बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

शम्भु यादव की कविताएँ


















 नौ साल का रामरतन
गुल्ली पर टुल लगाने की उम्र में
मैदानों को दौड़-दौड़ थका देने की उम्र में
स्कूल में पहाड़े सुनाते वक्त
सबसे तेज हो सकती थी उसकी आवाज 

अपने गांव से कोसो दूर
दिल्ली की एक दूकान पर
गोल-गोल बिलता बचपन
नौ साल का रामरतन
 
आग उगलती भट्ठियां 
वह मट्ठियां बेलता
मालिक की घुड़की है-
‘सुन बे ओए बिहारी ’  
एक मासूम मन है गलता

कुछ नन्हें सुख है
परिवार की भूख में उलझे ।

बाजार की लगभग हर दूकान पर बने ऐसे दृश्य में
एक लेबर इन्सपेक्टर घूम रहा है लगातार
अपने बच्चों के लिए मिठाई मांगता 
बच्चों से मजदूरी करवाने के एवज़ में अपना इनाम।


वे संभालते दुनिया

दिन भर कमरा खाली रहता है
शाम को अपना दरवाज़ा खोल हो जाता है आबाद

चौदह-बाय्-दस का वह कमरा
उसके हिस्से में आठ जन हैं

स्टोव पर पक रहा है हँसी-ठहाका
थकान की जकड़न से मुक्त साँसें
आँखों में आँखों का झाँकना
सुखद इच्छाओं का तेज़ प्रवाह
बाँगड़ जीवन पर फैलना चाहता

गाँव की कई याद कई तहें
इस कमरे में
उन तहों को ऊपर नीचे करते वे आठ जन
बतियाते हुए गपियाते हुए
अपनी आदतों में
अपनी नींद में
अपने सपनों में

रिश्तों की गरमाहट लिए सुबह में
उन्हें फिर छितर जाना हैं इधर-उधर

वे संभालते दुनिया..............


 ‘क्लोज-अप’ हसीना के चमकते दाँत से इतर
 

 वहाँ पनपीले मुख पर अट्टहास
‘क्लोज-अप’ हसीना के चमकते दाँत

यहाँ करोड़ों का संताप
सदियों से कार्यरत हथौड़े की ‘ठक-ठक’
सभ्यता के निर्माण परोधा व्यस्त।

यहाँ जीवन कोल्हू में पिला
हाट-बाज़ार बिका
ख्वाब एक बसेरे भर का
आत्मा में वेदना

वहाँ शरीरी अटरिया पर गमकता है तेल
माया का विलास खे़ल
आनंद का तिकड़म
चाँदी की आत्मा सोने का खोल।

वहाँ उज्जवल-कलश लुभावन
‘उन्नति के भव्य दीप यही’
भ्रामक शोर प्रसारित प्रचारित

सत्ता के गलियारे में
केंचुल छोड़ता इंद्रजालिक व्यापारी

यहाँ अधलिखे उपन्यास का क्षोभ
जिसके केन्द्रीय संवेदन में तीखी पुकार
मनुष्य के बेहतर जीवन की

सुबह की लहरों में गेहूँ की बालों पर
ओस की चमकदार बूंदें
मिट्टी की सौंध यहाँ।

एक उदास स्वर

दवाइयों के सहारे
बीमारी के डर से तो बच जाऊँगा
परन्तु कैसे बचा पाऊँगा इस शहर को
खंजर के खौफ से
बम के विस्फोट से

कोई भी घड़ी दे सकती है धोखा
जीवन के किसी भी क्षण पर
बेमुरौवत आरी चल सकती है
कभी भी उजड़ सकता है बागवां

किसी महाकाव्य का दौर नहीं है यह

अपूर्ण भाव में
सूरज का संवारक रूप कहाँ!?

किस अग्नि में तपकर शुद्ध होगी घोषणाएं

पिछड़े जाते है तेज अंधड़ में
आँखों में भर रही है किरकिरी

व्याकुल है पीली घास
आस लिए मन में
हरी-भरी हो जाने को

दुख सूखे ठूंठ पर गड़ा कीला
जो कुछ भी सुख है
उस पर जमी है
थकान की झाई

 बहरूपिया

केंचुल उतार गया सांप 
और दबा भी नहीं
पहले से ज्यादा चमका है निखर

अपनी पूंछ को घूमा
तीन सौ साठ डिग्री वाली चौकड़ी मार बैठा है
तरह तरह से अपने फन को लहराता
दिखता है प्रफुल्ल

‘नाग का काटा पानी भी नहीं मांगता’
अपने चरित्र की इस विषेशता को अर्थ देने में लगा
हज़म करता निरीह कीड़ों-मकोड़ों को

गदगद है धर्म के कटोरे में दुग्धपान से 

व्यवस्था की बीन-धुन पर
दिखावे का सदभावना नाच
अपने ही मोह में धुत्त बहरूपिया।

सौदागर-कलन्दर

महानगर में फैली है भूल-भूलैया सड़कें
सड़कों पर भठयारा सा आदमी
आदमी में फैले हैं सपनें
सपनों पर काला जादू छुमन्तर।

पृथ्वी का यह छोर या वह छोर
मनुष्य की इच्छाओं की खाद-बीज-पौध
सब कुछ काले जादू की गुफा अन्दर

गुफा का अधिश सौदागर कलन्दर।

शहर के बीचो-बीच बसा लूटियन जोन
लूटियन में शाही बिराजा है सुप्रीमों कलन्दर

स्काचॅ की मस्ती में
इंटरनेट पर पोर्नो देखना
उसका प्रिय शगल।
 
(कवि-परिचय:
जन्म :     11 मार्च 1965  को जिला महेन्द्रगढ़ (हरियाणा ) के गाँव बड़कौदा में
शिक्षा :     प्राथमिक शिक्षा गाँव में, उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविधालय से हिंदी में  स्नातकोत्तर
सृजन  :  एक कविता संग्रह  ' नया एक आख्यान' (2013 ) प्रकाशित
                विभिन्न पत्रिकाओं और इंटरनेट  ब्लाग्स पर कविताएं
संप्रति: दिल्ली में व्यवसाय व रहकर स्वतन्त्र लेखन
 संपर्क :    shambhuyadav65@gmail.com)





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मंगलवार, 24 सितंबर 2013

मुस्लिम दोस्तों से एक अदना गुज़ारिश





















मस्जिद तो बना दी शब भर में, ईमान की हालत ठीक नहीं


तुझसे मेरी शर्ट कम सफेद क्यों! टशन का मामला है साहब ! आप खुद देख लीजिये घरों में गहरी तारीकी (अंधकार) है, लेकिन मस्जिद में दिए रौशन किये जा रहे हैं। बात महज़ चराग़ की नहीं। महंगे फ़ानूस और क़ालीनों से मस्जिदों को सजाया जाने लगा है। फर्श पर क़ीमती पत्थर और टाइल्स। बदहाल मुसलमानों के मेहनत-पसीने से क़ायम  मस्जिदों और दरगाहों की छटा, क्या आपको विचलित नहीं करती।  मुसलमानों की बेकली पर सिर्फ सजदे में  सर रगड़ने से कुछ नहीं होगा। कुछ सोचिये! मस्जिद नुमाइश की जगह नहीं। उन पैसों से आप तालीमी मीनार बुलंद कर सकते हैं। मदरसों में आधुनिक शिक्षा का नज़्म कर सकते हैं। सरकार का रोना कब तक कीजिएगा। कब तक इस सियासी दल से उस दल के गोद में उचकते रहियेगा! अब कोई मौलाना आज़ाद नहीं है कि जामा मस्जिद के मेंबर से वलवला अंगेज़ तक़रीर करे। मुल्क और ईमान का वास्ता दे।  उसके आंसुओं का  वजू  आपको पिघला दे। तुमने शादियों को एक कारोबार बना डाला। दहेज़ के बढ़ते नासूर तुम्हारी बेटियों को बुढा बना रहे हैं। वहीं इस मौक़े की फिज़ूल खर्ची। हुज़ूर ने भी बेटी को जहेज़ दिया था। यह हदीस आपके कुकर्मों को ढंक नहीं सकती। वहीं कई मुददे पर आपकी सांप्रदायिक सोच आप ही के पैरों पर कुल्हाड़ी मारती है। तुलसी का पौधा आप देश के हर गांव-क़स्बे के आँगन और शहरों की बालकोनियों में पाएंगे। कितना गुणकारी पौधा। हमारे अधिकांश भाई इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं। लेकिन आपने शायद ही इसे किसी मुस्लिम के घर इस पौधे को देखा होगा। हम उसके गुणकारी लाभ से इसलिए वंचित हैं कि हिन्दू उसकी पूजा करते हैं, हमारा उससे क्या लेना-देना? बरादर !

आप को बता दूं कि इस्लामी मान्यता अनुसार  हजरत आदम बेआबरू होकर परवर दिगार के कूचे से निकले, तो जन्नत से अपने साथ कुछ खास पौधे भी लेते चले। इनमें एक तुलसी का भी पौधा था। और अब अधिकतर इतिहासकर एक मत हैं कि आदम हिंदुस्तान की धरती पर उतरे थे। यहाँ हिंदुस्तान से आशय भारत उपमहाद्वीप से है, जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बर्मा, श्रीलंका, बागला देश, नेपाल और भारत आदि देश हैं।

आपकी हदीस कहती है कि दरया का पानी सबसे पाक है। उसकी हिफाज़त करें। जल संरक्षण की भी ताकीद है। हुजूर कह गए, ख्वाह वजू ही क्यों न कर रहे हो और दरया किनारे क्यों न हो, पानी कम से कम खर्च करो! साथियों ! बोलो तो ज़रा तुमने अपने गाँव, कस्बे और शहर की नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए क्या किया। गंगा और यमुना तुम्हारी भी उतनी ही है। कितनी मस्जिदें, दरगाहें, दर्सगाहें इनके किनारे हैं, इनकी आब्यारी पाते हैं। पड़ोसी के घर से गर धुआं उठता  न दिखे तो तुरंत उसकी खोज-खबर करो। उसके यहाँ खाना पहुँचाओ। पडोसी आपका किसी भी मज़हब का हो। यह भी हदीस ही कहती है।

एक बार एक व्यक्ति हुज़ूर के पास आया। शिकायत की कि कोई गैर-मुस्लिम उसे नाहक़ सता रहा है। जब तफ्तीश हुई तो दोषी मुसलमान निकला। पैगम्बर बहुत नाराज़ हुए। कहा, मैं अल्लाह के सामने उस गैर-मुस्लिम के पक्ष में खड़ा रहूँगा। यह बताने का वाहिद मकसद है कि अपने पड़ोसियों से नेक व्यवहार कीजिये। ऐसी हरकत मत कीजिये जिससे किसी को परेशानी हो। किसी का दिल तोडना भी गुनाह है। 

शायद यही सबब रहा होगा कि पहले मुग़ल बादशाह बाबर ने हुमायूँ को वसीयत में यह बात बगौर लिखी: ' हिन्दुस्तान के हिन्दू गाय की पूजा करते हैं, गौ कशी पर पाबंदी रखना। '

 दोस्तों ! आप खुद बढ़कर क्यों नहीं एक भाई की श्रद्धा की खातिर गौ कशी पर बंदिश लगाने की मांग सरकार से करते हैं। आप इसका गोश्त नहीं खायेंगे तो मर नहीं जायेंगे। न ही मरने के बाद जहन्नम में चले जायेंगे। इसका खाना सवाब क़तई नहीं।  इससे बीमारी ज़रूर फैलती है।

 हज़रत उमर ने भी गोश्त ज्यादा खाने से मन फ़रमाया था। उन्होंने इसकी मिसाल शराब से की थी कि नशे की तरह ही इसकी लत होती है। हुजुर भी  इससे परहेज़ करते थे। उन्हें तो लौकी की सब्जी और दाल बहुत पसंद थी।   
जानवर पालना आपके पैगम्बरों का शौक़ रहा है। पालिए।  इसके ढूध, मक्खन और घी का सेवन कर सेहत-बाग़ कीजिये। याद रखिये, जो क़ौम खुद को समय के साथ नहीं बदलती तो गर्त में समां जाती है।


यहाँ भी पढ़ सकते हैं


  
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सोमवार, 23 सितंबर 2013

सर्वधर्म समभाव वाया राजनीति @ नमो

मुज़फ्फ़र नगर फ़साद : दंगे में ख़ाक -राख हुए अपने घर को ताकता एक मासूम साभार इंडियन एक्सप्रेस

संदर्भ अनंतमूर्ति

समय अब ज्यादा क्रूर है। संकट गहरे हैं। बोलने की आज़ादी पर पहरे हमेशा रहे हैं। लेकिन देश में लोकतंत्र की गहरी जड़ों को डिगा पाना बेहद मुश्किल रहा। अब उसके ही बहाने उसे ही समूल नष्ट करने की कोशिशें तेज़ हैं। जबकि मित्रो! वाद-विवाद ही संवाद का वाहक रहा है। इसमें कुतर्क की गुंजाइश नहीं रहती। वैचारिक मतभेद हमेशा रहे हैं, रहेंगे। लेकिन तब कोई गाली-गलौज पर उतर नहीं आता था। देश के एक प्रतिष्ठित लेखक जवानी में नेहरु की आलोचना करते रहे। कुछ बड़े हुए तो इंदिरा उनके ज़द में रहीं। कभी उनके विरुद्ध अमर्यादित बर्ताव किसी ने नहीं किया। अब जबकि धुर दक्षिण पंथी एक नेता और उसके समर्थकों के सपने के पूरे हो जाने की स्थिति आने पर लेखक ने देश छोड़ देने की बात कही तो एक लम्पट तबका उनकी माँ-बहन करने में वीरता समझने लगा। दरअसल उनके ज़ेहन में हिटलर का जर्मनी रहा होगा। जब कई लेखक देश छोड़ कर चले गए थे। प्रतिकार का अपना ढंग है। क्या हम विश्व के उस नादिरशाही या हिटल शाही दौर में तो नहीं लौट रहे? क्या मोदियाबिंद अब डेंगू की तरह फैल रहा है। कि जिसमें सिर्फ एक ही रंग नज़र आता है।

मित्रो ! आप जिस राज्य में विकास का ढिंढोरा पीट रहे हैं। ज़रा उसके आगे-पीछे भी नज़र घुमा लीजिये। अभी कुछ दिन पहले "Times of India" ने ख़बर दी कि निवेशकों के लिए उड़ीसा बेहतर राज्य साबित हो रहा, वहीं गुजरात लगातार नीचे जा रहा है। सर्वाधिक प्रति व्यक्ति आय में हरियाणा एक नंबर पर है। सबसे अधिक नौकरियों में आन्ध्र प्रदेश है। इधर अपने बिहार ने 2006-2010 की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 10.9 प्रतिशत की दर से विकास किया जबकि गुजरात की दर 9.3 प्रतिशत रही। इस दौरान सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि हरियाणा, महाराष्ट्र और उड़ीसा भी विकास दर में गुजरात से आगे निकल गया।

दोस्तो! कभी एक अफसर ने कहा था की इंदिरा ही भारत हैं और भारत ही इंदिरा, तो उसकी भी खूब आलोचना हुई थी। लेकिन इंदिरा के चाहने वाले विरोधियों की मुखालिफ़त हिंसक ढंग से नहीं करते थे। आज ऐसा माहौल निर्मित किया जा रहा है कि आप मुझे मानिए, वरना आप देशद्रोही! मित्र ! यह नहीं चल सकता। आप बसद शौक़ किसी का समर्थन कर सकते हैं। ज़रूर कीजिये। लेकिन दुसरे को भी कहने का स्पेस दीजिये। आप मुल्क की बात छोड़िये गुजरात में भी 49 फ़ीसदी वोट इस विस चुनाव में भाजपा को कम मिला था। तो क्या आप उस आवाज़ को कुचल देंगे।
गुजरात नरसंहार की निंदा समूचे विश्व में हुई थी। सिक्ख विरोधी दंगे भी सिहरन पैदा कर देते हैं। मैं कांग्रेसी नहीं हूँ। लेकिन इत्ता जानता हूँ कि उसके लिए कांग्रेस नेताओं ने कई बार माफ़ी-तलाफ़ी की। अब मुज़फ्फर नगर। यहाँ भी उसी हिंसक मानसिकता ने खेल खेला, जो गुजरात और दिल्ली वाया भिवंडी @ मुंबई अराजक रहा है। दोस्तों ! यह ज़ेहनियत तालिबानी हो या संघी। धर्म की सियासत करने वाले यह तथाकथित हमारे सूरमा आम जन का भला यही करेंगे कि खून की बारिश के बाद रोटियाँ बांटने चले आयेंगे। भूल जाएंगे कि बादल का निर्माण उन्होंने ही किया था। आप लोकतंत्र का सम्मान करें !

आओ कि देश की प्राचीन वसुधैव कुटुम्बकम परंपरा आवाज़ देती है। आओ कि कबीर, तुलसी, बुल्ले शाह के नग्मे गूँज रहे हैं। वही तुलसी जिन्होंने कहा था, मांग के खईबो मसीद (मस्जिद ) में सोइबो! वही बुल्ले शाह जो बिस्मिल्लाह कह कर होली खेलने का एलान करते हैं। आओ हम उस नरेन्द्र के विवेक का स्मरण-व्यवहार करें, जो बाद में स्वामी विवेकनद बना। उसने कहा था, वेदान्ती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर के संयोग से जो धर्म खड़ा होगा,वही भारत की आशा है।



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शनिवार, 21 सितंबर 2013

कहानी: इयररिंग...












डॉ. अमिता नीरव की क़लम से 




रविवार का दिन था, स्कूल की छुट्टी। सरकारी स्कूलों में यूँ भी होमवर्क-फोमवर्क जैसा कुछ हुआ नहीं करता था। इसलिए दिन भर उसके फुदकने-खेलने के लिए था। वो यूँ ही घर में ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर के चक्कर लगा रही थी। पता नहीं क्यों, उसके बहुत दोस्त नहीं थे। पिता सब्जी लेकर अभी-अभी लौटे थे और वो उस जादू के थैले में से अपने काम की चीजें टटोल रही थी। अरे वाह...! आज तो बहुत कुछ था उस थैले में... सर्दियों के दिन थे – गाजर, मटर और हाँ... बेर भी...। उसने अपनी फ्रॉक को झोलीनुमा बनाया और उसमें अपनी छोटी-छोटी मुट्ठी में भरकर मटर और बेर डालने लगी... जब लगा कि अभी गाजर रखने की जगह बचानी है तो दो-तीन बड़ी-बड़ी गाजर उठाकर अपनी झोली में रख ली और गली के मुहाने पर जहाँ तीन-चार रास्ते गुजरते हैं और इस वजह से वहाँ एक मैदान सा बना है, वहाँ पहुँच गई।
ये वही जगह है, जहाँ आसपास के गलियों में रहने वाले सारे बच्चे शाम को खेलने आते हैं। वहीं एक पत्थर पर वो बैठ गई। मैदान सुनसान था वक्त हुआ होगा कोई 10-11 बजे का (सुबह)। उसने इत्मीनान से अपने दोनों पैरों को फैलाकर अपने फ्रॉक की झोली को सहेजकर व्यवस्थित कर लिया। गाजर खाना शुरू किया, फिर मटर... तभी उसके सामने एक 25-27 साल का युवक आकर खड़ा हो गया। उसने सामने वाली गली की तरफ इशारा कर कहा – उधर गली में 10 पैसे पड़े हैं, चल लेकर आते हैं...। उस 7-8 साल की बच्ची ने उसकी तरफ आश्चर्य से देखा...उसके मन में सवाल आया कि गली में 10 पैसे कैसे पड़े होंगे...? औऱ पड़े हैं तो उसने कैसे देखें? और उसने देखें तो फिर उसने खुद क्यों नहीं उठाएँ, ये उसे क्यों बता रहा है? लेकिन उसने उससे कोई सवाल नहीं किया। उसने देखा कि उस लड़के ने नीले रंग की पेंट पर बहुत सारे खूबसूरत और चटख रंगों का लाइनिंग वाला कोट पहना हुआ था। बच्ची को उसका कोट बहुत पसंद आया...।
उस लड़के ने फिर से अपनी बात दोहराई। बच्ची ने कहा – नहीं, मुझे नहीं चाहिए और उसने अपनी झोली में से बेर उठाकर उसकी टोपी काटी। वो लड़का थोड़ी देर असमंजस में खड़ा रहा। फिर उसने कहा – अच्छा, ये तेरे इयररिंग मुझे बहुत अच्छे लगे... मैं ले लूँ!
बच्ची ने बेर की गुठली चूसते हुए हाँ में सिर हिला दिया। उसने बच्ची के कानों की बालियाँ उतारी और लेकर चला गया। वो वहाँ वैसे ही अकेले बैठी रही। गाजर और मटर पहले ही खत्म हो चुकी थी, सारे बेर खत्म किए और खड़े होकर अपनी फ्रॉक झाड़ी...। थोड़ी देर यूँ ही बैठी रही और फिर घर लौट आई। माँ ने खाने के लिए कहा तो वो अपनी छोटी थाली लेकर बैठ गई। माँ थाली में रोटी रख रही थी तो उसने जोर-जोर से सिर हिलाकर इंकार किया, पता नहीं कैसे माँ की नजर उसके कानों पर गई। तेरी बालियाँ कहाँ गई? – माँ ने जोर देकर पूछा।
उसने बहुत निस्संगता से दाल-चावल का कोर बनाते हुए बताया – वो एक अंकल ले गए।
अब माँ घबराई... – कौन अंकल?
वो अंकल जो वहाँ मैदान में मिले थे...। उसे समझ नहीं आ रहा था कि माँ क्यों घबरा रही थी!  अबकी माँ खड़ी हो गई और उसका हाथ पकड़कर घर के आँगन में ले आई। पिता, ताऊ-ताई सबके सामने उन्होंने सारी बात बताई। और फिर सारे लोग उसे उस जगह ले गए। उससे पूछा – तूने देखा वो अंकल किस तरफ गए हैं?
उसने भी हाथ के इशारे से बाँई और जाती गली बता दी... लेकिन वो सोचने लगी कि आखिर बालियाँ तो उसकी गई है ये सारे लोग इतना क्यों घबरा रहे हैं? उसे अक्सर बड़ों की दुनिया बड़ी रहस्यमयी लगती थी, लेकिन रहस्यों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उस दुनिया में उसने झाँकने की कभी कोशिश भी नहीं की। ताई ने पूछा – कित्ती देर पहले की बात है?
उसने बहुत लापरवाही से कंधे उचका कर कहा – बहुत देर हो गई।
इतना सुनते ही सारे लोग निराश हो गए... अब तक तो पता नहीं कहाँ का कहाँ पहुँच गया होगा। हुआ क्या था? अब ये सवाल उठा। उस बच्ची ने सारी घटना सिलसिलेवार सुना दी। अरे... ! 10 पैसे के लालच में इसने अपने इयररिंग गवाँ दिए...। – माँ ने कहा तो उसने तुरंत प्रतिवाद किया – नहीं पैसे के लालच में नहीं...। लेकिन उसकी बात अनसुनी कर दी गई...।
फिर कई तरह की बातें हुई – अच्छा ही हुआ जो इसने इंकार नहीं किया, क्या पता गला ही दबा देता या फिर उठाकर ही ले जाता। धीरे-धीरे जो हुआ उसे होनी मानकर और उसे कोई नुकसान नहीं पहुँचाया ये सोचकर घरवालों ने उस घटना को भुला दिया। बाद में कई बार अलग-अलग लोगों के सामने या फिर अतीत को याद करते हुए इस घटना को दोहराया गया और हर बार वो ये सुनकर प्रतिवाद करती कि – ‘10 पैसे के लालच में इसने अपने इयररिंग गवाँ दिए।’ बाद के दिनों ने जब कभी इस घटना को दोहराया जाता और ‘लालच’ वाली बात बोली जाती तो उसे लगता कि क्यों नहीं उसने उस गली में जाकर देखा और वो 10 पैसे उठाकर ले आई... कम-से-कम ये ‘लालच’ ही कर लेती तो उसे इतना बुरा तो नहीं लगता। फिर घरवालों ने उसे सोना पहनाना बंद कर दिया, बड़े होने पर उसने खुद ही सोने से दूरी बना ली। बड़े हो जाने के बाद इस घटना की दो चीजें उसे शिद्दत से याद रही – एक उस लड़के का सुंदर कोट और दूसरा उस दिन उसने 10 पैसे का लालच नहीं किया था।

इस घटना के बाद सोना (gold) उसके जीवन की ग्रंथि बन गया। शौक से खरीदती, लेकिन ना उसे पहनने की इच्छा होती और ना ही हिम्मत...। हाँ लेकिन एक चीज जो उसने जानी ये कि वो आज भी वो किसी चीज के लिए इंकार नहीं कर पाती है। पता नहीं ये अच्छा है या बुरा...!


(रचनाकार परिचय:
जन्म:  उज्जैन (मध्यप्रदेश), मार्च १९७१ में
शिक्षा: एम. ए., एम. फिल्.(राजनीति-विज्ञान), 'सार्त्र और कामू के अस्तित्ववादी विचारों का तुलनात्मक अध्ययन' पर पीएच. डी.
सृजन:  पाखी, गुंजन, वंशिका, साहित्य nest और किस्सा में कहानियां प्रकाशित, नईदुनिया, दैनिक भास्कर और प्रथम प्रवक्ता में समसामयिक विषयों पर लेख, परिंदे और सहारा समय में यात्रा संस्मरण और समीक्षाएँ, वेब-पत्रिकाओं में जैसे सृजनगाथा, हिंदीकुंज, अभिव्यक्ति, नव्या में कहानियों का प्रकाशन और हिंदी समय, सृजनगाथा और जनसत्ता के अतिरिक्त कई अखबारों में ब्लॉग्स का प्रकाशन। लेख और कहानियों का प्रकाशन,  ब्लॉग का विभिन्न अखबारों में प्रकाशन।
ब्लॉग: अस्तित्व  
संप्रति: इंदौर से प्रकाशित दैनिक अखबार नईदुनिया के फीचर विभाग में कार्यरत
संपर्क: amita.neerav@gmail.com)
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शनिवार, 14 सितंबर 2013

कोलकता में हिंदी का ठाठ



 







प्रतिमा सिंह ’आरजू’ की क़लम से .
हिंदी और उसके विकास में  अहिन्दी भाषी प्रदेश बंगाल का वाहिद महानगर कोलकता  का भी बड़ा योगदान रहा है। शताब्दियों से हिंदी भाषा और साहित्य को समृद्ध करने में अहिन्दी भाषी प्रदेश की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस क्षेत्र में हम बंगाल के अवदान को नकार नही सकते। बंगाल में हिंदी के विकास चाहे आजादी से पहले हो या बाद में।  उसके प्रचार-प्रसार में कोई कमी नही आई  है और अभी भी यह इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योग दे रहा है। बंगाल ने हमेशा  हिंदी जगत को बड़े बड़े आलोचक, गजलकार, कथाकार, कहानीकार, कवि आदि से सुशोभित किया है। इसराइल, प्रभा खेतान ,  डॉ शम्भुनाथ, अमरनाथ, जगदीश्वर चतुर्वेदी, अलका सरावगी और मधु कांकरिया, विमलेश त्रिपाठी , सुलेखा सिंह और जीवन सिंह जैसे   जैसे आलोचक, लेखक, कथाकार और कवि सरे फेहरिस्त हैं, जिन्होंने  हिंदी साहित्य को समृद्ध  किया  है।  इस सिलसिले में बंगाल में कार्यरत  हिंदी सेवी संस्थाओ को हम नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते। जिनमें  बंगीय हिंदी परिषद, भारतीय भाष परिषद्, अपनी भाषा, समकालीन सृजन, सूत्रधार आदि संस्थाए प्रमुख हैं।

बंगीय हिंदी भाषा परिषद्
बंगाल में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कार्यरत संस्थाओ में सबसे पुरानी संस्था  बंगीय  हिंदी परिषद है। जिसकी स्थापना सन १९४५ में आचार्य ललिता प्रसाद सुकुल ने की थी।  इसकी स्थापना के उद्देश्य  से पहली मीटिंग जयपुरिया कॉलेज में हुई और बाद में इसे कॉलेज स्ट्रीट में स्थित कॉफ़ी हाउस में स्थापित कर  दिया गया। इस साहित्यिक संस्था  की सबसे बड़ी देन हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने में है।  सन १९४९ में जब संविधान सभा की बैठक हुई और हिंदी भाषा को राष्ट्र भाषा बनाने की बहस चल रही थी तो उसी समय संस्था  की मंत्री कमला देवी गर्ग ने ३५० पेज की एक पुस्तक ’हिंदी ही क्यूँ ‘ छापकर  के संसद के सभी सदस्यों को दिया।  जिसेके आधार पर हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने के मत को स्वीकार किया गया और हिंदी राष्ट्र भाषा बन गई।
इस संस्था का योगदान आज कल प्रचलित जन्मशती को मानाने की शुरुआत करने में भी है। बंगीय हिंदी परिषद का मूलभूत उद्देशय  हिंदी का विकास ही है।  नए आलोचकों, कवियो, लेखको का समाज से परिचय करना है। अपने इसी ध्येय से उत्प्रेरित होकर संस्था ने  सन १९७३ में ’जनभारती पत्रिका ‘’का प्रकाशन शुरू  किया।  परन्तु जिस प्रकार हर क्षेत्र पर अर्थ की मार  पड़ी उसी तरह इस संस्था पर भी अर्थ और पाठक की कमी का व्यापक असर पड़ा और यह पत्रिका बंद हो गई। हिंदी के पाठको के लिए यह संस्था पुस्तको का प्रकाशन भी करती  रही  है और अब तक ३० से ३५ पुस्तको को प्रकाशित कर चुकी  है। अभी यह संस्था  अर्थ की मार  को झेलते हुए भी हिंदी को उन्नत बनाने में लगी  है।  मंझे और नए कवियों  के लिए हर महीने  पहले शनिवार को ’कविकल्प ‘ में कविता पाठ का आयोजन करती है। यह दुर्भाग्य की बात है जिस संस्था  से बड़े-बड़े साहित्यकार नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह जैसे लोग जुड़े हो उसकी  दशा बदतर है।


भारतीय भाषा परिषद
इस संस्था की स्थापना सन १९७५मे अंग्रेजी भाषा के बढ़ाते वर्चस्व को रोकने और भारतीय भाषाओ के बीच आदान-प्रदान, संपर्क, सहयोग और अनुवाद को बढ़ावा देने के लिए सीताराम सेकसरिया और उनके अभिन्न मित्र भागीरथ कनोडिया ने की थी। संस्था का मुख्या उद्देश्य  हिंदी को देश की सशक्त भाषा बनाना है। अपने इस मक़सद  को पूरा करने के लिए यह संस्था निम्नलिखित कार्य करती है:
(क)  संस्था समय-समय पर साहित्यिक प्रदर्शनिया तथा साहित्य और कला के कार्यक्रमों के लिए सम्मलेन, गोष्ठियों तथा भाषण मालाओ का आयोजन करती है।
(ख) भारत की अन्य भाषा में लिखित लेख, काव्य, कहानी का हिंदी भाषा में अनुवाद कर उसे प्रकाशित करती है।
(ग) साहित्यिकरो और विद्वानों को आर्थिक और अनन्य सहायता देकर उनकी कृतियो का प्रकाशन करती है।
(घ) लेखक-लेखिकाओ को उनके कार्य के लिए प्रोत्साहित कर उन्हें सम्मानित भी करती है।  अभी हल ही में डॉ प्रतिभा अग्रवाल उनकी कृतियो के लिए सम्मानित किया गया।
( च) छात्र छात्राओं  के लिए समय-समय पर कविता,निबंध,वाद विवाद आदि प्रतियोगिताओ का आयोजन करता है और योग प्रतिभागी को सम्मानित और पुरुस्कृत भी करता है


वागर्थ पत्रिका
भारतीय भाषा परिषद्  हिंदी को घर-घर में पहुंचाने  के लिए इस पत्रिका का प्रकाशन करती है। आज साहित्य-संस्कृति की  हिंदी की अहम पत्रिका है।  एकांत श्रीवास्तव और कुसुम खेमानी के संपादन में साहित्य की  विविध विधाओ का प्रकाशन करती है। भाषा परिषद् में आयोजित प्रतियोगिता में पुरुस्कृत सर्वश्रेष्ठ रचना को भी प्रकाशित किया जाता है। इस  पत्रिका की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि  इसमें पाठको को भी स्थान मिला है। लोकमत नामक  स्तंभ में पाठक अपने विचार प्रकट करते है। .इतना ही नही “झरोखा” नाम के कोलम में  पुस्तकों के मूल्य और उसके प्राप्त करने के स्थान का भी उल्लेख रहता है जो हिंदी के पाठको के लिए बहुत ही उपयोगी है। वागर्थ पत्रिका हिंदी और हिंदी की समस्त विधाओ को जीवित रखने में मील का पत्थर सिद्ध हो रही है। .इस पत्रिका में वयोवृद्ध कवि , लेखको से लेकर नए कवि और लेखको को स्थान  दिया जाता है और उनके फोन नंबर और पता देना भी इस पत्रिका का अलग रूप है।

अपनी भाषा
हिंदी के विकास को गति देने में ‘अपनी भाषा’ का भी  महत्वपूर्ण योगदान है। यह एक साहित्यिक सांस्कृतिक संगठन है। संस्था का मूल उद्देश्य  समस्त भारतीय भाषाओ के बीच सेतु स्थापित कर उनके अन्दर समानता के सूत्र खोजना है। इसी कड़ी में प्रत्येक वर्ष यह संस्था एक  साहित्यकार को ‘जस्टिस शारदाचरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान' से  अलंकृत करती है। यह संस्था प्रत्येक नागरिको को अपनी भाषा के साथ भारत की एक अन्य भाषा सीखने के लिए प्रेरित करती है।  विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करती है तथा ज्वलंत विषयों पर बुलेटिन और पुस्तक आदि का प्रकाशन करती है। संस्था की ओर से अनियतकालीन पत्रिका ‘भाषा विमर्श ’का भी प्रकाशन होता है।

हिंदी मेला
बंगाल में हिंदी के विकास में यदि  हिंदी मेला का जिक्र न किया जाये तो पूरी की पूरी चर्चा ही अधूरी रह जाएगी। यह 'समकालीन सृजन' की ओर  से प्रत्येक  वर्ष आयोजित किया जाता है।  यह कार्यक्रम आठ दिनों का होता है,  जिसमे साहित्य के सभी विधाओ को समाहित किया जाता है और साहित्य में रूचि लेने वाले समस्त हिंदी  प्रेमिओ का खुले मंच पर स्वागत करता है। ये आठ  दिन कोलकता में निवास  करने वाले हिंदी  प्रेमियों के लिए किसी उत्सव से कम नही। जहा सभी बड़े-बच्चो को अपनी प्रतिभा दिखने का अवसर प्राप्त होता है और उन्हें सम्मानित भी किया जाता है।  इस कार्यक्रम  में भाग लेने मात्र से छात्र-छात्राए स्वयं को गोरवान्वित महसूस करते है।


सदीनामा, साहित्यिकी, भाषा मंच, सूत्रधार आदि कई  संस्थाए हैं,  जो हिदी के विकास में निरंतर सक्रीय हैं।  समय-समय पर हिंदी के विकास के लिए कार्यक्रमों  का आयोजन करती रहती हैं।  छात्र-छात्राओं  को हिंदी और अन्य भाषा में प्राप्त उपलब्धि  के लिए पुरस्कृत भी करती हैं।
इन संस्थाओ के इतर कुछ पुस्तकालय भी है, जो हिंदी के विकास  और बंगाल में हिंदी पाठको को बनाये रखने में अहम् भूमिका निभा  रहे है। इनमे कुमारसभा  पुस्तकालय, राजाराम पुस्तकालय, राममंदिर पुस्तकालय  और हनुमान पुस्तकालय है जोहिंदी पुस्तको को उप्लाब्ध कराने के साथ  साहित्य संगोष्ठी, चर्चा, कवितापाठ, कबीर, तुलसी जयंती का आयोजन करती है। जिससे  हिंदी जगत के लोगो का ज्ञानवर्धन होता है।
इतना ही नही हिंदी के विकास में समाचार पत्रों का भी बड़ा योगदन है।  जनसता, दैनिक जागरण, छपते छपते, सन्मार्ग, राजस्थान, विश्वामित्र, प्रभात खबर आदि यहां के प्रमुख पत्र हैं। यह अख़बार  समय-समय पर हिंदी के वरिष्ठ  लेखको के लेख, साक्षात्कार, नए लेखको की रचनाओ को छापकर  हिंदी जगत को उनसे परिचित कराते है.पुस्तक समीक्षा, कहानी, गजल, कविता को छापहिंदी साहित्य को उन्नत करने के प्रयास में महनीय भूमिका अदा कर रहे है।



(लेखक-परिचय:
जन्म : 20 सितंबर 1985, अकबरपुर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा : प्रारंभिक और उच्च कोलकता में रहकर
सृजन: वर्चुअल जगत में सक्रिय, स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में कुछ प्रकाशित
संप्रति: कोलकता के एक कालेज में लेक्चरर
संपर्क:singhpratima121@gmail.com}
           
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बुधवार, 11 सितंबर 2013

आदिवासी के नाम पर बने विवि से आदिवासी ही नदारद











श्रीधरम की क़लम से

इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय का सच

आदिवासी समाज को ऊच्च शिक्षा से जोड़ने और वैश्वीकरण की  दौड़ में उन्हें उन्नति के रास्ते पर लाने के उद्देश्य से अमरकंटक (म.प्र) में  2008 में  इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय खोला गया था। लेकिन आदिवासियों के लिए बने देश के इस पहले विश्वविद्यालय का कुलपति गैर-आदिवासी को बनाया गया।  जिसका बडा नुकसान यह हुआ कि पाठ्यक्रमों के निर्माण से लेकर बहाली तक में आदिवासी और आदिवासी-संस्कृति को हाशिये पर रख गया। विश्वविद्यालय की  वेबसाइट पर इसके लक्ष्य और उद्देश्य में कहा गया है,  “आदिवासी लोग सांस्कृतिक विरासत, कला और शिल्प के कौशल से समृद्ध होते हैं। ” लेकिन विश्वविद्यालय के लिए जो भवन बनाए जा रहे हैं, उसमे आदिवासी वास्तु-कला और शिल्प का नामोनिशान नहीं है। आदिवासी भाषाओं के सर्वेक्षण-संवर्धन के लिए विश्वविद्यालय द्वारा अब तक क्या किया गया,  इसकी कोई जानकारी नहीं है। आदिवासी समाज की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक समीक्षा कर योजना आयोग को फ़ीडबैक देना भी इस विश्वविद्यालय का दायित्व था,  जो नहीं किया गया।

गैर आदिवासी वर्चस्व के कारण यह विश्वविद्यालय अपने लक्ष्य से भटक कर हर मोर्चे पर विफल रहा है। इसके अध्यापकों के चयन में कुलपति के स्वजातीय ठाकुर-वर्चस्व को देखा जा सकता है। इससे पूर्व के कुलपति प्रो. सी.डी सिंह, जो वर्तमान में फ़िर से कुलपति बनने के लिए जी-तोड कोशिश कर रहे हैं। उन पर आरोप है कि उसने शैक्षिक और गैर शैक्षिक कर्मचारियों की भर्ती में अपने स्वजातीय और सगे-रिश्तेदारों की नियुक्ति कर इस विश्वविद्यालय को जनजातीय विश्वविद्यालय से ‘ठाकुर विश्वविद्यालय’ बनाकर रख दिया है।  सीडी सिंह पर छह करोड रुपये के भ्रष्टाचार की जाँच केंद्रिय सतर्कता आयुक्त कर रहा है।  फ़िर भी चयन समिति ने उसे अंतिम सूची में रक्खा है।  इस व्यक्ति द्वारा किए गए नियुक्ति और अन्य कार्यों में किए गये भ्रष्टाचार के विरुद्ध उच्च-न्यायालय में ममला लंबित है।
शहडोल की आदिवासी सांसद राजेश नंदिनी सिंह ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मानव संसाधन विकास  मंत्री को लिखे पत्र में पूर्व कुलपति पर गंभीर आरोप लगाते हुए ज़ाँच की माँग की है। राजेश नंदिनी के अनुसार:

 प्रो.सीडीं सिंह ने सगे भाई के दामाद, साला आदि को बिना ‘नेट’ के सहायक प्रोफ़ेसर बनाया। गैर शैक्षणिक पदों के १७ पदों में से नौ पदों पर अपने स्वजातीय राजपूतों की बहाली की। अपनी भतीजी कुमारी श्रेया सिंह को हेराफ़ेरी कर टाप करवाया। तमाम नियमों को ताक पर रखकर कम्प्यूटर की खरीददारी में करोडों रुपयों का वारा-न्यारा किया। सीडीं सिंह पर महिला शिक्षकों पर भी अभद्रता का आरोप है।

सांसद  के पत्र के अनुसार प्रो.सीडी. सिंह का यह भी कहना है कि उसके आदमी हर जगह हैं।  जिसके कारण वह अपने खिलाफ़   हर शिकायत को गायब करवा  देता है।

 प्रो. सीडी. सिंह के खिलाफ अवधेश प्रताप सिंह विश्व विद्यालय, रीवा में भ्रष्टाचार के आरोप की जांच चल रही है।  उनकी प्रोफेसर पद पर पदोन्नाति विश्वटविद्यालय में लागू नियमों के खिलाफ की गई।  जिस पर म.प्र. राज्यीपाल एवं कुलाधिपति द्वारा अवधेश प्रताप सिंह विश्व विद्यालय, रीवा के कुलपति को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया तथा उनके एवं अन्य की पदोन्नति को अनुमति देने वाली याचिका म.प्र. उच्चअ न्याकयालय में लंबित है। याचिकाकर्ता द्वारा यह विषय भी उठाया गया है कि केंद्रीय विश्व.विद्यालय के कुलपति जैसे पदों पर नियुक्ति करते वक्तक प्रो. सीडी. सिंह के विगत पांच वर्षों के गोपनीय अभिलेखों को विचार में क्यों नहीं लाया गया? यह हैरत की बात है कि भ्रष्टागचार के इतने संगीन आरोपों के बावजूद चयन समिति ने फिर से सी.डी. सिंह को अंतिम सूची में रखा है।

इस बीच गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, म.प्र. के दाद दिल सिंह मरकाम ने 28 अगस्त को मानव संसाधन विकास मंत्री, डॉ. पल्लम राजू को पत्र लिखकर प्रो.  सिंह द्वारा किए गए भ्रष्टाचार की जांच और किसी आदिवासी कुलपति के चयन की मांग की गई है। 'ऑल इंडिया ट्राइवन फोरम' के अध्यीक्ष श्री हरिराम मीणा ने भी दिनांक 01 सितंबर, 2013 को माननीय राष्ट्रपति को एक पत्र लिखकर पूर्व वीसी पर लगे आरोपों की जांच कराने के साथ-साथ किसी आदिवासी स्कॉलर को इंदिरा गांधी ट्राइबल नेशनल विश्वविद्यालय का कुलपति बनाने की मांग की है। हरिराम मीणा ने राष्ट्रलपति से यह भी अनुरोध किया है कि भविष्य में इस विश्वविद्यालय में तुलनात्मतक आदिवासी भाषा विभाग' आदिवासी लोकगीत विभाग, आदिवासी संगीत एवं नृत्य् विभाग, आदि खोलने का सुझाव दिया ताकि इस विश्वविद्यालय को बनाने का लक्ष्यं प्राप्त किया जा सके। वर्तमान में देश भर के सैकडों विश्वविद्यालय मे एक भी आदिवासी कुलपति नहीं हैं। या फ़िर उन्हें इस लायक शायद समझा ही नहीं गया? ब्राह्मण,क्षत्रिय,वै­श्य आदि के लिये देश के तमाम विश्वविद्यालय हैं। कम से कम सामाजिक न्याय की दृष्टि से भी आदिवासी समुदाय के किसी व्यक्ति को ‘इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय’ का अगला कुलपति बनाया जाना चाहिये, ताकि यह विश्वविद्यालय अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके।


(लेखक-परिचय:
 जन्म: 18 नवंबर, 1974, चनौरा गंज, मधुबनी, बिहार।
शिक्षा:  एम.ए. (हिंदी), एम.फिल., पी-एच.डी. (जेएनयू)
सृजन: मैथिली एवं हिंदी दोनों भाषाओं में समान रूप से कहानी, आलोचना, लेख आदि का लेखन। प्रतिष्ठित   पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं चर्चित।
 स्त्री : संघर्ष और सृजन (2008),  स्त्री स्वाधीनता का प्रश्न और नागार्जुन के उपन्यास (2011)  प्रकाशित। चंद्रेश्वषर कर्ण रचनावली का पांच खंडों में संपादन।
विदेशी छात्रों के लिए कई हिंदी पाठ्यपुस्ततकों का निर्माण एवं संपादन।
नवजात(क) कथा (कहानी-संग्रह) शीघ्र प्रकाश्य।
संप्रति : दिल्ली विश्वंविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन।
             मैथिली पत्रिका अंतिका के साथ-साथ हिंदी की चर्चित पत्रिका कथादेश, बया आदि से संबद्ध।
संपर्क : sdharam08@gmail.com)



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