बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शुक्रवार, 17 जून 2011

दो गज ज़मीं न मिल सकी .....


















हुसैन नहीं रहे.जब थे तब भी यह सवाल गर्दिश में था.उन्होंने देश में रहकर ही अपने खिलाफ उठी आवाजों का सामना क्यों नहीं किया.जबकि उन्हें करना था.अलग हो जाना ऐसे विमर्श की धार को कुंद ही करता है.दूसरे शब्दों में, कुछ इसे कायरता भी कह सकते हैं.
लेकिन आज जो स्यापा हो रहा है.उनके रहते कोशिशें क्यों नहीं हुई की उन्हें देश में रहने दिया जाए.या हुसैन से कहा जाता. उनके अपने वतन में दफन होनी की तो बात की जाती.ज़फ़र  से कितना अलग था हुसैन का दर्द!
कितना है बदनसीब ज़फर दफन के लिए
 दो गज ज़मीं न मिल सकी इस कुए यार में 
उनके नहीं रहने पर यह प्रश्न तीव्र हुआ है की कला में क्या अश्लील भी कुछ होता है. इस सन्दर्भ में विभा जी का यह लेख हमें कुछ राह दे पायेगा!! आप खुद फैसला करें.

हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते 

 

विभा रानी की कलम से 



 नया ज्ञानोदय के अप्रैल 2009 अंक में प्रकाशित सुप्रसिद्ध मलयाली कवि के सच्चिदानंद की एक कविता उद्धृत है
मैं एक अच्छा हिन्दू हूं
खजुराहो और कोणार्क के बारे में मैं कुछ नहीं जानता
कामसूत्र को मैंने हाथ से छुआ तक नहीं
दुर्गा और सरस्वती को नंगे रूप में देखूं तो मुझे स्वप्नदोष की परेशानी होगी
हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते
जो भी थे उन्हें हमने काशी और कामाख्या में प्रतिष्ठित किया
कबीर के राम को हमने अयोध्या में बंदी बनाया
गांधी के राम को हमने गांधी के जन्मस्थान में ही जला दिया
आत्मा को बेच कर इस गेरुए झंडे को खरीदने के बाद
और किसी भी रंग को देखूं तो मैं आग-बबूला हो जाऊंगा
मेरे पतलून के भीतर छुरी है
सर चूमने के लिए नहीं, काट-काट कर नीचे गिराने के लिए…
यह मात्र संयोग ही नहीं है कि हम कहीं भी कभी भी प्यार की बातें करते सहज महसूस नहीं करते। यहां प्यार से आशय उस प्यार से है, जो सितार के तार की तरह हमारी नसों में बजता है, जिसकी तरंग से हम तरंगित होते हैं, हमें अपनी दुनिया में एक अर्थ महसूस होने लगता है, हमें अपने जीवन में एक रस का संचार मिलाने लगता है। मगर नहीं, इस प्यार की चर्चा करना गुनाह है, अश्लीलता है, पाप है और पता नहीं, क्या-क्या है। हमारे बच्चों के बच्चे हो जाते हैं, मगर हम यह सहजता से नहीं ले पाते कि हमारे बच्चे अपने साथी के प्रति प्यार का इज़हार करें या अपने मन और काम की बातें बताएं। और यह सब हिंदुत्व और भारतीय संस्कृति के नाम पर किया जाता है।
जिस प्रेम से हमारी उत्पत्ति है, उसी के प्रति इतने निषेध भाव कभी-कभी मन में बड़ी वितृष्णा जगाते हैं। आखिर क्यों हम प्रेम और सेक्स पर बातें करने से हिचकते या डरते हैं? ऐसे में सच्छिदानंदन जी की बातें सच्ची लगती हैं कि हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते, और अब उन्हीं के अनुकरण में हमारे भी नही होते। आखिर हम उन्हीं की संतान हैं न। भले वेदों में उनके शारीरिक सौष्ठव का जी खोल कर वर्णन किया गया है और वर्णन के बाद देवियों को माता की संज्ञा दे दी जाती है, मानो माता कह देने से फिर से उनका शरीर, उनके शरीर के आकार-प्रकार छुप जाएंगे। वे सिर्फ एक भाव बनाकर रह जाएंगी।
यक्ष को दिया गया युधिष्ठिर का जवाब बड़ा मायने रखता है कि अगर मेरी माता माद्री मेरे सामने नग्नावस्था में आ जाएं तो मेरे मन में पहले वही भाव आएंगे, जो एक युवा के मन में किसी युवती को देख कर आते हैं। फिर भाव पर मस्तिष्‍क का नियंत्रण होगा और तब मैं कहूंगा कि यह मेरी माता हैं।
समय बदला है, हम नहीं बदले हैं। आज भी सेक्स की शिक्षा बच्चों को देना एक बवाल बना हुआ है। भले सेक्स के नाम पर हमारे मासूम तरह-तरह के अपराध के शिकार होते रहें। आज भी परिवारों में इतनी पर्दा प्रथा है कि पति-पत्नी एक साथ बैठ जाएं, तो आलोचना के शिकार हो जाएं। 
उत्पीडित दुनिया से साभार संपादित अंश
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मंगलवार, 14 जून 2011

रामदेव ने अनशन तोड़ा और स्वामी निगमानंद ने दम













आशीष कुमार अंशु न सिर्फ मित्र हैं, बल्कि बेहद चौकन्ने पत्रकार भी हैं.आज उनकी टिप्पणी बज़ पर पढ़ी :
स्वामी निगमानंद का नाम बाबा रामदेव के पक्ष में माहौल बनाने वाले लोग जानते हैं क्या? इसी साल 19 फरवरी 2011 से स्वामीजी गंगा नदी के किनारे हो रहे अवैध खनन के विरोध में आमरण अनशन पर बैठे थे। 68वें दिन 27 अप्रैल 2011 को वे पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए। उन्हें देहरादून के उसी जॉली ग्रांट अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां बाबा रामदेव भर्ती थे। लेकिन बाबा से मिलने गए दिग्गज बाबाआंे की टोली ने स्वामीजी की टोह तक नहीं ली। रविवार को बाबा रामदेव ने अनशन तोड़ा और स्वामी निगमानंद ने सोमवार को दम तोड़ दिया।

उसके बाद बीबीसी  देखा.अंतिम में सिराज भाई की यह तड़प .आप भी शामिल हों.अगर कहीं कुछ शेष रह गया है तो..



 सिराज कैसर  की कलम से


हरिद्वार की गंगा में खनन रोकने के लिए कई बार के लंबे अनशनों और जहर दिए जाने की वजह से मातृसदन के संत निगमानंद अब नहीं रहे। हरिद्वार की पवित्र धरती का गंगापुत्र अनंत यात्रा पर निकल चुका है। वैसे तो भारतीय अध्यात्म परंपरा में संत और अनंत को एक समान ही माना जाता है। सच्चे अर्थों में गंगापुत्र वे थे।

गंगा रक्षा मंच, गंगा सेवा मिशन, गंगा बचाओ आंदोलन आदि-आदि नामों से आए दिन अपने वैभव का प्रदर्शन करने वाले मठों-महंतों को देखते रहे हैं पर गंगा के लिए निगमानंद का बलिदान इतिहास में एक अलग अध्याय लिख चुका है।

गंगा के लिए संत निगमानंद ने 2008 में 73 दिन का आमरण अनशन किया था। उसी समय से उनके शरीर के कई अंग कमजोर हो गए थे और न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर के भी लक्षण देखे गए थे। और अब 19 फरवरी 2011 से शुरू संत निगमानंद का आमरण अनशन 68वें दिन (27 अप्रैल 2011) को पुलिस गिरफ्तारी के साथ खत्म हुआ था, उत्तराखंड प्रशासन ने उनके जान-माल की रक्षा के लिए यह गिरफ्तारी की थी। संत निगमानंद को गिरफ्तार करके जिला चिकित्सालय हरिद्वार में भर्ती किया गया। हालांकि 68 दिन के लंबे अनशन की वजह से उन्हें आंखों से दिखाई और सुनाई पड़ना कम हो गया फिर भी वे जागृत और सचेत थे और चिकित्सा सुविधाओं की वजह से स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक हो रहा था।

लेकिन अचानक 2 मई 2011 को उनकी चेतना पूरी तरह से जाती रही और वे कोमा की स्थिति में चले गए। जिला चिकित्सालय के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक पीके भटनागर संत निगमानंद के कोमा अवस्था को गहरी नींद बताते रहे। बहुत जद्दोजहद और वरिष्ठ चिकित्सकों के कहने पर देहरादून स्थित दून अस्पताल में उन्हें भेजा गया। अब उनका इलाज जौली ग्रांट स्थित हिमालयन इंस्टिट्यूट हॉस्पिटल में चल रहा था।

हिमालयन इंस्टिट्यूट हॉस्पिटल के चिकित्सकों को संत निगमानंद के बीमारी में कई असामान्य लक्षण नजर आए और उन्होंने नई दिल्ली स्थित ‘डॉ लाल पैथलैब’ से जांच कराई। चार मई को जारी रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि ऑर्गोनोफास्फेट कीटनाशक उनके शरीर में उपस्थित है। इससे ऐसा लगता है कि संत निगमानंद को चिकित्सा के दौरान जहर देकर मारने की कोशिश की गई थी।

जहर देकर मारने की इस घिनौनी कोशिश के बाद उनका कोमा टूटा ही नहीं। और 42 दिनों के लंबे जद्दोजहद के बाद वे अनंत यात्रा के राही हो गये।

पर संत निगमानंद का बलिदान बेकार नहीं गया। मातृसदन ने अंततः लड़ाई जीती। हरिद्वार की गंगा में अवैध खनन के खिलाफ पिछले 12 सालों से चल रहा संघर्ष अपने मुकाम पर पहुँचा। 26 मई को नैनीताल उच्च न्यायालय के फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि क्रशर को वर्तमान स्थान पर बंद कर देने के सरकारी आदेश को बहाल किया जाता है।

मातृसदन के संतों ने पिछले 12 सालों में 11 बार हरिद्वार में खनन की प्रक्रिया बंद करने के लिए आमरण अनशन किए। अलग-अलग समय पर अलग-अलग संतों ने आमरण अनशन में भागीदारी की। यह अनशन कई बार तो 70 से भी ज्यादा दिन तक किया गया। इन लंबे अनशनों की वजह से कई संतों के स्वास्थ्य पर स्थाई प्रभाव पड़ा।

मातृसदन ने जब 1997 में स्टोन क्रेशरों के खिलाफ लड़ाई का बिगुल फूंका था। तब हरिद्वार के चारों तरफ स्टोन क्रेशरों की भरमार थी। दिन रात गंगा की छाती को खोदकर निकाले गए पत्थरों को चूरा बनाने का व्यापार काफी लाभकारी था। स्टोन क्रेशर के मालिकों के कमरे नोटों की गडिडयों से भर हुए थे और सारा आकाश पत्थरों की धूल (सिलिका) से भरा होता था। लालच के साथ स्टोन क्रेशरों की भूख भी बढ़ने लगी तो गंगा में जेसीबी मशीन भी उतर गयीं। बीस-बीस फुट गहरे गड्ढे खोद दिए। जब आश्रम को संतों ने स्टोन क्रेशर मालिकों से बात करने की कोशिश की तो वे संतों को डराने और आतंकित करने पर ऊतारू हो गये। तभी संतों ने तय किया कि गंगा के लिए कुछ करना है। और तब से उनकी लड़ाई खनन माफियाओं के खिलाफ चल रही थी।


इंडिया वाटर पोर्टल हिंदी से से कट पेस्ट 


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शनिवार, 11 जून 2011

पलामू में भूख की सदाबहार हरियाली

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों डांट दी कि  सरकारी गोदामों में सड़ते अनाजों को बचाया जाये. इसे ग़रीबों के बीच बांटा जाय!लेकिन झारखण्ड में इस बार भी सूखा है. सबसे ज़्यादा बदतर हालत है पलामू की. हम इसी उधेड़बुन में पहुंचे थे पलामू.


सैयद शहरोज कमर, पलामू से लौटकर



चैनपुर के  आगे 13 किलोमीटर बाद पक्की सड़क  छोड़ जब आप जंगली पथरीले रास्ते का रुख करते हैं, तो ढलान पर रेत से लबालब सबरी नदी मिलती है। नदी पार करने पर सेमरा पहाडिय़ों की  गोद में कटोरे की  शक्ल के  गांव लमती से आप रूबरू होते हैं। यहां की  धरती भले बंजर है, लेकिन इस कटोरे में समूचे पलामू के  समान भूख की  हरियाली सदाबहार है। मई की  दोपहरी में भूख के  कटोरे की  चमक  और बढ़ गई है।

डालटनगंज से करीब 25 किमी के  फासले पर चैनपुर ब्लॉक के  गांव लमती में कोई नौजवान नहीं दिखता। 85 घर की  इस बस्ती के  लगभग हर घर का  युवा कमाने खाने बाहर गया हुआ है, चेन्नई से हैदराबाद तक । चमरू कोरवा जैसे लोग लौट कर भी नहीं आ पाते, वहीं हादसे के  शिकार हो जाते हैं। जो लौटकर गांव आते हैं, तो उनके  पास इतनी जमा पूंजी नहीं होती कि  कुछ व्यवसाय कर सकें । 15 साल के  अमरेश कोरवा अभी हैदराबाद से आए हैं। इस बार कहीं और जाएंगे ताकि  कम से कम खाना तो नसीब हो। लमती में रहे तो सप्ताह में दो या तीन दिन में सिर्फ माड़ भात पर ही निर्भर रहना होगा। महेंद्र उरांव रांची में रिक्शा चलाते हैं। गांव में क्या करें। तीन साल से खेती नहीं। कभी कभार होने वाला, मनरेगा का काम भी छह महीने से बंद है। पास खड़ी 70 वर्षीया जसमतिया कुंअर की  चिंता है कि  तीन महीने में परिवार को  तीस किलो चावल परसों मिला है। इससे पांच जन माह के दो दिन में एक  बार ही खा सकते हैं। सूखे के कारण अब यहां गेठी की  लतर भी सूख गई है। पहले इस जहरीले कद से ही गुजारा कर लेते थे। पनवा कोरवा डेढ़ िकमी दूर से स्कूल के  चापाकल से पानी लेने आती हैं। उनके  घर के  मुकेश और ब्रिज कोरवा भी कमाने गए हैं। छह माह से उन्होंने पैसा नहीं भेजा है। कहां, किस हाल में हैं। कोई खबर नहीं। चपरिया टोले की महिलाएं हमारी खबर सुनकर जुट जाती हैं ·िक  सरकारी लोग आए हैं कुछ चावल या पैसा मिलेगा। गुस्से में कहती हैं कि  छाप कर क्या करोगे। गांव में चार महीने से बच्चों को  पोलियो खुराक  नहीं मिली है।
वो सजदे में नहीं था..

भूख की मार झेल रहे, घूल धक्कड़ से लिपटे लमती में टीबी ने अब तक  चार लोगों की जान ले ली है। सोलह साल के सुलेन कोरवा, तीस के बौद्धा उरांव, हलकान उरांव और 45 वर्षीय बिसनाथ उरांव मरे तो टीबी से हैं। लेकिन टीबी होने के कारणों में भूख को इनकार नहीं किया जा सकता। टिपन कोरवा को देख कर भ्रम नहीं हुआ कि वह सजदे में होगा। खांसते खांसते उसकी सांसें रुक  जाती हैं। झुक  कर बैठ गए हैं, टिपन। इस मर्ज के लिए अच्छी खुराक  कहां से लाएं। यहां तो दो जून के लाले हैं। चैनपुर पैदल चलकर जाते हैं तो दवा मिलती है। टीबी के दूसरे मरीज भुखन कोरवा की आंखें धंस गई हैं।

तीन बच्चों के बीच पानी भात खाने की होड़ है। वहीं उनके पास बैठी उनकी बड़ी बहनें उन्हें कम, भात को अधिक  टुकुर टुकुर निहार रही हैं। बहनों को सप्ताह में दो बार खाने को मिल जाता है। उरांव टोले के मेघराज कहते हैं कि  पहले स्कूल  में दोपहर को बच्चों को खिचड़ी मिल जाती थी, लेकिन दो महीने से यह भी बंद हैं। वही बदहाली आंगनबाड़ी की है।

मेघराज और महेंद्र गांव से बहती नदी पर ले जाते हैं। रेत और पत्थरों के बीच जमे थोड़े से हरे पानी में कुछ भैंसें गर्मी से राहत पाने की जुगत में हैं। मेघराज की एक  भैंस मर चुकी है। ये भी मर जाएंगी। कुआं सूख चुका है। बस्ती के तीन चापाकल भी पानी छोड़ रहे हैं। एक  ठीक  है, तो उस पर मारा मारी है। कुछ दिनों पहले मारपीट भी हो गई थी। मेघ कहते हैं, इस रेगिस्तानी इलाके में आदमी के लिए पानी नहीं है, हम जानवरों के लिए कहां से पानी लाएं।

कई दिनों तक  चूहों की भी हालत रही शिकस्त

वहां से लौटते हुए सड़क किनारे पलाश के पते और झाड़ से बनी इगलुनुमा कुछ झोंपडिय़ां मिलती हैं। जिसे कुंभा कहते हैं। हमारा कैमरा देखते ही दिका, सुगंती, प्रदीप जैसे अधनंगे मुसहर बच्चे हमें घेर लेते हैं। छोटू देवी जंगली जड़ी उबाल रही है। पास में कुता मंडरा रहा है। बच्चों के चेहरे पर संतोष है कि  मां कुछ खाने को देगी। नागार्जुन की पंक्तियां जीवंत होती हैं:
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर,छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक  चूहों की भी हालत रही शिकस्त

वहीं संतोष मुसहर आक्रोशित हैं कि सरकार उन लोगों पर ध्यान नहीं देती। कुंभा तो एक  बहाना है, वरना इनके लिए आसमान छत और तपती धरती ही फर्श है। लेिकन आज तक  िकसी तरह का कार्ड इन लोगों का नहीं बना। न ही मनरेगा में काम मिलता है। िकसी तरह मांग चांग कर पेट भरते हैं। अधिक  समय जंगली फल और जड़ी बूटी ही सहारा है।

डुलसुलमा के भुइयां टोली में

पिछले वर्ष पास के सेमराहा टोला के जोगेसर के जवान बेटे रमन भुइयां की मौत डायरिया से हो गई थी। लेिकन गांववाले कहते हैं िक  भूख से बचने के लिए रमन ने जंगली साग पती उबाल कर खा लिया था। उलटीदस्त होने लगी, तो चैनपुर अस्पताल जाते जाते रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। शाम के अंधियारे के बावजूद भुइयां टोली के सोहर, सोमनाथ, सोमारु,बिसू भुइयां और जमुना तिवारी की जिंदगी के धुंधलेपन को साफ देखा जा सकता है। 35 घर के टोले में न इंदिरा आवास है, न ही िकसी के पास सरकारी कोई कार्ड । वृद्धा पेंशन भी िकसी को नहीं मिलता। एक  चापाकल भी हमेशा खराब रहता है। दूर से पानी लाते हैं तो पीकर संतोष करते हैं। मनरेगा का काम बंद है। लेिकन कभी काम इलाके में हो रहा था तो उनके पास जाब कार्ड नहीं िक  काम करते। कभी कभार चंदोली राइस मिल में कमाने जाते हैं गांव वाले, तो आठ महीने बाद घर में चूल्हा जलता है। वहां मजदूरी करने पर 45 रुपए रोज मिलता है।



जो करमवा में लिखल हई उकरा के टलतई

चैनपुर के काचन में सन्नाटा मई की दोपहर का कम, टीपीसी जैसे नक्सली संगठनों के खौफ का ज्यादा है। दर्जनों घरों में ताला लटका है। गरीबों के पास खाने को नहीं उन्हें लेवी कहां से दें। डर से भाग गए हैं। इस गांव में पिछले साल सरकार के दिए ढाई हजार मवेशी गर्मी से झुलस कर मर गए थे। साथ ही दर्जनों बच्चे भी अकाल के गाल बन गए। चार माह से पैसा नहीं मिलने से आंगनबाड़ी के बंद रहने से गांव के बच्चों के लिए एक  समय अन्न का आसरा भी छूटा। दूर से पानी ले कर आ रही चरकी देवी कहती हैं िक  बच्चे भी मरल। उनके दो बेटे काना और मथुआ भी पिछले साल भूख से मर गए। यहां खेरवार और भुइयां की आबादी है। लेिकन भूख जाति नहीं देखती। चरकी खेरवार हैं तो सांवली रंगत के रामावतार भुइयां ने भी दो सपूत खो दिए। सुबह जंगल गए थे, काफी मशक्कत के बाद एक  गेठी मिला । उनके पोते अभी पती के झोल में भात खाकर उठे हैं। कुआं सूख गया है। चालीस घर के लोगों के लिए एक  चापाकल है। लेिकन भूख, मौत और नितांत अभावों के बाद भी इन ग्रामीणों के चेहरे पर जीजिविषा की उजास चमकती है। रामवातार कहते हैं, जो करमवा में लिखल हई उकरा के टलतई।

रामगढ़ जाने वाली संकरी पक्की सड़क  से दायीं ओर की जंगली पगडंडी से हम काचन के कोरवा टोले हाठू पहुंचते हैं। डबडबाई आंखों को आंचल से पोंछती भगमतिया कोरवा अपने दो बच्चों को पता भात खिला कर उठी है। आंखों के पानी में उनके दो बच्चों की तस्वीर तैर रही है, जिन्हें पिछले साल के सूखे ने डस लिया। अब कुपोषण के शिकार इन दो बेटे को वह िकस तरह बचाए। यह डर उसे सोने नहीं देता। धरती में दरारें पड़ चुकी हैं और आसमान इन पर तरस खा कर कभी जी भर रोता भी नहीं िक  बंजर में हरियाली आए। टोले के अघन कोरवा, भीमा मुंडा, पुशन कोरवा बताते हैं िक  मनरेगा हो या लाल पीला कार्ड पलामू के हर गांव की तरह यहां भी लोगों को इसके दर्शन नहीं हो पाए हैं। िकसी के पास जाब कार्ड नहीं है। खंभे तो हैं, लेिकन बिजली के तार नहीं। तिरभेखनी देवी गेठी लिए दौड़ी आती हैं, बाबू का देखबा। हम लोग यही खाते हैं। यह भी अब कहां मिलता है। इसकी लतर सूख गई है। नौजवानों से टोला खाली है। सभी कमाने बाहर गए हैं।

भूख के सालन के साथ खाते हैं चावल

पलामू के पाटन ब्लाक  में पेड़ों की हरियाली के संग भूख का हरापन भी है। लोइंगा गांव के भुइयां टोला के 85 वर्षीय सूरदास विलास भुइयां ने रात कुछ खाया ही नहीं। ऐसा वह प्राय: करते हैं। दरअसल अनाज का टोटा है। यहां कभी चावल मिल गया तो उसे भूख के सालन के साथ खाया जाता है। उनकी पसलियां गिनी जा सकती हैं। आंखों ने दगा दे दिया है, लेिकन तेंदू पते छांटने का काम विलास कर रहे हैं तािक  कुछ आय हो सके। उनकी पत्नी जागो कहती हैं िक  इंदिरा आवास उन्हें नहीं मिला है। नगेसर भुइयां, परमेसर भुइयां कहते हैं िक  पास के मियां टोले से पानी लाते हैं। कुल 85 घर के इस टोले में चापाकल नहीं है। कुआं कब का सूख गया। तीन साल से खेती नहीं िक  मजदूरी करें। पिछले साल बसंत भुइयां की मौत हो गई थी। उनकी विधवा शीला रुआंसी होकर कहती हैं िक  भूख से तंग आकर बसंत पंजाब कमाने गए थे। लौट कर आए तो चार दिन हमलोग भात खाए लेिकन उसके  बाद भूख से ही पेट भरते रहे। शीला गर्भवती थी। खून की कमी के कारण उनका जिस्म फूल गया था। मांग चांग कर चावल ले आते तो खाते। जन्माष्टमी के दिन बसंत पानी लेने गए थे िक  वहीं चकरा कर गिर गए तो फिर उठे ही नहीं। उनके पास तब भी कोई कार्ड नहीं था। आज शीला अपने दुधमुंहे बच्चे को सीने से चिपकाए तेंदू पता छांटकर कुछ गुजारा करने की कोशिश में हैं। वार्ड सदस्य सतार अंसारी कहते हैं िक  मनरेगा के लिए जाब कार्ड बनवाने की कोशिश कर रहे हैं तािक  भुइयां टोले के लोगों को कुछ राहत मिल सके।

सुखाड़ के थपेड़े ने यहां भी झुलसाए चेहरे

लोइंगा से आगे सुकरो नदी पार करते ही तरहसी ब्लाक  है। भुखमरी यहां तो नहीं, लेिकन सेलारी, छकनाडीह और कुशलाडीह में भी सब कुछ कुशल नहीं है। सुखाड़ के थपेड़े ने यहां भी चेहरे झुलसाए हैं। मनातू से महज 13 िक मी पर पथरीले रास्ते को पार कर भोकता आदिवासियों की बस्ती कुंडीलपुर मिलती है। चार सौ घरों की इस बस्ती में एक  भी चापाकल नहीं है। कुआं बना तो है, पर पानी नहीं। मजबूरन लोग गंदे नाले में चुआड़ी खोद कर पानी पी रहे हैं।



पानी के  संग मछली की खोज

मनातू प्रखंड मुख्यालय से बायीं ओर जंगलों को चीरती सर्पीली सड़क  डुमरी पहुंचती है। गांव से पहले गंदे नाले से पानी उलीचते हुए कुछ बच्चे बताते हैं कि  पानी को कपड़े से छान कर पीने के काम में लाया जाता है। वहीं हम लोग इसी बहाने मछली भ्ी पकड़ लेते हैं। डुमरी से आगे परैया के चालीस घर वाले दलदलिया गांव में एक  भी चापाकल नहीं है। मंगना घाट नदी में चुआं खोद कर पानी लाते हैं। गांव के दो दर्जन लोग पलायन कर चुके हैं। मनरेगा का काम नहीं। िक सी के पास जाब कार्ड भी नहीं िक  काम की आस हो। जंगली लकड़ी बेचकर ·िक सी तरह पालते हैं पेट। 67 वर्षीय शोभी परैया कहते हैं िक  उन्हें सरकारी चावल नहीं मिला है। गेठी मिल गया तो उबाल कर खाते हैं। हां बिरसा भवन नाम की खपरैल छत जरूर है। रामवृक्ष, गज्जू, गुडड़ू, जोगेंद्र, ब्रजेश और बलितर परैया की शिकायत है िक  उनके विधाक · विदेश सिंह आज तक  उनकी दशा देखने नहीं आए। यहां से 9 ·िक मी जंगलों के अंदर केदल गांव का टोला पत्थलगड़वा के 30 परैयों की दशा अत्यंत खराब है। बच्चों को स्कूल में मिडडे मिल तो मिल जाता है। लेिकन बड़े क्या खाएं। पानी की दिक्कत अलग। कुआं सूखा ही ,स्कूल का चापाकल भी खराब। पास के कोहबरिया की तरह जंगली नाले का पानी पीना इनकी मजबूरी है। स्कूल के पारा टीचर रघुवंश प्रसाद यादव कोशिश में हैं िक  चापाकल को जल्दी ही सुधरवा लिया जाए।



कुदरत ने भी किया  सौतेलापन

चक  के रास्ते में बिसरांव से पहले जंगल में कमर में लंगोट लपेटे बुजुर्ग केशव भुइयां मिलते हैं। कम सुनते हैं। गोंद का पता तोडऩे जा रहे हैं। दो दिनों के श्रम में उसे बेचकर अठारह रुपए कमा लेते है। उनकी जीवटता चकित  करती है। बिसराव में 20 घर परैया और 5 घर भुइयां के हैं। पानी, अनाज का टोटा वैसा ही। आंगनबाड़ी भी बंद िक  बच्चों की भूख शांत हो सके। मनरेगा का काम जिले में बंद है, गर शुरू हुआ तो गांव वाले काम नहीं कर सकते। िकसी के पास जाब कार्ड नहीं है। आंगन में बांस से सिर टिकाए आरती भारती हमें आस से निहार रही होती है िक  यदि सरकारी लोग हुए तो शायद कुछ अनाज मिल जाए। जुडऩी देवी की सास महादुरी की मौत गत वर्ष भूख से हो गई थी। बीहड़ भरे बेहद दुर्गम रास्ते को पार करने पर पहाड़ों की तलहटी में बसे गोरवा जशपुर पहुंचने पर तमाम सरकारी दावे की कलई खुल जाती है। झिंगुरों की आवाज के साथ परैया बहुल इस गांव की मस्त जिंदगानी को देख कोई भी चौंक  सकता है। यहां के मथुरा, बिजली परैया हों या जसम, चीमा, तपसी परैया ने मानो घोर अभावों के दंश को खुद में आत्मसात कर लिया हो। यहां धूप की िकरण भी दोपहर तक  पहुंचती है। खेती के लिए बंजर धरती। खाने के लिए जंगली कंदमूल। पानी के लिए नदी का चुआं। िकसी सरकारी अफसर के पहुंचे यहां जमाना हुआ। जिप सदस्य शचिंद्रजीत सिंह कहते हैं िक  तीन साल से सूखा है। सिंचाई का साधन नहीं। नए विधायक  ध्यान नहीं देते। यहां के जनप्रतिनिधियों ने सिर्फ चाटने का काम िकया है। उनका कहना गलत नहीं है। सरकारी योजनाओं से करोड़ों रुपए आते हैं, लेिकन अफसर और नेताओं की गिद्ध दृष्टि रकम समेत आदमी को जिंदा चबा जाने को आतुर रहती है।



भुखमरी के मील के पत्थर नहीं बदले

पलामू के कमोबेश हर पंचायत और गांव की एक  ही तसवीर है, जो बदशक्ल है। जिसमें अभाव की  बेचारगी, भुखमरी का हाहाकार, और दहशत में रो रोकर हंसती लाखों जिंदगानियां हैं। छतरपुर के बरडीहा गांव का लुतियाही टोला हो या लेस्लीगंज का भकासी, पहाड़ीकला, परशुराम खाप या पांकी ब्लाक  का बगलीडीह, लावावार, जीरो कहीं मौत का सोग है, तो कहीं भूख मिटाने के लिए जान देने तक  की जद़दोजहद। परशुरामखाप जैसी दलित बस्ती की पीड़ा है िक  नब्बे फीसदी लोगों का लाल कार्ड नहीं है। िकसी का जाब कार्ड नहीं है। भकासी में आंगनबाड़ी बंद है। भुइयां टोली के लोग भगवान भरोसे हैं। पिछले साल काम िकया तो अब तक  पैसा नहीं मिला। खाएंगे कैसे। टोले के चालीस लोग बाहर हैं। चैनपुर ब्लाक  के बिलकुल पास के औराही गांव की मुसहर टोली में एक ·कुआं है, लेिकन यहां पानी नहीं कचरा मिलता है। गत मई में कैला भुइयां की मौत भूख से हो गई थी। बाहर से खुशहाल दिखते गांव के मुसहर सरकार के खिलाफ कुछ कहने से कतराते हैं। लेिक न यह जरूर जोड़ते हैं िक  मनरेगा में काम नहीं। तीन महीने में मिलता है खाने को चावल। पलामू में इतने अकाल और सूखे पड़े िक  पलामू उसे महसूस करना ही भूल गया। सुखाड़ के नाम पर िकतनों ने चुनावी वैतरणी पार कर ली। इप्टा के महासचिव शैलेंद्र कुमार कहते हैं िक  पलामू में सुखाड़ प्राकृतिक  आपदा नहीं, सरकार जनित त्रासदी है। चुनावों के समय गांव ग्रामीणों के हित के ढेरों वायदे हुए, लेिकन जीतने के बाद उनके आंसू पोछने कोई नहीं आया। िकसी शायर का शेर मौजूं लगता है:

भुखमरी के वोट ने बदले हैं तख्तोताज


पर भुखमरी के मील के पत्थर नहीं बदले


मनरेगा की स्थिति

सरकार के ताजा आंकड़े के मुताबिक :

2010 11 के लिए 8422.22 लाख रुपए मिले

अब तक  78659 परिवारों को मिला काम, जबकि  निबंधित थे 216421 परिवार

चल रही हैं 13609 योजनाएं



पलामू में पानी का हाल

पलामू में लगभग 8 लाख एकड़ भूमि पर खेती होती है। इन में मात्र एक  लाख 50 हजार एकड़ भूमि पर ही आधा अधूरा सिंचाई साधन उपलब्ध है।

सरकारी फाइलों को तर कर रहे कुएं


सूखे का पलामू में लगातार तीसरा साल है। लेिक न 8087 कुएं अब तक सरकारी फाइलों को ही तर कर रहे हैं। जिले के 20 ब्लाकों की पंचायतों में इसके निर्माण की रकम नहीं पहुंची है। जबकि  उपायुक्त के मुताबिक  इसे 31 मई तक  पूरा हो जाना है। 1657 कुएं बनने जा रहे हैं और 526 बन चुके हैं, लेिकन भास्कर की पड़ताल में इसकी जमीनी सचाई संधिग्ध  लगी। कहीं कुएं मिले तो उसमें कचरे का ढेर मिला।



 बनने िक तने थे बनेंगे िकतने

मेदिनी नगर 273 38

चैनपुर 949 244

सतबरवा 285 112

लेस्लीगंज 370 63

पाटन 774 4

पड़वा 157 137

पांडू 340 75

उंटारी रोड 170 12

विश्रामपुर 282 72

नावाबाजार 266 52

हरिहरगंज 501 81

पिपरा 262 38

हुसैनाबाद 311 47

मुहम्मदगंज 158 126

बने िकतने

हैदरनगर 281 46

मनातू 292 202

तरहसी 363 85

पाकी 828 183

नवाडीह 517 9

छतरपुर 708 2



तालाबों में दरारें


जिले में तालाबों की हालत अधिक बदतर है। 2009 10 में 7225 तालाब खोदे जाने थे, 1604 पर काम तो शुरू हुआ, पर बने मात्र 1284 ही। समूचे झारखंड में 2010 11 में डेढ़ लाख तालाब खोदे जाने हैं, लेिकन पलामू में कहीं भी इसकी सुगबुगाहट नहीं दिखती। कई तालाबों में दरारें पड़ चुकी हैं।



सिंचाई परियोजनाएं चार में से तीन अधूरी

अविभाजित पलामू में कई डैम बनने थे, लेिकन यह सब कहने सुनने की बाते हैं। नेक  नियती नहीं। अगर ऐसा होता तो मौजूदा जिले में उतरी कोयल, ·नहर, अमानत और बटाने जैसी चार नदियों पर क्रमश: 1970, 1973, 1983 और 1976 में चार बड़ी सिंचाई परियोजनाएं शुरू हुईं। पहले इनकी अनुमानित लागत 188 ·रोड़ थी, जो अब 2174 करोड़ हो तो गई है, लिकन अब तक  अधूरी है।

बरसात की औकात

पलामू की लगभग 90 प्रतिशत भूमि खेती के लिए वर्षा जल पर ही निर्भर है। लेिकन बरसात भी दगा दे जाती है। 2008 मई और जून में 130 मिलीमिटर वर्षा हुई थी, वहीं 2009 मई में मात्र 8 मिलीमिटर वर्षा हुई, जबकि 2010 में इस वर्ष इससे भी कम ।

कब कब सूखा और अकाल

1859 60, 1873 74, 1896 97, 1899 1900, 1955 56, 1966 67, 1992 93, 2005 06, 2009 10, 2010 11


सूखे से निजात

डाल्टनगंज के विधायक  कृष्णानंद त्रिपाठी कहते हैं िक  पलामू प्रमंडल की नदियों एवं जलाशयों को बांधकर सिंचाई की समुचित व्यवस्था नहीं की जाएगी तब तक  इस इलाके में सूखे या अकाल का स्थाई समाधान संभव नहीं है। वहीं नेचर कंजरवेशन सोसायटी के सचिव व भारत सरकार के फारेस्ट एडवाइजरी कमेटी के सदस्य डा. डीएस श्रीवास्तव का सवाल है िक  नदी में चेकडैम बनाने से क्या फायदा होगा, जब पलामू में वर्षा होगी ही नहीं। उन्होंने कहा िक  एक  तरफ मनरेगा को िकसानों से जोडऩा होगा, वहीं दूसरी ओर खेतों में सूखी खेती आधारित नींबू,आंवला व बेर जैसी उन्नत िकस्म के फलदार पौधे लगवाने होंगे। तािक  अगर बेहतर वर्षा नहीं भी हुई तो गव्य विकास से पलामू में श्वेत करांति आये और कम वर्षा में उनके खेतों में इन फलदार पौधे से आमदनी भी हो ।


पिछले महीने भास्कर के लिए लिखा गया और  २४ मई और २६ मई को छपा












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