बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 31 जुलाई 2013

वासवी पर लगा एक पुस्तक से सामग्री टीपने का आरोप

1957 की  पुस्तक  से 2008 में ली गयी  सामग्री
 
















झारखंड महिला आयोग  की  सदस्य हैं वासवी

वासवी बोस/ वासवी/ वासवी भगत और अब वासवी किडो। झारखंड के बौद्धिक व सामाजिक जगत का बेहद चर्चित नाम। कई संगठनों से जुडी रहीं वासवी सम्प्रति  झारखंड महिला आयोग  की  सदस्य हैं। यह चर्चित एकटीविस्ट किसी न किसी बहाने हमेशा सुर्ख़ियों में रहती हैं। ताज़ा मामला एक किताब से जुड़ा है।  उनपर एक  पुस्तक  से सामग्री टीपने का  आरोप लगा है। झारखंड लोक गीत-मुंडा लोक गीत शीर्षक  से इंस्टीट्यूट फ़ॉर  सोशल डेमोक्रेसी, दिल्ली  से दो खंडों में उनकी  पुस्तक सन 2008 में प्रकाशित हुई। साझी विरासत पुस्तिका सीरीज़ के तेहत इसका प्रकाशन हुआ था। इस पुस्तक  पर बतौर संचयन वासवी भगत का  नाम अंकित है। खबर है कि  इन संग्रहों  की  सारी सामग्री हूबहू अनुवाद समेत जगदीश त्रिगुणायत द्वारा संकलित पुस्तक  ‘बांसरी बज रही’ से ली गई। बस अनुक्रम की थोड़ा-बहुत उलट-फेर  है। हर खंड में कुल 33 -3 3 गीत हैं, सभी 'बांसुरी बज रही' से लिये गए हैं।   (त्रिगुणायत  की  यह पुस्तक  1957 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने  प्रकाशित की थी। महाकवि निराला, सुमित्रा नंदन पंत और बाबू शिवपूजन सहाय के वक्तव्यों से सजी इस पुस्तक  की  भूमिका  में त्रिगुणायत जी ने गीतों के संकलन, इसके  अनुवाद समेत प्रूफ-संशोधन तक के लिए  सहयोग के प्रति नाम के साथ  सभी का आभार व्यक्त किया है। वही लगभग ढाई सौ गीतों के इस वृहद् संग्रह के अंत में उन्होंने सहायक ग्रंथ सूची भी  है। जबकि  वासवी का  दोनों संग्रह 72-72 पृष्ट का  है। दोनों में  संपादकीय वरिष्ठ पत्रकार फ़ैसल अनुराग ने लिखा है। जिसमें उन्होंने  लिखा है - ‘वासवी ने इन गीतों का संग्रह एवं संचयन किया है।’ लेकिन कहीं भी मूल संग्रकर्ता और अनुवादक के  नाम का  उल्लेख नहीं है। न ही उनका आभार जतलाया गया है।  क्या ऐसा करना कहाँ तक जाइज़ है।

मैंने अब तक  पुस्तक नहीं देखीःवासवी
झारखंड लोक गीत-मुंडा लोक गीत  की संपादिका वासवी का इस संबंध  में कहना है कि उन्होंने अब तक  2008 में प्रकाशित अपना यह संकलन नहीं देखा है। गीतों का  संकलन मैंने त्रिगुणायत  जी के अलावा और भी संकलनकर्ताओं की  पुस्तकों से किया होगा। इसमें जरूरी नहीं कि हम तमाम लोगों का  आभार व्यक्त करें।

आरोप साबित होने पर होगी वापस : फ़ैसल  अनुराग

झारखंड लोक गीत-मुंडा लोक गीत में प्रका शित संपादकिय नोट के  लेखक फ़ैसल अनुराग कहते हैं कि संकलन कहीं से भी किया जा सकता है। अगर साबित हो जाता है कि जगदीश त्रिगुणायत  की  पुस्तक  से हूबहू सामग्री ली गई है, तो पुस्तक  वापस ले ली जाएगी। वासवी का यह कहना गलत है कि उन्हें पुस्तक नहीं मिली। उन को मैंने स्वयं ही संग्रह  की प्रतियां दी थीं।

पुस्तक वापस ले ली जाएगीः खुर्शीद अनवर

इंस्टीट्यूट फॉर  सोशल डेमोक्रेसी, दिल्ली  के  निदेशक खुर्शीद अनवर ने कहा है कि  उन्होंने  वासवी और फ़ैसल अनुराग से स्पष्टीकरण  मांगा है। जगदीश त्रिगुणायत  का सं•लन भी बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से मंगवा रहा हूं। यदि आरोप सही हुए, तो उनका  संगठन माफ़ीनामे के  साथ पुस्तक़  वापस ले लेगा। उनका यह भी कहना है कि उन्हें सभी ज़बान नहीं आती है। ऐसे में कुछ अपने लोगों पर भरोसा तो किया ही जा सकता है।  

देखिये,  कौन-सा गीत त्रिगुणायत की पुस्तक के किस पेज से लिया गया है।


मुंडा लोकगीत -भाग-1 वासवी भगत ------- बांसरी बज रही - जगदीश त्रिगुणायत
------------------------------------------------------------------------------
गीत नं. 1/पेज नं 6-7 ------------- गीत नं. 299/पेज नं. 460-461
गीत नं. 2/पेज नं 8-9 ------------- गीत नं. 298/पेज नं. 458-459
गीत नं. 3/पेज नं 10-11 ----------- गीत नं. 277/पेज नं. 436-437
गीत नं. 4/पेज नं 12-13 ----------- गीत नं. 324/पेज नं. 488-489
गीत नं. 5/पेज नं 14-15 ----------- गीत नं. 308/पेज नं. 468-469
गीत नं. 6/पेज नं 16-17 ----------- गीत नं. 326/पेज नं. 488-489
गीत नं. 7/पेज नं 18-19 ----------- गीत नं. 327/पेज नं. 490-491
गीत नं. 8/पेज नं 20-21 ----------- गीत नं. 329/पेज नं. 492-493
गीत नं. 9/पेज नं 22-23 ----------- गीत नं. 330/पेज नं. 492-493
गीत नं. 10/पेज नं 24-25 ----------- गीत नं. 352/पेज नं. 510-511
गीत नं. 11/पेज नं 26-27 ----------- गीत नं. 351/पेज नं. 510-511
गीत नं. 12/पेज नं 28-29 ----------- गीत नं. 339/पेज नं. 500-501
गीत नं. 13/पेज नं 30-31 ----------- गीत नं. 334/पेज नं. 498-499
गीत नं. 14/पेज नं 32-33 ----------- गीत नं. 1/पेज नं. 68-69
गीत नं. 15/पेज नं 34-35 ----------- गीत नं. 3/पेज नं. 70-71
गीत नं. 16/पेज नं 36-37 ----------- गीत नं. 7/पेज नं. 74-75
गीत नं. 17/पेज नं 38-39 ----------- गीत नं. 9/पेज नं. 76-77
गीत नं. 18/पेज नं 40-41 ----------- गीत नं. 14/पेज नं. 82-83
गीत नं. 19/पेज नं 42-43 ----------- गीत नं. 15/पेज नं. 82-83
गीत नं. 20/पेज नं 44-45 ----------- गीत नं. 19/पेज नं. 86-87
गीत नं. 21/पेज नं 46-47 ----------- गीत नं. 24/पेज नं. 92-93
गीत नं. 22/पेज नं 48-49 ----------- गीत नं. 26/पेज नं. 94-95
गीत नं. 23/पेज नं 50-51 ----------- गीत नं. 29/पेज नं. 98-99
गीत नं. 24/पेज नं 52-53 ----------- गीत नं. 31/पेज नं. 100-101
गीत नं. 25/पेज नं 54-55 ----------- गीत नं. 33/पेज नं. 104-105
गीत नं. 26/पेज नं 56-57 ----------- गीत नं. 36/पेज नं. 108-109
गीत नं. 27/पेज नं 58-59 ----------- गीत नं. 38/पेज नं. 108-109
गीत नं. 28/पेज नं 60-61 ----------- गीत नं. 40/पेज नं. 110-111
गीत नं. 29/पेज नं 62-63 ----------- गीत नं. 49/पेज नं. 122-123
गीत नं. 30/पेज नं 64-65 ----------- गीत नं. 50/पेज नं. 122-123
गीत नं. 31/पेज नं 66-67 ----------- गीत नं. 51/पेज नं. 124-125
गीत नं. 32/पेज नं 68-69 ----------- गीत नं. 52/पेज नं. 126-127
गीत नं. 33/पेज नं 70-71 ----------- गीत नं. 55/पेज नं. 130-131
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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

तीन कविताएँ : तीन रंग

                                                          














रोशनी मुरारका की क़लम से 



अब नहीं रहा वो बचपन

पैदा होते ही रोना-बिलखना,
उठना फिर गिरना, गिरकर संभलना,
याद आता है अक्सर,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
परीयों की कहानी, चंदा मामा की कविता पुरानी,
सपनों की दुनिया भी लगती थी प्यारी,
याद आती है रातें वो सारी,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
भागा-दौड़ी, मस्ती-ठिठोली और क्रिकेट की टोली,
पिचकारी भर-भर खेली मित्रों संग होली,
अब रह गई किस्सों में वो केवल,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
पापा की उंगली पकड़कर स्कूल जाना,
पढ़ना, लिखना, मौज-मनाना,
बीत गया वो सारा जमाना,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
रूठना-इतराना, दादा का वो मनाना-फुसलाना,
कंधों पर बैठ मेले दिखाना,
अब अपने में ही कैद हो गया मेरा ये जीवन,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
मामा के संग मजाक में लड़ना-झगड़ना,
सिनेमा में जाकर शोर मचाना,
याद आए ननिहाल वो अपना,
क्योंकि पीछे छुट गया बचपन,
अब नहीं रहा वो बचपन।
चिंता और उम्र के बढ़ते कदमों ने छिन लिया बचपन,
जिम्मेदारियों की आड़ में छिप गया बचपन,
अक्सर तन्हाइयों के क्षणों में याद आ जाता है बचपन,
पता नहीं क्यों जुदा हो जाता है बचपन,
उलझी-सी ज़िंदगी में गुँथ जाता है बचपन।

तन्हाइयाँ ये तन्हाइयाँ
 
तन्हाइयाँ ये तन्हाइयाँ,
घर की चार दिवारी में कैद जीवन की परछाईयाँ,
बिखरी-सी है ज़िंदगी, टुकड़े चंद बिखरे हुए,
समेटते हुए थक गई, हाथों की ये लकीरें,
ढूँढती है मंजिल, देखती है सपने ये आँखें,
नज़र नहीं आती मंज़िल, सिर्फ दूर तक फैली है तनहाइयों की ये रातें,
बिना वजह की ये ज़िंदगी बस यूँ ही बिती जा रही,
वक्त की रेत हाथों से फिसलती जा रही,
ज़िंदगी में अब कोई नहीं लगता अपना, सिवा उस खुदा के,
स्वार्थी इस दुनिया में, रंगमंच के इस देश में,
न गिला है किसी से, न शिकवा किसे से,
ये ज़िंदगी मिली है ईश्वर से, चाहे तन्हाइ ही मिली हो मुझे।

एक दिन फिर तुम आओंगे
 
कल जब किसी ने दस्तक दी तो मुझे लगा तुम आए,
मैं भागी उस ओर जहाँ तुम्हारे होने का भास था
लेकिन अब भी मैं वही गलती कर रही थी
अपने टूटे हुए सपनों को यूँ ही समेट रही थी
जानती हूँ नदी सागर में मिलने पर उससे जुदा नहीं हो सकती
लेकिन हम उसी नदी के दो किनारे है जो कभी मिल नहीं सकते।
सब जानती हूँ बस दिल को समझाना नहीं जानती,
आँखों से रोती हूँ पर दिल की ही सुनती हूँ।
पता नहीं अब भी क्यों लगता है,
तुम जरूर आओंगे और एक दिन फिर नदी अपने अंतिम गंतव्य तक पहुँच जाएगी।

( रचनाकार परिचय:
जन्म: 11 जुलाई 1985       Name-Roshni Murarka
शिक्षा: महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा से एम-फिल  
सृजन: कविता और लेख
संप्रति: वर्धा में रहकर स्वतंत्र लेखन 
संपर्क: roshni.boltoye@gmail.com)

 

                                                                
                                                              














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सोमवार, 22 जुलाई 2013

सीमा पर पिछड़ता मानवाधिकार


   

 






रजनेश कुमार पाण्डेय की क़लम से
भारत- बांग्लादेश सीमा  से लौट कर



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नार्थ-ईस्ट(उत्तर- पूर्व) भारत के अभिन्न हिस्से में आता है। इस क्षेत्र की विशेषता यह है कि ना सिर्फ ये सांस्कृतिक रूप से विविध है बल्कि राजनीतिक रूप से भी यहां कई पार्टियां सक्रिय हैं। जब यहां की भौगौलिक
स्थिति की बात करते हैं तो यह पूरा क्षेत्र कई तरह के उथल- पुथल से भरा पड़ा है। मसलन, मणिपुर के सीमावर्ती इलाके बर्मा से मिलते हैं तो अरूणाचल प्रदेश चीन से, सिक्किम नेपाल से तो असम मेघालय और त्रिपुरा के सीमावर्ती इलाके बंग्लादेश से मिलते हैं। भौगौलिक स्थिति को लेकर अक्सर कई प्रकार के राजनीतिक विवाद चर्चा में बने रहते हैं। अरूणाचल प्रदेश के तवांग पर चीन का दावा, भारत - बांग्लादेश सीमा विवाद, तीस्ता नदी पर दानो के बीच बातचीत। बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाके में कई उग्रवादी संगठनों का गुप्त
रूप से ठिकाना आदि। असम के ही दक्षिणी हिस्से में पड़ता है बराक घाटी। इस घाटी के अंतर्गत तीन जिले आते हैं। कछाड़, करीमगंज और हैलाकांडी। कछाड़ जहां मणिपुर और मिजोरम की सीमा से लगता है वहीं हैलाकांडी की सीमा मिजोरम से और करीमगंज बांग्लादेश की अंतररा’ट्रीय सीमा से लगता है। भौगौलिक रूप
से करीमगंज का एक बड़ा इलाका बांग्लादेश की सीमा से लगता है।

गुवाहाटी से 338 कि.मी. की दूरी पर स्थित करीमगंज में मुख्य रूप से चार नदी हैं, कोशियारा, लोंगाई, सिंगला और बराक। पहले - पहल सन् 1878 में करीमगंज सिलहेट जिले का सब डिवीजन बना और देश के बंटवारे के वक्त सन् 1947 में सिलहेट पूर्वी पाकिस्तान में चला गया जिसमें करीमगंज के कुछ हिस्से भी गए। सन् 1983 में करमगंज जिला बना। करीमगंज की मुख्य भाषा बांग्ला है। आर्थिक रूप से यह जिला समृद्ध है और वो भी इसलिए क्योंकि यहां से बांग्लादेश बड़ी मात्रा में कई प्रकार की व्यापारिक सामग्रियों का आदान-प्रदान होता है। करीमगंज से 25 कि.मी. दूरी पर स्थित है सुतारकांडी, जहां भारत-बांग्लादेश सीमा पर ’इंडो-बांग्लादेश ट्रेड सेंटर’ है और सड़क मार्ग से लोग बांग्लादेश और बांग्लादेश से भारत आते-जाते हैं। करीमगंज में ही ‘टाउन कालीबारी’ कोशियारा नदी के तट पर  स्थित है। शहर का यह हिस्सा जहां के दशमी घाट पर से बांग्लादेश साफ दिखाई पड़ता है और भारत – बांग्लादेश के विभाजन को भी साफ देख सकते हैं। यहीं पर इंडियन स्ट्रीम का आफिस भी आप देख सकते हैं और एक छोटा बंदरगाह भी जहां से भारी मात्रा में व्यापारिक सामग्रियों का आदान - प्रदान होता है।

यहां के व्यापारी काफी समृद्ध हैं, जाहिर है उसका कारण है इनके सामानों को स्थानीय स्तर पर ही अंतररा’ट्रीय बाजार का मुहैया हो जाना। बड़ी मात्रा में आदि का निर्यात यहां से होता है। ‘ दशमी घाट से आप बांग्लादेश देख सकते हैं। यहां भारतीय सीमा पर आप भारतीय फौजों द्वारा सख्त निगरानी देख सकते हैं। यहां प्रत्येक 100 मीटर पर आपको बीएसएफ (बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स - सीमा सुरक्षा बल) के जवान दिख जाएंगे। यहीं एक बीएसएफ जवान से बातचीत में पता चला कि शाम छह बजे के बाद यही दूरी 100 मीटर से घटकर 50 मीटर हो जाती है। जबरदस्त तरीके से पेट्रोलिंग सीमा सुरक्षा बल द्वारा चलायी जाती है। शाम छह बजे के बाद संदिग्ध स्थिति में गोली मारने का भी आदेश है। दूरबीन लिए बीएसएफ के जवान हमेशा आपको मुस्तैद दिखेंगे। हर बीएसएफ के जवान को एक दूसरे पर नजर रखनी पड़ती है। सीमा तस्करों पर इन्हें विशेष निगाह रखनी होती है। आम नागरिकों के लिए सीमावर्ती इलाके ज्यादातर घूमने - फिरने वाला ही माना जाता है। पर्यटन का दृष्टिकोण ही प्रमुख होता है। हालांकि आम जनता दबी जुबान में ये भी कहती है कि ये बीएसएफ वाले तस्करों से पैसा लेकर सामान इधर - उधर भी करवाते हैं। परंतु इसे प्रमाणित करना थोड़ा मुश्किल होता है। बीएसएफ वालों के लिए सीमा का मसला राजनीतिक रूप से एक देश की रक्षा, दुशमनों पर नजर एवं दूसरी सीमा में होने वाले गतिविधियों पर ही मुख्य रूप से केंद्रित रहती है। उनकी ट्रेनिंग ही ऐसी होती है कि सीमा की रक्षा उनके लिए राष्ट्र की रक्षा के समान है। उनके नजरिए से ये स्थिति ठीक भी है क्योंकि उनके नौकरी का उद्देश्य भी यही है। उनके साथ कुछ घटनाओं का जिक्र यहां मौजू होगा। 
हमारी बातचीत एक बीएसएफ जवान से हुई जिसमें कुछ सवालों का जवाब देने के क्रम में उन्होंने हमें बताया कि कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ अत्यंत गरीब लोग काम की तलाश में बांग्लादेश से भारत चोरी छिपे नदी पार कर चले आते हैं। ऐसे लोग अगर पकड़े गये चाहे इधर या उधर तो पहले तो उनकी जम के पिटाई होती है फिर संबंधित देश की पुलिस द्वारा उन्हें एक निश्चित अवधि तक जेल में रखा जाता है। बाद में वह जिस देश का नागरिक है, उस देश की पुलिस को सूचति किया जाता है, परंतु प्रायः दूसरे देश की पुलिस उन्हें अपना नागरिक मानने से इंकार करती है।
यहां मसला कूटनीतिक हो जाता है क्योंकि कोई भी देश अपनी छवि साफ-सुथड़ी रखना चाहता है और वह कभी नहीं मानती की जो नागरिक पकड़ा गया है वो उनके देश का है, क्योंकि ऐसे में कई प्रकार के सवाल उठ खड़े होंगे। मसलन, घुसपैठिया का सवाल, जासूसी का सवाल, आतंकवाद का सवाल आदि। ऐसी स्थिति में
उस बीएसएफ जवान ने बताया कि, उनके साथ जो होता है वो बस बयान करना मुश्किल है। ये दोनों देशों की द्विपक्षीय कूटनीतिक रिश्तों का परिणाम है तो वहीं दूसरी तरफ मानवाधिकार की असफलता भी। हमारे ये पूछने पर की क्या ऐसे लोगों के लिए किसी प्रकार का मानवाधिकार संबंधी सहयोग है कि नहीं, तो उसने कहा की इन मसलों पर चाहे तो बड़े अधिकारी या फिर मंत्रालय स्तर द्वारा ही कुछ हो सकता है। बातचीत में हमें ये महसूस हुआ कि फौजियों को चाहे वो सामी पर हो या अपने ही किसी गृह राज्य में उनमें मानवाधिकारों को
लेकर अब भी चेतना मजबूत स्तर पर नहीं है। अब चाहे इसे प्रशिक्षण की कमी कहें या जानकारी की। जब मैनें पूछा,  क्या आपने कभी संदेह की स्थिति होने पर गोली भी चलायी है तो उसने बताया  कि यहां करीमगंज में “शहरी लाकों में गोलीबारी प्रायः नहीं ही होती है। जब मेरी पोस्टिंग बंगाल में थी तो वहां सीमा पर रात्रि गश्ती के दौरान एक तस्कर को जब मेंरा भान हुआ तो उसने मुझ पर दाव (बांग्ला भाषा में छूड़ीनुमा एक बड़ा हथियार) फेंका, तो किसी प्रकार बचकर मैंने जवाबी फायरिंग की जिसके कारण वह छटपटाने लगा, तब तक हमारे अधिकारी आ चुके थे। अधिकारी ने मुझ से इसे और गोली मारने को कहा, परंतु मेरी हिम्मत नहीं हुई तो उन्होंने उसे गोली मारकर पूरी तरह मृत कर दिया। बाद में मुझे 1000रू इनाम के तौर पर मिला, शायद ये देशभक्ति का ही परिणाम था जो फौजियों में कूट-कूट कर भरी होती है है या भरी जाती है । 
हमारी पूरी बातचीत में फौजी ने हम से खुलकर बातचीत की और उसने कभी भी अपना नाक-भौं नहीं सिकोड़ा। ऐसे कई घटनाएं सीमा पर एक आम बात है जिसमें प्रायः गोलीबारी में काफी लोग मारे जाते हैं। कई बार बेवजह शक के कारण भी मौतें भी होती हैं। उस जवान ने हमें बताया की चाहे सीमा के लोगों में कितनी भी बातें आपसी मेलजोल की चलती रहे पर हम फौज वालों को दोस्ती भी कदम फूंक-फूंक कर रखनी पड़ती है। उसने बताया कि किसी भी पर्व त्योहार के मसले पर मिठाई या कोई भी खाने पीने की सामग्री आये पहले उसे हम जानवरों को खिलाकर जांच करते हैं उसके बाद ही यह निर्णय लिया जाता है कि उसे खाया जाय या नहीं। मसले कई प्रकार के हैं, परंतु इन मसलों के बीच शायद मानवाधिकार कहीं ना कहीं जरूर पिछड़ता नजर आ रहा है। ऐसी प्रत्येक स्थितियों के बीच चाहे कूटनीतिक स्तर पर कुछ भी चलता रहे पर मानवाधिकार के स्तर पर हमें काफी मजबूत होना बाकी है।


(लेखक-परिचय:
जन्म:23/08/1984, समस्तीपुर
शिक्षा:  प्रारंभिक समस्तीपुर से
संप्रति:  पी.एच.डी स्कॉलर, डिपार्टमेंट ऑफ मास कम्यूनिकेशऩ
असम यूनिवर्सिटी, सिलचर
सृजन: छिटपुट कहानी और रपट
संपर्क:rajnesh.reporter@gmail.com)
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सोमवार, 15 जुलाई 2013

धरती के दावेदार

 








उज्जवला ज्योति तिग्गा की क़लम से



अभिशप्त इतिहास

नहीं चाहिए मुझे
तुम्हारे उस असीम साम्राज्य का
नाम मात्र का राजपाट
जहां रचा जाता है
मेरे खिलाफ़
हर पल षडयंत्रो का खेल
मेरी इच्छाओं/अनिच्छाओं
आकाक्षांओ/स्वप्नों के खिलाफ़
दमन/शमन की व्यूह रचनाओं में
दफ़्न हो जाती है मेरी हर उड़ान
दिनोंदिन बढ़ता जाता है
तुम्हारा साम्राज्य
जिसके हर पत्थर पर
अंकित है मेरा अभिशप्त इतिहास
दोहराता बार-बार
हर पल
पराजय की दारूण गाथा
जहां गूंजती है
मेरी खामोश चीख
मंत्रकीलित पुतले की तरह
जिसमें चुभोया गया
तुम्हारे स्वामित्व का
हर दंश
बहता है विष बन
शिराओं में
क्या करूं?
क्या नीलकंठ बन रम जाऊं!
या हिमशैल सी जम जाऊं!!
किसी कठपुतली सी तन जाऊं!!!
क्या करू मैं?
...
मेरी बेचैन गतियों का दिशाज्ञान
दिमाग के इस कोने से उस कोने तक
मंडराता भटकता है जैसे कोई बवंडर
घिसटते हुए रात और दिन के बीच
गूंजता है एक चिरंतन विलाप!!
...

 धरती के दावेदार

एक दिन जुटेंगे कोने कोने से
धरती के दावेदार
और मांगेंगे हिसाब किताब
इस धरती के सौदागरों से
खून पसीने में लथपथ
अपने हर टूटे बिखरे सपनों का
जिसके बूते चला था सदियों
सौदागरों का चक्रवर्तीय राज
धरती से अंतरिक्ष तक
और तब्दील कर दिया जिसने
हर बात को एक बिकाऊ चीज में
...
धरती के दावेदार
धूमिल नहीं होने देंगे
अपने सपनों को
और बाकी दुनिया से
छीन झपट
सभी चटकीले शोख रंगों से
भरेंगे नए रंग
अपने फ़ीके उदास सपनों में
...
अंधेरों की खदबदाती
दलदली जमीन में
छिपे अपने खिलाफ़
षड्यत्रों के मकड़जाल का
करेंगे पर्दाफ़ाश
धरती के दावेदार
मिलकर एक साथ
और किसी के भुलावे में
अब हर्गिज न आएंगे वे
...
...
काश कि मिले मेरे शब्दों को

काश कि मिले मेरे शब्दों को
ढेर सारी खामोशी और अकेलापन
कि हर मौन आहट को
सहेज सकूं अपने अंतर में
काश कि मिले मेरे शब्दों को
इतनी समझ और ज्ञान
कि महसूस करूं उनमें छिपी
झिझक द्वंद्व और भय को
किसी से कहने से पहले
काश कि मिले मेरे शब्दों को
दग्ध खामोशियों में
ठंडी बयार का आधार
कि सपनों की राख में से
बटोर पाऊं कोई नन्ही सी अंगार
काश कि मिले मेरे शब्दों को
काई और कीचड़ से पटा संसार
कि खिलें वे सब के सब
कमल दल बनकर
और फ़ैलाएं सुवास सभी दिशाओं में
काश कि मिले मेरे शब्दों को
पत्थरीले सन्नाटे का संसार
कि गूंजे कोई गीत बनकर
मूक पाषाणों में बसता
उनका अनोखा समूहगान
काश कि मेरे शब्दों को मिले
इतनी दृढ़ता कि
तूफानों के बीच भी रह सके
अविचलित अडिग और अटल/अकेली
काश कि मिले मेरे शब्दों को
इतनी समझदारी कि
ढूंढ सके
इंद्रधनुष गंदले पानी के
डबरे में भी
और अगर
कभी गिरना ही पड़े
कीचड़ या दलदल में तो
निहार सके
आसमान में
जगमगाते हुए सितारों को
कीचड़ की जगह
....

क्यों  वाडिस

दौड़ रहे हैं कदम
जाने किस अनजानी चाह के पीछे
अनदेखते/कूदते/फ़ांदते
गिरते/पड़ते
गढ़ों में/कीचड़ में
दलदल में/रेत में
नहीं अभी नहीं
...
नहीं अभी नहीं
...
अभी रूको नहीं
...
अभी ठहरो नहीं
...
जाने कौन
फ़ुसफ़ुसाता है बार-बार
...
नहीं
...
नहीं अभी नहीं हुआ कुछ
...
नहीं
...
नहीं अभी खत्म नहीं हुआ सब
...
और... और... और
एक परिधि से दूसरी परिधि तक
जाने कितनी परिधियों के परे
जाने कहां तक
...
एक अंधा सफ़र!
जाने क्या है उस पार
...
इसलिए/ठहरकर बार-बार
पूछता है मन बार-बार
क्वो वाडिस
...
किधर चलें
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गुनगुना संसार

गुनगुना संसार...
सही और गलत के सीमारेखा पर
दुविधा अनिश्चय और अनिर्णय की दलदली जमीन
न तो सही को समर्थन
न ही गलत का कोई मुखर विरोध
बीच के खेमे से गूंजता हर पल
महज गत्तों के भोंथरे तलवारों की झंकार
न तो माथे पर पड़ी कभी कोई शिकन
न ही दामन में कभी लगे कीचड़ के कोई दाग
न ही कभी पड़ी हल्की सी भी कोई खरोंच
उनके वैयक्तिक निजी शीशमहलों पर
हर बात से पिंड छुड़ा
हर बहस से हाथ धो
मूक दर्शक तमाशबीन बन महज
लेते हैं मजा भर
सवालों की दुनिया को करके अलविदा
करते हैं गुजारा पीढ़ी दर पीढ़ी
जिंदगी की उतरन और कतरन पर
तुच्छ अभिलाषाओं और झूठे अहंकार के
उथले भंवरजाल में
डूबता उतराता भर रहता है
समस्त गुनगुना संसार
...
 उथली गहराईयों के गोताखोर

उथली गहराईयों के गोताखोर
बीनते/ बटोरतें हैं हर बार
काई/ कीचड़/ कंकड़...
उथले गढ़ों/ गर्तों में
और ढ़िंढ़ोरा पीटते/बखानते
सब पर अहसान जताते
अपनी क्षुद्र क्षणजीवी उपलब्धियों का
थकते नहीं जीवन भर
पेश करते है उन्हें
सबके सम्मुख
सजा संवारकर
बारंबार हर बार
मखमली डब्बियों में संजो
बेशकीमती मोतियों की तरह
और उड़ाते हैं मजाक
जान जोखिम में डालकर
समंदर की अतल गहराईयों से
दुर्लभ अनगढ़ मोतियां
लाने वालों का
पागल और मूर्ख कहकर
जो फ़ूंक डालते हैं जीवन
क्षण भर में ही
काई में से भी
कंचन/कमल को तलाशते
बेमकसद/बेसबब
बिना किसी नफ़े नुकसान के
मकड़जाल में फ़ंसे
गोकि काई पटी
धूसर सतह में भी
तलाशते जीवन की स्वर्णिम छटा
गंदगी/बदबू के बीच तलाशते
सुगंधित हवा के बुलबुलों का भंडार
कि धुंए/सीलन में लिपटी घुटन
बनी रहे सांस लेने लायक!
कि जीवन बचा रहे जीने लायक
निरर्थक श्रम में व्यय कर जीवन
मुर्झाते हैं बिन सराहे
रेगिस्तानी फ़ूलों की तरह
या गुम जाते हैं
किसी टूटी हुई बांसुरी की
खोई हुई धुन की तरह
या पानी पर उकेरे
किसी अभिलेख की तरह
या खदबदाते भाप के
बुलबुलों की तरह
कि नींव के पत्थर से
कंगूरे तक का सफ़र
रास न आया कभी
किसी भी तरह
उनके यानी
उथली गहराईयों के गोताखोरों के
सतह पर बने रहने
या टिके रहने के
मुहिम/जद्दोजहद में
जायज है सब कुछ
मुहब्बत और जंग की तरह
कपट झूठ धूर्तता से लबरेज
वक्त पर गधे को भी
बाप बनाने से गुरेज नहीं
क्योंकि मालूम है उन्हें/कि
वास्तविक संसार में
मुख्य पात्रों का
लीलामय रंगमंच ही
बटोरता है सभी वाहवाही/तालियां
फ़ूलों के गुच्छे और भी न जाने क्या क्या
नेपथ्य के हिस्से तो हमेशा से आया है
गुमनामी/अंधेरा और गहन उदासी
तो उन्हें क्या इतना गयागुजरा समझा है
अभागे असहाय और मजबूर
औरों की तरह
जो सहते हैं हर बात
भाग्य के लेखे की तरह
वे तो भला ठहरे
असाधारण/अवतरित
विलक्षण/सर्वगुणसंपन्न
वे भला क्यों सहें
औरों की तरह
मूर्ख अज्ञानी थोड़े ही न हैं वे
जो करें किसी की भी गुलामी
बुद्धि चातुर्य मे किससे कम हैं वे भला
वे उथली गहराईयों के गोताखोर
...
...
काफ़्का के वंशज

काफ़्का के वंशज आज भी
हैं अभिशप्त रेंगने और घिसटने को
और उन अभागों की जिंदगियों पर
अपनी रोटियां सेंकने वाले
मुक्त है आज भी
आकाश में हंस और बगुले बन
विचरने के लिए बिलकुल आजाद
...
और उन अभागों के अनकहे सवाल
उमड़ते हैं बारंबार
उनकी चेतना के आखिरी बिंदु तक
कि/ आखिर क्यों नहीं चाहती है ये दुनिया
कि हम सब उड़ें/कि
शायद हमारा तो जन्म ही हुआ है
रेंगने और घिसटने के लिए
...
वे चाहे तो उड़ें आकाश में
पंछी और तितली बनकर
पर क्या मजाल जो हम
देख पाए आकाश की
जरा सी भी झलक
...
हमारे तो सांस लेने पर भी पाबदी है
यूं तो हर तरफ़ कहने को
आजादी ही आजादी है
और फ़िर सब कुछ पर तो
एकाधिकार और आरक्षण
सिर्फ़ उनका ही है
...
गिनती की सांसे
और चंद एक सपनों के झुनझुने
बस इतना ही हक है हमें
इससे ज्यादा की उम्मीद
और कल्पना भी
राजद्रोह है यहां
जिसकी सजा तय है
मृत्यु दंड से लेकर
देश निकाला तक
...
शायद तुम्हें लगे कि
हमें डरा धमका कर
मार ही डालोगे इस बार
और किसी मूक बांसुरी सी
हमारी आवाजों को दबाकर
खुद चैन की वंशी बजाओगे फ़िर से
बेखटके अपने अपने घर जाकर
...
पर लौटेंगी हमारी प्रतिध्वनियां
दुस्वप्नों की चेतावनियां बनकर
और बिखर जाएगी हवाओं में
रक्तबीजों की आंधी बनकर
जो बनकर हजार आंखे
रखेगी नजर तुम्हारी
एक एक हरकत पर
और जो तुमने कभी सोचा
उनसे बचकर निकल जाने की
कोई भी तरकीब
तो समझ लेना कि
अब नहीं है वे
पहले की तरह बकलौल और मूर्ख
जो तुहारी चाल को न भांप पाएंगे
और तुम्हारी कैसी भी चिकनी चुपड़ी बातो में
फ़िर दुबारा से आ जाएंगे
...
उन्होंने भी एकलव्य बन
सीख लिया है तुम्हारा
हर कौशल हर ज्ञान
और नौसिखिए से वे सभी
बन गए है एक से एक धुरंधर तीरंदाज
अब किसी अर्जुन के लिए नहीं
होगा कुर्बान अंगूठा किसी एकलव्य का
अब तो अर्जुन भी जीतेगा
हर प्रतियोगिता अपने ही दम खम
छल बल झूठ प्रपंच अब
पैठ न बना पाएंगे
अब तो हर तरफ़ और हर जगह
सिर्फ़ एकलव्य और एकलव्य ही
नजर आयेंगे
...
इस बार बच निकल भागने की जगह
भी कम पड़ जाएगी
जब अपने अपने घरों से
भीड़ की भीड़ निकल कर आएगी
और बदला लेगी अपने टूटे सपनों
और बेबस आंसुओं का
वे अपने हजारों लाखों हाथों से
मिलकर देंगी पटखनियां
और रौंद डालेंगी तुम जैसों को
इस बार मौका मिलने पर
...
...
 मेरी कविताएं

मेरी हताशाओं/पराजयों की
अंतहीन/निस्पंद/निर्जन
जून सी दुपहरी में
अक्सर आ धमकती है
किसी बिन बुलाए मेहमान सी
मेरी कविताएं
मेरी उन्हें टरकाने/बहलाने की
सभी कोशिशों को नाकाम करती
मेरे आसपास/चारों तरफ़
मचे लूटपाट/मारकाट से
त्रस्त/घायल
मन के/अनगिन मुखौटों/कवचों को
चीरती/भेदती
उनकी तीक्ष्ण तरल
तेजोमय दृष्टि से
नहीं बच पाता है
मेरा कोई भी झूठ
मेरे अनर्थक प्रलापों को अनसुना करती
कि/सब ठीक- ठाक है
कि/मैं ठीक हूं
कि/सब कुछ ठीक चल रहा है
...
जाने किस उम्मीद में
जने किसका संदेशा ले
बीमारी की अधनींद/अधजाग के
दलदली प्रवाह में
डूबती उतराती
जाने किन टेढे मेढे
रास्तों से होकर
जाने किन किन जालों को काटकर
पहुंचती है मेरे घर तक
सपनों की एक लंबी कतार
झकझोरती/झिंझोड़ती
घेर लेती हैं मुझे/हर बार
मेरी कविताएं
...
जाने किस उम्मीद में
भीड़ भरी जगहों में
मुझे अकेला पा
कभी बस में/कभी बाजार में
और मेरी सूनी निष्प्रभ आंखों के सामने
गुजरते है फ़्रेम-दर-फ़्रेम
भूले बिसरे सपनों का
खामोश/वीतरागी जुलूस
किसी सनाका खाए व्यक्ति सा
बौखलाई सी ताकती हूं अपने आसपास
...
काफ़ी थकी/उदास निगाहों से घूरती
जाने आपस में मुड़ मुड़ कर
क्या बतियाती हैं वे
बार बार अपने सिरों को हिलाती
मेरी बेचारगी/दयनीयता का
लेखा जोखा सहेजती
बीती स्मृतियों को एडिट करती
गुम जाती हैं व्यस्तता के भंवर में
छोड़ जाती हैं मुझे हक्का-बक्का
हैरान-परेशान
अगली मुलाकात के लिए
...
झुंझलाई सी उन्हें विदा करने की हड़बड़ी मे
अक्सर किसी गलत स्टाप पर उतर जाती हूं कई बार
दिग्भ्रांत बौखलाई सी
गलत मकान में जा घुसती हू कभी कभार
ताकि वे छोड़ दें मेरा पीछा/तंग आकर
मुझे मेरे हाल पर अकेला छोड़ दें
जब कहीं भी कुछ भी सही नहीं है तो
भला मैं ही क्यों अपना पता सही बताकर
बारंबार उनके चंगुल में फ़ंसू
और बनती रहू बलि का बकरा/हर बार
क्यों न मैं औरों की तरह ही रहूं
...
...
 करती है परेशान
 
करती है परेशान/रोज ही
ढेरों बातें
बेवजह दुखता है मन
उन बातों को सोचकर
जिनपर अक्सर/कभी ध्यान नहीं जाता
किसी का भी/कि आखिर
क्यों होता है वैसा जो होता है
कि क्यों नहीं होता वैसा
जैसा कि होना चाहिए
क्यों छिनता जा रहा/अधिकार तक
सपने देखने/जीने का
उम्मीद की नन्ही सी किरण तक सहेजना
किसी खतरनाक जुर्म से कम नहीं
कुछ करने और कर सकने
के बीच के गहराते धुंधलके में
गर्क हो चुका/निरंतर घटता/मिटता संसार
होने और अनहोने का फ़र्क
किसी गोधूलिवेला क्षेत्र सा
जहां कि धूमिल पड़ चुकी हो
क्षितिज/दिशाओं को दर्शाने वाली सभी रेखाएं
वास्तविकता का संसार
समेटे है सभी संभावनाओं को
पर वक्त की गति/किसी कठपुतली सी
बढ़ी जा रही है/अपने किसी अज्ञात ओरबिट पर
...

 कमजोर सा  खंडहर

किसी कमजोर सी खंडहर की
थकी हुई दीवार के सहारे
टिक कर भी
सांस लेती है कई बार
जिंदगी/उसके
ढहने और गिरने के मध्य
तमाम उलझनों के बावजूद
और अपनी कमजोर टहनियों से
थाम लेती है उन ढहती दीवारों को
...
उसकी करूण कराह भरी विलाप में
मिला देती है जिंदगी अपना जोशीला संगीत
बीते हुए ठहरे खामोश पलों में घोल देती है जिंदगी
खिलखिलाहट भरे दिनों की अनवरत गूंज
जिसकी अलमस्त अल्हड़ और बेपरवाह
स्मृतियों तक के चूरे को भी परत-दर-परत
छीनता जा रहा है उससे समय हर पल हर क्षण
...
पर जिंदगी उसके अकेले निर्जन मूक संसार की
ढहती हुई मीनारों की कमजोर दीवारों पर
जो खड़ी थी सदियों से अडिग/अविचलित
हर तूफ़ान के सामने, उसकी सत्ता को धता बता
रोप देती है उनपर नए नए रस-रंग की बेलें
...
अपने आसपास के बेआवाज ढहते परिवेश में
आशा और उम्मीद की किरण बनकर
खिलती नन्ही कलियां
खेल रही है आंखमिचौली
समय के धूपछांही परछाईयों से
कि किसी दिन झांकेगी वही कमजोर टहनियां
समय के भंवरजाल से बाहर मजबूत लंगर बन
और देगी प्रश्रय तूफ़ानों मे फ़ंसे कितने ही
डूबते भटकते जहाजों को
जो आएंगे लौटकर किसी रोज
अपने अपने किनारों पर गले लगाने
अपनी भूली बिसरी जिंदगियों को
उनकी शीतल छांव में
खोजने अपना खोया हुआ सुकून
...
...
(लेखिका-परिचय:
जन्म: १७ फ़रवरी १९६० दिल्ली में.
शिक्षा: राजनीतिशास्त्र में स्नातकोत्तर शिक्षा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली से.
सृजन: कविता आलेख अनुवाद आदि.
संप्रति: भारतीय कृषि अनुसधान परिषद् दिल्ली में कार्यरत.
ब्लॉग : ख़ामोश फ़लक  और  अग्निपाखी
संपर्कujjwalajyotitiga@gmail.com )
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शनिवार, 6 जुलाई 2013

क्या मुझे रोना नहीं आएगा?


 

 

 

 

 

फौज़िया रियाज़ की क़लम से

कहानी: फ़ैसला

वो गिर जाती अगर दीवार ना थामती. अब क्या करे? डाक्टर के पास जाए? एक बार कन्फ़र्म करे? या चुपचाप जाकर टीवी पर एम.टीवी देखकर ‘चिल’ करे. शायद ये सब अपने आप ही ठीक हो जाए, शायद यूंही सीढ़ीयों से उसका पैर फिसले और सब नॉर्मल हो जाए. उसने उन तीन मिनटों में जाने क्या-क्या सोचा. मन ही मन तय किया, ये आखिरी बार था जब उसने शोभित की बात मानी, आगे से वो बिल्कुल नहीं सुनेगी कि ‘जान, खत्म हो गया है… जाकर लाना होगा… बस एक बार… एक बार से कुछ नहीं होगा’ अब उसे खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था, क्युं उसकी बात मानी, जिस्म मेरा तो इसकी ज़िम्मेदारी भी मेरी है, ठीक है वो प्यार करता था लेकिन अगर वाकई करता तो यूं उसे ‘ईमोशनली ब्लेकमेल’ ना करता. उस वक्त वो बस एक मर्द था पर मैं तो औरत ही थी ना, वो सिर्फ़ अपने जिस्म की सुन सकता है पर मैं? मुझे तो समझना चाहिए था ना, आखिर नुकसान मेरा ही होगा…पर उस वक्त कहां होश था. ये तीन मिनट कितने भारी थे वही जानती थी. दुनिया जहान का सही-गलत उन तीन मिनटों में ही दिमाग में उतर रहा था, अभी तक तो जैसे ख्वाब में जी रही थी. फिर जब उसने प्रेग्नेन्सी-टेस्ट में सफ़ेद प्लास्टिक पर दो लाल लाइनों को चमकते देखा उसे लगा वो बाथरूम में चक्कर खा कर गिर जाएगी…जब वो शोभित से अलग हुई थी तब उसे अन्दाज़ा नहीं था कि अगले कुछ हफ़्तों में उसे इतनी बड़ी मुसीबत से दो-चार होना पड़ेगा. शुरु में तो वो समझती रही कि ये ज़हनी तनाव है जिसके सबब इस बार देर हो रही है, फिर जब कुछ हफ़्ते और गुज़रे तो उसका ‘इन्टुशन’ कहने लगा ज़रूर कुछ गड़बड़ है. वैसे भी औरतों का ‘इन्टुशन’ अक्सर सही ही होता है. लेकिन जब यही अन्दाज़ा, हिसाब-किताब ग़लत साबित होता है तो तकलीफ़ होने से ज़्यादा खुद पर गुस्सा आने लगता है कि कैसे सच को पहचानने में गलती कर दी. कई दफ़ा तो बहुत वक़्त तक यकीन ही नहीं होता कि जिसे हम आज तक जानते थे वो तो बिल्कुल ग़लत था, हमारे ‘इन्टुशन’ ने हमारे साथ ग़ज़ब का मज़ाक किया है.

समा ने कभी सोचा भी नहीं था शोभित दूर हो जाएगा, वैसे भी कोई भी प्यार करने वाला रिश्ते के पहले दिन ये तो नहीं सोचता कि ये बस कुछ दिनों का लगाव है, कुछ दिनों का साथ है. सब यही सोचते हैं हम अजर-अमर प्रेम का हिस्सा बनने जा रहे हैं और हमारे जैसा कभी किसी ने महसूस ही नहीं किया, हम एक दूसरे के नाज़-नख़रे उठाते हुए युंही हंसते-खेलते जिएंगे, बुढ़ापे में एक छोटे से शहर में बड़ा सा घर लेकर आंगन में शामें बिताएंगे. ऐसे सभी ख़्याल धूल तब चाटते हैं जब एक छोटी-सी तीखी चीज़ से मुलाक़ात होती है यानि ‘हक़ीक़त’.

शोभित के साथ उसका रिश्ता तीन साल चला. वो समझते कि एक-दूसरे को जानते हैं, इसी से पता चलता है कि इन्सान कितने ख्याली पुलाव पकाता है. कोई शख़्स जब खुद को ही नहीं जान सकता तो किसी और को जानने का दावा कैसे कर जाता है, बस किसी कॉफ़ी-शॉप में कुछ मुलाक़ातें, किसी सिनेमा थिएटर में कुछ हिट-फ़्लॉप फ़िल्में, एक जैसा संगीत पसंद होना, या मनपंसद किताब एक होना, शायद एक जैसा ‘पॉलिटिकल व्यू-पॉइन्ट’ भी मायने रखता है. एक जैसे होने की ख़ुशी आंखों के आगे काला परदा डाल देती है. फिर वो नहीं दिखता जो ज़रूरी है जैसे शोभित ने जब उसपर पहली बार गुस्सा किया था तो बात कितनी छोटी थी, वो शोभित के बात-बात पर रोने को लेकर कितना चिढ़ जाती थी, शोभित ने उसे अपने क़रीब लाने के लिए कई झूठ कहे थे या वो खुद कितनी ‘पोज़ेसिव’ थी. शुरु में ये बातें बेमतलब होती हैं, इन पर हंसा जाता है. मगर जैसे-जैसे वक़्त गुज़रता है एहसास होता है छोटा कुछ नहीं होता, जिसे आज हवा में उड़ाया जा रहा है कल अलग होते वक़्त उसे तीर की तरह इस्तेमाल किया जाएगा. शोभित के जो आंसू उसे पहले कमज़ोर कर देते थे अब पत्थर बना देते थे, उसकी जो टोका-टाकी शोबित को पहले उसकी फ़िक्र का एहसास दिलाती थी अब गले का फंदा लगती है. खैर वो अलग हुए इसकी सीधी-सीधी कोई एक वजह नहीं हो सकती, रिश्ता टूटने की कभी भी कोई एक वजह नहीं होती.

डाक्टर उसे ऐसे देख रहा था जैसे वो सामने वाले बैंक में रॉबरी कर के सीधी इस क्लिनिक में घुस गयी हो और एकलौता वो डाक्टर ही इस राज़ को जानता हो. जब उसने अपना नाम मिसिज़ के जगह मिस के साथ लिखवाया नर्स ने भी उसे कनखियों से देखा था. डाक्टर खुद को सहज दिखाने की कोशिश कर रहा था और समा के लिए इतना ही काफ़ी था, अब उसका यहां गुलदस्ते के साथ स्वागत तो किया नहीं जाता कि ‘मैडम आप दो महीने से प्रेगनेंट हैं और वाह! क्या बात है, आपकी शादी भी नहीं हुई…कमाल कर दिया आपने तो.’ 

मेट्रो में बैठी वो लेडीज़ कोच के आखिर के हिस्से को हमेशा की तरह देख रही थी, यहां से जनरल कोच शुरु होता है. जब कोई कपल, मिया-बीवी हों या ब्वायफ़्रेंड-ग्रलफ़्रेंड मेट्रो में चढ़ते तो इसी हिस्से में खड़े होते, कई लोग एक दूसरे को यहां ऐसे ढूंढ़ते जैसे ये दो कदम की जगह लम्बा सा प्लेटफ़ॉर्म हो. फिर जब यह मालूम हो जाता कि हां ‘वो’ भी यहीं है तो दोनों के ही चहरे पर मुस्कान नज़र आती. इन्सान कहीं भी हो एक जैसा ही रहता है, कहीं ना कहीं सब एक से ही हैं वरना ऐसा क्युं होता कि जब भी मेट्रो में सफ़र करती इस किनारे पर हमेशा एक जैसी ही बेचैनी, एक-सी ही खोज और फिर एक-सी ही तसल्ली दिखती. वो भी ऐसे ही खड़े होते थे, इधर-उधर देखते नीचे नज़रें किये हुए और फिर कभी मौक़ा पा कर एक दूसरे की आंखों में झांक लेते. बस इतना करने से ही उसके पूरे जिस्म में झुरझुरी दौड़ जाती. बस देख लेना…बस देख लेना ही तो बदल जाता है तभी तो कहते हैं फ़लां की नज़रें बदल गयीं. रिश्ते के आखिरी दिनों में वो समा को कितनी नफ़रत से देखता था, लाल आंखों से ऊपर से नीचे तक जैसे कह रहा हो तुम बेहद घटिया हो, तुम देखे जाने लायक भी नहीं, तुमसे घिन्न आती है’. हां, नज़रे ही बदलती हैं, उसने मेडिकल रिपोर्ट को देखते हुए सोचा.

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क्या मुझे रोना नहीं आएगा? वो रात को तकिए पर सर टिकाते हुए थोड़ी ऊंची आवाज़ में खुद से सी बोली. कहीं से, किसी भी सन्नाटे से कोई आवाज़ पलट कर नहीं आई. अकेले सोना कितना भारी होता है, कोई सर पर हाथ रखने वाला नहीं, कोई ऐसा नहीं नींद में जिसकी कमर में हाथ डाला जा सके. उसने करवट बदल कर तकिया ज़ोर से भींच लिया, चादर के अन्दर चेहरा किया और तकिए में मुंह छुपा कर ज़ोर से चीखी, फिर तकिया ज़मीन पर फेंका, फोन में गाने चलाए, बिस्तर पर पैर पटके, उंगलियां बालों में घुसाईं, एक बार फिर दबी आवाज़ में चिल्लाई पर उसे रोना नहीं आया. रोने के लिए इतनी मशक्कत करनी पड़ रही है ये सोच कर उलटा खुद पर हंस पड़ी. अभी तक तय नहीं किया था करना क्या है, शोभित को वो कुछ भी बताना नहीं चाहती थी, वो नहीं चाहती थी कि किसी भी तरह का इमोशनल ड्रामा शुरु हो, अगर वो शोभित को कुछ बताती तो वो लौट आता बेशक, पर ये सही नहीं होता. उनके बीच हालात जिस हद तक बिगड़ चुके थे वो अब ठीक नहीं हो सकते थे बल्कि अब वो कुछ ठीक करना भी नहीं चाहती थी. जीवन होता है तब जीवन-साथी होता है, अगर साथी की वजह से जीवन पर ही खतरा मंडराने लगे तो ऐसे में आगे बढ़ जाना चाहिए. साथी और मिल जाएंगे जीवन नहीं मिलेगा. समा की सांस ना आती थी ना जाती थी बस अटकी रहती थी कि अब क्या कह देगा, अब क्या कर लेगा, कहीं खुद को कुछ ना कर ले, खुद को पीटना, बेल्ट से मारना, सड़क पर चीखना-चिल्लाना, खुद को थप्प्ड़ मारना. सर दीवार में पटकना, गाली-गलोज करना और फिर घंटों तक रोना. समा तंग आ गयी थी फिर भी सोचती शायद सब ठीक हो जाए पर नहीं. कुछ रोज़ सब ठीक रहता और फिर वही कहानी शुरु. तो वो शोभित को कुछ नहीं बताना चाहती थी, उसमें इस बात की हिम्मत तो थी कि सब कुछ अकेले संभाल ले पर फिर से अंधेरे कूंए में जाने की ताक़त नहीं थी. और फिर कौन जाने शोभित कह देता इसके लिए मैं ज़िम्मेदार नहीं. जो कुछ वो समा को कह चुका था, उसके बाद वो कुछ भी कह सकता था. यक़ीन एक बार उठ जाए तो उसके दोबारा विराजमान होने की गुंजाइश नहीं होती. 

सुबह सूजी हुई आखों के साथ ऑफ़िस पहुंची, लिफ़्ट के शीशे में खुद को देखा तो झिझक कर खुद से ही नज़रें चुरा लीं. कोई भी फ़ैसला लेने से पहले उसे अच्छे से सोचना होगा. क्या उसे ये बच्चा चाहिए या नहीं चाहिए. तय करना आसान नहीं था. अकेले रहती है, उम्र अभी 26 साल है, नौकरी करती है, बच्चा पैदा करने के लिए वो कभी उत्तेजित नहीं रही. पर अब जब वो प्रेग्नेंट है तो अबॉरशन के नाम से पूरे जिस्म में कंपन सी दौड़ जाती है. आखिर अपने जिस्म से छेड़छाड़ करना आसान काम नहीं है. इस फ़ैसले से उसकी आने वाली ज़िन्दगी बदल जाएगी. उसके अन्दर की औरत बार-बार जज़्बाती हो जाती और उसके अन्दर की चन्चल लड़की अभी आज़ादी से उड़ना चाहती. अपने वर्क स्टेशन पर उसने कुर्सी से पीठ टिकायी तो देखा साथ बैठने वाली मधू अभी नहीं आयी. उसने अपनी फ़ाइलें निकालीं और बॉस के कैबिन में जाने से पहले एक नज़र दौड़ाने लगी, पर ध्यान मधू की तरफ़ भटक चुका था. मधू उसके साथ इस ऑफ़िस में पिछले एक साल से काम कर रही है, मधू ने 18 साल की उम्र में घर से भाग कर शादी कर ली थी और 19 साल की उम्र में तलाक़ हो गया था. अब ऐसे में ना तो वो अपने मां-बाप के पास लौट सकती थी और ना ही कोई दोस्त ऐसा था जो उसकी मदद करता. मधू के चेहरे पर चोटों के निशान साफ़ दिखते हैं. वो बताती है कि उसका पति जो कभी उसका प्रेमी हुआ करता था कैसे उसे बाल खींचते हुए पीटता था. वजह कोई भी हो सकती थी, जैसे इस लड़के से क्युं बात की और उस आदमी को पलट कर क्युं देखा. या फिर जींस क्युं पहनी जब मां चाहती है तुम साड़ी पहनो. कभी उसका पति सिखाता कि सास से कैसे बात करते हैं तो कभी ये कि ससुर के सामने गर्दन कितनी नीची होनी चाहिये. जबकि वो खुद अक्सर अपनी मां और पिता से बदतमिज़ी करता, आस-पड़ोस के लोगों से झगड़ा करता, किसी को भी पीटने पर फ़ौरन उतारू हो जाता. ऐसे लोग जो खुद नैतिकता के मामले में गोल होते हैं अक्सर अपनी पत्नी और बच्चों पर संस्कार लादने की कोशिश करते हैं, पर क्युंकि उन्हें खुद ही मालूम नहीं होता कि असल में नैतिकता है क्या, वो रटे-रटाए फ़ॉरमुलों का इस्तेमाल करते हैं और अपने परिवार को संस्कार की जगह कड़वाहट सौंपते हैं. मधू हिम्मती थी जो एक साल के अन्दर उस जंजाल से निकल गयी. हर कोई ऐसा कहां कर पाता है. “हाय जानेमन, इतनी गौर से देखोगी तो फ़ाइल में ऐटीट्यूड आ जायेगा” मधू ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा. “ओह! तुम आ गयीं, बस तुम्हारे बारे में सोच रही थी”

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हिन्दी फ़िल्मों ने अबॉरशन को इतना ड्रामैटिक बना दिया है कि ऐसा ख्याल मन में आते ही समा खुद को ’पापिन‘ टाइप महसूस करने लगती. उसे याद आता कैसे ‘क्या कहना’ कि प्रीटी ज़िन्टा अपने पेट पर हाथ रख कर ‘फ़ीटस’ से बातें करती, उसे पुरानी हिन्दी फ़िल्मों की वो वैम्प याद आती जो अबॉरशन करवा कर, अपने शरीफ़ पति को चोट पहुंचाती है, वो महंगी साड़ी पहनती है, शराब पीती है और किटी पार्टियों में ताश खेलती है. समा खुद को उस रूप में इमाजिन करके मुस्कुरा देती. औरत की एक नपी तुली खास छवि बनाने में हिन्दी फ़िल्मों का बहुत बड़ा योगदान रहा है. सिनेमा थियेटर से बाहर निकलते हुए वो फ़िल्मों को मन ही मन गालियां दे रही थी. अब बताओ ये भी कोई बात हुई फ़िल्म के आखिर में ’सिल्क’ ने आत्महत्या कर ली. ‘डर्टी पिक्चर’ की बहुत तारीफ़ सुनी थी, आफ़िस में सुमन्त कह रहा था “ऐसी फ़िल्में बननी चाहिएं” वहीं गौरव का मानना था “हर औरत को सिल्क बन जाना चाहिए”. समा के बॉस और उनकी वाइफ़ सिल्क के किरदार को बज़ारू कह रहे थे. हर किसी की फ़िल्म के बारे में अपनी राय और समझ थी इसीलिए फ़िल्म हिट साबित हो गई थी. समा सोच रही थी, हर औरत को सिल्क क्युं बनना चाहिए, क्या हर औरत को अपना काम निकलवाने के लिए जिस्म का इस्तेमाल करना चाहिए या हर औरत को शादीशुदा मर्द के साथ जि़स्मानी और जज़्बाती हो जाना चाहिए. फिर जब पैसा और कामयाबी साथ छोड़ दे तो खुदकुशी कर लेनी चाहिए. समा ’सिल्क’ नहीं बनना चाहती थी, ना ही वो किसी भी औरत को सिल्क बनते देखना चाहती थी. समा के लिए ’सिल्क’ होना तारीफ़ की बात नहीं थी, उसे ‘सिल्क’ से सहानुभूति थी. उसके लिए ‘सिल्क’ होना गर्व की बात तब होती जब वो मुश्किल हालात से नहीं घबराती, जब वो जिस्म से ऊपर उठकर एक शख्सियत बनते हुए, बुढ़ापे की दहलीज़ पर खड़ी होकर भी दुनिया की वाह्ट लगाती. उसके लिए एक बंगला बिकना मायने नहीं रखता. जब वो एक छोटे से फ़्लैट में भी उसी जोश के साथ ज़िन्दगी जीती. ऑटो में बैठते हुए जब समा को चक्कर महसूस हुए तब जाकर वो असली दुनिया में वापस आई. मेडीकल रिपोर्ट मिले दो दिन हो चुके थे और वो अभी तक किसी नतीजे तक नहीं पहुंची थी. घर जाते हुए उस पर फिर सोच सवार हो गई थी. दर्द का सामना करते हुए, मुश्किलों से निपटते हुए और तकलीफ़ों का मज़ा चखते हुए कई बार एहसास होता है कि ज़िन्दगी कितनी मज़ाकिया है. अपनी प्रेगनेंसी की बात वो किसी को नहीं बता सकती थी और उसने अभी तक तय भी नहीं किया था कि करना क्या है. मगर फिर भी पिछले पंद्रह मिनटों में उसके दुख की वजह सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दी फ़िल्म इन्डस्ट्री थी.

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26 साल की उम्र शुबह से भरी होती है. आप पिछले कुछ सालों में चुने गए रास्तों और रिश्तों को लेकर खुद से सवाल करने लगते हैं. सारी उम्र 20 साल के होने का इंतज़ार किया, बीस से हुए, उस उम्र में आप जोश से भरे रहे. हर सवाल का चुटकियों में जवाब हाज़िर होता है और फिर ठीक पांच साल बाद बेहद सख़्ती से आपको ज़िन्दगी की असली परीक्षा के आगे बिना कागज़-कलम के पटक दिया जाता है. ये परीक्षा वैसी ही होती है जिसमें आप देर से पहुंचे हों, जिसमें बार-बार पैन की इंक खत्म हो रही हो, हर सवाल का सवाब आप जानते हैं लेकिन समझ नहीं पा रहे लिखा कैसे जाए. कुछ सवालों को देखकर लगता है कि अरे! ये तो मैंने पढ़ा था, मगर जवाब याद नहीं आ रहा. नौकरी है लेकिन ये वो तो नहीं जो हम चाहते थे, प्रेमी है मगर ये वैसा तो नहीं जैसा हमने सोचा था, अरे! मैं तो घूमना चाहती थी, ड्राइविंग सीखना चाहती थी, अब तक तो मुझे प्यानो बजाना आ जाना चाहिए था. उफ़! मैं ऐसी ज़िन्दगी तो नहीं चाहती थी, मैं पीछे रह जाऊंगी, मैं नाकाम इन्सान बन कर रह जाऊंगी. मैं किन मुसिबतों में फंसी हूं, कैसे लोगों के बीच अपना वक्त बर्बाद कर रही हूं. मुझे कुछ कड़े फ़ैसले लेने होंगे, कुछ सख्त कदम आगे बढ़ाने होंगे. मैंने कदम बढ़ा लिया है, मेरी ज़िन्दगी रातों रात बदल गई है, मैं प्यानो बजा रही हूं, मैं गाड़ी चलाना सीख रही हूं, मैं मज़बूत फ़ैसले ले रही हूं, मैं सधी हुई, खुद की तय की हुई ज़िन्दगी जी रही हूं. अब मैं मुस्कुरा रही हूं. “समा, क्या सोच-सोच कर मुस्कुरा रही हो” मधू ने पानी रखते हुए पूछा. ‘ओह्ह्ह…धत तेरे की…सोचती रह जाऊंगी और वक़्त हाथ से निकल जाएगा’ समा ने ग्लास लिया और पानी ऐसे खत्म किया जैसे ये पानी ही उसके और उसके कड़े फ़ैसलों के बीच रुकावट बना हुआ था. 

“मधू मैं प्रेगनेंट हूं” समा ने थोड़ी ऊंची आवाज़ में कहा
“क्या?” मधू ने इधर-उधर देखते हुए फुसफुसा कर पूछा
“मुझे पता नहीं क्या ठीक होगा” समा ने अपने सर पर हाथ रखते हुए कहा
“तू पागल हो गई है” मधू को अब तक यकीन ही नहीं आया था
“मैं सच कह रही हूं” समा ने मधू की तरफ़ देखा
“ये कैसे, आई मीन…तेरा तो ब्रेकअप…ओफ़्फ़ो” मधू सोफ़े से खड़ी होकर टहलने लगी थी
समा संडे की छुट्टी पर सुबह-सुबह मधू के घर पहुंच गई थी. चार दिन बीत चुके थे और उसे आज ही कोई फ़ैसला लेना था. मधू के अलावा वो और कहीं जा भी नहीं सकती थी. समा के आस-पास इस मामले में मधू से ज़्यादा तजुरबा और किसी के पास नहीं था. 
“कितने महीने?” मधू ने पूछा
“दो” समा मिमियाई
“शोभित?” सवाल दाग़ा गया
“और कौन?” समा ने चिढ़ कर कहा
“कमीना” मधू बड़बड़ाई
“यार, सिर्फ़ उसकी गलती थोड़े ना है” समा ने बराबर की ज़िम्मेदारी ली
“अच्छा….क्यों? सिर्फ़ उसकी गलती कैसे नहीं है? बेशक उसी की है, सौ प्रतिशत उसी की” मधू फुंकारी
समा हथियार डाल चुकी थी
“साला…बच्चा बाप के नाम पर जाना जाएगा, कहलाएगा इनके खानदान का, होगा इनके घर का चिराग, तलाक ले लो तो बच्चा छीनने के लिए ये मुकदमा करेंगे, इन्हें पालो-पोसो बड़ा करो फिर भी एडमिशन करवाते वक्त सबसे पहले बाप का नाम पूछा जाएगा, जब बच्चा होने के बाद पहला हक़ इनका है तो बच्चा ना हो इसकी ज़िम्मेदारी भी इनकी है” मधू लगभग चिल्ला रही थी
समा ने धीरे से कहा “लेकिन शरीर तो हमारा है, नुकसान तो हमारा होगा”
“वो तो है ही, मर्द मौकापरस्त होते हैं और कुदरत इनका साथ देती है. सीधी सी बात है जिसका हक उसकी ज़िम्मेदारी. यार, गोलियां खा-खा कर मेरे चेहरे और जिस्म पर बेशुमार दाने हो गए थे, फिर पति महाशय कहते हैं कॉपर-टी लगवा लो, वो भी किया. पता है समा, मुझे कितनी ज़्यादा ब्लीडिंग होती थी? इन्फ़ेक्शन हो गया था, डॉक्टर को दिखाया तो पता चला ठीक से लगी नहीं थी, ठीक करवायी, फिर कुछ हफ़्तों बाद वही हाल” मधू धीरे-धीरे कह रही थी
“लेकिन वो तो सेफ़ होती है ना” समा ने पूछा
“हां होती है लेकिन शरीर से तो छेड़छाड़ ही है ना, सही-गलत हो सकता है, डॉक्टर पर भी डिपेंड करता है, यार…मैं ये कहना चाहती हूं कि इतना झंझट ही क्यों जब आदमी के पास इससे कहीं ज़्यादा आसान उपाय मौजूद है? बली की बकरी हम बने ही क्यों जब इसकी कोई खास ज़रूरत नहीं है. मधू फिर गुस्से में आ गई थी.
“तू सही कह रही है. अगर मर्द अपनी प्रेमिका या बीवी के जिस्म से ऐसी छेड़छाड़ ना होने देना चाहे तभी तो ज़िम्मेदारी लेगा. गलती हम लड़कियों की भी है, हम अपने लिये खड़ी नहीं होतीं, बस प्रेमी का दिल खुश करने में लगी रहती हैं. खुद को उनकी जायदाद समझ लेती हैं. हमें खुद से प्यार करना सीखना होगा. खुद को सबसे ज़्यादा एहमियत देनी होगी. अपने लिये लड़ना होगा, रोज़ रात दासी बन कर पति के सामने हाज़िर नहीं होना, बल्कि अपने भले के लिये विरोध करना सीखना होगा” समा अपनी जगह से उठकर खिड़की के पास आ गई थी. सामने वाली बालकनी में एक नई-नवेली दुल्हन अपने बाल सुखा रही थी. उसके हाथों की महंदी बिल्कुल लाल थी. उसकी आंखों में वो शर्म थी जो उसे बचपन से घुट्टी बना-बना कर पिलाई गई थी. 

“मधू, मुझे ये बच्चा नहीं चाहिए” समा ने खिड़की की तरफ़ से मुंह मोड़ लिया था
“अच्छे से सोच ले” मधू समा की तरफ़ गौर से देखते हुए बोली
“मैंने सोच लिया है, ये मेरा शरीर है. अगर बच्चा होता है तो उसे मुझे पालना होगा. अभी मेरे दिल में बच्चा पालने की कोई ख्वाहिश नहीं है. अगले कुछ सालों में भी मैं ऐसा कुछ नहीं चाहती.” समा आराम से कह रही थी
“तुम्हे पता है, धर्म इसे हत्या मानता है” मधू अब मुस्कुरा रही थी, जैसे कह रही हो देखो अपने साथ क्या खेल खेला गया है
“धर्म तो मुझ जैसी अविवाहित स्त्री को कोड़े मार-मार कर मौत के हवाले कर देने का आदेश भी देता है. वही धर्म मर्द को ऐसी कोई सज़ा नहीं सुनाता. जबकि औरत और मर्द एकसाथ हम बिस्तर होते हैं. लेकिन सज़ा सिर्फ़ औरत को. सब खेल है मधू, सदियों पुराना बुना गया जाल जो तुम्हें और मुझे फंसाता है.” समा बैग कंधे पर लटका चुकी थी.
“तो ये एक ज़िन्दगी खत्म करना नहीं है” मधू समा की आंखों में देख रही थी, जैसे भरोसा चाहती हो.
“ये एक नई ज़िन्दगी की शुरुआत है जिसमें मैं अहद लेती हूं कि अब मुझसे ना कोई खेलेगा, ना मैं खुद को किसी के लिए मुश्किलों में डालूंगी” समा ने मधू का बैग उठाकर उसके कंधे पर लटकाया और आगे बढ़कर दरवाज़ा खोल दिया.
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(लेखक-परिचय:
जन्म: 30 जुलाई 1987 नई दिल्ली में।
शिक्षा: जन संचार में स्नातकोत्तर।
सृजन: ढेरों प्रमुख अखबारों और रेडियो के लिए लेखन व प्रकाशन-प्रसारण
ब्लॉग: अल्फ़ाज़
संप्रति: रेडियो जॉकी, आल इंडिया रेडियो में
संपर्क: fauzia fauziya.reyaz08@gmail.com  )      


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सोमवार, 1 जुलाई 2013

कजरा का बंसू बन जाना















रामजी यादव की क़लम से
कहानी: अथकथा–इतिकथा

बहुत दिनों से बंसू नहीं दिखे। जब वे कई दिनों तक नज़र नहीं आए तो कुछ लोगों के मुंह से कई लोगों ने सुना कि बंसू कमाने सूरत गए हैं। सब लोग बंसू को बचपन से जानते थे। सबको विश्वास था कि बंसू एक दिन लौटेंगे और बताएँगे कि इतने बड़े सूरत में उनके लायक कोई काम नहीं था। सग्गन कहते थे कि ईश्वर ने जब बंसू का ईजाद किया तो उसे उनके लायक एक काम भी निकालना चाहिए था लेकिन कलमुंहे ने अपने फर्ज़ से मुंह मोड़ लिया था। लिहाजा बंसू के व्यक्तित्व के अनुसार आज तक कोई काम न मिला।
गाँव में बंसू इतने विलक्षण थे कि किसी के लिए भी काहिली के उदाहरण बन जाते थे। बनारसी अपने इस इकलौते और नालायक पुत्र से कभी खुश नहीं रहे। उनके मुंह से बंसू के लिए गालियों के सिवा कुछ न निकला। गालियां रूटीन का हिस्सा हो गई थीं इसलिए बंसू मानते थे कि बाऊ उन्हें गाली नहीं आशीर्वाद देते हैं। माई उनकी इतनी गऊ कि एक पुत्र के लिए सात प्रसव-पीड़ा झेलने के साहस और दुखों के अनवरत सिलसिले के बावजूद बंसू के लिए रंभाती ही रहीं। बंसू के बहाने बनारसी जब-तब उन्हें भी उल्टा-सीधा कह देते। लेकिन वे इतनी कमजोर नहीं थीं कि रोतीं। उनकी आँखों में एक विरल हिम्मत और निडरता थी कि कोई भी परास्त हो जाता। पैंसठ साल की वह स्त्री एक कड़ी आवाज और दबंग व्यक्तित्व की मालकिन थी।
बनारसी हमेशा एक लाठी लिए रहते। पता नहीं वे साँप से डरते या कुत्तों से या आदमी से ही लेकिन लाठी उनके वजूद से अभिन्न थी। नेवता-हँकारी में भी लाठी उनके साथ होती। वे भैंस चराते , हल जोतते या किसी से बात करते , हर समय उनके सिर पर बंसू सवार रहते। उनके पास एक ही बैल था। दूसरा साझे का था। उनका बैल बावाँ था । साझे वाला दहिनवार था। दहिनवार को बावाँ की बनिस्बत अधिक ज़ोर पड़ता है लेकिन तब भी बनारसी का बैल जिसकी कजरारी आँखों के कारण उसका नाम कजरा रख दिया गया था, अक्सर बैठ जाता था। इस पर बनारसी का गुस्सा भड़क जाता। मुठिया छोडकर दोनों हाथ से सटासट पैना चलाते। बावाँ आख़िर बाँ... बाँ .... करते उठ जाता और हदसकर एक-दो कूँड़ ऐसे चलता जैसे बनारसी को बता देना चाहता हो कि उसमें शक्ति और साहस दाहिने से ज्यादा हैं। बेचारा हाँफते-हाँफते नाक-बेवार फेंकने लगता । बनारसी उसे सधाते हुये बुदबुदाते रहते-हमार सार, तोहरी बाप की बिटिया की फलान चीज में। सनको मत। बंसुआ मत हो जाओ। होर रे होर ..... ना रे .... ना ... एकरी बहिन के ..... अइसन लडिका ससुरा जनमते मर जाएँ। करेजा खिया-खिया पोसो । खून पिया-पिया जिलाओ और ई बहनबेचऊ जियत जी छाती पर चैला बोझ रहे हैं। और फटाक-फटाक तब तक पैना चलाते जाते जब तक बैल दौड़ने न लगते। फाल लगने से बचाते हुये वे स्वयं ज़ोर-ज़ोर से हाँफने लगते।
बनारसी के लिए कजरा का बंसू बन जाना अथवा बंसू का कजरा बन जाना कोई नई बात नहीं रह गई थी। वे जब कजरा को गाली देते या मारते तब उनके सामने बंसू की तस्वीर नाचने लगती। अक्सर बंसू को कोसते हुये उन्हें लगता कि भले जाँगर-चोर ही सही , ससुरा कितना भी बैठ जाता हो लेकिन है तो अपना ही बरधा। यह है तो खेती भी साथ-साथ हो जाती है। भले बावाँ सही लेकिन उसका होना ही इस बात के लिए बड़ी वजह थी कि एक दहिनवार मिल जाता है और खेती सबके साथ-साथ निबट जाती है। वरना पूस-माघ तो इनका-उनका मुंह ताकते ही बीत जाता। इसके होने से ही घर में चार दाना आ पाने की गुंजाइश बची हुई थी। बावाँ बरध–लुहाड़ा लडिका चाहे जैसे हों होते तो अपने ही हैं। बनारसी के मन में लाड़ उमड़ आता। वे भूसे में चकाचक हरियरी मिलाते और उसकी नाद में डाल आते। उसकी पीठ पर हाथ फेरते। माथा सहलाते। इस पर भी लाड़ होता कि टपकने से बाज न आता और बनारसी घर में जाकर चंगेरी में पिसान और खली ले आते और उसकी नाद में चलाने लगते।
लेकिन बंसू शुरू से लतमरुआ नहीं थे। शायद बंसू जितना दुलरुआ उनके सामने कोई और न था। छः बहनों की पीठ पर जन्मे बंसू के लिए सोने का चम्मच , चांदी की कटोरी, रेशम का झूला और चन्दन का पालना नहीं बनाया गया था लेकिन खाने के लिए दूध-भात की कमी न रही। चन्दन का पालना न सही माई-बाऊ की गोद और छः बहनों की पीठ तो थी ही जहां वे सो सकते थे, कूद सकते थे, छिप सकते थे और सवार होकर महसूस कर सकते थे कि वे हाथी पर सवार हैं। जिसने अपने प्रियजनों की बांह का झूला झूलने का गौरव प्राप्त कर लिया उसके लिए दुनिया के उम्दा से उम्दा रेशम के झूले दो कौड़ी के हैं। बंसू के लिए थे। माई कहतीं कि जब चाँदी की कटोरी में सोने के चम्मच से भी दूध-भात ही खाना है तो असली चीज तो दूध-भात ही है। असली चीज हमारे पास है। नकली चीजों के न होने का क्या गम है।
बंसू जब आठ साल के हुये तो तमाम सारे गाँव के बच्चों के साथ स्कूल जाने लगे। बनारसी भी चाहते थे कि वे चार अच्छर पढ़ लें। साहब तो खैर वे क्या बनते, बनारसी के मन में साध थी कि वे मिलिट्री में भर्ती हो जाएँगे तो उनका जीवन बनने के साथ अपना बुढ़ापा भी कट जाएगा। इसलिए करिया अच्छर भैंस बराबर समझनेवाले बनारसी एक मोटी पट्टी खरीद लाये। कालिख पोतकर उसे बहुत देर तक घोटारते और निहारते रहे। वे रोज सबेरे सूरज उगते ही बंसू को उठा देते । कुल्ला-मुखारी से फारिग होकर बंसू दो मुट्ठी चना खाते। एक गिलास मलाईदार दूध पीते। नौ बजे तक उनकी बहनें उन्हें नहलाती-धुलातीं। सिर पर कड़ुआ तेल रखकर बाल संवार देतीं और आँखों में काजल लगा देतीं। बनारसी को बंसू के सँवारे गए बाल कभी न रुचे। वे मानते थे कि बाल खाया-पिया सब सोख लेते हैं। जो अन्न शरीर को लगना चाहिए वह बालों में जाया हो जाता है। इसलिए एक दिन घिनऊ शर्मा को बुलाकर जबर्दस्ती बंसू का खोपड़ा उन्होंने साफ करवा दिया। बंसू रोने लगे। बहनें भी कुड़बुड़ाईं लेकिन बनारसी की कड़कती आवाज ने सबको शांत कर दिया। उनके मुताबिक –देह में बार, मानुस लबार। अखाड़े की मिट्टी को रोमकूपों पर रगड़कर उन्होंने स्वयं अपनी जवानी में अपने शरीर को चिक्कन बनाया था। अलबत्ता अधेड़ उम्र तक इन्हीं रोमकूपों में मोटे-मोटे नर्रे की तरह बाल निकल आते और उन्हें उखाड़ने की सोचकर ही उनकी आँखों में आँसू आ जाते लेकिन वे पुरानी जिद पर ही डटे रहे। माई ने बोलना मुनासिब न समझा क्योंकि बनारसी जो कर रहे थे बंसू के भले के लिए कर रहे थे।
बंसू जिस स्कूल में पढ़ने गए वह बड़ी घटनाओं वाला छोटा स्कूल था। दो कमरे में पाँच कक्षाएं चलती और प्रत्येक के अ,,,द वर्ग थे। पहली से नीचे गदहिया गोल थी। वे गदहिया गोल में भर्ती हुये। पंडीजी लोग सुर्ती मलते हुये निरंतर एक जगह बैठकर गप-शप करते रहते जो एक तरह से सत्संग था। वहाँ उनकी बीवियों के व्यवहार, लड़कों की शैतानियाँ, बूढ़े माँ-बाप की नासमझी और भाइयों की आवारगी तथा अपनी लियाकत के इतने लंबे किस्से होते कि कभी खत्म ही न होते। आज शाम जहां एक किस्सा छूटता, कल सुबह उसे वहीं से उठा लिया जाता। इन किस्सों का जेनुइनपन इसी बात से जाना जा सकता है कि मास्टर साहबों के पास बेहया या रेंड़ के मोटे डंडे रखे रहते थे और उनका उपयोग वे किस्सों की इज्जत बचाने में करते थे।
यह रोज की बात थी कि कोई किस्सा चल रहा है और बीच में ही कोई लड़का रोता हुआ आता और यह सूचना देता कि एक लड़के ने उसे खरबोट लिया है। किस्सा अपने ज़ोम पर और लड़के के आर्तनाद से बिखरने के खतरे में आ जाता। पहला डंडा आर्तनाद करनेवाले की पीठ पर पड़ता और वह चिग्घाड़ता हुआ भागकर अपनी जगह बैठ जाता और रोते हुये देर तक अपनी पीठ सहलाता। उसे पीटने वाले लड़के की मरम्मत तब तक की जाती जब तक कि वह कान पकड़कर उठते-बैठते गिर न पड़ता। बरसों से चल रहे इस क्रिया-कलाप से केवल एक लड़के ने बगावत की थी। उसने पेशाबरत भुर्रट मास्साब की पीठ पर अपनी पट्टी का सम्पूर्ण प्रहार किया और भागकर जो गया तो आजतक वापस नहीं आया।
बंसू आठ साल के थे लेकिन अभी-अभी स्कूल आना शुरू हुये थे इसलिए गदहिया गोल में ही भर्ती हो पाये थे। दस बजे सबेरे से चार बजे साँझ तक बैठना हंसी-खेल नहीं था। छः घंटे में पहले पहर लड़के घर से आते और पिछले कल की खुंदक निकालने के लिए आते ही मारपीट कर लेते। दो-चार लड़कों की भिड़ंत के नतीजे में पूरे स्कूल के बच्चे ऐसे पीटे जाते जैसे गदहे बोझ ढोते-ढोते घास चरने का जुर्म कर बैठते हैं और बेमुरव्वत पीटे जाते हैं। इस पिटाई अभियान के बाद आमतौर पर लड़के शांत बैठते और उन्हें देखकर ही लगता कि ये भारत के सबसे उम्दा स्कूल के सबसे अनुशासित बच्चे हैं। दोपहर की छुट्टी में लड़के छुपम-छुपाई और गुल्ली-डंडा खेलते तथा गाली-गलौज करके समय निकालते। शाम की कक्षा में मानीटर गिनती-पहाड़ा रटाते। और छुट्टी । लेकिन बंसू ने अपनी एक मौलिक भूमिका तलाश ली थी। शरीर से तगड़े होने के कारण वे किसी को भी पीट देने का काम करने लगे। गदहिया गोल के लड़कों को तो वे कक्षा में ही धोकर रख देते थे। जब-तक लड़के आर्तनाद करते हुये मास्टर साहबों के किस्सों में खलल डालने पहुँचते तब-तक बंसू नौ दो ग्यारह हो जाते। स्कूल के बाहर वे चौथी पाँचवीं के बच्चों की हवा खराब कर देते, लिहाजा चौतरफा उनका दबदबा कायम होने में देर न लगी।
बंसू के कारण एक दिन बनारसी के पास दो उलाहने आए। पहले उलाहने में उनका दोष यह था कि भइयालाल के आलू के खेत में लड़ाई कर रहे थे जिसके फलस्वरूप दो दर्जन से अधिक मेड़ें मटियामेट हो गई। दूसरे उलाहने का विषय रोचक था। आलू के खेत में उन्होंने तूफानी को खमचकर पटक दिया और उनके वक्ष-स्थल पर चढ़कर देर तक हुमचते रहे। परिणामस्वरूप तूफानी को काफी चोट आई। बंसू की कुहनी से तूफानी के माथे पर गूमड़ निकल आया। इसी गूमड़ को आस-पास के लोगों को दिखाती और बंसू वल्द बनारसी को जीभर गरियाती तूफानी की माई उलाहना लेकर पहुँचीं।
कोई बात जैसी बात यह नहीं थी। लड़के आज लड़ते कल फिर मिलकर खेलते गोया वे लड़ने और साथ खेलने के लिए ही बने थे। इसके बावजूद तूफानी की माई बिजली की तरह कड़कती और बादल की तरह गरजती जा रही थीं। इसी वजह से कई लोग जुट आए थे। कुछ लोग समझाने लगे लेकिन आग में घी डालने से भड़कती ज्वाला की तरह वे भड़क जातीं। बात से बात निकल रही थी और मामला सुलझने के आसार कम थे। अचानक वहाँ खड़े भोनू ने ज़ोर से कहा – “जब लड़के मतारी का दूध न पिएंगे तो बोदे न होंगे ससुरे तो क्या गामा पहलवान बनेंगे। अब लड़ने से का फायदा। जिसने अपनी माई का दूध पिया उठाकर खमच दिया। जिसकी मतारी के थन में दूध नहीं उसकी मतारी कहाँ तक लड़े और कैसे लड़े?”
यह एक माकूल वक्तव्य साबित हुआ। इसमें सवाल भी था और जवाब भी। जिनके लिए जवाब  था वे अपनी राह चले। जिनके लिए सवाल था वे बाल नोचते खिसियाने पर मजबूर हुये।
सबके चले जाने के बाद बंसू को पीटने की बजाय बनारसी ने उन्हें छाती से लगा लिया। उनकी छाती फूलकर छाता हो गई। इसी से प्रभावित होकर बंसू ने एक दिन चुपके से अपनी पट्टी कुएं में फेंक दी। पूछने पर बताया कि वे पट्टी स्कूल में ही रख आते हैं। दरअसल उस जमाने में अभिभावकों पर होमवर्क का बोझ कतई नहीं था। साल भर बंसू स्कूल के समय जाते और छुट्टी के समय घर आते रहे। एक दिन पता चला कि स्कूल न जाकर वे आस-पास के इलाकों का भ्रमण करते रहते हैं। उन्हें चार-छह कोस की चौहद्दी के भूगोल का अच्छा ज्ञान हो चला था। हालांकि यह भी ज्ञान की एक महत्वपूर्ण शाखा है, लेकिन बनारसी ने इसे शुद्ध आवारागर्दी माना और क्षुब्ध होकर उन्होंने बंसू का जीभर इलाज किया। बंसू ने एक बार जो कहा वही हज़ार बार कहा अर्थात वे स्कूल नहीं जाएँगे। सचमुच वे फिर स्कूल नहीं गए।
बहुत दिनों बाद चलकर उन्हें एक दिन न पढ़ने पर ग्लानि हुई। गर्मी के किसी दिन वे किसी बारात से लौट रहे थे। अपने समय के फैशन के मुताबिक उन्होंने बेलबॉटम और शर्ट पहन रखा था। पैरों में सैंडिल और आँखों पर काला चश्मा था। चश्मा हालांकि सड़क छाप था लेकिन दाढ़ी एकदम मानवीय और भव्य थी। वे रेल के चालू डिब्बे में धन्नी, गुल्लू और मुन्नू के साथ सफर कर रहे थे। पता नहीं कहाँ से एक स्त्री आई और बंसू के सामने एक कागज बढ़ाकर पूछने लगी कि यो पतो किधर को है ?’ बंसू असमंजस में पड़ गए। उनकी छठी इंद्री से आवाज आई कि महिला बनारस में किसी मुहल्ले का पता पूछना चाहती है। लेकिन वे संयत बने रहे और स्त्री पर भरपूर नज़र डालते हुये बोले – “हम किसी के पत्र नहीं पढ़ते । यह हमारा नियम है। चेला है हमारा उससे पढ़वा लो।” फिर धन्नी की ओर मुखातिब हुये – “धनियाँ! देख जरा चिट्ठी में क्या लिखा है?” धन्नी उछलकर सामने आ गए।
इज्ज़त किसी तरह बच गयी लेकिन इस प्रकरण ने बंसू के भीतर ऐसा असर डाला कि उन्होंने शर्ट-बेलबॉटम से ही तौबा कर ली। अब चश्मे की क्या बिसात! लेकिन दाढ़ी और सैंडिल बची रही। अब वे धोती कुर्ता पहनने लगे । कंधे पर एक साफा भी लटकने लगा।
एक-एक कर सभी बहनें विदा हुईं। बंसू भी घरवाले हो गए। उनकी दुलहिन को सभी ने दूधों नहाने और पूतों फलने का वरदान दिया। वरदान सुफल हुआ और उचित समय पर बंसू चार बच्चों के पिता बने। दो कन्यारत्न—लालती और मानती । दो नूरे-चश्म ---हीरा–जवाहिर।
बंसू बचपन से ही काम से चिढ़ते थे। उनकी माँ, पिताजी और बहनों ने उन्हें कभी फूल तोड़ने को भी नहीं कहा लिहाजा वे जवानी में भी चारपाई तोड़ते रहे। माई दिन भर घर-बाहर खटती रहीं लेकिन उन्हें कभी खीझ नहीं। जब उनकी मूछें पर्याप्त मात्रा में काली हो चलीं तो बनारसी चाहने लगे कि अब थोड़ा-बहुत हाथ-पाँव डुलाया करें ताकि वे जाम न होने पाएँ। इसके बावजूद बंसू से कुछ कहने की बजाय उन्होंने माई से कहलवाया कि वे अब डाँड़-कोन लगाएँ और खेत हेंगा दिया करें। माई ने जो भी कहा हो परंतु बंसू ने को प्रतिकृया नहीं की। उनकी एक निश्चित दिनचर्या थी – सुबह उठने के बाद वे नदी की ओर निकल जाते। वहाँ पेट उर मुंह साफ करते। हमउम्र लोगों से गप मारते। घर लौटते तो दोपहर हो चुकी होती। वे खाकर थोड़ा आराम करते और तीसरे पहर से रात तक की गतिविधियों को अंजाम देते।
धीरे-धीरे बनारसी उनकी इस दिनचर्या से चिढ़ने लगे। पहले वे उन्हें देखकर मन ही मन कुड़बुड़ाते रहे और एक दिन ऐसा आया जब उनका गुस्सा मिजाज से बाहर होकर हाथों में चला आया और बंसू की पीठ पर जाकर स्थगित हुआ। इसका परिणाम यह निकला कि अपनी दिनचर्या में फेरबदल करने की बजाय बंसू अपने पिता के दर्शन से ही बचने लगे।
बनारसी सोचते कि ससुरा अभी लुहाड़ा है लेकिन जब शादी हो जाएगी तब चेतने लगेगा। लेकिन बंसू ने उन्हें यहाँ भी मात दे दी। उन्होंने दो की ज़िम्मेदारी समझी भी नहीं और देखते-देखते चार और लोगों के सिरजनहार हो गए।
इस तरह बंसू एक दिन लतमरुआ हो गए। बहनों-बहनोइयों और गाँव-जवार के लोगों का उनपर कोई असर नहीं हुआ। बनारसी अब बात-बात पर गालियाँ देते। लोग कोई भाव न देते लेकिन बंसू का रंग फीका न पड़ा। एक दिन तो माई भी बिगड़ पड़ीं। जाँगरचोर और लबार कहा। गंगा में डूबते बंसू पर भी वे विश्वास नहीं करने वाली थीं। लेकिन फिर न उन्होंने कुछ कभी कहा और न बंसू ने सुना।
लेकिन ऐसा नहीं था कि बंसू एकदम वही थे जो लोग उन्हें समझ रहे थे। दरअसल उन्हें कभी यह लगा ही नहीं कि घर के कामों में उनकी कोई जरूरत भी है। बनारसी उन्हें गाली देते थे लेकिन स्वयं सारे काम भी करते जाते और ऐसा कुछ भी बंसू के लायक न छोडते जो उनके बिना अटका रह जाता। किसी काम ने बंसू को कभी आवाज नहीं दी कि आओ मुझे कर लो। तुम्हारे बिना मैं नहीं हो पाऊँगा। जब कहीं से कोई आवाज ही न आई तो बंसू क्या माथा पीटते!
हालांकि बहुत से काम ऐसे भी थे जो बंसू के बगैर नहीं हो सकते थे। कम से कम उनकी दो भाभियाँ ऐसी थीं जिनको बंसू के अलावा किसी पर भरोसा नहीं था। कभी-कभी उनके निजी सामान लाने और ब्लाउज आदि सिला लाने का काम महज बंसू कर सकते थे। ब्याह-बारात में भी बंसू की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती थी और तमाम लोग देखते कि बंसू का जलवा भी कोई चीज है।
बंसू फिल्में कभी-कभी देख पाते थे लेकिन पोस्टर अक्सर देखते थे। हेमामालिनी, रीना राय, रेखा और मौसमी चटर्जी के कई-कई किस्से उन्हें याद थे। उन्हीं से प्रेरणा पाकर उन्होंने अपनी पत्नी को भी हमेशा टिप-टॉप रखने का मन बनाया था लेकिन मन की बात बस मन में थी। कर दिखने के लिए बंसू को खेत में काम करना पड़ता या मजदूरी करनी पड़ती जो वे करना पसंद नहीं करते थे।
उन्होंने इनके बारे में यह भी सुन रखा था कि अनेक फिल्मवाले इन सबके सिंगार-पटार का ही खर्चा उठाते-उठाते तबाह हो गए। बंसू के पास पैसा नहीं था। कभी-कभी इस बात की ग्लानि उन्हें होती लेकिन एक समय ऐसा भी आया कि जब ग्लानि का कहीं दूर तक निशान नहीं रहा। उन्होंने यह भी सुन रखा था कि कि सिंगार-पटार के कारण वे सब सुंदर दिखती हैं और मेकअप उतरते ही काली और बदरंग इतनी नज़र आती हैं कि कहने की बात नहीं। बस यही प्रतितर्क था जिसने ग्लानि को सोख लिया।
लेकिन बंसू की दुलहिन वास्तव में सुंदर थीं। उनके चेहरे पर इतना नमक और आँखों में इतना पानी था कि जिधर देख लेतीं उधर हरियरी आ जाती। घर के कामों में उनका उत्साह देखकर लगता कि उनकी उम्र बीतना भूल गई है। भले वे चार बच्चों की माँ थीं लेकिन उन्हें कभी कुढ़ते नहीं देखा गया।
लेकिन कोई आदमी कब तक संत बना रह सकता था जबकि स्थितियाँ उसे रौरव यथार्थ तक ले जाकर छोड़ देती हों कि कहीं कोई मतलब ही न निकलता हो। बंसू की दुलहिन भी इन्हीं हालात से जूझ रही थीं। दस साल साथ रहने के बावजूद उन्हें बंसू को आदमी बनाने में एकन्नी भर भी सफलता न मिली।
बंसू की अपनी सोच थी — वे सफल-संभोगवादी थे। उनका मानना था कि अगर स्त्रियों के साथ सफल संभोग होता रहे तो सूखे चने की तो छोड़िए, भूखे रहकर भी मस्ती से जीवन गुजार देती हैं। इसीलिए बंसू हरेक कर्कशा और दुखी स्त्री को असफल संभोग की शिकार मानते थे। इस सिद्धान्त के पीछे गाँव-देहात में प्रचलित तमाम मान्यताएँ थीं जो पता नहीं किसने बनाई थी लेकिन लोग-बाग अपने हिसाब से उनका उपयोग कर लेते।
दुलहिन लेकिन खामोश थीं। दस साल के बाद भी वे कर्कशा नहीं हो पाई थीं। शायद बंसू के लिए यह भी सफल संभोग था।
परंतु दुल्हिन इसलिए खामोश थीं कि माई न जाने कब से खामोश थीं। सबेरे उठते ही कूँची उठाकर वे घर बटोर देतीं। चूल्हा पोत देतीं और बरतन उठाकर माँजने चल देतीं, लेकिन तब तक दुलहिन बिस्तर छोड़ चुकतीं और दौड़कर बरतन माँजने पहुँच जातीं। वह ज़बरदस्ती माई को उठा देतीं। सबेरे का वह दृश्य देखने लायक होता जब दुलहिन खींचकर माई को उठातीं और माई उन्हें ज़ोर से डांटतीं। पहले तो दुलहिन रोने लगतीं लेकिन माई कभी न उठीं। उन्होंने दुलहिन को इस बात पर सहमत कर लिया था कि दुलहिन बासन में उसकुन लगाएँ और वे धोएंगी। वर्षों का यह सिलसिला था।
जब दुलहिन दोंग (गौने के बाद दूसरी बार ससुराल आना) आईं तो कई दिनों तक उन्होंने पाया कि उनके उठने से पहले ही किसी ने चूल्हा-बासन कर दिया है। सभी ननदें तो पहले ही अपने-अपने घर जा चुकी थीं। फिर कौन यह सब कर जाता है ? एक दिन दुलहिन भोर में उठीं तो क्या देखती हैं कि माई बरतन माँज रही हैं। जाड़े की उस भोर में जब घर के सारे लोग बिस्तर में गुड़मुड़ियाए थे तब माई इतमीनान से काम कर रही हैं।
दुलहिन का दिल डर के मारे धड़कने लगा। उन्हें लगा कि माई उनके देर से उठने पर नाराज हैं। डरते-डरते वह पास गईं। माई के हाथ से उसकुन लेकर बरतन रगड़ने लगीं। माई कुछ न बोलीं। वे बरतन धोने लगीं। दुलहिन ने मना किया लेकिन माई न मानीं।
बरतन धो जाने के बाद दुलहिन ने पूछा – “माई ! हमसे नाराज हैं ?”
माई ने हँसकर कहा—“हाँ।”
“अब कल से भोर में उठ जाऊँगी।”
“तब मैं और नाराज होऊँगी।”
“आँय!” दुलहिन माई का मुंह देखने लगीं। उनका मन भर रहा था। माई ने कहा –“तुम मुझे औरत नहीं समझती हो ?”
दुलहिन से कोई उत्तर न बना। क्या जवाब देतीं ?कहने को कुछ था ही नहीं।
माई ने फिर कहा—“मैं अभी बुढ़ाई नहीं हूँ।
दुलहिन को लगा माई सचमुच नाराज हैं और कोई बड़ी बात कहना चाहती हैं लेकिन साफ-साफ नहीं कहना चाहतीं । दुलहिन को कुछ भी समझ में न आया । निरुपाय उनकी आँखों से आंसू निकल पड़े । माई ने दुलहिन का कंधा थाम लिया । बोलीं—“मैं जानती हूँ..... अभी भी वही सब है । तुम बीमार होगी । बुखार होगा । नाक बहेगी लेकिन हर चीज का इलाज गरमी है केवल । आदमी तुम्हारी छाती पर सवार होकर तुम्हें दुमचेगा कि तुम गरम हो जाओ ।”
रोते-रोते भी दुलहिन लजा गईं । कितनी अशोभन बात है । उम्र का ख्याल न किया तो रिश्ते का किया होता । दुलहिन जानती थीं – पिछली दफा जुकाम हो गया था । पूरा बदन टीस रहा था लेकिन पहली विदाई थी इसलिए सबकुछ चुपचाप चुपचाप सह गईं । जब बंसू को पता चला तो उन्होने गरम किया था । मना करने पर ज़बरदस्ती पर उतर आए , लेकिन गरमाकर ठंडा होते-होते दुलहिन को तेज बुखार हो गया । मोरी बहिनी ! माई को कैसे मालूम हुआ ? और मालूम भी हुआ तो इनका दीदा देखिये ! बिना संकोच के बोल दिया। दुलहिन का चेहरा लाल हो उठा ।
माई ने धीरे-धीरे कहा --“मुझे भी गरम किया जाता था बाकी मैं जानती हूँ । बेरामी बेरामी है । उसका इलाज गरमी नहीं है , दवा है । मैं सोचती हूँ कि जब हमारे लिए ठंड इतनी खतरनाक है तो पानी में सबेरे हाथ ही क्यों डाला जाय । मुझे लगा सबेरे-सबेरे इतनी ठंड में कहीं तुमको खांसी-जोखाम न हो जाय इसलिए तुमसे नाराज हूँ ।”
अरे ! दुलहिन का कलेजा जैसे बिहर गया यह सुनकर। यह बात है। कातर होकर उन्होंने सिर्फ इतना कहा—“माई !!” इसमें रुलाई , हिचकियाँ , सुख , आश्चर्य और ग्लानि सब कुछ था । यह तो उन्होंने सोचा ही न था। बचपन से ही काम करने की आदत बन गई । कभी-कभी बुखार-जुकाम होता तो उनकी माँ और भाभियाँ काम न करने को कहतीं लेकिन किसी ने झटपट वह काम पूरा नहीं किया इसलिए दुलहिन सबकुछ के बावजूद काम करती रहीं। लेकिन यहाँ ......
दुलहिन को लगा कि वे माई की छाती में बह रही ममता की नदी में आकंठ डूब गई हैं। कौन कह सकता था कि दुलहिन माई के पेट से पैदा नहीं हुई हैं। वे माई के कंधे पर सिर रखकर उस दिन देर तक रोती रहीं । माई कहती रहीं—“मन बुढ़ाया नहीं है । अभी भी याद है साफ-साफ। बंसू के बाऊ को केवल गरमाने आता था । जब उन्हें सचमुच समझ में आया कि हारी-बीमारी हारी-बीमारी होती है तब तक उनके कंधों पर सारे घर का बोझ आ गया था। जो हो सका मैंने भी किया । तब से इतनी फुर्सत ही न मिली कि बुखार आ जाय। लेकिन ठंड है तो मुझे न लगेगी तुम्हें लग जाएगी । मैं चाहती हूँ मेरी बिटिया को तो न लगे।”तब से लगातार दुलहिन देख रही थीं कि माई खामोशी से सारा काम कर देतीं। उनको थकने न देने के लिहाज से दुलहिन पीछे-पीछे लगी रहतीं । उनकी थकान को लेकर दुलहिन वास्तव में चिंतित रहतीं । दस साल से वे जब-जब माई के पाँव दबाने गईं तब-तब माई ने बिना उनका पाँव दबाये अपना पाँव छूने भी नहीं दिया । दुलहिन उलाहतीं—“माई ! मुझे एकदम नरक ही में जाना है अब ।”
माई मौज में झिड़क देतीं—“सौत की बेटी , एतनी बढ़िया सास को छोडकर भी तुम नरक ही जाना चाहती हो अभी । सीधे सुरग जाना जब जाना नाहीं तो यमरजवा का मुंह और तुम्हार भथियान दोनों कूँच दूँगी ।”
दो स्त्रियों द्वारा एक दूसरे को आराम और सुख पहुंचाने की होड़ में इस घर का अस्तित्व बचा हुआ था। हर काम वे इस तरह करती कि जैसे एक दूसरे को थकने से बचाना उनका लक्ष्य था। जाँत पर बैठतीं तो सोचतीं कि कहीं सामनेवाले को ज्यादा ज़ोर न पड़े । इसी कारण बंसू की आवारागर्दी खलने लायक होने पर भी खलने लायक बनने नहीं दी गई। इसीलिए बनारसी भले कुढ़ते रहते मगर दोनों स्त्रियों ने घर को इतना सहज बनाए रखा कि घर चलता रहा। हालांकि घर में अभावों की कमी नहीं थी। थोड़े से खेत थे जिनसे बमुश्किल सात-आठ महीने के लिए गेहूं निकाल पाता। थोड़ा सा दूध हो जाता। थोड़ी-बहुत सब्जियाँ हो जातीं। कुछ लौकी कोंहड़ा-बैगन बेच दिया जाता जिससे घर किसी तरह चल जाता लेकिन इस किसी तरह में यह आम बात थी कि बनारसी एक कुरता दस-बारह साल चला डालते। पनही की जोड़ी बरसों चलती। अक्सर जरूरत न होती तो नंगे पाँव ही चलते। माई की एक साड़ी कम से कम तीन-चार साल चलती। माई ने कभी बदन में साबुन न लगाया। वे नदी किनारे जातीं , वहीं से करैली मिट्टी लेकर बाल धोतीं और शरीर भी धोतीं।
लेकिन माई दुलहिन के बारे में कभी उदासीन न हुईं। कपड़ा धोने और नहाने के साबुन की एक-एक बट्टी हमेशा ले आतीं। दुलहिन की साड़ी उद्धक होने से पहले ही नई साड़ी ले आतीं। जब कभी मन बदलना होता तो स्वयं दुलहिन का उतारा इस शान से पहनतीं गोया वह हज़ारा हो। बच्चों का पूरा ध्यान रखती । माई खामोश थीं लेकिन आत्मकेंद्रित नहीं थीं। कभी-कभी वे दूसरे का दुख दूर करने के लिए सबकुछ भूल जातीं । इसके अनेक उदाहरण थे।
यहाँ तक कि माई ने बंसू के प्रति भी स्नेह कम न किया। केवल एक बार आपे से बाहर होकर डांटने के उन्होंने फिर कभी कुछ न कहा । माई ने कोई जगह ऐसी न छोड़ी थी कि कोई उनपर उंगली उठाता। माई के पास अथक जाँगर था और उस जाँगर के आगे किसी की न चलती थी।
अगर बंसू कमाते तो दुलहिन के हाथ में चार पैसे रहते । घर में कुछ सहूलियत हो जाती। बच्चों के बारे में कुछ अधिक सोचा जाता । बनारसी खुश रहते और बंसू भी चार जन में गिने जाते।
इन दस वर्षों में दो बार दुलहिन को लगा कि माई अपनी खामोशी उन्हें खामोश रखने के लिए जारी रखे हुये हैं। लेकिन माई से पूछा नहीं । एक बार दुलहिन ने बंसू से झगड़ा किया लेकिन बंसू तो बंसू ही ठहरे। सब कुछ सुनते रहे और जब संभोग में सफल नहीं हो पाये तो बाहर निकल गए । बंसू ने सोचा कि मेहरारू की जात ससुरी आज नहीं तो कल होश में आ जाएगी । तीन महीने वे जोहते रहे कि होश अब ठिकाने हुआ कि तब हुआ लेकिन दुलहिन ने उनसे बात नहीं की । एक दिन बंसू को स्वयं बोलना पड़ा। यह बात माई को मालूम हुई तो उन्होंने दुलहिन से कहा –उसपर अब तुम्हारे सिवा किसी का बस नहीं है । जैसे चाहो रास्ते पर ले आओ।
दूसरी बार जब दुल्हिन ने माई की खामोशी अर्थ पाना चाहा तो फिर बंसू को निशाने पर आना पड़ा । दुलहिन लगातार चुप रहीं । बंसू लगातार उन्हें बुलाते रहे मगर जब संभोग का काम न बना तो उन्होंने किचकिचाकर कहा—“साली तिरिया चरित्तर फैलाती है । तू सोचती है कि मैं घर का काम करूंगा। अरे बाऊ कभी छोडते हैं कुछ करने को कि माई कुछ कहती हैं । फिर तू कौन है कहनेवाली !?” वे दनदनाते हुये बाहर निकल गए ।
उसके बाद दुलहिन ने फिर कभी माई की खामोशी के बारे में नहीं सोचा । बंसू को रास्ते पर लाना सहज नहीं था।
लेकिन एक वह अनायास ही हो गया जो कभी और न हुआ । उस दिन बंसू ने पाया कि दुलहिन के ब्लाउज के भीतर कंचुकी नहीं है। वे पूछ बैठे –“वो क्या हुई ?”
दुलहिन ने कोई जवाब न दिया। उस आदमी को क्या जवाब देना जिसके आगे हर बात कुत्ते के पाद की तरह थी। लेकिन बंसू ने कई बार पूछा। हारकर दुलहिन ने वह चीज लाकर सामने रख दिया। तार-तार कंचुकी ! मायके से मिली यह चीज पहनने लायक नहीं बची थी । इसलिए दुलहिन ने उसे याद के तौर पर सहेज कर रख दिया था। बंसू कुछ देर तक उसे उलट-पुलट कर देखते रहे , फिर बोले—“अरे ये तो गई। माई से नहीं कहा ?.............”
दुलहिन ने बंसू की ओर देखा --- उस नज़र में वेदना , घृणा और निराशा का इतना पूर्ण और उत्तप्त भाव था कि बंसू सिहर उठे । वे वास्तव में भीतर तक हिल गए । ऐसी नज़र का सामना उन्हें कभी न करना पड़ा था । उनका मन उखड़ गया । जब रहना असह्य हो गया तो वे उठ गए । चलने लगे तो दुलहिन ने हाथ पकड़ लिया । बोलीं—“कहाँ चले!”
बंसू ने हाथ छुड़ाना चाहा मगर पकड़ ढीली नहीं थी। दुलहिन ने फिर कहा –-“डरो मत ! मैं तुमसे नहीं कहूँगी। आधा जीवन बीत गया । अब तो पहिरने की उमिर भी बीत गई ।”
बंसू ने हाथ छुड़ा लिया और झटके से बाहर निकल गए।
सबेरे वे किसी को नहीं दिखे। शाम को भी नहीं दिखे। दूसरे दिन तीसरे पहर खबर आई कि बंसू ने सूरत की गाड़ी पकड़ ली है। उनकी सूरत-यात्रा ने आस-पड़ोस को काफी मसाला दे दिया । कुछ अटकलें थीं। कुछ विश्वास था कि अब बंसू चेत गए हैं और सुबह का भूला अगर शाम को घर लौट आए तो भूला नहीं कहाता । माई ने कुछ नहीं कहा लेकिन बनारसी बार-बार आश्चर्यचकित होते रहे।
दुलहिन असमंजस में थीं। कुछ कहा भी तो नहीं। क्या बात लग गई ? कहीं माई ने ही तो कुछ नहीं कह दिया ? बाऊ तो बिना एकबार गाली दिये खाना ही नहीं खाते थे और जब उनकी रोज की गालियों से माख नहीं लिया तो अब क्यों नाराज होते।
दुलहिन ने सूरत नहीं देखा था। न सूरत के बारे में कुछ जानती थीं लेकिन बंबई के बारे में उनको पता था कि वहाँ पानी भी महंगा बिकता है। तो क्या सूरत भी बंबई की ही तरह है। बंबई जाने वाले तो खूब रुपया कमा के आते हैं। तब इनको भी वहीं जाना था। भला सूरत क्या लेने चले गए। क्या खाएँगे ? कहाँ सोएँगे ?पता नहीं पास में कितना पैसा है। है भी कि नहीं है ? यहाँ तो कभी कोई काम न किया । वहाँ क्या करेंगे ? लेकिन बार-बार लगता कि बंसू कुछ न कुछ कमा के ही आएंगे। तो कम से कम कह के जाते। क्या मैं रोकती । कहीं भी रहें खुश रहें। लेकिन इतना तो समझते ही कि बता जाते। पता नहीं क्या गलती हो गई ? दुलहिन का मन भर आया ।
दिन भर दुलहिन के आगे बंसू की सूरत नाचती रही। पता नहीं कब आएंगे ? कम से कम बता कर जाते। मैंने तो कुछ कहा भी नहीं कि इतना रिसिया गए। सारे लोग अपने-अपने जीवन में लगे थे। सबके घरों में अभाव शान से जमाई की तरह तरह लेटा हुआ था लेकिन कोई भी उसको विदा देने को उत्सुक नहीं था। उनके जीवन की चौहद्दी में चमाँव , वरुणा नदी , शिवपुर , कचहरी , हिताई-नताई , खे ,पानी , बरखा बाढ़,खाद, बीज, भैंस , गाय , बैल इत्यादि थे और वे नहीं जानते थे कि उनकी नियति के फैसले लेनेवाली संसद , विधानसभावों और परिषदों में लुटेरों , बहुरूपियों और आदमखोरों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
हवा बहुत धीमी गति से चलती रही। पत्ते हिलते रहे। बैल नाद में से कोयर उलटते और मुंह डुबाकर खाते रहे । गायें रंभाती रहीं । भैंसें होंफती रहीं । लोग हँसते रहे। रोते रहे । बतियाते रहे। बनारसी आश्चर्यचकित रहे। माई सदा की तरह खामोश रहती रहीं। क्या पता उनके भीतर कितनी तकलीफ थी ?
लेकिन दुलहिन का ध्यान कहीं और नहीं लग पा रहा था । दिन भर उनके आगे बंसू की सूरत नाचती रही।
रात के एकांत में दुलहिन के कानों में ढोलक-हारमोनियम के स्वर गूंज उठे । दूर कोई करताल बजाकर गा रहा था ---
अरे लागल झुलनियाँ कै धक्का बलम
कलकत्ता निकल गए हो !..........
तो यह बात है ! दुलहिन का चेहरा खिल उठा । बंसू को दिखाने के बाद उन्होंने कंचुकी को डारा पर फेंक दिया था । उसे इत्मीनान से उठाया और चूम लिया।

                       2
अंधेरे पाख की अष्टमी थी। सावन का महीना था। चारों ओर हरियाली का आलम था। धान जड़ पकड़ चुके थे और बाढ़ पर थे। ज्वार, सनई, बाजरा ज़ोम पर थे। हवाएँ पूरब से आतीं तो तन-मन लहरिया जाता था। फुहार पड़ती और हवाओं के साथ मन गुदगुदा जाती। गुवालिनें और केचुए जमीन पर रेंगते निर्द्वंद्व जोड़ा खाते। भैंसों, बैलों, गायों पर चर्बी चढ़ रही थी। कोई-कोई गाय किसी दूसरी को बड़े प्रेम से चाटती और सूँघती रहती। भुट्टे में जीरा-घुआ आ रहा था। जोतने को खेत नहीं थे। बोने को खेत नहीं थे। बस चौतरफा हरियाली ही हरियाली थी। घसकरहियों को अब सिवान भर चक्कर लगाकर घास नहीं छीलनी थी। अब तो खेतों में इतना मोथा, केना, पथरी और दूब मिल जाती कि पलक झपकते ही खाँची भर जाती। खेतों में पशुओं के लिए भी चरी छींटी गई थी इसलिए उससे भी भर-भर नाद हरियरी हो जाती। इतनी हरियरी कि भैंसों को भूसे की याद आने लगती। जीभ का स्वाद ही तो था न सूखे भूसे से पुरता न हरियरी से। उसे तो सबकुछ चाहिए। थोड़ी हरियरी थोड़ा भूसा। साथ में चलावन-बलावन। लेकिन गृहस्थ इस बात को कभी समझते ही न थे। उनको लगता कि हरियरी ही उत्तम चारा है।
अमूमन लोग तो यह सोचते कि अगर भूसा अभी खिला देंगे तो चार-पाँच महीने का लंबा जाड़ा कैसे कटेगा ? बहुत मुश्किल होगी। पता नहीं इस मजबूरी से या पशुओं पर चढ़ती चर्बी से संतुष्ट गृहस्थ हरियरी पर ज्यादा ज़ोर देते। भूसा डालते ही न थे। जब-जब वे खाँची किसी और की नाद की ओर ले जाते तो दूसरी पगहा तुड़ाती । क्या पता उसमें भूसा हो। लेकिन गृहस्थ इस बात को न समझते। कितनी अजीब बात थी। जो लोग गाय-भैंस से इतने अभिन्न थे वे पशुओं की इतनी छोटी इच्छा भी न समझ पाते । पशु मजबूरी में हरियरी चबाते और इसी मजबूरी में चर्बी बढ़ती रहती।
कजरी का मौसम था। कितने घरों में तीज आ चुकी थी। कहीं-कहीं कजरी रात भर चलती। आदमियों की कजरी लाची से होती।  झूले पड़ गए थे। औरतों की कजरी झूले पर चलती। औरतों के बोल गूँजते—हमके सावन में साँवरिया एक साहेबवा चाहियेँ ना।
बंसू इसी बीच लौटे। करिया-रिट्ट। बाल-दाढ़ी बढ़ाए। मैली धोती-कुर्ता पहने। सैंडल की बद्धी तक उखड़ चुकी थी। बंसू अपने घर भी नहीं गए । कतवारू से पटरी थी इसलिए चुपचाप उनके घर में घुसे। कतवारू की पत्नी पिसान सान रही थीं । चूल्हे पर चढ़ी बटलोई की दाल बीच-बीच में फ़फाने लगती तो फूँक मारतीं और फिर भी न सथाने पर गोहरी चूल्हे से निकाल लेतीं। वे फ़फा रही दाल को फूँक मार रही थीं कि तभी बंसू घर में घुसे और चिर-परिचित अंदाज में बोले —“जैरामजी की मालकिन। का हालचाल है ?”
“आँय !” कहते हुये मालकिन ने पहले तो बटलोई में फूँक मारना बंद कर चूल्हे से गोहरी बाहर खींच लिया , फिर अपने मूँड़ पर की धोती ठीक की। कुछ क्षण उन्हें अकनने में लगे। अंदाज तो जाना-पहचाना था लेकिन आवाज फटी-सी। शक्ल अजनबी-सी नज़र आ रही थी। कद से कुछ समझ में आया तो मालकिन ने ध्यान से देखा और बेसाख्ता बोल पड़ीं –“अरे बंसू !? तू कहाँ से भयवा ?”
बंसू कुछ न बोले। शायद सोचने लगे हों कि क्या कहें। मालकिन ने ही कहा—“कहो, तू तो......”
“सूरत से आ रहा हूँ।” बंसू ने कहा।
“ऐसे ही ? पैदल!”
बंसू ने भौंचक होकर मालकिन की ओर देखा। उन्हें हंसी आ गयी। बत्तीसी दिखने लगी लेकिन हंसी में कोई ताब न थी। हंसी दुलहिन को भी आई लेकिन उनसे हंसा न गया। बंसू को ध्यान से देखती रहीं । कई देर अबोला रहा। बंसू ने ही खामोशी तोड़ी —“ और मालकिन, कतवारू भिया कैसे हैं। बाल-बच्चे कैसे हैं ?”
“और तो सब हियाँ कुसल-कार से हैं बंसू। तोहरे हियाँ भी सब ठीक है। बस तू घर में सबके बता के राजी-खुसी गए होते तो बहुत अच्छा रहता। ऐसा का झगड़ा रहा यार?”
बंसू कुछ न बोले। वे सिर्फ सुनते रहे । सुनते हुये उनकी नज़र ज़मीन पर लगी रही।
मालकिन ने उनके आगे लोटे में पानी रख दिया और कुरुई में भरी भेली उठा लाईं। हाथ-मुंह धो लो बंसू। चाह बनाती हूँ।”
बंसू कुनमुनाए –“नाहीं ये मालकिन चाह की जरूरत नाहीं। परेसान मत होओ।”
मालकिन ने कहा–“हम जानती हूँ का जरूरत है ?” और शरारत से बंसू का हाथ दबाया –“एतना दिन कैसे मन भटक गया बंसू। माई-बाऊ का मुंह नाहीं निहारे तो का आपन पस-परानी भी बिसर गए ? एकदम से निरमोही हो गए तू तो मर्दवा। का सूरत में कहूँ मामिला पट गया है का हो ?”
बंसू के चेहरे पर अनायास मुस्कान फैल गई लेकिन मामला फीका था। जब बोले तो आवाज भरी हुई थी –“का मालकिन घाव पर नीमक डालती हैं।”
गो कि बंसू ने मज़ाक को गंभीरता से ग्रहण किया था लेकिन उनके गंभीर वक्तव्य से से मुस्कराती हुई मालकिन कतई संजीदा न हुईं। दाल हो गई थी। बटलोई उतार दिया और छोटी देगची में एक लोटा पानी चढ़ा दिया। चोखा बनाने के लिए चूल्हे की आग में चार नेनुआं खोंस दिया। दाल छौंकने के लिए कल्छुल गरम करते हुये बोलीं—“भले हम पद में पतोह लगती हूँ बंसू पर उमिर में तो बड़ी हूँ। गौने आई रही तो तुम्हरी जंघिया सरकती थी । हम भी नीमक न डालूँ तो कौन डालेगा। कुछ फरज है कि नहीं ?”
बंसू कुछ न बोले। सिर्फ सुनते रहे।
“तुमको सब चाहते हैं। माई-बाऊ , बाल-बच्चन के तुमसे कोई सिकाइत नहीं है। बाकी अबहीं हम का कोई भी नाहीं समझ पाया कि बात का भई जो बिना बताए चले गए।


बंसू कुछ न बोले । सिर्फ सुनते रहे ।
कल्छुल लाल हो गई थी । मालकिन ने आग से उठाकर धीरे से ठोंका । फिर फूँककर उसमें लगी राख उड़ाई और तेल लाने के लिए भंडरिया खोलने लगीं ।
बंसू सिर झुकाये बैठे रहे। सुनने के लिए कुछ न था इसलिए सुने हुये पर गुनते रहे । गुनते-गुनते उनको लगा कि बिना बताए जाकर उन्होंने बहुत गलत किया है । बाऊ से न बताया होता तो बच्चों के मुंह से माई को ही कहला दिया होता । बंसू हिलक पड़े । चुपचाप।आँखों में वेग से पानी आ गया । लगा रुलाई फूट पड़ेगी । लेकिन मालकिन न देखें इसलिए उन्होंने मुंह लटका लिया और कठिनाई से जब्त किए रहे ।
अचानक बंसू छींकने लगे । मालकिन भी छींक रही थीं । कलछुल में तेल और जीरा-मिर्च खौल रहा था । देर तक दोनों प्राणी छींकते रहे । दोनों के आँसू बहते रहे । बंसू ने आँखों पर गमछा रख लिया । मालकिन यह देखकर हंसने लगीं । स्वयं बंसू भी हंसने लगे ।
दाल छौंककर मालकिन ने बटलोई की चाय उतारी। छानकर गिलास में बंसू को दिया और लोटे में पति-बच्चों को रख दिया। नेनुआं चूल्हे में से निकालकर थाली में रखा और बंसू से बोलीं—“”अबहिन पप्पू-गप्पू और उनके बाऊ भी थोड़ी देर में आ जाएंगे । तब तक तुम चाह पियो । बैठो हम अभी आती हूँ ।
“कहाँ मालकिन ?”
“तुमहूँ बौरहा एतना भी नहीं समझते।” मालकिन ऐसे मुस्कराईं कि बंसू लजा गए । मालकिन के जाने के बाद वे वहीं पड़ी खटिया पर ढरक गए ।
बंसू लेटे-लेटे सब गुजरी-बीती सोचते रहे और उन्हें लगता रहा कि बिना बताए जाकर उन्होंने गलत किया है ।
काफी देर बाद मालकिन लौटीं । उनके पीछे-पीछे बंसू की दुलहिन थीं । वे दोनों से आईं । चूल्हे के पास बैठीं । बंसू अपने में खोये रहे । मालकिन ने चुपके से बंसू के गमछे और दुलहिन के पल्लू में गांठ लगा दिया । इसकी खबर दोनों को न हुई । मालकिन ने दुल्हिन को तिखारा था कि आवाज न करना । एक नए मेहमान हैं । गांठ बांधकर वे हितऊ-हितऊ बुलाने लगीं तो बंसू उठ बैठे । दुलहिन ने तुरंत ही उन्हें पहचान लिया । वे मन ही मन मुस्कराईं फिर लजा गईं । यह खयाल आते ही कि बंसू बिना बताए गए थे । कुछ समझते ही नहीं थे इसलिए नहीं बताया । यह खयाल आते ही वे रुष्ट हुईं और उठकर बिना बंसू की ओर देखे मुड़ीं और आँचल से बंधा गमछा लिए-दिये चली गईं ।
बंसू शर्मसार थे । दुलहिन को जाते देखा तो सिटपिटा गए । सोचने लगे कि सबके मन में बिना बताए जाने पर रोष है ।
मालकिन हँसती हुई कह रही थीं –“बंसू अब गांठ की लाज रखना ।”
तभी मय पप्पू-गप्पू कतवारू आ गए । मेहरारू को हँसते देखा तो बोल पड़े—“का रे गपुआ की माई !!”
मालकिन के जवाब देने से पहले ही बंसू ने कहा –“राम-राम पहलवान !”
“राम-राम ! अरे बंसुआ !?” कहते हुये कतवारू ने बंसू को लिपटा लिया—“मर्दे , तुम कहाँ लाँड़ चाटने के लिए चले गए थे ?”
जवाब मालकिन ने दिया—“सूरत गए थे नौकरी पर । तीन दिन की छुट्टी ले के आए हैं ।”
“अरे हम कहित हैं सूरत जाओ चाहे डिल्ली जाओ भला बता के तो जाओ , सब परानी तब से हलकान हैं ।”
बंसू ने कोई जवाब न दिया । जैसे हलक में आवाज न थी । गरदन नीची कर लिया ।
कतवारू ने मालकिन से कहा –“अरे पपुआ की माई । ले आओ तब दो रोटी खा लिया जाय । मर्दे बंसू घर में रहोगे तब चिंता , न रहोगे तब चिंता । बता के जाना था । चलो खैर । अब तो काम-धाम ठीक है न ?”
बंसू ने कोई जवाब न दिया । कतवारू को लगा बंसू ने गरदन हिलाकर हाँ कहा है । बंसू को लगा उनके मुंह से महीन सा हाँ निकला है । क्या सच.....? वे इसकी सच्चाई को अकन रहे थे और उनका मन ज़ोर-ज़ोर से कह रहा था—नहीं... नहीं .... नहीं .....
क्या कोई यकीन करता कि इतने बड़े सूरत शहर से बंसू बैरंग लौटे हैं । जब गए थे तो तन पर धोती कुरता और जेब में डेढ़ सौ रुपये थे । नाम सुनकर गए थे कि सूरत में पावरलूम का बड़ा कारोबार है । छः महीना पित मार कर मन लगा लेंगे तो सीख कर आदमी बन जाएंगे। फिर तो ढाई-तीन हज़ार आराम से कमा लेंगे । खा पी कर डेढ़ हज़ार मज़े में बचा लेंगे । हज़ार रुपया घर भेजेंगे और बाकी अपने नाम से जमा रखेंगे । पाँच-सात साल में कुछ बचा लेंगे तो लड़कियों की शादी कर देंगे । दालान पक्का करवा लेंगे । दो भैंस खरीद लेंगे और घर पर ही रहने लगेंगे । तब तक हीरा-जवाहिर भी चेतने लायक हो जाएंगे । सब ठाठ से हो रहेगा। ससुरा न उधौ का लेना न माधौ का देना । आखिरी बार चलते हुये एक बढ़िया टेपरिकॉर्डर खरीदेंगे । दुलहिन की भी शिकायत दूर होनी चाहिए और बिलकुल दूर होनी चाहिए ।
बंसू जब सूरत में उतरे तो शहर की भारी आबादी देखकर अपनी सारी उम्मीदों को पूरी होते देखने लगे। ठट्ठ के ठट्ठ पुरुष और स्त्रियाँ । एक से एक सुंदर और सलीके वाली । आने से पहले ही उन्होंने गुजरात भूमि के अनेक किस्से सुन लिए थे और उन बातों से असलियत का मिलान करते । बहुत रोमांच हो आया ।
लेकिन इसके उलट एक यथार्थ भी था । पंदहा के जियावन के भरोसे वे सूरत चले आए थे । उम्मीद थी कि चलते ही कुछ काम शुरू कर देंगे लेकिन जब पहुंचे तो पता चला मामला कठिन है । प्रौढ़ बंसू अभी पावरलूम का क ख ग नहीं जानते थे । दो चार दिन तक मन लगा रहा फिर उचट गया । नई उमर के जो लौंडे काम सीख गए थे वे बंसू को भूसा समझते। वे प्रायः बंसू को छोटे-मोटे काम का आदेश देते थे। मन मारकर बंसू करते क्योंकि काम सीखने की जरूरत थी । हफ्ते ही भर में उन्हें घर की याद सताने लगी । दुलहिन का चेहरा सामने आ जाता। बच्चे कानों में उंगली करने लगते । कभी-कभी बैल खेत में बैठ जाता तो उसे पीटते हुये बनारसी ज़ोर-ज़ोर से गालियाँ सुनाते मिलते। माई निर्विकार खटती रहतीं। दिन में काम का सिलसिला , रात में यादों का ताँता । एक पल को फुरसत न थी । धीरे-धीरे दो महीने बीत गए । वे बहुत थोड़ा ही सीख पाये थे और कभी-कभी तो उन्हें चाय का जूठा गिलास भी उठाकर धोना पड़ता । इन्हीं परिस्थितियों में गाड़ी पर चढ़ गए और तीसरी शाम कैंट में उतरे ।
खाना खत्म हो चुका था । कतवारू हुक्का भर ले आए । बंसू को थमाते हुये बोले –“ले यार जगाव तनिक।”
बंसू हुक्का जगाने लगे ।पाँच मिनट गुड़गुड़ाने के बाद उन्होंने कतवारू को थमा दिया और इधर-उधर की बातें करने लगे ताकि कतवारू फिर से सूरत या काम-धंधे की बातें न छेड़ दें । गाँव-गिराँव की ढेरों बातें होती रहीं । घर-घर का उट्का-पुराण हुआ फिर बात सूरत की सुंदरियों तक जा पहुंची। यह चर्चा इतनी मधुर थी कि थोड़ी ही देर में कतवारू नींद के आगोश में चले गए और उनसे तान मिलाते हुये जल्दी ही बंसू की नाक भी बजने लगी ।
भोर में बंसू की आँख खुली । कुछ दबाव महसूस होने लगा । घड़ी गिरवी रख आए थे । कंगाली के दिनों में ससुराल की वह निशानी बड़े काम आई थी। घड़ी के अभाव में समय को अकनने लगे। चार से कुछ आगे-पीछे का समय महसूस हुआ। असमंजस में पड़े रहे कि उठूँ कि न उठूँ । इसी बीच चार की डेहरा(देहरादून एक्सप्रेस)निकली। वे लेटे रहे और सोचते रहे। उनको लगा दुलहिन उचित ही नाराज हैं। इसमें नाजायज कुछ भी नहीं । उन्होंने उनके लिए किया ही क्या है सिवा ज़ोर-ज़बरदस्ती के ? सूरत में उन्होंने देखा कि पति लोग पत्नियों के लिए क्या-क्या नहीं करते ! पान की बेली की तरह ख्याल रखते हैं । कहीं ठोकर लग जाय तो मुंह से फूंककर तकलीफ दूर करते हैं और एक बंसू हैं। एक कंचुकी तक नहीं दे सके । कभी पूछा तक नहीं कि खाया कि नहीं खाया। उन्हें वह रात याद आई जिस दिन दुलहिन ने ब्लाउज के नीचे कुछ नहीं पहना था । किस निगाह से देखा था दुलहिन ने? बंसू एक बार फिर सिहर उठे। उन्हें लगा वे कहीं दूर निर्जन में अकेले खड़े हैं और दुलहिन उनसे दूर चली जा रही हैं । लगा आँखों में कुछ उबल रहा है ।
तभी कतवारू उठ बैठे और आवाज दी –“अरे , पपुआ की माई एक लोटा पानी लियाव तनिक। अरे बंसू !?”
बंसू थोड़ी देर दम्मी साधे रहे फिर धीरे से बोले –“हूँ !”
“नींद नाहीं आई का रात में ?”
“नाहीं आई थी । अबहिन थोड़ी देर पहिले खुली है । डेहरवा गई है तब।”
“पानी पियोगे?”
हाँ, नाहीं , पियास तो नाहीं लगी है ।”
“तो चलो मर-मैदान हो लिया जाय।”
“हाँ, हम भी सोच रहे हैं ।”
फिर दोनों कुछ देर बातचीत करते रहे । इस बीच कतवारू ने एक लोटा पानी पिया और सुर्ती मलते रहे। काफी देर बाद ठोंक कर हथेली बंसू की ओर बढ़ा दिया। एक चुटकी लेकर बंसू ने होंठों के नीचे दाब लिया और दोनों लोग तीरवाही की ओर जाने लगे ।
झलफलाह हो चला था। हवा में ताजगी थी और हरियाली की खुशबू समाई हुई थी। आगे-आगे कतवारू पीछे-पीछे बंसू। कतवारू ने पूछा –“तो फिर जाओगे ?”
“हाँ कतवारू भिया , जाना तो पड़ेगा।”
“मर्दवा देस भर के लोग ससुरा बनारस में आके कमा रहे हैं और तू गाँव-देस छोड़ के भटभटाते फिरते हो।”
बंसू ने धीरे से कहा—“हूँ।”
“तब इस बार बनारसी पुराने से कहकर जाना ।”
बंसू चुप रहे।
“तो बढ़िया काम चल जाएगा तो बाल-बच्चन को भी ले जाओगे?”
बंसू ने कोई जवाब न दिया।
इसी बीच दोनों तीरवाही तक आ गए थे। मौका देखकर थोड़ी-थोड़ी दूर पर बैठ गए।
बंसू सोचने लगे । उनको अभी माई-बाऊ के सामने जाना है। बेटे को देखकर न जाने उन्हें कैसा लगेगा ? बच्चे बाऊ-बाऊ कहते हुये दौड़े आएंगे। कुछ मांगेंगे तो क्या दूँगा ? बंसू ने दोनों खलीता देखा कुछ रेजगारी और बीस और दस के पाँच-पाँच और एक के सात नोट थे। घर में चलते समय कम से कम पाव भर मीठा ही ले लेते । न मीठा हो तो कम से कम पैकेट बिस्कुट ही सही। गाँव में दूर जाकर एक दुकान है भी तो पता नहीं खुली हो कि न खुली हो। फिर बंसू ने सोचा कि चारों के हाथ पर एक-एक रुपया रख दूँगा। फिर कभी आऊँगा तो ले आऊँगा मिठाई, कपड़े , जूते सब कुछ। अभी बस एक-एक रुपया ही ठीक रहेगा। बंसू यही सब सोचते हुये उठे और नदी में पानी छूआ।
कतवारू हाथ धोकर बाबुल की दतुअन तोड़ लाये। एक बंसू को दिया । दूसरी स्वयं कूंचने लगे ।
कुल्ला करने के बाद कतवारू ने कहा –“चलो घर खराई मार के जाना ।”
बंसू ने कहा—“नाहीं कतवारू भिया । चलता हूँ । जरा माई-बाऊ को भी देख लूँ ।”
“ठीक है , जाओ। बाकी ये दफा सबसे बोल के राजी-खुशी से जाना ।”
बंसू ने गरदन हिलाई और खेत की मेड़ों से होते हुये घर की ओर जाने लगे । जैसे दबे पाँव लोमड़ चलता है या बिना आहट साँप रेंगता है वैसे ही बिल्ली की तरह बंसू चल रहे थे । कभी आँखें झुका लेते और कभी कनखी ताकते। इक्का-दुक्का लोग सुर्ती ठोंकते वरुणा की ओर झाड़ा फिरने की जल्दी में जा रहे थे । उन्होंने बंसू की ओर कोई ध्यान न दिया। शायद लगा हो कि किसी के यहाँ मेहमान आया हो ।
बंसू भी नहीं चाहते थे कि उनका सामना किसी से हो। खामख्वाह दस तरह के सवाल करेंगे लोग । किसका-किसका जवाब दिया जाय !
इसी तरह बंसू अपने दरवाजे पर जा पहुंचे। छः-साढ़े छः का समय होगा । सबकुछ साफ दिखने लगा था । बनारसी बारी की तरह मुंह करके खटिया पर बैठे सुर्ती मल रहे थे। दोनों भैंसें , कजरा और पंड़िया नाँद में लगाई जा चुकी थीं। पँड़िया पूरा मुंह नाँद में डुबाती और भर थूथुन कोयर नीचे फेंकती । बनारसी उसी पर कुढ़ रहे थे—“केतनी बार कहता हूँ इसको दो दिन कोयर ही मत दो । बाकी नाहक नाँद भर देती हैं।”
बनारसी की दाढ़ी बढ़ी हुई थी। आगे नीचे के दो दांत टूटे हुये थे । सुर्ती ठोंक कर उन्होंने जैसे ही होंठों के नीचे दबाया तब तक बंसू ने झुककर उनका पाँव छुआ। वे चौंके और यह देखकर कि बंसू हैं , उनकी पीठ पर हाथ फेरा और आशीर्वादस्वरूप कहा—“अस्सा !”
बंसू रोमांचित हो गए। बरसों का अबोला था। एक डर था । उनके रोएँ खड़े हो गए। लेकिन हिम्मत न पड़ी कि बनारसी से आँख मिलाएँ। नज़र झुकाये ही घर में घुस गए। माई जाँत पर बैठी थीं। बंसू ने उनका पाँव छुआ।
बंसू के चारों बच्चे उठ चुके थे और बासी रोटी और तरकारी खा रहे थे। जब बंसू को देखा तो मारे खुशी के बाऊ-बाऊ कहते बाहर आकर चिल्लाने लगे ।
बनारसी ने उन सबको ज़ोर से डांटा और कहा—“अरे हिरवा-जवहिरा । जाके देख ससुरा तोर बाऊ केतना पैसा लियाया है।”
इतना सुनते ही चारों बच्चे बंसू के पास जा पहुंचे और कहने लगे—“बाऊ पैसा दो !”
बंसू भरे हुये थे। चारों को सटा लिया। चारों का माथा चूमकर जेब से एक-एक रुपया निकाला और सबकी हथेली पर रख दिया । चारों बंसू से जान छुड़ाकर फिर बनारसी की ओर भागे और अपना-अपना रुपया दिखाकर कहने लगे —“देखो , देखो , बाऊ बहुत पैसा लियाए हैं । बज रहा था।” और कूदने लगे ।
हीरा ने कहा –“चल जवाहिर दुकान चलें बिस्कुट ले आयें ।”
जवाहिर बोले—“नाहीं भयवा । हम आपन नाहीं खरच करूंगा। मेला में जाऊंगा।”
बनारसी ने कहा—“अरे सब , लाके दो पैसा हमके। गिरा दोगे तुम सब।”
नाहीं भयवा ।” कहते हुये चारों घर के भीतर भागे।

बंसू ने पाँव छुआ लेकिन माई कुछ बोल न पाईं। बोलना केवल मुंह से नहीं हो सका । इधर के दिनों में तो उनके आँखों में सिर्फ बंसू ही नाचते रहे । दतुअन करतीं तो पानी भूल जातीं लेकिन बंसू कभी अनमुख न हुये। एक दिन वे गोबर सान रही थीं । उनके ख़यालों में बंसू थे। वे बिना बताए गए थे और माई को लगता कि वे उनकी किसी बात से बुरा मानकर गए। लेकिन अपना पूरा जीवन खुल्हेरने के बाद भी उनको कोई प्रसंग याद नहीं आया । उनको लगा दुलहिन से ही झगड़ा-झंटा हुआ हो शायद । लेकिन सारी अंतरंगता के बावजूद दुलहिन ने कोई ऐसा संकेत न दिया जिससे कोई माकूल वजह मालूम हो । इन्हीं ख़यालों में डूबी वे गोबर सान रही थीं हथेली में कुछ गड़ गया। उन्होंने हथेली हटा लिया और गोबर पोंछते-पोंछते हथेली खून से लाल हो उठी । उन्होने हाथ धोया। बांस की एक फांस चुभी हुई थी। नाखून से पकड़कर उन्होंने बाहर खींचा और फाँस निकलते ही खून और वेग से बहने लगा। माई ने अंगूठे से उस जगह को दबा लिया और दूर गोबर पाथती दुलहिन और लालती को आवाज दी।
लालती दौड़कर आई और जैसे ही माई की हथेली में खून देखा तो चिल्लाने लगीं—“अरे मोरी माई । अरे एतना खून रे!”
माई ने लालती को डांटा –“क्या चिल्लाती है रे । गँड़ासा लगा है क्या?”
और घर जाकर ढिबरी उठा लाने को कहा। दुलहिन गोबर छोड़ कर दौड़ती आईं । ढिबरी लेकर लालती के साथ मानती भी दौड़ीं।
माई ने ढिबरी से घाव पर मिट्टी का तेल चुआती लालती को देखा । वे आजकल गोबर पाथना सीख रही थीं। माई ने लालती के गोबर सने हाथों में ही लालती की भाग्यरेखा देखा । अपना पूरा जीवन देखा । दुलहिन की तकलीफ़ें देखी और आगे न देख पाईं क्योंकि आँखों में लहरें उमड़ने लगीं ।
दुलहिन को लगा कि मिट्टी का तेल पड़ने से घाव बिस्सा रहा है। उन्होंने लालती के हाथ से ढिबरी ले ली और माई का दिल बहलाने के लिए इधर-उधर की बातें करने लगीं ।
उस दिन माई ने सही मायने में बंसू को दोषी माना । पूरे मन से वे सोचने लगीं कि बंसू के हाथ से दुलहिन तो दुलहिन चारों बच्चों की भी किस्मत फूट गई है। उनके सीने में एक हुक थी और मन में एक गुस्सा था। बच्चों के लिए न ढंग का खाना न कपड़ा। स्कूल का मुंह नहीं। माई को एक अजीब विषाद ने घेर लिया।
आज जब बंसू ने पाँव छुआ और उन्होंने बंसू की दशा देखी तो उनका कलेजा बैठ गया। कुछ बोल न पाईं ।

बंसू के लिए ये क्षण अझेल थे। बच्चे अपने में मगन थे। दुलहिन ने एक नज़र देखा तक नहीं। माई ने मुंह ही न खोला। वे धीरे से घर के बाहर निकले और अखाड़े की ओर खिसक गए।
माई काफी देर तक समझ ही न पाईं कि क्या कहें ! बेटे की ऐसी ही हालत देखना बदा था? अगर बंसू कमा-धमा के आते तब ?
मेहरिया देखे मोटरी ! मतारी देखे पेट !!
माई के मन में भूचाल आ गया । पता नहीं कब का आया है ? खाया कि नहीं खाया । कहाँ था ? कैसा था ?माई को लगा कि उनकी छातियों से दूध उमड़ रहा है ।
अभी वे जाँत पर ही बैठी थीं । उनको लगा बंसू डूब रहे हैं और उनको आवाज दे रहे हैं। माई झटपट जाँत से उठीं और आवाज लगाईं—“अरे जवाहिर , तनि देख बाऊ कहाँ गया रे। अरे दुलहिन थोड़ी सी दाल भिंगा दो। आज दूध मत नापना।”
जवाहिर बाहर निकले और घर के आस-पास देख कर लौटे । कहने लगे—“इधर तो नाहीं लौक रहे हैं । का पता कतवारू के यहाँ होंय ।” और तेजी से बाहर निकालकर खेलने में मशगूल हो गए।
घर में पूड़ी-बखीर की तैयारियां होने लगीं । एक रौनक सी लौट आई।
बनारसी तीरवाही की ओर गए तो बार-बार सोचते रहे कि ससुरा कुछ कमा के आया तो इतना मलिच्छ क्यों है। कहीं जेब वगैरह तो नहीं कट गई। अच्छा चेत लिया अपना घर-दुआर। देर से ही सही । सबसे खुशी की बात यही है । इसलिए जो मिलता बनारसी कहते कि हमारे यहाँ पहलवान भी आ गए हैं। पता नहीं कुछ कमाए कि नहीं कमाए । सूरत पर तो एकदम बिल्ली ने अंडा दे दिया है। चलो जो भी हो घर आए न । अच्छा फलाने पूछना जरा कि क्या करते हैं । क्या कमाई करते हैं ? कुछ हो जाती है बरक्कत कि नहीं । अबहीं तो बात करने लायक हैं भी नहीं । नहा-धो लें तब । खाने-पीने के बाद ।
दोपहर बीत गई । बंसू घर नहीं आए।
दुलहिन दाल पीस चुकी थीं । सब्जी छौंक दी गई थी । बटलोई में खीर पक रही थी।
थोड़ी-थोड़ी देर बाद माई बाहर देखतीं लेकिन बंसू कहीं नज़र न आते। दो बजे तक जब नहीं आए तो हीरा कतवारू के यहाँ गए। मालूम हुआ यहाँ नहीं आए हैं।
ढाई बजे तक बरसाती , सचनू , धन्नी , बद्दू और निहोरी वगैरह बंसू से मिलने आ गए। इधर-उधर की बातें होती रहीं और बंसू के गुणात्मक परिवर्तन पर चर्चा चलती रही । बीच-बीच में उनकी अनुपस्थिति पर भी बात आ जाती।
धीरे-धीरे साढ़े तीन बज गए। अब तक घर के किसी प्राणी ने कुछ न खाया था।
पौने चार बजे टेढ़ई तरना बाजार से आते दिखे। नज़दीक आकार उन्होंने ज़ोर से कहा—“अरे तू लोग हियाँ पंचाइत कर रहे हो । बंसू तो गए !”
बनारसी के मुंह से बहुत कारुणिक , डरावनी और पतली सी चीख निकली –“कहाँ भिया ?”
“सूरत गए । अब तक तो गाड़ी भदोही डाकती होगी।” कहते हुये टेढ़ई ने साइकिल आगे बढ़ा दी।
घर के अंदर लगा जैसे बटलोई की खीर लुढ़क पड़ी।

               3
बनारसी चट पट में चल बसे । चलते पौरुख । न किसी की हींग जाना न जवाइन । बस बंसू के लिए कुफ़सते रहे। बंसू आए और बिना बताए फिर चले गए । न कोई बात किए। न कोई तकलीफ कहा। न किसी का कुछ सुना । जिस दिन टेढ़ई ने बताया कि बंसू ने सूरत की गाड़ी पकड़ ली उस दिन सियापा पसर गया । लगा जैसे चारों ओर सियारिन रो रही है । माई की आँखें अविरल बहती रहीं । दुलहिन बहुत अकेली हो गईं और बनारसी ........ ?
बनारसी बाप थे । कड़ियल थे । अड़ियल थे । जीवन की असंख्य तकलीफ़ों ने उन्हें ठस्स और संवेदनहीन बनाने में कसर न छोड़ी थी लेकिन उन्होंने अपने भीतर की कोमलता को नहीं मरने दिया। जैसे दिमाग सुन्न हो जाने पर हाथी चौफाल गिर पड़ता है । जैसे दंगे में घिरा एक अकेला आदमी लाचार होने पर आक्रामक हो उठता है । जैसे फन कुचले जाने पर साँप पूंछ पटककर अपना गुस्सा जाहिर करता है । जैसे पिंजरे में बंद शेर दहाड़ से सलाखें तोड़ देना चाहता है । वैसे ही बनारसी का व्यवहार था । उनके सपने धीरे-धीरे मरते रहे । वे अकेले और अकेले होते गए थे । विवेक ने ऐसा साथ छोड़ा कि कजरा को बंसू और सिर्फ बंसू समझने लगे ।
जिस दिन बंसू गए उस दिन उन्हें बहुत गरान आई । वे अपराधबोध में तपने लगे । कोई जैसे कलेजे में भाला चुभा रहा था । लग रहा था अब बंसू कभी नहीं आएंगे । एक ही बेटा और जीवन भर का अबोला ।
उस दिन शाम को बनारसी सबसे अलग , सबसे अकेले बंसवारी की ओर जाकर रो रहे थे । बार-बार गमछा आँखों पर रखते रहे । देर तक रोते रहे । देर तक लगता रहा कि वे सबसे निकम्मे बाप हैं । बंसू मारे डर और संकोच के मारे कभी बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये । लेकिन वे भी कहाँ बाप के अधिकार और वात्सल्य का प्रयोग कर पाये । पता नहीं क्यों बंसू की मति मारी गई थी । किसी काम में लग पाते थे तो क्यों उन्होंने बाप के अधिकार से क्यों नहीं उन्हें डांटा ? क्यों नहीं कभी दुलार से खाने के बारे में पूछा ? जैसे-जैसे यह सब याद आता वैसे-वैसे रुलाई बढ़ती जाती और धीरे-धीरे गमछा आधे से ज्यादा गीला हो गया ।
जब रुलाई थमी तो मुंह धोया और घर के अंदर से ढेर सा चोकर और आटा ले आए और कजरे की नाँद में चलाते रहे । जब वह जल्दी-जल्दी खाने लगा तो हुलसकर उसकी पीठ सहलाते और माथा चूमते रहे । उन्होंने उस दिन उसे टूटकर प्यार किया ।
कई दिनों तक वे बंसू के मित्रों से उनका पता पूछते रहे । लेकिन सूरत के अलावा किसी को कुछ पता न था । बनारसी की बेचैनी बढ़ती रही । लेकिन वे अपनी बेचैनी और पीड़ा किसी से कह नहीं पा रहे थे ।

तीसरे पहर वे अपने दरवाजे पर बैठे थे । फगुनहट था । बसंतपंचमी बीत चुकी थी । शिवरात्रि आने वाली थी । इस मौसम में मटर , सरसों , राई वगैरह मिलने से चौचक हरियरी हो जाती थी । भैंसें और पड़िया नाद में मुंह डुबा-डुबा कर खा रही थीं । कजरा नाद के चारों ओर गिरा कोयर टूँग रहा था । बनारसी उसे देखते हुये कुछ सोच रहे थे । काफी देर बाद वे उठे और घर में से चोकर लाकर उसकी नाद में चलाने लगे । जब वह जल्दी-जल्दी खाने लगा तो उसके कंधे सहलाते रहे और उसे ध्यान से देखते रहे । फिर आकर चारपाई पर बैठ गए । थोड़ी देर बाद फिर उठकर टहलने लगे । बंसवारी की ओर गए और वहीं से देखा तो हीरा-जवाहिर कहीं दिखे नहीं । कतवारू के भट्ठे पर कड़ाह चल रहा था । वहीं आलू लेकर गए थे । बनारसी फिर चारपाई पर लेटे और आँखें मूँद ली ।
पाँच बजे के करीब हीरा-जवाहिर आलू लेकर आए और बनारसी को बुलाने लगे । जब वे कई बार बुलाने पर भी नहीं उठे तो दोनों उनको गुदगुदी करने लगे और खुद हँसते हुये कहने लगे कि नहीं तो हम खटिया उलट देंगे । अभी गिरोगे और चोट लगेगी । लेकिन बनारसी नहीं उठे । दोनों और ज़ोर से गुदगुदाने लगे । वे गुदगुदाते जाते और कहते जाते –“तुम सोचते हो कि हम नाहीं जानते कि  नकल बनाए हो । आज तुम हार जाओगे और हँसते हुये उठोगे । उठो , उठो , जल्दी उठो ।”
लेकिन बनारसी नहीं उठे ।
सुक्खू तीरवाही से लौट रहे थे । उन्होंने बनारसी को आवाज दी –“अरे ! का हो । आज दिन-दुपहर ही सो गए का । अरे यार एक बीड़ा सुर्ती खियाओ ।”
लेकिन बनारसी नहीं उठे । सुक्खू ने फिर कहा –“अरे बनारसी ! का हो गया भाई ?” और चारपाई पर झुककर देखने लगे । बनारसी निस्पंद थे । उन्होंने छूकर देखा तो देह ठंडी पड़ चुकी थी । सुक्खू का दिल धक से रह गया । उन्होंने हीरा-जवाहिर को पुकारा –“अरे हिरवा , जवाहिरा जाके अपने माई के बोला के ले आव । बोलो बुढ़ऊ बाऊ की तबीयत खराब हो गई है । जाओ जल्दी ।”
हीरा-जवाहिर दोनों दौड़े और माई को बुला लाये । पीछे-पीछे दुलहिन और कड़ाह छोडकर कतवारू भी दौड़े आए । जब वे पहुंचे और बनारसी को देखा तो कुछ समझ में आ गया । दुलहिन घर में से पानी लायीं और चम्मच से मुंह में डाला पानी बहकर नीचे गिर गया । कतवारू समझ गए । हंस पिंजरे से उड़ चुका है ।
उन्होंने सुक्खू से कहा इनको नीचे उतारो । इतना सुनते ही दुलहिन दहाड़ें मारकर रोने लगीं । हीरा-जवाहिर , लालती-मानती सब रोने लगे । माई धम्म से नीचे बैठ गईं । रुलाई सुनकर बहुत से लोग दौड़े आए । कुछ अन्य औरतें भी विलाप में शामिल हो गईं ।
शरीर नीचे उतारा गया ।
बंसू घर में थे नहीं । दाग कौन देगा ? हीरा ही घर में सबसे बड़े लड़के थे ।
रोते-कलपते कफन-काठी का इंतजाम किया गया ।
जब अर्थी उठी तो पूरे गाँव में जैसे भूचाल आ गया । चारों ओर हाहाकार और सियापा फैल गया ।
छहों लड़कियां आ गईं थीं । सब जारोकतार रोती रहीं । बपई को कोई सुख नहीं नसीब हुआ ।
सबसे ज्यादा खलने वाली अनुपस्थिति बंसू की थी । उनका न कोई पता था न ठिकाना । कई लोग चाहते थे कि उन्हें तार देकर बुलवाया जाय लेकिन इतने बड़े सूरत शहर में उन्हें कैसे ढूंढा जा सकता था ।
रोते-बिलखते तेरही बीत गई ।
धीरे-धीरे सभी उदास मन से वापस लौट गए । घर अकेला रह गया । माई अकेली रह गईं । दुलहिन अकेली रह गईं । हीरा गोरू-बछरू की चिंता में लग गए ।
माई का जी भरा रहता लेकिन मुंह से आवाज न निकलती । सबसे बड़ा पहाड़ उन्हीं के ऊपर टूटा था लेकिन वे घर की धुरी थीं । अगर वे टूट जातीं तो कौन बचता ।
नींद न आती । बनारसी तो चले गए । लौट नहीं सकते थे । जितने दिन बीतते उतना बिसर जाते लेकिन बंसू तो थे । बिना पते के । कब आएंगे ? कोई ठिकाना नहीं। किस हाल में होंगे क्या पता ?
माई स्वयं अपने द्वंद्व को न समझ पातीं । पीड़ा, क्षोभ और अंधेरे भविष्य के बीच वे किसी तरह संयत थीं ।
एक दिन रात में उठीं । पता नहीं उनके मन में क्या आया । गईं और कजरे का पगहा निबुका दिया । बोलीं—“जाओ , जैसे बंसुआ गया निर्मोही होके । तू भी जा ।” कजरा उन्हें देखने लगा जैसे पूछ रहा हो –“मेरा अपराध क्या है माई ?”
उन्होंने फिर कहा—“जाओ । चले जाओ । अब सहा नहीं जाता ।” जब इस पर भी वह टस से मस नहीं हुआ तो उसे तीन-चार पगहा मारा। कजरा बंसवारी की ओर लपका और अंधेरे में ओझल हो गया।
माई ने पगहा दरवाजे पर फेंक दिया और खटिया पर आ लेटीं । बहुत देर तक सोचती रहीं । कजरे  के बारे में । बंसू के बारे में और बनारसी के बारे में । आगे-पीछे अंधेरा था । अंधेरे में दुलहिन हीरा-जवाहिर लालती-मानती सब थे । ढिबरी केवल माई को जलाना था और बुझने से बचाए रखना था ।
भोर हो गई । नींद नहीं आई ।
माई ने खटिया छोड़ दिया। जब दरवाजा खोलकर बाहर निकलीं तो क्या देखती हैं कि कजरा दरवाजे पर खड़ा है । उसकी आँखों से अविरल पानी गिर रहा था। उसका पूरा चेहरा भींगा था और जहां खड़ा था वहाँ कि जमीन भी गीली हो गई थी ।
माई के कलेजे से हूंक उठी । उनको लगा दरवाजे पर बंसू खड़े हैं –टूअर , संकोची और एकटक , जैसे पूछ रहे हों –“मेरा अपराध क्या है माई ?”
माई उमड़ने लगीं । जल्दी से पगहा ले आईं और उसके गले में डाल दिया । वे उसके कंधे पर झुक गईं । उनसे रहा नहीं गया । आँखें तो बेकाबू थीं ही , कंठ भी बेकाबू हो गया ।
दुलहिन और चारों बच्चे हड़बड़ा कर उठे । पास-पड़ोस के लोग भी दौड़े आए । वह रुलाई सबके दिल को चीर रही थी । माई जैसे कजरे के नहीं बंसू के गले लगकर रो रही थीं।सारी आँखें भर आईं ।
पहली बार लोगों ने जाना कि माई को भी तकलीफ होती है और वे साधारण औरतों की तरह रो सकती हैं !

                      4
कभी तिपहरिया की धूप कल्पनाओं को उभारती थी और मन उछल-उछल कर उन जगहों पर जा पहुंचता जहां कभी गए होते । और जहां न गए होते , जिन जगहों का नाम भी न सुना होता वे भी आकार लेने लगतीं । दरवाजे पर जो विशाल महुए का पेड़ था वह तिपहरिया की धूप में सारी सृष्टि का प्रतीक हो जाता । उसमें अहिरान था । वरुणा थी । अखाड़ा था । शिवपुर था । बनारस था । बनारस के आगे था । बंबई था । सूरत था और उन्हीं में कहीं बंसू थे । नीचे से कोई चींटा महुए के पेड़ पर चढ़ता तो लगता शिवपुर स्टेशन से गुजरती एक गाड़ी चली है। और आगे लगता बाबतपुर,जौनपुर और लखनऊ और लखनऊ के और बहुत आगे सूरत । एकदम टुनुगे पर सूरत दिखाई पड़ता और सूरत में घूमते बंसू दिख जाते । एकदम स्पष्ट । आँखों के सामने हँसते-चहकते बंसू ! और दिल धक्क से हो जाता । अरे यार बंसू ! क्या हो रहा है ?
कुहुक उठती कि बिलकुल आँखों के सामने होते हुये भी बंसू को पकड़ा नहीं जा सकता । इतना महान , विवश और तुच्छ लगता था जीवन । फिर भी कल्पनाएं थीं और महुए के पेड़ पर सूरत एकदम साफ दिखता था ।
अब तिपहरिया की धूप काटने दौड़ती थी । एक डर था। एक अकेलापन था । एक उदासी थी । एक कराह थी—जो तिपहरिया की धूप में घुल गयी थी । अब दरवाजे पर एक चारपाई थी । महुए के पेड़ पर भी एक चारपाई थी । लोगों की भीड़ थी । गमगीन चेहरे थे । अर्थी थी और रामनाम सत्य है का हृदय-विदारक शोर था । और फिर उधर देखने की हिम्मत न पड़ती थी । आँखें फिर जाती थीं ।
हीरा की चिंता में भैंसों और बैल का कोयर था । नाद का पानी था । दरवाजे का अकेलापन था । अभी उम्र गुल्ली-डंडा और कबड्डी की थी । पेट भर खाने और पढ़ने की थी । माई चाहती थीं कि हीरा-जवाहिर और लालती-मानती को स्कूल भेजा जाय । पच्छू पोखरी की कन्या पाठशाला टूट चुकी थी । तरना बाजार का प्राइमरी स्कूल विस्थापित होते-होते आखरी सांसें गिन रहा था । जोगीबीर का नया स्कूल था । फीसवाला और ड्रेसवाला स्कूल । जूते साफ हों और हर महीने की पंद्रह तारीख तक फीस जमा हो । बिना नाम लिखाये वहाँ जाया नहीं जा सकता था ।
घर अंदर से टूटा-बिखरा और उम्मीदहीन हो गया था । बंसू की उम्मीद थी लेकिन पता-ठिकाना नहीं था ।
एक दिन तिपहरिया में रामचंदर डाकिया आए और बनारसी के नाम से एक चिट्ठी , दो हज़ार का मनीआर्डर और एक बड़ा सा पैकेट दे गए ।
यह सब बंसू ने भेजा था । माई बहुत देर तक सब कुछ थामे देखती रहीं । शाम को टेढ़ई आए तो चिट्ठी खुली । टेढ़ई ने पढ़ना शुरू किया -------
                      ! श्री गणेशाय नमः !
आदरणीय बाऊ
सादर चरण स्पर्श
मैं यहाँ कुशलता से रहकर बाबा बिसनाथ जी आप सबकी कुशलता मनाता हूँ । आशा है घर में सब मजे में होंगे । इस बार जब हम घर गए तो माई नहीं बोलीं । सारी दुनिया न बोले तो क्या फरक है बाकी माई न बोलीं तो उस घर में किससे बताता कि काहें लौट आया हूँ । माई आज तक आधी बात हमको बोली नहीं । बाकी वो दिन न बोलीं तो लगा अब घर में कोई नहीं है ।
बाऊ हम तुम्हारे बेटे हैं । लफंगई हम तुम्हारे राज में खूब किए । हमको माफ करना । अब हम गिरस्ती चेत रहे हैं । हमारा अपराध माथे न धरना बाऊ । हमको छमा करना । तुमसे बड़ा हमारे लिए और कौन !
सबके लिए कपड़ा भेजता हूँ । दो हज़ार रुपया भी है । हमारी पहली कमाई । तुम्हारे चरणों में है । अब तुम्हारे सुर्ती-तमाखू को कमी न होगी बाऊ ।
हम पहिले पावरलूम की कोशिश किए बाकी वो काम जादा नहीं चला । अब हम हियाँ साझे में ऊख पेरते हैं । खा पी के हज़ार बचा लेते हैं । जब हम आएंगे तो बाहर का बैठका पक्का करवाएँगे ।
थोड़ा लउवा-कोंहड़ा बो देना । पानी का साधन ठीक है कि नहीं । बिजुली ठीक से आती है कि नहीं । हियाँ शहर में जादा से जादा एकाक घंटे जाती है । गाँव में शायद जादा देर जाती हो ।
बियाह-बारात के जादा फेर में मत पड़ना । दरवाजे पर जाके बस करनी-धरनी कर देना । लूह बहुत तेज होगी । उल्टा-सीधा मत खाना । दू ठे पियाज हमेसा जेब में रखे रहना ।
आखिरी बिनती है बाऊ कि बरधा मत बेचना । चाहे जैसा है हमारा है । एक खाँची कोयर खाएगा बाकी दरवाजे पर बंधा तो रहेगा। उसी के चलते साझे का बरधा भी मिल जाता है बाऊ । न होता तो लोग दस बहाना करते । हम आएंगे तो एक बरधा और खरीदेंगे । भैंस लगती है कि बिसुक गई है । पँड़िया भैंसा गई है कि   ।
          आगे क्या लिखूँ । आप तो सब समझते हैं ।
          गाँव का हाल-चाल लिखना । सबको प्रणाम स्वीकार हो ।
                                                        आपका आज्ञाकारी पुत्र
                                                         बंसू
                                                       पराऊ की खटाल,
                                                     रणछोड़ मंदिर के पीछे ,
                                                      विट्ठलपुरा , सूरत –7        
माई के कान चिट्ठी सुन रहे थे और आंखेँ झर रही थीं । पहली बार बंसू अपने पिता से बोले थे । चिट्ठी से ही सही अपना अपराध कहा था । अब बाऊ न थे तो उनका क्या दोष ? माई देर तक चिट्ठी लिए बैठी रहीं । एक-एक शब्द उनके जेहन में गूँजता रहा माई वो दिन नहीं बोलीं तो हमें लगा कि अब घर में कोई नहीं है ..... कोई नहीं है....... कोई नहीं .....
माई ने चिट्ठी आँचल में रख ली । पैकेट में चार साड़ियाँ थीं । दो माई के लिए दो दुलहिन के लिए । बाऊ के लिए धोती-कुर्ता , साफा। हीरा-जवाहिर के लिए पैंट-शर्ट और लालती-मानती के लिए चोली-घाघरा । बच्चे लोग देर तक अपने कपड़े देखते रहे । खूब खुश होते रहे ।
बंसू मजे में हैं यह सुनकर दुलहिन ने अश्रुजल से सारा विषाद धो दिया ।
माई के कानों में चिट्ठी गूँजती रही । वे चंगेरी में चलावन ले जाकर कजरे की नाँद में चलाती रहीं । आज बनारसी सदेह न थे लेकिन माई को लगता कि वे बंसू के साथ अपने व्यवहार के बोध से ग्लानि में डूब रहे थे । अपने बड़प्पन का बोध होते ही मानो वह व्यवहार ओछा साबित हो गया था ।
बनारसी सदेह नहीं थे । माई थीं । उनके मन के तराजू के एक पलड़े पर बंसू थे । एक पर बनारसी थे । बंसू हाथ जोड़े थे और बनारसी आशीर्वाद में हाथ उठाए थे । दोनों पलड़े बराबर थे । पता नहीं इसमें माई का कितना श्रम लगा हुआ था !

दूसरे दिन माई ने अपना निर्णय दिया—“असाढ़ से हीरा-जवाहिर के साथ लालती-मानती भी स्कूल जाएंगी !”



(लेखक-परिचय:
जन्म: 13 अगस्त 1963 को बनारस में।
सृजन: हर विधा में प्रचुर लिखा। तमाम प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन। हिंदी के नामचीन साहित्यकारों पर कई वृत्त चित्रों का निर्माण।
संप्रति: मुंबई में रहकर स्वतंत्र लेखन
संपर्क:
yadav.ramji2@gmail.com)     
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