बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 26 मई 2013

सुकमा के बहाने नक्सलियों की पड़ताल












ध्रुव गुप्ता की क़लम से 

छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं पर नक्सली हमले के बाद कुछ मित्रों के फ़ेसबुक स्टेटस देखकर ऐसा लगता है कि  नक्सलियों के बारे में उनका ज्ञान किताबों पर ज्यादा आधारित है जो उन्होंने महाश्वेता देवी और अरुन्धती राय जैसे आतंकवाद के समर्थक लेखकों से प्राप्त किया है। बिहार के कई नक्सल प्रभावित जिलों में अपने व्यक्तिगत अनुभव और कई नक्सली नेताओं से पूछताछ के आधार पर नक्सलियों के बारे में कुछ बहुप्रचलित भ्रमों का मैं बिन्दुवार निवारण करना चाहूंगा। मुझे पता है कि बहुत से मानवाधिकारवादी और वामपंथी मित्रों को यह नागवार गुज़रेगा, लेकिन सच तो सच ही होता है !

लुटेरों का है समूह 

यह आम धारणा है कि नक्सलवादी शोषक सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध युद्धरत हैं। हकीकत यह है कि यह वर्गसंघर्ष की आड़ में यहां अपराधियों और लूटेरों का एक समूह कार्यरत है जो पहले स्थानीय आदिवासियों और दलितों की मदद से पहले जंगलों, पहाड़ों और खेती के लिए उर्वर जमीनों पर अपना वर्चस्व स्थापित करता है, जिसके बाद आरंभ होता है वन पदाधिकारियों, कीमती लकड़ी और बीड़ी पत्ते के ठेकेदारों, सड़क या भवन निर्माण में लगी कंपनियों, बालू तथा पत्थर के ठेकेदारों और इलाके के किसानों से रंगदारी उगाहने का अंतहीन सिलसिला। लूटपाट की सुविधा के लिए उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र को एरिया और जोन में बांट रखा है। एक एक नक्सली जोन की कमाई करोड़ों में है। यह मत सोचिए कि यह कमाई क्षेत्र के आदिवासियों और दलितों की शिक्षा, रोजगार और कल्याण पर खर्च होता है । इसका आधा हिस्सा आंध्र प्रदेश और बंगाल में बैठे नक्सलवाद के आकाओं को भेजा जाता है और आधा स्थानीय नक्सलियों के हिस्से आता है। लगभग तमाम नक्सली नेताओं के पास महानगरों में आलीशान फ्लैट्स और भारी बैंक बैलेंस है। यक़ीन मानिए, इस लूट का कोई हिस्सा आदिवासियों या दलितों के पास नहीं जाता।

स्थानीय दलित-आदिवासियों के शोषक  
 
यह आम धारणा है कि नक्सलवाद के बैनर तले समाज का वंचित तबका - आदिवासी और दलित अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे है। शायद लोगों को पता नहीं कि किसी भी जोन का नेतृत्व आंध्र या बंगाल में बैठे आक़ा तय करते हैं। किसी जोन में नेता और हमलावर दस्ते के लोग आमतौर पर स्थानीय नहीं होते, बाहर से भेजे जाते हैं। हर जोन में ऐसे 10 से 20 लोग बाहर से पोस्ट किये जाते हैं जिनपर निर्णय और कार्रवाई की ज़िम्मेदारी होती है। स्थानीय लोगों की भूमिका महज़ हमलों के वक़्त संख्या बढ़ाने, नक्सलियों के हथियार ढोने और छुपाने, दस्तों के लिए आसपास के गावों से भोजन जुटाने और उनकी हवस के लिए अपने गांव-टोलों से लडकियां भेजने तक सीमित है। इतनी सेवा के बदले उन्हें सौ-पचास रूपये और कभी-कभी किसी किसान की जमीन पर कब्ज़ा कर खेतीबारी का आदेश मिलता है। किसी ऑपरेशन के बाद नक्सली नेता तो कुछ समय के लिए बड़े शहरों में छुपकर एय्याशी करते हैं, पुलिस के दमन का शिकार स्थानीय आदिवासियों और दलितों को होना पड़ता है। 

क्या निशाने पर पूंजीपति और सामंत भी!

ज्यादातर लोगों का मानना है कि नक्सलवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा लेती है। मित्रों, आप भ्रम में हैं। यदि इनका कोई विचार है तो वह कागजों में होगा। पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक हर चुनाव के पहले ये लोग पहले चुनावी वहिष्कार का नारा और कुछ छिटपुट घटनाओं को अंजाम देकर अपनी क़ीमत बढ़ाते हैं और फिर सबसे ज्यादा कीमत देने वाले किसी उम्मीदवार, चाहे वह कितना बड़ा शोषक और अनाचारी क्यों न हो, के पक्ष में फतवे ज़ारी करते है। आंकड़े एकत्र कर के देख लीजिये कि कितने सामंतों और पूंजीपतियों के विरुद्ध नक्सलियों ने हिंसात्मक कारवाई की है। आपको निराशा हाथ लगेगी। इनकी नृशंसहिंसा के शिकार हमेशा से निहत्थे ग्रामीण, गरीब सिपाही तथा छोटे और सीमांत किसान ही होते रहे हैं और होते रहेंगे !

(परिचय:
जन्म:पहली सितंबर 19 50 
शिक्षा: गोपालगंज से स्नातक और मुजफ्फरपुर से स्नातकोत्तरकिया 

भारतीय पुलिस सेवा में बड़े पदों पर रहे.  खगड़िया, सुपौल, बांका, मुंगेर, समस्तीपुर, मोतिहारी और सीतामढ़ी आदि के सीआईडी और पुलिस मुख्यालयों में रहे।  बाद में रिटायरमेंट ले लिया।  

सृजन: कविता और सामयिक आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित 
संप्रति: दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन 
संपर्क:dhruva.n.gupta@gmail.com )  

   
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शनिवार, 25 मई 2013

"आई डोंट बीलिव इन गॉड"


















शिखा वार्ष्णेय की क़लम से 





संदर्भ लंदन की आतंकी घटना 


अपने देश से लगातार , भीषण गर्मी की खबरें मिल रही हैं, यहाँ बैठ कर उन पर उफ़ , ओह , हाय करने के अलावा हम कुछ नहीं करते, कर भी क्या सकते हैं. यहाँ भी तो मौसम इस बार अपनी पर उतर आया है. तापमान ८ डिग्री से १२ डिग्री के बीच झूलता रहता है. घर की हीटिंग बंद किये महीना हो गया, अब काम करते उँगलियाँ ठण्ड से ठिठुरती हैं तब भी हीटिंग ऑन करने का मन नहीं करता, मई का महीना है। आखिर महीने के हिसाब से सर्दी , गर्मी को महसूस करने की मानसिकता से उबर पाना इतना भी आसान नहीं. बचपन की आदतें, मानसिकता और विचार विरले ही पूरी तरह बदल पाते हैं. फिर न जाने कैसे कुछ लोग इस हद्द तक बदल जाते हैं कि आपा ही खो बैठते हैं.
लन्दन में पिछले दिनों हुए एक सैनिक की जघन्य हत्या ने जैसे और खून को जमा दिया है।सुना है उन दो कातिलों में से एक मूलरूप से इसाई था, जो 2003 में औपचारिक रूप से मुस्लिम बना , और पंद्रह साल की उम्र में उसके व्यवहार में बदलाव आना शुरू हुआ, उससे पहले वह एक सामन्य और अच्छा इंसान था, उसके स्कूल के साथी उसे एक अच्छे साथी के रूप में ही जानते हैं। आखिर क्या हो सकती है वह बजह कि वह इस हद्द तक बदल गया, ह्त्या करने के बाद उसे खून से रंगे हाथों और हथियारों के साथ नफरत भरे शब्द बोलते हुए पाया गया, यहाँ तक कि वह भागा भी नहीं, इंतज़ार करता रहा पुलिस के आने का।
कहीं कुछ तो कमी परवरिश या शिक्षा या व्यवस्था में ही रही होगी जो एक सामान्य छात्र एक कोल्ड ब्लडेड मर्डरर में तब्दील हो गया।
सोचते सोचते सिहरन सी होने लगी शिराओं में। ख्याल रखना होगा बच्चों का, न जाने दोस्तों की कौन सी बात कब क्या असर कर जाए, और कब उनकी विचार धारा गलत मोड़ ले ले और हमें पता भी न चले।
ऐसे में जब बेटी किसी बात पर कहती है "आई डोंट बीलिव इन गॉड" तो गुस्से की जगह सुकून सा आता है। बेशक न माने वो अपना धर्म, पर किसी धर्म को अति तक भी न अपनाए, ईश्वर को माने या न माने, इंसान बने रहें इतना काफी है। 
ऐसे हालातों में जमती रगों में कुछ गर्मी का अहसास होता है तो वो सिर्फ उन महिलाओं के उदाहरण देखकर। जिन्होंने इस घटना स्थल पर साहस का परिचय देकर स्थिति को संभाले रखने की कोशिश की। आये दिन स्त्रियों पर होते अत्याचार की कहानियों के बीच यह कल्पना से बाहर की बात लगती है कि कोई महिला सामने रक्त रंजित हथियारों के साथ खड़े खूनी और पास पड़ी लाश को देखने के बाद भी उस जगह जाकर उस खूनी से बात करने की हिम्मत करती है। महिलाओं और स्कूली बच्चों से भरी उस चलती फिरती सड़क पर वो किसी और को निशाना न बनाए, इसलिए वह उसे बातों में लगाए रखती है.,तो कोई सड़क पर पड़े खून से लथपथ व्यक्ति को बचाने के प्रयास करती है। बिना यह परवाह किये कि उस व्यक्ति का कहर खुद उस पर भी टूट सकता है।

क्या यह हमारे समाज में संभव था ? हालाँकि रानी झाँसी और दुर्गाबाई के किस्से हमारे ही इतिहास से आते हैं। परन्तु वर्तमान सामाजिक व्यवस्था और हालातों में सिर्फ किस्से ही जान पड़ते हैं। अपने मूल अधिकारों तक के लिए लड़ती स्त्री, जिसके बोलने , चलने , पहनने तक के तरीके, समाज के ठेकेदार निर्धारित करते हों , क्या उसमें इतना आत्म विश्वास और इतनी हिम्मत होती कि वह इतने साहस का यह कदम उठा पाती ? क्या अगर मैं वहां होती तो ऐसा कर पाती ?
सवाल और बहुत से दिल दिमाग पर धावा बोलने लगते हैं, जिनका जबाब मिलता तो है पर हम अनसुना कर देना चाहते हैं। वर्षों से बैठा डर और असुरक्षा,व्यक्तित्व पर हावी रहती है, हमारे लिए शायद उससे उबरपाना मुश्किल हो , परन्तु अपनी अगली पीढी को तो उन हीन भावनाओं से हम मुक्त रख ही सकते हैं। बेशक आज समाज की स्थिति चिंताजनक हो , पर आने वाला कल तो बेहतर हो ही सकता है।
इन्हीं ख्यालों ने ठंडी पड़ी उँगलियों में फिर गर्माहट सी भर दी है, और चल पड़ी हैं वे फिर से कीबोर्ड पर, अपने हिस्से का कुछ योगदान देने के लिए।

(परिचय:
जन्म: 20 दिसंबर को नई दिल्ली में 
शिक्षा: शुरआती रानीखेत में। बाद में मास्को स्टेट यूनिवरसिटी से टीवी जर्नलिज्म में एमए गोल्ड मेडल हासिल 
सृजन: लेख, कविता, संस्मरण प्रचुर लिखा, प्रसारण व प्रकाशन भी। 'स्मृतियों में रूस' संस्मरणात्मक किताब 

ब्लॉग: स्पंदन 

संप्रति: लंदन में रहकर स्वतंत्र लेखन 
संपर्क: shikha.v20@gmail.com )   

       
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मंगलवार, 21 मई 2013

कारखानों की प्यास बुझाते सूख गयीं जलथल नदियाँ














रश्‍मि शर्मा की क़लम से 


संदर्भ झारखंड उर्फ़ गाँव की गलियाँ 


नदि‍यां जीवनदायि‍नी हैं। हमारे अस्‍ति‍त्‍व की पहचान भी। सरकार कभी नदि‍यों को जोड़ने के फि‍राक में रहती है तो कभी बांटने के। नदि‍यों के बारे में मैं हाल का एक अपना नि‍जी अनुभव आप सबों को बताना चाहूंगी। परीक्षा के बाद हुई बच्‍चों की छ़ुटटि‍यां में मैं उन्‍हें अपने गांव लेकर गई....इस वादे के साथ कि‍ इस बार उन्‍हें अपने गांव की उस नदी में नहाने दूंगी, जि‍समें बचपन में मैं नहाया करती थी और उससे जुड़े सैकड़ों कि‍स्‍से उन्‍हें सुनाती थी। बच्‍चे उत्‍साहि‍त थे कि‍ कम से कम इस बार तो उन्‍हें गांव में नहाने का मौका मि‍लेगा। वादे के मुताबि‍क गांव पहुंचने के बाद मैं उन्‍हें अगले ही दि‍न नदी पर ले गई। यह क्‍या........जि‍स नदी से जुड़े अंतहीन कि‍स्‍से मेरी जेहन में कुलबुलाया करते थे...उसका तो कहीं अस्‍ति‍त्‍व ही नहीं बचा। मेरे गांव में फूलों से भरे-भरे पेड़ों के बीच छोटी-पतली सी, रम्‍य और साफ नदी बहती थी, जि‍से हम दोमुहानी नदी के नाम से जानते थे...उसका वजूद ही खत्‍म हो गया। उस नदी को बांध दि‍या गया है। और ऐसा बांधा गया कि‍  नदी अब नदी न लगकर ठहरे पानी की तरह हो गया था। जहां कलकल बहती साफ-स्‍वच्‍छ पानी  हुआ करता था....वह इतना गंदा नजर आ रहा था कि‍ मैंने बच्‍चों को उसे छूने की इजाजत भी नहीं दी। वह नदी जि‍सके पानी में मैं बचपन में घंटों छपाछप करती थी....खो गई।

बच्‍चे कहने लगे.....यही वो नदी है न मां..जहां तुम नहाया करती थी अपनी सहेलि‍यों के साथ....और छोटी-छोटी मछलि‍यां भी पकड़ा करती थी। कहां है कोई मछली...और छि:..इतने गंदे पानी से नहाती थी तुम...मैं नि‍रूतर हो गई। बड़ी मुश्‍कि‍ल से बच्‍चों को यकीन दि‍लाया कि.....हां ये वही नदी है, जि‍समें मैं तैरा करती थी....शाम को सखि‍यों संग ठंढी हवा का आनंद लेने के लि‍ए इसके कि‍नारे बैठा करती थी। अब तो...सब खत्‍म हो गया। बस उसका कि‍नारा वही है....जहां हम स्‍वच्‍छ हवा का आनंद ले सकते हैं क्‍योंकि‍ गांव का वातावरण उतना दूषि‍त नहीं हुआ है।
वाकई बहुत मलाल हुआ.....लगा..बचपन की खूबसूरत अनुभवों की कड़ी से एक कड़ी खत्‍म हो गई। उसे आज से जोड़कर देख पाना मुश्‍कि‍ल है। ऐसा नहीं कि‍ यह मेरे गांव के नदी की बात है। अब तो झारखंड की सभी नदि‍यां जहरीली होती जा रही है। स्वर्णरेखा, दामोदर, बराकर, करकरी, कोयल,अजय, कनहर, शंख  जैसी नदियां मृत होने की राह पर हैं। गर्मियों में तो यहां का पानी सूखने लगा है। लोग त्राहि‍माम करने लगते हैं। कई मील दूर जाकर पानी ढो कर लाना पड़ता है।  ऊपर से स्टील, पावर प्लांट और अन्य कारखानों की गंदगी को नदियों में छोड़ा जा रहा है। फलतः राज्य की सभी नदियां मृतप्राय होने पर हैं। नदियों के किनारे बालू निकालने के कारोबार ने तो नदियों की हालत और भी खराब कर दी है। लोग अंधाधुंध नदि‍यों को दोहन कर रहे हैं। कोई मात्रा तय नहीं कि‍ कि‍स नदी के कि‍नारे से कि‍तनी बालू ि‍नकाली जाए। फलस्‍वरूप नदि‍यां कटतीं जा रही है। जब पानी को रोककर, अपने अंदर समेटकर रखने वाले बालू ही नहीं बच रहे तो पानी का संचय कैसे होगा। उपर से जंगल का अस्‍ति‍त्‍व भी खतरे में हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। यहां तक ि‍क फोरलेन के नाम पर  अब तक प्राप्त सूचना के अनुसार 80,000 से ज्यादा पेड़ काटे जा चुके हैं। और कभी कटेंगे। बदले में पौधों का रोपण भी नहीं कि‍या जा रहा। बारि‍श के पानी के संचय की भी व्‍यवस्‍था सरकार नहीं कर पाई है अब तक।

 नदि‍यों में इतना प्रदूषण है कि‍ जि‍न नदि‍यों से पहले लोग पीने का पानी भी लाते थे.....अब नहाना भी कठि‍न हो गया है। और इसके कारण केवल हम है...हमारा स्‍वार्थ है। हमने नदि‍यों का उपयोग, उपभोग तो पूरा कि‍या..मगर न तो स्‍वच्‍छता का ख्‍याल रखा और न ही प्रदूषि‍त करने वाले हाथों को रोका। नदि‍यों में हर तरह के कूड़े-कचरे फेके जाते हैं। यहां तक कि‍ हम हिंदू लोग पूजा की वस्‍तुओं को भी नदी में प्रवाहि‍त करते हैं। यह भी तो गंदगी का ही रूप है। कल-कारखानों का कचरा सीधे नदी में गि‍रता है। 

जमशेदपुर इलाके के पानी का महत्वपूर्ण स्रोत सीतारामपुर बांध भी मिल के बिना उपचारित जल के बांध में जाने से प्रदूषित होता जा रहा है। झारखंड की उषा मार्टिन की स्टील निर्माण इकाई से फैलते प्रदूषण ने न केवल आसपास के निवासियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाला है बल्कि समीपवर्ती कृषि भूमि को भी बंजर बना दिया है। उपर से कई जगह तो नदी के कि‍नारे ही बसेरा बनाकर उनका अस्‍ति‍त्‍व खत्‍म कि‍या जा रहा है। झारखंड की प्रमुख नदि‍यों...दामोदर और स्‍वर्णरेखा समेत छोटे-बड़े सभी तरह के नदी-नाले जहरीले हो गए हैं। उनमें आक्‍सीजन का स्‍तर शून्‍य हो चुका है।  फलत: जलजीवों का अस्‍ति‍त्‍व भी संकट में है। यहां तक कि‍ मछलि‍यां भी जहरीली हो रही हैं। इससे अप्रत्‍यक्ष रूप से मछुआरों की जीवि‍का पर भी असर पड़ रहा है और इसका सेवन काने वाले लोगों के स्‍वास्‍थ्‍य पर भी। नदि‍यां भी अतिक्रमि‍त हो रही हैं। उन्‍हें कूड़ा-कचरा डालकर भरा जा रहा है। ऐसे तो कुछ वर्षों पश्‍चात उनकी पहचान ही गुम हो जाएगी। हालांकि‍ नदि‍यों को बचाने के लि‍ए स्‍थानीय स्‍तर पर प्रयास चल रहे हैं। मगर ये नाकाफी हैं। सरकार को और गंभीरता से इस पर वि‍चार करना चाहिए। झारखंड सरकार की प्रस्‍तावित जल नीति‍ में नदि‍यों के जल के इसतेमाल को लेकर मानक तय कि‍ए गए हैं। परंतु इसका सख्‍ती से अनुपालन नहीं कि‍या गया तो कोई खास परि‍णाम और सुधार  नजर नहीं आएंगे। और नदि‍यां इसी तरह मैली..जहरीली होती गई तो मानव अस्‍ति‍त्‍व को भी संकट में डाल सकती है।

ज्ञात रहे कि‍ नदि‍यां ही सभ्‍यता की पहचान होती है। इसलि‍ए हमारा दायि‍त्‍व है कि‍ हम नदि‍यों को प्रदूषि‍त होने से बचाएं। कारखानों के
कचरे के नि‍स्‍तारण के अन्‍य उपाय कि‍ए जाए न कि‍ उन्‍हें नदि‍यों में प्रवाहि‍त कि‍या जाए। जल संरक्षण कि‍या जाए। भूजल क्षरण और वनों की कटाई को रोकने का त्‍वरि‍त उपाय हो। ताकि‍ नदि‍यों का अस्‍ति‍त्‍व बरकरार और और आने वाली पीढ़ी सभी नदि‍यों का नाम सि‍र्फ पाठयपुस्‍तको में न देखे......वरन मौका मि‍लने पर उन्‍हें अपने आंखों से भी देखे।


(परिचय:
जन्म:2 अप्रैल, मेहसी थाना, मोतीहारी, बि‍हार में 

शिक्षा रांची वीमेंस कॉलेज से स्नातक, इतिहास में स्नातकोत्तर और पत्रकारिता में स्नातक उपाधि  

लेखन की शुरूआत छात्र जीवन से ही। पत्रकारि‍ता  की तरफ रूझान स्‍नातक के दौरान । यह यात्रा प्रभात खबर से शुरू होते हुए कई पत्र-पत्रि‍काओं तक पहुंची डेढ़  दशक के दौरान नौकरी भी और स्‍वतंत्र पत्रकारि‍ता भी। साहि‍त्‍यि‍क पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों के लि‍ए लि‍खने-पढ़ने का सि‍लसि‍ला जारी ,अध्‍ययन और शोध में संलग्‍न। साथ ही इसी बीच रेडि‍यो व दूरदर्शन में सक्रि‍य भागेदारी, अति‍थि एवं उद़घोषि‍का दोनों रूपों में। 

सृजन: कवि‍ता संग आलेख का प्रकाशन देश के वि‍भि‍न्‍न अखबारों और पत्रि‍काओं  में।  समय-समय पर कवि‍ताओं का प्रसारण 
संप्रति:स्‍वतंत्र पत्रकारि‍ता एवं लेखन कार्य 
ब्लॉगजनवरी 2008 में रूप-अरूप  नाम से शुरू कि‍या 
संपर्कrashmiarashmi@gmail.com  ) 



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सोमवार, 13 मई 2013

ज्यों मिली आह, वैसे 'वाह' मिले












धीरेन्द्र सिंह की क़लम से 



मेरी बात की बात कुछ भी नहीं है
कहूँ क्या सवालात कुछ भी नहीं है

तुम्हारी नज़र में ये दुनिया है सब कुछ
हमारे ये हालात कुछ भी नहीं है?

गमे- ज़िन्दगी में अगर तुम जो हो तो
सितारों की सौगात कुछ भी नहीं है

ख़ुशी हो कि गम हो यहाँ एक ही सब
लिखूं क्या ख़यालात कुछ भी नहीं है

सदा खिस्त जैसे हो तुम पेश आये
दिलों के ये जज़्बात कुछ भी नहीं है

कहें भी तो क्या क्या कि क्या हार आये
मिली है जो ये मात कुछ भी नहीं है

गमे- हिज्र इक ज़िन्दगी भर जिया है
जुदाई की ये रात कुछ भी नहीं है


2

सुना है बहुत ये कि मशहूर हो तुम
हो मशहूर तब ही तो मगरूर हो तुम
नहीं आये फिर तुम बुलाने पे मिलने
वही फिर वजह है कि मजबूर हो तुम

मिरे पास आओ ठहर जाओ कुछ पल
बहुत दिन हुए कि बहुत दूर हो तुम

कभी चाँद जैसी कभी फूल जैसी
बहुत ख़ूबसूरत कोई हूर हो तुम

भले दिल भी टूटे भले जां भी जाए
हो कुछ भी, मुझे फिर भी मंजूर हो तुम

3

धीरे- धीरे हो रहा बर्बाद सब कुछ ऐ ख़ुदा.
आ रहा है हमको अब तो याद सब कुछ ऐ ख़ुदा
.
याद पंछी को नहीं है घोसले वाला शजर,
भूल बैठा शाम के वो बाद सब कुछ ऐ ख़ुदा.

मैं कहूँ की, तुम कहोगे मामला- ऐ- बेख़ुदी,
मेरे मरने पर हुआ आबाद सब कुछ ऐ ख़ुदा

अब तो अपनों को भी अपने भूलते से जा रहे,
हो गया है बे- तरह आज़ाद सब कुछ ऐ ख़ुदा.

आजकल के शायरों से क्या कोई उम्मीद हो?
हो गयी जिनके लिए 'दाद' सब कुछ ऐ ख़ुदा.

4

जरा सी बात हो जाए तो शायद दिल बहल जाए
है मुमकिन कि  हों बातें और ये मौसम बदल जाए

बहुत बेहाल हैं हम अब, तुम्ही बतलाओ कुछ ग़ालिब
तुम्हें पढ़ ले तो हो शायद, ये शायर कुछ संभल जाए

नशे भी अब मुसीबत मारने का दम नहीं रखते
कोई तरक़ीब है जिससे कि मेरा दम निकल जाए?

तुम्हारी बात भी कुछ- कुछ मिज़ाजे- वक़्त जैसी है
कब आये, और कब आकर रुके, ठहरे, निकल जाए

सभी हो जाएँ गर अंधे कहो क्या ख़ूब हो जाये
खरे सिक्कों में मिल जाए तो ये खोटा भी चल जाए

5

कम से कम अब तो कोई राह मिले.
ज्यों मिली आह, वैसे 'वाह' मिले.

हर ख़ता की उसे सज़ा दूंगा,
उसको पकडूँगा बस गवाह मिले.

कुछ नही ना सही मगर उससे,
मशविरा और कुछ सलाह मिले
.
मैं भी बह लूँगा बर्फ़ की तरह,
उसकी बाहों में जब पनाह मिले.

उजली रंगत पे रंग तेरे चढ़े,
आरज़ू और थोड़ी चाह मिले.


(परिचय:

जन्म:  १० जुलाई १९८७ को क़स्बा चंदला, जिला छतरपुर (मध्य प्रदेश) में

शिक्षा: इंजीयरिंग की पढाई  अधूरी
सृजन: 'स्पंदन', कविता_संग्रह '  और अमेरिका के एक प्रकाशन  'पब्लिश अमेरिका' से  प्रकाशित उपन्यास 'वुंडेड मुंबई' जो काफी चर्चित हुआ।

शीघ्र प्रकाश्य: कविता_संग्रह  'रूहानी' और अंग्रेजी में उपन्यास   'नीडलेस नाइट्स'
सम्प्रति: प्रबंध निदेशक, इन्वेलप  ग्रुप
संपर्क: dheerendrasingh@live.com, यहाँ- वहाँ भी )



  
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बुधवार, 8 मई 2013

कहीं सिर पर सींग तो न उग आए
















आशीष मिश्रा  की क़लम से 


हादसों की गूँज में इंसान का मातम


इन हाथों का काम ही क्या है? सुबह उठकर अखबार की पोथी थाम लेते हैं। चश्मा आगे पीछे खिसका कर देखते हैं। कसमसाते हुए पढ़ते हैं,   दिल्ली में बस में रेप कर दिया। दारू के नशे में कहीं नीम की छांहों में पड़ा पुलिसकर्मी भी एक फोटो कैपशन के साथ है। मामा मंत्री ने भांजे को करोड़ की घूस दिला दी। सरकार ने किसी चिट्ठी में व्हाइटनर घिस डाला। मंत्री का बच्चा गुंडागर्दी करते पकड़ा गया। मां के कड़ों के लिए बेटे ने पैर काट डाले। पति ने प्रेमिका के साथ मिलकर बीवी की हत्या कर दी। 55 साल के बुजुर्ग ने बच्ची को फुसलाया। फिर ताली पीटने लगते हैं ये हाथ, ओत्तेरी, गेल ने छक्कों की झड़ी लगा दी? मॉडल ने टॉपलैस शूट कराया? अचानक कुछ होने लगता है। भीतर कुछ बेचैनी सा। विचलित होकर यहां वहां ताकने लगता हूं। घर में सब ठीक है। ऑफिस ठीक चल रहा है। तनख्वाह सही समय पर मिल रही है। किसी का उधार नहीं है। फिर? कुछ तो है कहीं।
अपने सिर, पंजों और पैरों की उंगलियों के पोरे सहलाकर देखता हूं। डर लगा रहता है। इंसान ही हूं ना अभी। कहीं सिर पर सींग तो न उग आए हैं। कहीं उंगलियों के नाखून नुकीले और गोल तो नहीं हो गए हैं। कहीं पैरों की जगह खुर तो नहीं निकल आए हैं। कहीं पशुत्व का कोई बीज तो मुझमें नहीं आ रहा है। कभी कभी सीने पर हाथ रखकर सहलाता हूं। आवाज देता हूं अपने ही भीतर झांक कर-’ओ दिल, ज़िन्दा है ना, ये धड़कन नकली तो नहीं।’ धड़कन का अपना उतार चढाव होता है। डरता हूं ये समतल न हो जाए। कहीं ऐसा न हो कचरे के ढेर पर थैली में लिपटी नवजात बच्ची देखूं और धड़कन की रफ्तार को कोई फर्क ही न पड़े। चार दिन मां से बात न हो और ये उतरे ही ना। किसी गरीब को चिटफंड में लुटता देखकर ये पसीजना तो बंद न कर देगा। कभी कभी दांत भी टटोलता हूं। गौर से देखता हूं। ये सामान्य से ज्यादा तो नहीं बढ़ आए हैं। कहीं इनकी भूख अन्न और जल से ज्यादा तो नहीं हो गई है। कहीं ये लहू तो न मांग बैठेंगे। कहीं किसी स्त्री की देह तो न मांग बैठेंगे। क्या पता। आजकल हम खुदको कहां टटोलते हैं। मोटरसाईकिल पर पीछे बंधे बैग की तरफ बार बार ध्यान जाता है। कहीं रास्ते में गिर न जाए। पर अपने ही तरफ...? कहीं कुछ गिर न जाए। चरित्र या सोच। कहां सोचते हैं हम? सोचने का वक्त भी कहां है। बस, एक निर्मम दौड़ में शामिल हैं। थकना मना है। युवराज ने कहा था। युवराज थका तो सलमान ने कहना आरंभ किया। दौड़ बराबर करनी है। दौड़ नहीं थकनी है। ऐसे में क्या पता। कब अवसर मिले और हम गिर पड़ें। अपने आप में। कब अचानक से मालूम हो कि सिर पर सींग उगे हैं, उंगलियों के आगे गोल और नुकीले नाखून निकले हैं और पैर खुर हो गए हैं। हम तब शायद ये समझें कि ये सब अचानक हुआ। लेकिन अचानक तो कुछ नहीं होता। अच्छा है कुछ होने की नब्ज ली जाए। टटोला जाए। हर वक्त, हर घड़ी। अपने आप को टटोलना अच्छा है।
वरना किसी दिन अखबार में कोई पढ रहा होगा, चिटफंड का फर्जीवाड़ा कर भागी कंपनी, और हम अपना फोन स्विच ऑफ कर कहीं छुपे होंगे। छपा होगा बस में छेड़छाड़ के आरोपी को धरा, और हम भीड़ को सफाई दे रहे होंगे कि गलती से हाथ लग गया। लिखा होगा रिश्वत लेते कर्मचारी रंगे हाथ गिरफ्तार, और हम कह रहे होंगे ये पैसे तो उसने रिश्तेदार के इलाज के लिए दिए थे। जाने क्या क्या लिखा होगा और हम हथकड़ियों, कोर्ट परिसर, थाने या भीड़ न जाने कहां होंगे। अगर अखबार में हमारा जिक्र नहीं, या हम इनमें से किसी जगह नहीं, इसका ये मतलब तो नहीं कि हममें पशुत्व नहीं। हम हंस न रहे हों कि ’मैं पकड़ा नहीं गया।’

(लेखक-परिचय:
जन्म : 10 नवंबर 1982 को राजस्थान में
शिक्षा: एमए हिन्दी एवं राजनीति विज्ञान, बीजेएमसी
सृजन: वर्चुअल संसार में छिटपुट। किसी ब्लॉग पर पहली बार 

सम्प्रति:  पिंकसिटी डॉट कॉम में कंटेंट राइटर
संपर्क: vinaysagar.mishra@gmail.com)

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