बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 25 मार्च 2013

हवा में उड़ते खुश्क ज़र्द पत्ते की तरह



 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
ख़ालिद ए ख़ान  की क़लम से 

यूँ ही आई तुम
हमेशा की तरह
हवा में उड़ते
खुश्क  ज़र्द  पत्ते की  तरह
अनायास !

ओठों पर वही
बेतरतीब सी ठहरी हंसी
कुछ दरकी हुई 
नामालूम सी उलझी आँखे !
 
तुम्हारे आने ने
चौकाया
मुझे
पहले की तरह !
 
आते ही उलझ जाना
तुम्हारा कमरे से
और बासी फूल
में खुशबु ढूंढने की
नाकाम सी कोशिश
कितनी खीज
पैदा करती है !
 
एक सिरे से छूती हुई
मुक्तिबोध,,नरूदा   अलोक धन्‍वा,शमशेर
पाश,ग़ालिब,
मीर, पर रूकी
तुम्हारी उंगलियां !
ना जाने कितना वक़्त
बह गया
अब तक
मैं पकड़ न सका !
 
और फिर
हौले से बैठ
जाना पायताने
तुम्हारा !
 
तुम्हारी
गहरी उजली बेबाक
आँखों के किनारे
बैठा मैं !

देख रहा हूँ
लहरों की
सूरज को डुबोने  की
जिद को
खामोशी से !
 
 
 मैं
गुमनाम सफ़ीने सा
भटक जाता हूँ
तुममे ही  कही !
 
तुमने रेत पर लिखा
कुछ
अपनी उंगलियों से
लहरों ने आगोश में ले लिया
मैं पढ़ न सका !
 
कुछ कहा भी
पर हवा ने
चुरा लिया कि
एक हर्फ़ भी ना
आया हाथ
 
हमारे बीच की ज़मीं सिमट गई खुद में
और रात ने लपेट लिया  एक ही चादर में हमें !

उफ़ ये
तुम्हरी साँसों
की तपिश में
 
मेरा जिस्म
बर्फ की  मानिंद 
पिघल रहा  है
 
 
तुम्हारी लहरें
किनारों की तरह
काट रही है मुझे
मैं रेत की  तरह
घुल रहा हूँ तुममे !
 
तुम्हारी
ठहरी साफ़ आँखें
जहां छोड़ आया था
अपना गाँव
अपने खेत
अपने जंगल

और
वो काली पंतग
जो लटकी है अभी भी
उस बरगद की टहनी पर 
जहाँ  अब भी 
नहीं पहुचते मेरे हाथ !
 
क्या
खेत वही है
अब भी
जहा
धान की रुपाई करती
आधी भीगी हुई
 औरतें  गीत गाती थी
जो समझ में
ना आने पर भी
कितना  मीठा
लगता था !
 
क्या
दीखते है  जंगल
पहली बारिश में नहाये हुये
तुम्हारी आँखों में
वैसे अब भी हैं !
 
ये दम तोडती
ख़ामोशी तुम्‍हारी
ये तुम्‍हारा
अजनबीपन
और बेवजह छोड़कर जाना
कितने सवाल छोड़ जाता है
पीछे
और छोड़ जाता
घना निर्वात !


उनके खाली बजते पेटो को
 भर दिया गया
दुनिया के सबसे  महगे लोहे से 
उनका रक्त बहा दिया गया
उस जमीन पर 
जिसे उन्होंने  
प्यार किया था

उन्होंने  
प्यार किया था

जंगल को जंगल की  तरह 
पड़ों को पड़ों की  तरह
नदियों को नदियों की  तरह
पहाड़ों को पहाड़ों की तरह
उन्होंने  प्यार किया था
जिसे खुद से भी ज़्यादा
जब सरकारी बूट
जंगल को नंगा करके
कर रहे थे उसका बलत्कार
तो तुमने भी
अपने कपडे उतर दिए
तुम ऐसे  चीखी
जैसे उस रात चीखी थी
जब एक थुथला बुढा शरीर
खुरच रहा था
किसी गाव से खरीदी
गयी बच्ची का शरीर !
थकी हुई रात
सड़क के किनारे
अधेरे में लिपटी देह
 उनकी  सांस के सहारे
उतर जाना तुम्हारा
पक्की ,दुर्गन्ध ,जलते
हुए रक्त की सडन
कारखानों के  धुएं
से भरी  घुप अधेरी  सड़कें पर !

मशीनों,ह्थोड़ो
का बहरा करता शोर
यहां ख्वाब नहीं मिलते
लाख ढूंढने पर भी
बस यंत्र की तरह
लगते हैं
यह जिस्म
जाने कब बदल गए 
हथौडे, बेलचे, मशीन में !

अंधी, बहरी, अभिशिप्त
गलियों में
तुम अषाढ के पानी
की तरह घुसी
और जर्जर दीवारों
पर सीलन की तरह
उभर आई

जहा एक थकी देह
दरवाजा खुलने और बंद
होने के बीच में
कर रही अपनी साँसो को 
व्यवस्थित


उसे देह पर पड़ने
वाले घाव, धक्के
तुम खुद पर झेलती रही 
अनवरत....
देर से  लौटी  तुम
उजड़ी, बोराई आँखे लिए
कुछ  बडबडाते हुवे 
आई और कुर्सी
पर उकडूँ  बैठ गई
तुम्हारी बड़बड़ाहट
कमरे को हिलाती
इन ऊंची  इमारतो को नचाती
गाव जगलो को बेसुरा करते
खदानों में
बासुरी की तरह
लौट रही थी
अनुतरित
नहीं नहीं
ये कविता नहीं है
ये कविता की भाषा नहीं है
ये भाषा राख की  है
जले हुए  घरौंदों की।
ये भाषा रक्त की  है
खेत में फैले हुये रक्त की।
ये भाषा

हल की भाषा है
जिनकी फसले पकने से पहले
गोदामों में पहुँचा  दी जाती है
ये भाषा थके हुवे हाथो  की  है
जब जाने कब से खाली है
ये भाषा पेटों की है
जिनकी रोटियाँ
हवा में उछाल देते हो
और देखते हो तमाशा
ये भाषा उन अनाम मासूम
बच्चो की है
जिन्हें  तुम गाँव से खरीद
लाते हो और
अजीब-अजीब नामो से
पुकारते हो 
ये भाषा उनकी है
जिसे  तुम्हरे सभ्य समाज
ने  बनाया 
फिर कर दिया बहिष्कृत
ये भाषा उनकी है
जिनके कपडे उतार कर
सजा देते हो महलो की दीवारों पर
ये भाषा उनकी भी है
जिनकी फ़रियाद दब जाती है
मंदिर की घंटियों
मस्जिद की अजानो के शोर में 
ये भाषा उनकी तो है ही
जिनकी चीखो को
फाइलओ में दबा कर
फेक देतो हो
अधेरे  गोदाम में
ये भाषा न
किसी देश
किसी जाति
किसी कौम की है
जानता हूँ
तुम इस भाषा से
डरे और काँपे हुए हो
तुम इस को गुंगा बना देना
चाहते  हो या 
ख़त्म  कर  देना चाहेते हो
पर
ये भाषा
दूब की भाषा है 
जो तुम्हारी
हर तबाही के बाद
बचा लेती है
अपने अन्दर
थोड़ी सी हरितमा
तुम इस भाषा को
मिटा नहीं सकते हो
देख सकते हो
तो देखो
तुम्हारे
महलो, कगुरे.बुर्जो
की दरारों में
ये अब अकार ले रही है

देख सकते हो तो देखो
फैली दूब के नीचे
न जाने  कितने तख़्त
कितने ताज  दफन है
देख सकते हो
तो देखो
तुम !

(कवि-परिचय:
जन्म: 13 दिसम्बर 1983 को सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में।
शिक्षा: लखनऊ से वाणिज्य स्नातक। उसके बाद कंप्यूटर डिजाइनिंग का कोर्स किया।
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन
            हमज़बान पर उनकी एक और कविता के लिए क्लिक करें 
सम्प्रति: डाटा गोल्ड में वेब डिजाइनर
संपर्क: khalida.khan2@gmail.com)


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गुरुवार, 21 मार्च 2013

आँखों में कोई अश्क न मुझमे लहू बचा .....

















अजय पांडेय 'सहाब' की क़लम से 

1.


कुछ चीखती उदास सी शामों को छोड़कर 
वो चल दिया कहीं सभी रिश्तों को तोड़कर 

सब कुछ बिखर गया मेरा उसके फ़िराक में 
वो जो चला गया मुझे रखता था जोड़कर 

मिल भी गया तो देखिये ,चेहरा घुमा लिया 
इक वक़्त था कि वो मुझे मिलता था दौड़कर 

आँखों में कोई अश्क न मुझमे लहू बचा 
रक्खा है तेरे दर्द ने ऐसा  निचोड़ कर 

ले दे के उसका खाब ही मेरा था पर 'सहाब '
दुनिया ने क्यूँ जगा  दिया  मुझको  झिंझोड़  कर 

2.

जिसे लिखता है तू वो ही तेरा किस्सा नहीं होता 
जो अपना है वही अक्सर यहाँ अपना नहीं होता 

कहीं चेहरा तो मिलता है मगर शीशा नहीं होता 
कहीं आइना होता है मगर  चेहरा नहीं होता 

मुहब्बत की न हो बुनियाद  तो रिश्ते  बनाएं क्यूँ 
फ़क़त बरगद उगा लेने ही से साया नहीं होता 

फ़क़त इंसान ही इन्सां  नहीं बनता ज़माने में 
वगरना आज की दुनिया में देखो क्या नहीं होता 

करे तश्हीर वो जितनी  मचाले शोरो गुल जितना 
कोई क़तरा कभी फैलाव में दरिया नहीं होता

कई आंसू यहाँ चुपचाप  बह  जाते हैं  अनदेखे
हरिक आंसू की ख़ातिर  दोस्त  का कन्धा नहीं होता

वो सब कुछ देख कर और सोचकर कुछ फैसला करता 
अगर मज़हब न होता तो बशर  अँधा नहीं होता 

3.

 मुझे मौजू'अ ग़ज़लों का, गमे  दुनिया से मिलता है
ये है वो आब जो मुझको इसी सहरा से मिलता है 

जहाँ का दर्द मिल जाता है मेरे शेर में जैसे 
फ़ना होकर कोई कतरा किसी दरिया से मिलता है 

जहाँ के तजरुबे ही हैं  हमारे इल्म के मकतब 
कहाँ ये इल्म हमको सोह्बते दाना  से मिलता है 

ज़मीं  पर हिन्दू ओ मुस्लिम झिझकते होंगे मिलने से
मगर जन्नत में मेरा राम तो  अल्ला से मिलता है 

वही गद्दार मेरे मुल्क का रहबर न बन जाए 
जो हर इक रोज़ जाकर लश्करे आदा से मिलता है ..

वो तो यादें तुम्हारी हैं जो मिलने आ ही जाती हैं 
वगरना कौन अब मेरे दिले तनहा से मिलता है 

मिरे  नज़दीक क्यूँ हो फर्क भी हिन्दू में मुस्लिम में ?
मिरे  मंदिर का हर रस्ता, रहे काबा से मिलता है 

अगर अशआर  अच्छे हैं तो है तनक़ीद भी उतनी 
कहाँ एजाज़  ऐसे पुर हसद उदबा  से मिलता है

(मौजू'अ=विषय, मकतब=पाठशाला 
सोह्बते दाना=विद्वानों की संगत,.लश्करेआदा=दुश्मनसेना 
एजाज़=सम्मान, पुरहसद=इर्ष्यासे भरे, उदबा=विद्वान समूह)

4.

ज़ात के नाम पे बंटना नहीं देखा जाता 

हमसे नफरत का ये धंदा नहीं देखा जाता 


जिनकी हर सोच ही जुगनू में सिमट आई है 

उनसे सूरज का उजाला नहीं देखा जाता 


जिसको कुत्ते भी न खाएं उसी रोटी के लिए 

भूके बच्चे का बिलकना नहीं देखा जाता 


मेरे मौला मिरी आँखों को तू पत्थर कर दे 

मुझसे ये खून ये दंगा नहीं देखा जाता 


हमने बस प्यास में काटे हैं ज़माने लेकिन 


हमसे इक शख्स भी प्यासा नहीं देखा जाता 


जो बदलना है बदल डाल तू रहबर लेकिन 

हमसे हर वक़्त का नारा नहीं देखा जाता 


दर्द इतना है दिया उसके बिछड़ने ने मुझे 

मुझसे कोई यहाँ बिछड़ा ,नहीं देखा जाता 


कितना धुन्दला है सियासत का ये दरपन यारो 

दिल में गैरत हो तो चेहरा नहीं देखा जाता 


थोड़ी आजादी तो इन्सां को दो मज़हब वालों 

अब ये हर बात पे फतवा नहीं देखा जाता 


तंग  
तशरीह   के खूँरेज़ अंधेरों में 'सहाब '

हमसे मज़हब का सिमटना नहीं देखा जाता





 (परिचय:
जन्म: रायगढ़( छत्तीसगढ़ ) में 23 अप्रेल 1972 को
शिक्षा: रसायन विज्ञानं में स्नातकोत्तर और मास कॉम
सृजन: पहला अल्बम, वन्स मोर . अंतिम अल्बम : रोमानियत
पंकज उदास, शिशिर, चन्दन दास,  सुदीप बनर्जी, गुलाम अब्बास खान और गुरमीत ने गजलों को स्वर दिया है। मरहूम जगजीत सिंह ने भी एक ग़ज़ल को अपनी धुन में पिरोया था लेकिन आकस्मिक निधन से वो अल्बम नहीं आ पाया।
उर्दू व हिंदी के कई पत्र-पत्रिकाओं  में प्रकाशन, उर्दू में मज्मुआ कहकशाँ शीघ्र प्रकाश्य 
कुछ फिल्म के लिए गीत। फिल्म स्केपगोट  का लिखा गाना वाह रे दुन्या, शिकागो फिल्म फेस्ट के नामांकित।
सम्प्रति:मुंबई में स्पेशल एक्साइज़ कमिश्नर
सम्मान: साहित्य के लिए नेशनल स्माइल अवार्ड, उर्दू अदब के लिए 2013 का साहिर लुधियानवी अवार्ड
संपर्क: ajay.spandan@gmail.com )






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मंगलवार, 12 मार्च 2013

जगन्नाथ ने लिखा था पाक का पहला क़ौमी तराना

जगन्नाथ आज़ाद (5दिसंबर 1918-24 जुलाई 2004)

 

 

 

 

 

 

 

जिन्ना की ख्वाहिश 

पर लिखा 

 

हुसैन कच्छी की क़लम से

वर्ष 2004 में उर्दू के मशहूर शायर जगन्नाथ आज़ाद के इंतक़ाल के बाद हिंदुस्तान और पाकिस्तान के साहित्यिक जगत में एक नयी बहस का आगाज़  हुआ कि दिवंगत शायर ने पाकिस्तान का पहला क़ौमी  तराना (राष्ट्र गीत) लिखा था।  तराना उन्होंने क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना की ख्वाहिश पर लिखा था। 24 जुलाई, 2004 को जगन्नाथ आज़ाद  की मौत हुई। उसके  बाद उनकी जिंदगी में किया गया एक इंटरव्यू सामने आया, तो यह बात जाहिर हुई. उस वक्त तक बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी थी.
आजाद कहते हैं कि जब पूरा उपमहाद्वीप बंटवारे से पहले की फसाद की लपेट में था, मैं लाहौर में रहता था और एक साहित्यिक पत्रिका से जुड़ा था. मेरे तमाम रिश्तेदार हिंदुस्तान जा चुके थे, मेरे लिए लाहौर छोड़ना बहुत तकलीफ देनेवाली बात थी. लिहाजा, मैंने लाहौर में ही ठहरने का फैसला किया.
दोस्तों ने मेरी हिफाजत का जिम्मा लेते हुए मुझे पर लाहौर में ही रहने के लिए जोर दिया. नौ अगस्त,1947 की सुबह रेडियो लाहौर में काम करनेवाले मेरे एक दोस्त ने मुझे तक यह पैगाम पहुंचाया कि कायदे आजम चाहते हैं कि पाकिस्तान का कौमी तराना उर्दू का बड़ा जानकार कोई हिंदू लिखे और इसके लिए उन्होंने आपका नाम तय किया है.

मुझे इतनी जल्द यह काम करना मुश्किल लगा, तो मेरे दोस्त ने मुझे कायल रहने के लिए कहा कि यह प्रस्ताव मुल्क की सबसे बड़ी शख्सीयत की जानिब से है, इसलिए इनकार न करें.
मैंने हामी भर ली. हालांकि, मैंने यह भी कहा कि इस वक्त लाहौर में मौलाना ताजवर नजीबाबादी, सैयद आबिद अली आबिद, सूफी गुलाम मुस्तफा तबस्सुम, अब्दुल मजीद सालिक, हफीज जालंधरी जैसी बड़ी हस्तियों सहित फैज अहमद फैज जैसे मुझसे सीनियर शायर हजरात की मौजूदगी में यह तराना मुझसे ही क्यों लिखवाना चाहते हैं, तो उन्होंने बताया कि कायदे आजम की यही ख्वाहिश है.
खैर, मैंने कम वक्त में एक तराना लिख कर उनके हवाले करके जिन्ना साहब की खिदमत में रवाना कर दिया, जिन्होंने उसे पसंद करके अपनी मंजूरी दे दी. इसे पहली बार रेडियो पाकिस्तान कराची में गाया गया, जो उन दिनों देश की राजधानी थी.
मैं बंटवारे के दिनों में लाहौर में ही था कि पंजाब के दोनों हिस्सों में हालात हद से ज्यादा खराब होते चले गये. मेरे दोस्तों ने मन के साथ मुझसे दरख्वास्त की कि अब मुझे हिंदुस्तान हिजरत कर जाना चाहिए, क्योंकि इन हालात में मेरी हिफाजत में वे असमर्थ महसूस कर रहे हैं. दोस्तों के मशविरे पर मैंने अमल किया और हिंदुस्तान चला आया!
जो तराना आजाद ने तैयार किया था, वह डेढ़ बरस तक पाकिस्तान के कौमी तराने के तौर पर प्रसारित होता रहा. कुछ लोगों का कहना है कि यही तराना 1954 तक इस्तेमाल में रहा, बाद में हफीज जालंधरी का तराना मंजूर होकर पाकिस्तान का कौमी तराना बन गया.
जिन्ना के इंतकाल के बाद से ही एक नये तराने की तहरीक शुरू हुई और अनेक शायरों के तरानों को जांचने परखने के बाद आखिर 1954 में हफीज जालंधरी का तराना मंजूर किया गया, जो अब पाकिस्तान का कौमी तराना है. जगन्नाथ आजाद और उनके तराने के समर्थन में 13 अगस्त, 2006 को पाकिस्तान के अंगरेजी अखबार डान (DAWN) में यौमे आजादी के एक दिन पहले मेहरीन एफ अली का लेख A Tune to die for शीर्षक से छपा था.
अपने लेख में मेहरीन लिखती हैं कि आजादी के पांच दिन पहले कायदे आजम ने लाहौर में रह रहे जगन्नाथ आजाद नाम के हिंदू जो उर्दू के शायर थे, को पाकिस्तान का कौमी तराना लिखने का प्रस्ताव दिया था और जो कायदे आजम की मंजूरी के बाद रेडियो पाकिस्तान से प्रसारित होता रहा.
तीन मई, 2009 को पाकिस्तान के एक दानिश्वर जहीर किदवई ने Wind mills नामी अपनी वेबसाइट में दर्ज किया कि आजादी के वक्त उनकी उम्र सात बरस की थी और उन्हें रेडियो पाकिस्तान से जगन्नाथ आजाद का लिखा तराना सुना जाना याद है. जहीर किदवई को तराने में शुरू की लाइनें ही याद हैं.
पांच जून को आदिल अंजुम ने अपनी वेबसाइट pakistaniat.com पर ब्लॉग कर इस विषय पर तफसील से लिखा है. आदिल अंजुम ने जगन्नाथ की जिंदगी पर रोशनी डाली है. ब्लॉग में जगन्नाथ की आवाज की रिकॉर्डिंग को शामिल करने से आदिल अंजुम की वेबसाइट को बहुत शोहरत मिली और फिर पाकिस्तान की सरकारी एयरलाइन पीआइए की मैगजान (पत्रिका) ‘हमसफर’ - (जुलाई-अगस्त 2009) में खुशबू अजीज का एक रिपोर्टनुमा लेख pride of pakistan छपा, जिसमें खुशबू ने इतिहास में कहीं गुम हो रहे इस वाकया को उजागर किया है.
हमसफर का यह अंक लाहौर-कराची उड़ान के दौरान जानी-मानी महिला पत्रकार बीना सरवर की नजर से गुजरा, जिन्होंने अखबार डान सहित दूसरी वेबसाइटों पर अपने ब्लॉग में आजाद के तराने को पाकिस्तान का पहला कौमी तराना बताया. अखबार डान में Archive में जाकर 19 सितंबर, 2009 को छपे उनके लेख Another Time Another Anthem को देख लीजिए.


ऐ सर ज़मीन-ए-पाक  

ज़र्रे-ज़र्रे  हैं आज सितारे से ताबनाक 

रौशन है कहकशां से कहीं आज तेरी ख़ाक 

तुन्दीये हासिदां पे है ग़ालिब तेरा सिवाक
दामन वो सिलगया हैं जो था मुद्दतों से चाक

ऐ सर ज़मीन-ए-पाक  
अब अपने अज्म को है नया रास्ता पसंद
अपना वतन हैं आज जमाने में सरबुलंद
पहुंचा सकेगा इसको न कोई भी अब गजंद
अब हमको देखते हैं अतारो यो या समाक

ऐ सर ज़मीन-ए-पाक  
उतरा है इम्तिहां में वतन आज, कामयाब
अब हुर्रियत की जुल्फ नहीं महवे पेचो ताब
दौलत है अपने मुल्क की बेहद्दों बेहिसाब
मगरिब से हमको खौफ न मशरिक से हमको बाक

ऐ सर ज़मीन-ए-पाक  
अपने वतन का आज बदलने लगा निजाम
अपने वतन में आज नहीं है कोई गुलाम
अपना वतन है राहे तरक्की पे तेजगाम
अब इत्र बेज हैं हवाएं थीं जहरनाक

((प्रभात ख़बर  के लिए लिखा गया))

(लेखक-परिचय:
जन्म: 19 जुलाई 1949, झारखंड के रांची में
ज्ञान: उर्दू, हिंदी, अरबी, फ़ारसी और अंग्रेजी ज़बानों के अलावा अदब इतिहास, संस्कृति के जानकार
सृजन: पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर कविता, व्यंग्य प्रकाशित। साथ ही खोजी रपट
संपर्क: +919334420618 )
 

 

 

 


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रविवार, 10 मार्च 2013

खनकती हुई धूप में, जहाँ दिल है मेरा



 
 
 
 
 
 
 
पंखुरी सिन्हा की क़लम से

आख़िरी अट्टहास 


अब वह आगे बैठी,
टेलीविज़न के,
हँस रही है,
एक हँसी,
एक बेहद राजनीतिक हँसी,
करती हुई दिन का हिसाब,
जैसे लिखती हुई उसपर अपना नाम,
हंसती हुई दिन का आखिरी अट्टहास,
दिन की आखिरी हंसी,
हर दिन हो जैसे उठा पटक,
हर दिन एक अभियान,
नहीं हो कोई सम्मिलित हंसी,
कोई सचमुच साथ का ठहाका,
और उसे इज़ाज़त नहीं लेनी हो,
बैठकर टेलीविज़न के आगे राजनीती करने के लिए,
किसी से,
हों उसके कुछ बहुत पैत्रिक अधिकार,
उस पितृसत्ता में,
जिसमे कार्यरत वह,
जिसका हिस्सा वह,
इज़ाज़त नहीं लेनी हो उसे,
किसी से,
राजनीती करने के लिए,
टेलीविज़न के आगे,
घर में काम करने वाली,
नौकरानी की तरह,
जो बैठती है घंटों,
टेलीविज़न के आगे,
और उठ नहीं पाती,
नहीं कहती,
मालिक के दिए खाली समय को,
और लोग भी नहीं कहते,
लेने वाले,
देने वाले,
रिश्वत खाने वाले,
खिलाने वाले,
और वो जिनसे ले लिया जाता है,
बहुत कुछ,
दर किनार कर हक उनका,
और वो नहीं कह पाते,
पता भी नहीं होता उन्हें,
उनके हक दरकिनार कर दिए जाए हैं,
सिर की एक हामी के साथ,
मीठी मुस्कुराहटों के साथ,
बातों के बीच, ठहाकों के बीच।
 
 
चौराहा

उस
खनकती हुई धूप में,
जहाँ दिल है मेरा,
और जख्मी भी,
इतना निरंतर है वार उनका,
सबका, हर किसी का,
चौराहा इतना खूबसूरत,
कि जान दी जा सकती थी,
अब भी दी जा सकती है,
अगर यही मंज़ूर तुम्हे,
अगर जान ही मेरी चाहते हो तुम,
तो उस चौराहे पे मारना मुझे,
मेरे घर से निकलकर,
पड़ने वाली पहली लाल बत्ती का चौराहा,
सब कुछ शुरू होता है वहां से।

मेरी पश्तो

मुझे तो बिल्कुल नहीं आती पश्तो,
न डोगरी, न कुमाऊँनी,
न गढ़वाली,
मुझे तो बिल्कुल नहीं आता,
पहाड़ चढ़ना,
कोई इल्म नहीं मुझे ढलान का भी,
न गुफाओं का, न कन्दराओं का,
वो लोग जो पाठ्यक्रम से ज्यादा जानते हों,
हिन्दुकुश और काराकोरम का भूगोल,
वो बता सकते हैं, खैबर और गोलन के रास्ते,
ऊंचाई कंचनजंघा की, शिवालिक की तराईयाँ,
और बता सकते हैं, एक से दूसरी जगह पहुँचने के तरीके,
उस एक से दूसरी जगह,
जिनके बीच सरहद पड़ती हो।

सियासी एक आवाज़

सियासी एक आवाज़
अगर आपसे ऐसी कुछ मांगें करती हो,
कि क़त्ल करना पड़े,
आपको अपना हर प्रेमी,
हर प्रेम,
और प्रेमी के होने का हर मंसूबा,
कुछ ऐसे नामांकन हों,
आपका प्रेमी बनते ही,
गुप्तचर सेवा में उसका,
आप ही पर नज़र रखने के लिए,
बताने के लिए तमाम घरेलू आदतें आपकी,
तो कैसे मुखातिब हुआ जाये,
इस सियासत से?
कब और कहाँ?
कैसे पेश की जाये बात अपनी?

(परिचय:
जन्म:18 जून 1975
शिक्षा:एमए, इतिहास, सनी बफैलो, पीजी डिप्लोमा, पत्रकारिता, पुणे, बीए, हानर्स, इतिहास,   इन्द्रप्रस्थ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
अध्यवसाय:  कुछ वर्ष प्रिंट व टीवी पत्रकारिता
सृजन: हंस, वागर्थ, पहल, नया ज्ञानोदय, कथादेश, कथाक्रम, वसुधा, साक्षात्कार, आदि पत्र-पत्रिकाओं और वेब पोर्टल में रचनायें।
'कोई भी दिन' और 'क़िस्सा-ए-कोहिनूर', कहानी-संग्रह, ज्ञानपीठ से प्रकाशित। कविता-संग्रह 'ककहरा', शीघ्र प्रकाश्य,
सम्मान: 'कोई भी दिन', को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान, 'कोबरा: गॉड ऐट मर्सी', डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन, जिसे 1998-99 के यूजीसी, फिल्म महोत्सव में, सर्वश्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला। 'एक नया मौन, एक नया उद्घोष', कविता पर,1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार के अलावा 1993 में, कक्षा बारहवीं में, हिंदी में सर्वोच्च अंक पाने के लिए, भारत गौरव सम्मान.
सम्प्रति:‘डिअर सुज़ाना’ शीर्षक कविता-संग्रह के साथ, अंग्रेज़ी तथा हिंदी में, कई कविताओं पर काम, न्यू यॉर्क स्थित, व्हाइट पाइन प्रेस की 2013 कविता प्रतियोगिता के लिए, 'प्रिजन टॉकीज़',
शीर्षक पाण्डुलिपि प्रेषित, पत्रकारिता सम्बन्धी कई किताबों पर काम।
संपर्क:
sinhapankhuri412@yahoo.ca)




 
 
 

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