बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 5 मई 2012

अरुंधति राय ने दुनिया के सामने बदशक्ल भारत दिखलाया

अच्छा है कि हिंदी में कोई अरुंधति राय नहीं है



















 अजय तिवारी

(सैयद शहरोज़ कमर से संवाद)

डॉ. रामविलास शर्मा जैसे शिखर सामाजिक, सांस्कृतिक और आलोचक का  नवीनतम पाठ प्रस्तुत करने का आपको  श्रेय दिया जाता है।
मुझे ऐसा कोई भ्रम नहीं। जब मैं सन 71 में लेखन साहित्य में सक्रीय हुआ, रामविलास जी आलोचक  के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी, जिस बात को सही समझना उसे निर्भीकता पूर्वक  कहना। इस कारण शुरुआत में वह विवादों के केंद्र  में रहे। लेकिन  आपात्तकाल के  बाद साहित्यकारों की नई पीढ़ी ने डॉ. शर्मा के महत्व को  समझा। तब पूंजीवादी प्रतिष्ठानों से लाभ उठाने वालों और श्रमिक  जनता से हमदर्दी रखने वालों के  बीच सांस्कृतिक फासला अधिक  उजागर हुआ। इसमें एक पक्ष डॉ. शर्मा विरोधियों का था। शंभूनाथ, रविभूषण, कर्मेंदु शिशिर और प्रगति सक्सेना जैसे  समकालीन आलोचक  उनके महत्व को  स्वीकार करते हैं। अवसरवादी किस्म  के लोग उनके  विरोधी रहे। उनकी स्थापनाओं की मुखालिफत करते रहे। इस प्रसंग को  सामाजक व राजनीतिक  पृष्ठभूमि में देखना व समझना चाहिए।

देश के  कई महत्वपूर्ण कवि लेखको की जन्मशती मनाई जा रही है, लेकिन सिर्फ फोकस अज्ञेय पर ही अधिक क्यों?
अज्ञेय महत्वपूर्ण कवि हैं। इसमें संदेह नहीं। केशवदास भी महत्वपूर्ण कवि हैं। लेकिन  कबीर, जायसी, तुलसी और केशव में अंतर है। जिनके लिए कबीर व तुलसी महत्वपूर्ण थे, केशव उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं। यही बात अज्ञेय, नागार्जुन व केदार के बारे में समझनी चाहिए। अचानक अज्ञेय को  लेकर बहुत से विचारकों में आत्मग्लानि की भावना जाग उठी है। वे भूल सुधार करते हुए अज्ञेय को अतिरंजित महत्व दे रहे हैं। लेकिन वे नहीं बताते कि भावी जन सांस्कृतिक  विकास में अज्ञेय किस रूप में सहायता करेंगे। समाज को बदलने का लक्ष्य वामपंथी बुद्धिजीवियों के सामने भी नहीं बचा है। इसलिए वे अज्ञेय को  अधिक  महत्व दे रहे हैं। मैं कामना करता हूं कि ये लोग कल नागार्जुन और केदार का नाम लेने में शर्मिंदगी न महसूस करें।

लेखकों व कवियों का दक्षिणपंथियों के मंच पर जाना, उनके हाथों सम्मानित होना, कितना सही है।( सन्दर्भ: मंगलेश डबराल का राकेश सिन्हा के आयोजन में शिरकत और गत वर्ष उदय प्रकाश का कुख्यात सांसद से गोरखपुर में सम्मान लेना.)
स्पष्ट कहूं तो पुरस्कार लेकर अपने विचारों को त्यागना अवसरवाद है। वहीं विरोधी मंच पर जाकर अपनी बात कहना गलत नहीं है।

कहा जाता है कि हिंदी लेखकों का जुडा़व जनता से नहीं है। हिंदी जगत में कोई अरुंधति राय नहीं है।
अच्छा है कि हिंदी में कोई अरुंधति राय नहीं है। उन्होंने यूरोपीय इच्छाओं के अनुकुल भारत की बदशक्ल तस्वीर दुनिया को दिखाई। उन्होंने कहीं न कहीं नक्सलियों का  ही समर्थन किया। मैं नक्सलियों की गतिविधियों को जन आंदोलन नहीं मान सकता। हां यह सही है कि हिंदी लेखक  कवि जमीन से, अपनी जड़ों से कट चुके हैं। जनता से उनका नाता टूट गया है। उनके नजरिये में जनता का हित नहीं है, तो हर बात हवाई होगी। सिर्फ सड़क  पर उतरना ही जनता के  साथ होना नहीं होता। आपकी  रचनाओं में आदिवासी, दलित, स्त्री और आम जन की कितनी पीड़ा और संवेदना है, यह अहम है। भारतीय समाज के हित की बात जहां होगी, मैं उसका समर्थन करूंगा।

इन दिनों कहानियों में भाषायी बत्तंगड़ अधिक देखने को आता है
जब कहानीकार जनता से कटे होंगे, तो वे बाजार का ध्यान आकर्षित करेंगे ही। इसलिए कहानी में विषय वस्तु की जगह वर्णन शैली प्रधान हो जाएगी। आज कहानियों में यह बात सबसे अधिक दिखाई देती है। इसे एक तरह का रीतिवाद समझना चाहिए। यही कारण है कि आरंभिक रचनाओं में ही सारी चमक दिखलाकर ये कहानीकार चुक जाते हैं। फिर ध्यानाकर्षण के लिए और अधिक  चमत्कृत भाषा का प्रयोग कर एक दुश्चक्र में उलझ जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकाँश युवा कथाकारों के यहां ऐसा है। पंकज मित्र, नीलाक्षी सिंह, राजू शर्मा इत्यादि कुछ अच्छे कथाकार भी हैं, जिनके यहां विषय वस्तु मानव संबंधों के अध्ययन से आती है।

मौजूदा समय लेखक संगठनों की भूमिका  किस तरह देखते हैं
दिलचस्प बात यह है कि दक्षिणपंथी पार्टियों के लेखक संगठन या तो हैं नहीं। और हैं, तो लेखकों में उसकी साख नहीं है। इसलिए लेखक संगठनों की चर्चा वामपंथी पार्टियों के के संदर्भ में होती है। पूंजीवादी संस्थाएं लेखकों  को बहुत से माध्यमों से अपने अनुकुल करती हैं। पुरस्कार, सेमिनार, फेलाशिप, विदेश यात्राएं, सांस्थानिक  सदस्यता आदि। व्यवस्था के बहुत से तरीके हैं। कभी वामपंथी संगठन जन आंदोलनों से लेखकों को जोड़ते थे। यही उनकी शक्ति थी और आकर्षण भी। आज वामपंथी पार्टियां जन आंदोलनों से दूर होकर पूंजीवादी दायरे में सिमट गई हैं। उनके लेखक संगठन भी बुनियादी जिम्मेदारियों से दूर हट गए हैं। जितना पतन वामपंथी सांस्कृतिक संगठनों का दिखाई देता है, वो निराशाजनक  तो है ही, सांस्कृतिक जीवन के लिए नुकसान देह भी है।

इसका संपादित अंश झारखंड के दैनिक भास्कर के संस्करणों में सम्पादकीय पेज न. १० में ४ मई, २०१२ ko प्रकाशित



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- अल्लामा जमील मज़हरी

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