बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 30 मई 2012

टूट कर तो पास था जीत कर बिख़र गया



पंजाब का दो काव्य आबा 







 









 देविंदर सिंह जोहल की क़लम से

1
एक पल ग़ुफ़ा में

तेरी आंखों से
पानी किस बात पे निकला
कुछ पता ना चला

ना तू ग़मगीन थी
न हालात नमकीन थे
बस मै बोल रहा था
या शायद
मेरा अपनापन खुल रहा था
किसी ग़ुफ़ा के दरवाज़े जैसा

दरीचे पे सूर्य का पहरा था
भीतर बुझ चुके दीप की महक थी
या लौ पे जल रहे मास की दुर्गंध
यकायक तेरी आवाज़ में
न जाने कहां से क्या आया
तेरॊ उंगलियाँ छुपा रही थी
या शायद सहला रही थी
आखों की सतह पे आए मोती
उसी एक पल में
तेरा हाथ
मेरे हाथ तक कैसे आया
बस पता ही न चला
बक्त का बह पल शायद
ग़ुफ़ा के गुम्बद में बंद था

मेरी आंख
तेरी आखों में कैसे उतर गई

शायद किसी पल का भी वकफ़ा नहीं था
मौसम का मिज़ाज एक तरफ़ा नहीं था
तू नदी नहीं थी
मैं पानी कैसे हो गया
तेरे होंठ कुछ कुछ खुले
जुबान शायद ज़रा सा लर्ज़ी
मेरी धड़कन तक आवाज़ आई
प्रेम जैसा कोई लफ्ज़ था या नहीं था
अहसास की इबारत थी

उसी पल दरवज़े पे थी
ताज़ा अतीत की दस्तक 
वक्त के गुम्बद से मै यकायक बाहर था
अपनी हथेली पे
नमी के शिलालेख़ थे
------------
2
मौत की सौगात

मुझे याद से निजात दे
सकूं की एक रात दे
मैं हूं हादसों में जी रहा
मुझे मौत की सौगात दे

बदन में रूप क्या मिला
करूप दिल से हो गया
मुझे रंग भी बेरंग दे
मुझे जात भी कुजात दे

मुझे मंज़िलों का हुलास ना
मुझे रास्तों की प्यास है
लबों को नमीं की चाह नहीं
मेरी रूह को प्रभात दे

इधर भी मैं उधर भी हूं
तुझी का ही मैं घर भी हूं
रहूं पास ही जाना कहां
तू अहद की बस बात दे

मैं टूट कर तो पास था
मैं जीत कर बिख़र गया
मुझी से मुझ को छीन ले
मुझी से मुझ को मात दे
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पत्रकार विदुषी ऋतु कलसी के प्रति हम आभारी हैं. जिनकी बदौलत  हमें जोहल साहब जैसे बुजुर्गवार सुगढ़ कवि और उनकी इतनी अच्छी कविता मिली.अनुवाद ऋतु का ही. वह कहती हैं: देविंदर जोहल एक सवेदनशील कवि हैं उनकी कविताएं रिश्तों के नाज़ुक अहसासों को खुबसूरत लफ़्ज़ों में अभिव्यक्त करती हैं
(कवि-परिचय
जन्‍म: 13 अप्रैल १९५७
सृजन: पंजाबी की पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। कविता संकलन के प्रकाशन की तैयारी।
सम्प्रति: आल इंडिया रेडियो जालंधर में प्रोग्राम एग्‍जीक्‍यूटिव पद पर कार्यरत।)




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शनिवार, 5 मई 2012

अरुंधति राय ने दुनिया के सामने बदशक्ल भारत दिखलाया

अच्छा है कि हिंदी में कोई अरुंधति राय नहीं है



















 अजय तिवारी

(सैयद शहरोज़ कमर से संवाद)

डॉ. रामविलास शर्मा जैसे शिखर सामाजिक, सांस्कृतिक और आलोचक का  नवीनतम पाठ प्रस्तुत करने का आपको  श्रेय दिया जाता है।
मुझे ऐसा कोई भ्रम नहीं। जब मैं सन 71 में लेखन साहित्य में सक्रीय हुआ, रामविलास जी आलोचक  के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी, जिस बात को सही समझना उसे निर्भीकता पूर्वक  कहना। इस कारण शुरुआत में वह विवादों के केंद्र  में रहे। लेकिन  आपात्तकाल के  बाद साहित्यकारों की नई पीढ़ी ने डॉ. शर्मा के महत्व को  समझा। तब पूंजीवादी प्रतिष्ठानों से लाभ उठाने वालों और श्रमिक  जनता से हमदर्दी रखने वालों के  बीच सांस्कृतिक फासला अधिक  उजागर हुआ। इसमें एक पक्ष डॉ. शर्मा विरोधियों का था। शंभूनाथ, रविभूषण, कर्मेंदु शिशिर और प्रगति सक्सेना जैसे  समकालीन आलोचक  उनके महत्व को  स्वीकार करते हैं। अवसरवादी किस्म  के लोग उनके  विरोधी रहे। उनकी स्थापनाओं की मुखालिफत करते रहे। इस प्रसंग को  सामाजक व राजनीतिक  पृष्ठभूमि में देखना व समझना चाहिए।

देश के  कई महत्वपूर्ण कवि लेखको की जन्मशती मनाई जा रही है, लेकिन सिर्फ फोकस अज्ञेय पर ही अधिक क्यों?
अज्ञेय महत्वपूर्ण कवि हैं। इसमें संदेह नहीं। केशवदास भी महत्वपूर्ण कवि हैं। लेकिन  कबीर, जायसी, तुलसी और केशव में अंतर है। जिनके लिए कबीर व तुलसी महत्वपूर्ण थे, केशव उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं। यही बात अज्ञेय, नागार्जुन व केदार के बारे में समझनी चाहिए। अचानक अज्ञेय को  लेकर बहुत से विचारकों में आत्मग्लानि की भावना जाग उठी है। वे भूल सुधार करते हुए अज्ञेय को अतिरंजित महत्व दे रहे हैं। लेकिन वे नहीं बताते कि भावी जन सांस्कृतिक  विकास में अज्ञेय किस रूप में सहायता करेंगे। समाज को बदलने का लक्ष्य वामपंथी बुद्धिजीवियों के सामने भी नहीं बचा है। इसलिए वे अज्ञेय को  अधिक  महत्व दे रहे हैं। मैं कामना करता हूं कि ये लोग कल नागार्जुन और केदार का नाम लेने में शर्मिंदगी न महसूस करें।

लेखकों व कवियों का दक्षिणपंथियों के मंच पर जाना, उनके हाथों सम्मानित होना, कितना सही है।( सन्दर्भ: मंगलेश डबराल का राकेश सिन्हा के आयोजन में शिरकत और गत वर्ष उदय प्रकाश का कुख्यात सांसद से गोरखपुर में सम्मान लेना.)
स्पष्ट कहूं तो पुरस्कार लेकर अपने विचारों को त्यागना अवसरवाद है। वहीं विरोधी मंच पर जाकर अपनी बात कहना गलत नहीं है।

कहा जाता है कि हिंदी लेखकों का जुडा़व जनता से नहीं है। हिंदी जगत में कोई अरुंधति राय नहीं है।
अच्छा है कि हिंदी में कोई अरुंधति राय नहीं है। उन्होंने यूरोपीय इच्छाओं के अनुकुल भारत की बदशक्ल तस्वीर दुनिया को दिखाई। उन्होंने कहीं न कहीं नक्सलियों का  ही समर्थन किया। मैं नक्सलियों की गतिविधियों को जन आंदोलन नहीं मान सकता। हां यह सही है कि हिंदी लेखक  कवि जमीन से, अपनी जड़ों से कट चुके हैं। जनता से उनका नाता टूट गया है। उनके नजरिये में जनता का हित नहीं है, तो हर बात हवाई होगी। सिर्फ सड़क  पर उतरना ही जनता के  साथ होना नहीं होता। आपकी  रचनाओं में आदिवासी, दलित, स्त्री और आम जन की कितनी पीड़ा और संवेदना है, यह अहम है। भारतीय समाज के हित की बात जहां होगी, मैं उसका समर्थन करूंगा।

इन दिनों कहानियों में भाषायी बत्तंगड़ अधिक देखने को आता है
जब कहानीकार जनता से कटे होंगे, तो वे बाजार का ध्यान आकर्षित करेंगे ही। इसलिए कहानी में विषय वस्तु की जगह वर्णन शैली प्रधान हो जाएगी। आज कहानियों में यह बात सबसे अधिक दिखाई देती है। इसे एक तरह का रीतिवाद समझना चाहिए। यही कारण है कि आरंभिक रचनाओं में ही सारी चमक दिखलाकर ये कहानीकार चुक जाते हैं। फिर ध्यानाकर्षण के लिए और अधिक  चमत्कृत भाषा का प्रयोग कर एक दुश्चक्र में उलझ जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकाँश युवा कथाकारों के यहां ऐसा है। पंकज मित्र, नीलाक्षी सिंह, राजू शर्मा इत्यादि कुछ अच्छे कथाकार भी हैं, जिनके यहां विषय वस्तु मानव संबंधों के अध्ययन से आती है।

मौजूदा समय लेखक संगठनों की भूमिका  किस तरह देखते हैं
दिलचस्प बात यह है कि दक्षिणपंथी पार्टियों के लेखक संगठन या तो हैं नहीं। और हैं, तो लेखकों में उसकी साख नहीं है। इसलिए लेखक संगठनों की चर्चा वामपंथी पार्टियों के के संदर्भ में होती है। पूंजीवादी संस्थाएं लेखकों  को बहुत से माध्यमों से अपने अनुकुल करती हैं। पुरस्कार, सेमिनार, फेलाशिप, विदेश यात्राएं, सांस्थानिक  सदस्यता आदि। व्यवस्था के बहुत से तरीके हैं। कभी वामपंथी संगठन जन आंदोलनों से लेखकों को जोड़ते थे। यही उनकी शक्ति थी और आकर्षण भी। आज वामपंथी पार्टियां जन आंदोलनों से दूर होकर पूंजीवादी दायरे में सिमट गई हैं। उनके लेखक संगठन भी बुनियादी जिम्मेदारियों से दूर हट गए हैं। जितना पतन वामपंथी सांस्कृतिक संगठनों का दिखाई देता है, वो निराशाजनक  तो है ही, सांस्कृतिक जीवन के लिए नुकसान देह भी है।

इसका संपादित अंश झारखंड के दैनिक भास्कर के संस्करणों में सम्पादकीय पेज न. १० में ४ मई, २०१२ ko प्रकाशित


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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)