक  आधी दुनिया के पूरे सपने के  नाम समर्पित तो जरूर है। लेकिन इनमें महज 9 कवयित्रियों को  ही जगह मिली है। बकौल संपादक  हिंदी में 20 हजार ब्लॅागर हैं। इनमें नियमित लिखने वाले बहुत कम हैं। पर उन्होंने प्रतिनिधि रचनाकारों को सम्मिलित करने का  दावा किया है। कोई शक  नहीं कि कुछ नाम बहुत ही लोकप्रिय हैं। इनकी लोकप्रियता का  कारण भी उनकी रचनाधर्मिता है। पर बाकी  कवियों की रचनाएं अपेक्षाकृत कमजोर हैं, प्रतिनिधि तो क़तई नहीं कह सकते। लेकिन इनमें जिंदगी के  प्रति उत्कट लगाव है। विडंबनाओं को लेकर क्षोभ है।

छायावादी स्तंभों में रहे सुमित्रानंदन पंत की मानस-पुत्री सरस्वती की कवयित्री बिटिया रश्मि प्रभा 'कड़ी धूप में निकल गए समय से'  आंचल में कुछ छांह बांधकर बच्चों को वसीयत में देती हैं। इनके यहां चिडिय़ों की चोंच में उठा लिए गए और बादलों की  पालकी  पर उड़ते शब्द हैं। जो 'शब्द कभी विलीन नहीं होते / प्रेम हो / इंतजार हो / दुआ हो, मनुहार हो / वियोग हो, त्योहार हो।'  इनकी  कविताओं में 'शब्द साथ-साथ चलते हैं / कभी सिर्फ खिलखिलाते हैं / कभी बालों में घूमती मां की  उंगलियों से निकलते हैं, शब्द।'  कलावंती की पंक्तियां, 'स्त्रियां सुख का हाथ छोडक़र / दुख को पार करा देती हैं सडक़' या ' पिता जब तक थे जीवित / कितनी बड़ी आश्वस्ति थे।'  अनमोल वचन की भांति स्मरण में रह जाती हैं। रीता प्रसाद उर्फ ऋता शेखर मधु 'वाणी और क़लम' के  बल पर कहती हैं, 'उम्मीदों के  चिराग जलाके रखो'  क्योंकि  'जीवन के  कुरुक्षेत्र में...../ कोई भी होता नहीं / ज्ञान कोई देता नहीं।'  शारदा अरोड़ा भी 'सोच के दीप जलाकर'  देखने की बात कहती हैं।

'इंसान अब रहा नहीं तेरी दुनिया में ऐ खुदा
कोई यहां हिंदू, कोई मुसलमान रह गया।'
युवा कवि अमित कुमार अपने इसे शेर के  साथ संग्रह में सबसे पहले अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं। वहीं मदन मोहन सक्सेना की पंक्तियां भी असर छोड़ती हैं,
'भरोसा है हमें यारो कि कल तस्वीर बदलेगी
गलतफहमी जो अपनी है, वो सब दूर हो जाएं
लहू से फिर रंगा दामन ना हमको  देखना होगा
 जो करते रहनुमाई है, वो सब मजदूर हो जाएं।'

वहीं युवा चितेरे मंटू की  रचनाओं का खिच्चापन आकर्षित करता है। इस संकलन में शामिल दस कवियों ने दामिनी के बहाने पुरुष के  दुरंगेपन का बखूबी पोस्टमार्टम किया है। इनमें अशोक  कुमार सलूजा, मनोरमा शर्मा, मंटू, निहार रंजन, राजेश सिंह, रश्मि प्रभा, डॉ. शिखा कौशिक  'नूतन', वीना श्रीवास्तव और बिधू शामिल हैं। संकलन में आशु अग्रवाल, किशोर खोरेंद्र, नीरज बहादुर पाल, प्रकाश जैन, प्रतुल वशिष्ठ, रजनीश तिवारी, शशांक  भारद्वाज की भी कविताएं हैं।

पुस्तक : शब्द संवाद (कविता)
संपादक : बीना श्रीवास्तव
पृष्ठ: 228
मूल्य: 399 रु.
प्रकाशक : ज्योतिपर्व, दिल्ली

भास्कर झारखण्ड के 25 फ़रवरी 2014 के  अंक में प्रकाशित

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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)