बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

अदब के साथ ग़ज़ल का सलीका .जगजीत से एक गुफ्तगू

मौका मिला तो झारखंड के लिए जरूर गाऊंगा। मुझे तो रांची के लोगों का प्यार यहां खींच लाया। येबातें प्रसिद्ध गजल गायक जगजीत सिंह ने दैनिक भास्कर  के लिए ली गयी  एक खास मुलाकात में कहीं। बश्शास चेहरे पर आई स्मित मुस्कान से सफ़र की थकान गायब थी। जब हमने उनके जवानी के उबाश दिनों को हौले से सहलाया तो उनकी गंभीरता में अनायास ही बालसुलभ मस्तीभरी चुहलता आ टपकी। जालंधर का वह कमरा, उस दौर में खाक हुए सिगरेट के धुएं सा नहीं बल्कि पूरे उजास में याद आता है उन्हें। उन्हें स्वीकारने में गुरेज नहीं कि उनमें मौजूद शायराना और अदबी अंदाज सुदर्शन फाकिर और रविंद्र कालिया के सान्निध्य की देन है। 
‘जग—जीत’ ने का हुनर जगजीत से मिलकर ही जाना जा सकता है। गजल सी नफ़ासत से जब जगजीत मुंबई को याद करते हैं, तो वहां सिर्फ संघर्ष की तपिश ही नहीं, मुहब्बत की आबशारी भी है। पल की खामोशी इस तरह लगती है, मानो चित्रा की आवाज की मिठास को रूह में पेवस्त कर चुभला रहे हों। अमिताभ और जया की फिल्म अभिमान जैसी किसी भी खलिश से वह इंकार करते हैं।

किसी एक पसंदीदा शायर का नाम लेने में परहेज तो किया, लेकिन इस फेहरिस्त में बशीर बद्र, निदा फ़ाÊाली और जावेद अख्तर जैसे नामवर के बाद जगजीत बेहिचक आलोक श्रीवास्तव जैसे नौजवान शायर का जिक्र करते हैं, जिनकी गजलें-नज्में उन्हें अच्छी लगती हैं और उसे आवाज देना इत्मिनान बख्श लगता है। इत्मिनान उन्हें इसका भी है कि हिंदुस्तान में गजल गायकी के उस ट्रेंड की परंपरा बखूबी स्वीकार की गयी, जिसे उन्होंने शुरू किया था। गजल गायकी में बड़े गुलाम अली से हरिहरण तक हुए बदलाव को वक्त की जरूरत बतलाया अवश्य, मगर गजल को फूहड़ संगीत के साथ परोसने वाले से उन्हें कोफ्त है।

जमाना रियलिटी शोज  का है तो गजल भी पीछे क्यों रहे? जगजीत मुस्कुराते हैं। जरूर जनाब। जज बनने को तो तैयार बैठा हूं, कोई बुलाए तो सही। आगे कहते हैं, बस वक्त का इंतजार कीजिए। कुछ लोगों से इस सिलसिले में सार्थक बातें हो रही हैं। इंशाअल्लाह गजल पर रियलिटी शो जल्द देखिएगा।


  भास्कर के रांची संस्करण में २४ अक्टूबर को प्रकाशित
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गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

इवा का कुनबा यानी मुकम्मल भारत

सैयद एस क़मर की क़लम से

जमशेदपुर से लौटकर



जमशेदजी टाटा ने जब कोल्हान के  इस अनाम सी जगह में इस्पात काररखाने की  बुनियाद डाली तो हिदुस्तान के  कोने- कोने से लोग आये। बंगाली,मराठी,कन्नड़,तेलुगु,मलयाली,मुस्लिम,हिदू,सिख,ईसाई और पारसियों का कुनबा। रंग-बिरंगे फूलों की  चटख दूर तक  महसूस की  जाती थी। बीच में सन 54,79 और 92 में कुछ लोगों ने इस तेवर को  अवरुद्ध करने की  नाकाम कोशिशें की  ज़रूर लेकिन शहर की  गंगा-जमुनी स्प्रिट ने इस कुहासे को  चीर डाला। यह है टाटा शहर। लेकिन शहर में एक  घर ऐसा है,जिस गुलदस्ते में देश -विदेश के कई  खूबसूरत फूल सजे हैं। यहाँ सिर्फ टाटा ही नहीं मुकम्मल भारत बस्ता है। हम बात कर रहे हैं इवा बोयल उर्फ़ इवा शमीम के  कुनबे की ।


किस्सा गंगा-जमनी संस्कृति की  ताबीर का

यह किस्सा सिर्फ इवा का  नहीं है। किस्सा है मोहबबत का । किस्सा है कभी ना मिट सकने वाली गंगा-जमनी तहज़ीब का ,और सदियों पुरानी वसुधव कुटुम्बकम की  ताबीर का । आयरिश वंश की  ईसाई लड़की  पटना में मुंगेर के  रहने वाले एक  मुस्लिम डाक्टर  से दिल हार बैठती है। सातवें दशक की  शुरुआत  है। डॉ. मोहम्मद शमीम अहमद पटना मेडिकल कालेज में थे। इवा विमेंस कालेज में पढ़ती थी। चीन-भारत जंग हो चुकी  थी। लोगों से चंदे इ·ट्ठे किये जा रहे थे। इसी दरम्यान दो दर्दमंद खुशमिजाज की  मुलाकात होती है। और बकौल डॉ शमीम पहली नजऱ में...यानी वह इवा की  मेघा,तीक्ष्नता ,और खूबसूरती के  दीवाने हो जाते हैं। इवा की  कै फियत भी कुछ वैसी ही रहती है। सन 69 में टाटा आकर चर्च में शादी करने के  बाद दोनों निकाह कर लेते हैं।

डॉ शमीम की  बात पर एतबार न करने का  सवाल नहीं उठता। लेकिन तब समाज इतना गलोबल भी न था। इनहें विरोध का  सामना कम करना पड़ा। उनका तर्क  : इवा अहलेकिताब थी (यानी कुरआन  के  मुताबिक  बाइबल,तौरैत ,ज़ुबूर आदि आसमानी किताब के  माने वालों से शादी की  जा सकती है)। उनकी  मामी भी ईसाई थीं। कैथोलिक  परिवार की  इवा की  माँ काग्रेस के  आदि अध्यक्षों में से एक  सी बी बनर्जी के  परिवार से थीं। इवा की  बहन सिलि ने डॉ शमीम के  भाई डॉ नसीम से बयाह रचाया था। पांच बचचों को  जनम देने के  बाद दोनों का  एक  के  बाद एक  देहावसान हो गया। उनके  पांच बचचों के साथ इवा के  घर पर कुल आठ बचचों की  किलकारियां गूंजी। अब सभी पढ़-लिख चुके  हैं। कुनबे की  सद्भाव भरी परंपरा को  परवान चढ़ा रहे हैं।

अतिथी देवो भव: और गुमसुम लड़की

पुरलिया रोड स्थित जब हम उनके  घर पहुंचे। इवा हमें टैरेस  में ही खड़ी मिल गयीं। बिना समय लिए हमने दस्तक  दी थी। बावजूद उनहोंने बेहद गर्मजोशी के  साथ हमारा ख़ैर मकदम किया। भारत यानी अतिथि देवो भव: । ज़ीना चढ़ते हुए हम ग्रॉउंड फ्लोर पर पहुँच चुकु  थे। तेज़ी के  साथ वह आगे बढ़ चुकी  थीं। हम बेधड़क  एक  खुले दरवाज़े से कमरे में दाखिल हुए। एक  बचची के  संकेत पर। दूसरे कमरे से निली टीशर्ट धारी एक  गुमसुम लड़की  ने हमें दूसरे कमरे की  जानिब पहुंचाया। तस्वीर खींचने से पहले उसने चुन्नी ओढ़ ली थी। यह सालिहा है उनकी  छोटी बिटिया। डेंटिस्ट की  पढ़ाई कर  रही है। पति-पत्नी के  एकात के  बीच यही लड़की  सागर की  एक  बूंद है । हलचल संवाद की । इवा काग्रेस की  नेता हैं। चुनावी समर में भी जोर आश्माइश कर चुकी  हैं। खूब बतियाती हैं। अपनी मोहबबत,बचचों की  चुहल,उनके  अफ़साने,पारसियों की एकांतप्रियता। शहर, मुल्क के  समय, इतिहास और सन 64,79 और 92 की  खटास। विषय का  उनके  पास टोटा नहीं रहता।



वसुधैव कुटुंबकम

उनका  ब्रिटिश दामाद इस क्रिसमस पर टाटा आने वाला है। इस कुनबे की  निशात भी अपने पति के  साथ आयेगी। बेटा डॉ शकील ने सिख लड़की  डॉ ऋतू को  सहचरी चुना है। वहीं नियाज़ ने हिन्दू  मराठी लड़की  को संगिनी बनाया। एक  बहु बिहार के  दरभंगे की  है। मुस्लिम है। नितांत निजी इस सामाजिक  फैसले पर कहीं कोई खराश नहीं आयी। हाँ पड़ोसियों की  आँखें ज़रूर तरेरी हुयी दिखीं। पर इसका  असर गुलबुटों से लदबद इस कुनबे पर नहीं पड़ा। जबकि  आज इवा ने हज कर लिया है। बिहार के  एक  मुस्लिम संत की  शिष्या हैं। भारतीय इस्लाम के  बरेली मस्क की  समर्थक  हैं। जबकि  पति डॉ शमीम अहले हदीस के  पास -पास लगे।

परदे का  सवाल

परदे के  सवाल पर डॉ शमीम के  बोलते लब को  इवा ने रोक  दिया। कहने लगीं:हमारे चाहने के  बावजूद बचचे परदे को  नहीं मानते। परदे से इवा का  आशय कुरआन  में वर्णित  परदे से है। बुरका-नकाब से नहीं। नन सही ढंग से पर्दा करती हैं। भारत में भी परदे की  परम्परा रही है। उनहें बदलते समाज के  नए भोंडे फैशन से चिढ है। पाश्चात्य तौर-तरीके  हम भारतीयों के  लिए हर कहीं फिट नहीं हो सकते। बचचों की  आधुनिक जीवन शैली पर उन्होंने  तत्काल हस्तक्षेप करते हुए कहा:उनके  बचचे ड्रिंक  नहीं करते।



दंगा जो अब नासूर नहीं रहा

सन 79 के  दंगे की  स्मृतियाँ उनहें कचोटती ज़रूर हैं, लेकिन यह टीस नासूर सी नहीं है। जबकि  यह पति-पत्नी चश्मदीद रहे हैं। इसी इलाके  में रामनवीं जुलुस के  मार्ग को  ले·र दंगा फूट पड़ा था। उनके  घर पर ही पुलिस की  गोलियों के  शिकार कई लोग पहुंचे थे। जाते कहाँ ? डॉ शमीम का  घर कऱीब भी था और जाना-पहचाना । पांच लोगों ने इनके  कमरे में ही दम तोड़ दिया था। इवा ने कहा, इतना खून पहली और अंतिम बार देखा । उर्दू के  ख्यात प्रगतिशील लेखक  ज़कि  अनवर   साथियों के  साथ पास के  गांधी मैदान में शान्ति  के  लिए धरने पर बैठे थे। अपने ही घर में मार दिए गए। कुछ देर पहले उनहोंने पड़ोसी हिन्दू के   घर की  आग अपने कुए के  पानी से बुझाई थी। उसी कुए में उनकी  लाश कई दिनों बाद मिली। उनका  पोस्ट मार्टम डॉ शमीम ने ही किया। बेहद सहजता से बताते हैं, ज़कि साहब को  गहरी चोट लगी थी। लाठी,भाले और चाकू के निशान मिले थे।



गुमसुम लड़की  हुई मुखर; यह दंगा क्या होता है!

कोक की  चुसकियों  के  बीच जब हम चिप्स चुभला रहे थे कि  नब्ज़  पकडऩे की  कोशिशें हुईं। कभी जब शहर या देश में कहीं किसी संवेदनशील घटना की  आशंका  रहती या नौबत होती-होती, लोग घरों में राशन भर लिया करते थे। लेकिन अब जबकि  बरसों पुराने अयोध्या का  फैसला आने -आने को  है, कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है। बचचे उसी तरह स्कूल  जा रहे हैं। काम पर जाने से पहले पत्नी उसी तरह उसे टिफिन सौंप रही है। खा लेने की  ताकीद के  साथ। ऐसा नहीं लगता कि  आज की  पीढ़ी के लिए दंगे -फसाद बेमानी हों चुके  हैं। हमलोगों की  बातें सुन रही सालिहा तुरंत मुखर होती है : यह दंगा क्या  होता है?यह पोलिटिकल खेल है। जिसे आज का  यंगस्टर जान और समझ चुका  है। फिजूल कामों के  लिए उसके  पास टाइम नहीं है। उसे पढऩा है। करियर बनाना है। आगे बढ़ना है।

चाहते हैं ज़िंदगी  शायराना

इस कुनबे में कोई शायर नहीं है। पर इनके  सलीके ,अंदाज़,पुरलुत्फ ज़िंदगी के  आदाब यही कहते हैं कि चाहते हैं ज़िंदगी  यह शायराना। न मज़हब की  दीवार, न ही जाति की  चौधराहट, न बोली-बानी की  भिनभिनाहट। अपनी स्वायत्ता में ठेठ डेमोक्रेटिक ।

(यह लेखन अयोध्या फैसले से ठीक एक दिन पहले का है.और भास्कर के  रांची संस्करण के पहले पेज पर फैसले के दिन छपा था  )
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सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

मुसलमान हुए जब रामभक्त

सैयद एस क़मर की कलम से

राम को  इमाम ए हिंद कहने  वाला पहला व्यक्ति मुसलमान था।  सभी जानते हैं उस उर्दू शायरको , उसी ने कहा  था, सारे जहां  से अच्छा हिंदुस्तां हमारा । लेकिन इकबाल  से बहुत पहले और बाद में भी अनगिनत मुस्लिम कवि,संपादक और अनुवादक  हुए, जिन्होंने मर्यादापुरुषोत्तम राम पर केन्द्रित  रचनाओं का  सृजन,संपादन और अनुवाद किया ।

सबसे पहला सम्मानित नाम है फारसी कवि  शेख सादी मसीह का  जिन्होंने 1623 ई में दास्ताने राम व सीता शीर्षक  से राम क था लिखी थी। मुगल सम्राट अकबर को  बेहिचक  गंगा जमुना संस्कृति  का  प्रतीक  माना जाता है। इस बादशाह ने पहली बार रामायण का  फारसी में पद्यानुवाद कराया। अनुवादक  थे मुल्ला अब्दुल कादिर  बदायूंनी । शाहजहां के  समय रामायण फैजी के  नाम से गद्यानुवाद हुआ।

मुल्ला की  मसीही रामायण

जहांगीर के  जमाने में मुल्ला मसीह ने मसीही रामायण नामक  मौलिक  रामायण की  रचना की । पांच हजार छंद में उन्होंने रामकथा को  बद्ध किया  था। बाद में 1888 में मुंशी नवल किशोर  प्रेस, लखनऊ से यह अनुपम ग्रंथ प्रकाशित हुआ । कट्टर मानेजाने वाले मुगलबादशाह औरंगजेब के काल में चंद्रभान बेदिल ने रामायण का  फारसी पद्यानुवाद किया  था। नवाब पीछे क्यों रहते। रामचरित मानस पहली बार लखनऊ के  नवाब वाजिद अली शाह के  जमाने में उर्दू में छपी। इस रामायण में खंड के  नाम थे: रहमत की  रामायण, फरहत की  रामायण,मंजूम की  रामायण ।

रामचरित मानस मुसलमानों के लिए भी आदर्श


अब्दुल रहीम खान-ए-खाना अकबर के  नौ रत्नों में थे और गोस्वामी तुलसीदास के  सखा भी। रहीम ने कहा था कि  रामचरित मानस हिंदुओं के  लिए ही नहीं मुसलमानों के  लिए भी आदर्श है। वह लिखते हैं :


रामचरित मानस विमल, संतन जीवन प्राण,

हिंदुअन को  वेदसम जमनहिं प्रगट कुरान


कवि संत रहीम ने राम कविताएं भी लिखी हैं। इतिहासकार बदायूंनी अनुदित फारसी रामायण की  एक  निजी हस्तलिखित प्रति उनके  पास भी थी जिसमें चित्र उन्होंने बनवा कर शामिल किये  थे। इस 50 आर्षक  चित्रों वाली रामायण के कु छ खंड फेअर आर्ट गैलरी ,वॉशिंगटन में अब भी सुरक्षित हैं।

तुलसीदास से ढाई सौ साल पहले खुसरो ने किया  राम का  गुनगान

रहीम के  अलावा अन्य संत कवियों जैसे फरीद, रसखान, आलम रसलीन, हमीदुद्दीन नागौरी ने राम पर काव्य रचना की  है। उर्दू हिंदी का  पहला कवि अमीर खुसरो ने तुलसीदासजी से 250 वर्ष पूर्व अपनी मुकरियों में राम का  जिक्र  किया  था।

उर्दू,फारसी और अरबी में लगभग 160 ऐसी पुस्तकें

1916 में उत्तरप्रदेश के  एक  छोटे कस्बे, गाजीपुर में जन्मे अली जव्वाद ज़ैदी ने अपने जीवन के  आखिरी दो दशक  देश के  कोने-कोने से उर्दू-रामायण की  छपी पुस्तकें , पांडुलिपियाँ जमा करने में लगा दिये। उर्दू,फारसी और अरबी में लगभग  160 ऐसी पुस्तको की  फ़ेहरिस्त उन्होंने सामने लायी, जिसमें राम का  वर्णन है। ये खज़ाना भारत के  अलग-अलग शहरों में फैला हुआ है। दुखद है कि  समय ने उनका  साथ न दिया और इस फ़ेरहिस्त को  पूरा करने और उसको  एक  पुस्तक का आकार देने का   उनका  सपना साकार न हो सका  । गंगा जमुना संस्कृति का  दुर्लभ सितारा 2004 की  छह दिसंबर की  सर्द शाम संसार से कूच कर गया।

राम के  मौजूदा भक्त


आज भी नाजऩीन अंसारी ,अब्दुल रशीद खा, नसीर बनारसी, मिर्जा हसन नासिर, दीन मोहम्मद् दीन, इकबाल कादरी, पाकि स्तान के  शायर जफर अली खां जैसं कवि- शायर  हैं जो राम के  व्यक्तित्व की  खुशबू से सराबोर रचनाएं कर रहे हैं।


लखनऊ के  मिर्जा हसन नासिर रामस्तुति में लिखते हैं:

कंजवदनं दिव्यनयनं मेघवर्णं सुंदरं।
दैत्य दमनं पाप-शमनं सिंधु तरणं ईश्वरं।।
गीध मोक्षं शीलवंतं देवरत्नं शंकरं।

कोशलेशम् शांतवेशं नासिरेशं सिय वरं।।

नाज़नीन की  उर्दू में रामचरित मानस

राम का  जिकर बिना हनुमान के  अधूरा माना जाता है । उर्दू में इस अभाव को  पूरा किया  मंदिरों के  शहर वाराणसी की  एक मुस्लिम लड़की  ने । महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय की  छात्रा नाजऩीन अंसारी ने हनुमान चालीसा को  उर्दू में लिपिबद्ध कर मुल्क की   गंगा-जमुनी तहजीब की  नायाब मिसाल पेश की  है। अब यह लड़की  बाबा  तुलसी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस को उर्दू में लिपिबद्ध कर रही है ।
 
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शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

सुथरे भी हों और पारदर्शी भी..पर कैसे हो चुनाव !

 
 
 
 
शेली खत्री की क़लम से  

चुनाव प्रक्रिया मांग रहा सुधार
 
भारतीय राजनीति से नीति शब्द काफी पहले ही हट गया है।  मौजूदा राजनीति के लिए स्वार्थ  नीति, कुचक्र नीति आदि नाम दिए जाते हैं।  हालत यह है कि अच्छे लोग राजनीति से दूर रहना पसंद करते हैं। देश का युवा वर्ग राजनीति से अपना दामन बचाने की हर संभव कोशिश करता है। वोट के बदले नोट, संसद में रूपये उछालना आदि कुछ घटनाएं ऐसी हुई की राजनीति को शर्मिन्दा  होना पड़े ।
वस्तुत: राजनीति में सुधार की आवश्यकता पूरा देश महसूस कर रहा है। और निश्चय ही यह सुधार चुनाव प्रक्रिया से ही शुरू होना चाहिए तभी तो अच्छे लोग चुनकर आयेगें। चयन प्रक्रिया अच्छी हो, उम्मीदवर  अच्छे हों उसके बाद ही अच्छे काम की उम्मीद की जा सकती है। चुनाव के नाम पर देश के अरबों रूपये खर्च होते हैं। ये सोर रूपये यंू ही पार्टियों के प्रचार प्रसार और कार्य-कर्ताओं के खान- पान में खर्च होते हैं। इन से कोई सार्थक नहीं होना। गठबंधन सरकारों के बीच के अनबन या किसी अन्य मुद्दे के फसने पर अक्सर बिना कार्यकाल पूरा किए ही सरकार गिरती है और जनता के उपर एक और चुनाव का बोझ आ जाता है। नेताओं का क्या है। पर जो रूपये खर्च होते हैं  वो जनता की गाढ़ी कमाई के ही होते हैं। चुनाव आयोग के उपर भी एक जिम्मेदारी आ जाती है। चुनाव के कारण सारे प्रशासनिक कार्य प्रभावित होते हैं। पर इन का कोइ फल नहीं निकलता क्योंकि जनप्रतिनिधि के रूप में चुने गये अधिकतर लोग जनता की पसंद के नहीं होते। आपराधिक प्रवृति के लोग आकर अपराध को ही बढ़ावा देते हैं।
इससे बचने का रास्ता क्या है, सोचते हुए बात यहीं आकर ठहरती है कि चुनाव प्रकिया ही ऐसी हो जाए जिससे लोगों का लोकतंत्र में विश्वास बढ़े और चुनाव सार्थक हो। वर्ना देश में कई जगह तो बूथ कैप्चर जैसी समस्या आज भी कायम है। पूरे राजनीतिक परिदृश्य और चुनाव प्रक्रिया की खामियों का आलम यह है कि  हमारे यहां मुख्य मंत्री तक अनपढ़ लोग बन जाते हैं। ऐसे जन प्रतिनिधि जो शपथ पत्र भी न पढ़ सकें।उन्हें देश और दुनिया की कैसी समझ होगी, समझा जा सकता है। अपने नैतिक मूल्यों  के लिए जाने जाने वाले देश में भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हो गई हैं कि उनका थाह पाना मुश्किल है। ऐसा क्यों न हो, हमारे यहां बड़े- बड़े अपराधी ऍमएलए और सांसद पदों की शोभा बढ़ाते हैं। अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण भी मिलता है। यहां तो आदमी जेल से भी चुनाव लड़ लेता है। एक प्रकार से यह अपराध का महिमा मंडन ही हुआ न। इन्हें देख कर कौन पढ़ने- लिखने और ईमानदार बनने की प्रेरणा लेगा। अस्तु गंदगी का जो आलम है उसे साफ करने के लिए शुरूआत उपर से ही करनी होगी ।तभी आम नागरिक सुधर सकेंगे। कहा भी गया है कि सिढ़ियों पर झाडू उपर से ही लगती है।
 उपरोक्त बातों का आशय सिर्फ यह है कि जनप्रतिनिधियों के रूप में साफ चरित्र और बुद्धि  विवेक वाले लोग ही आयें। इसके लिए चुनाव प्रक्रिया ही सुधार मांगती है।
इस सुधार के लिए कुछ बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता होगी। चुनाव का पहला चरण है प्रत्याशियां को टिकट मिलना या उनका चुनाव में खड़ा होना।  व्यवस्था यह करनी होगी कि टिकट मिलने से पहले प्रत्याशी कोतय मानदंडों पर ख्ाड़ा उतरना होगा।  इन मानदंडों में पहला तो यह है कि कि उसका साक्षर नहीं अपितु शिक्षित होना तय हो। साथ ही उनके लिए योग्यता निर्धारित किया जाए।  चाहें तो इसमें भी कैटेगरी बांट सकते हैं। उदाहरण स्वरूप ऐसा किया जा सकता है कि मुखिया का चुनाव लड़ने वाले कि न्यूनतम योग्यता मैट्रिग होगी ही। लोक सभा चुनावों के लिए डिग्री के अलावा व्यकितत्व परिक्षण भी  हो। इन दिनों टीवी पर किसी चाय कंपनी का विज्ञापन आता है, जिसमें वोट मांगने गए उम्मीदवार से उसकी योग्यता पूछी जाती है। उस विज्ञापन को देख खीज भरे चेहरे पर भी मुस्कुराहट आ जाती है। हमें व्यवहारिक जीवन में भी इसी प्रकार के मानदंड तय करने होंगे।  इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अपराधियों के चुनाव लड़ने पर हमेंशा के लिए रोक लगा दी जाए। जो भी व्यक्ति छह महीने की सजा काट आया हो या उसके खिलाफ कहीं कोई आपराधिक मामला आया हो। ऐसे व्यक्ति के राजनैतिक कैरियर पर उसी प्रकार रोक लगना चाहिए, जिस प्रकार हमारे यहां सरकारी नौकरीयों में है।  इन दिनों अक्सर सरकारी संस्थानों में योगा और मेडीटेशन के क्लास लगाएं जाते हैं। उसी प्रकार नेताओं के लिए समय- समय पर मोरल क्लास लगाएं जाएं। पढ़े - लिखे और योग्यता मानदंडों पर खड़े उतरे व्यक्ति को कम से कम अपनी जिम्मेदारी का एहसास तो होगा।
राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय और क्षेत्रिय सोच में  अंतर होता है, तीनों जगह की समस्याएं और काम करने का तरीका भी अलग ही होता है। लोकसभा चुनावों के माध्यम से चुने गये लोग पूरे राष्ट्र के लिए कल्याण्कारी सिद्ध हों। उसके लिए जरूरी है कि क्षेत्रिय दलों को लोकसभा का चुनाव न लड़ने दिया जाए।  इससे एक साथ् कई प्रकार की चुनावी जिटिलताओं से छुटकारा मिलेगा। दूसरी बात यह है कि क्षेत्रिय दल क्षेत्रिय भावना को ही प्रश्रय देते हैं और बढ़वा भी।
प्रत्याशियों के बाद नंबर आता है वोटिंग सिस्टम का, राजनीति की जो स्थिति है और वोट डालने से संबंधित जो अड़चनें है। उनको लेकर आधे लोग तो वोट डालने ही नहीं जाते। इसलिए इस दिशा में सबसे पहला कदम यह होना चाहिए कि वोटिंग अनिवार्य हो। हर भारतीय वयस्क के लिए वोटिंग अनिवार्य करने के बाद सबसे बड़ी दिक्कत यह आयेगी कि सभी लोग अपने गृह जिले में नहीं रहते। पढ़ाई , नौकरी आदि की मजबूरियां घर छुड़ा देती हैं सिर्फ वोट डालने के लिए घर आना हर किसी के लिए संभव नहीं होगा। इसलिए यह सिस्टम लागू करना होगा कि व्यक्ति देश में कहीं भी रहकर अपना वोट डाल सकता है। इससे सबसे पहला फायदा यह होगा कि फर्जी वोटिंग रूकेगी। , दूसरा वोट का प्रतिशत बढ़ेगा और तीसरा लोगों का लोकतंत्र में विश्वास लौटेगा।
इस दिशा में यह भी सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता होगी कि सभी वोटरों के पास फोटो पहचान पत्र अनिवार्य रूप से उपलब्ध हो। देश में इवीएम के जरिए वोटिंग प्रारंभ हो गई है। इसे देश के गांव - गांव तक पहुंचाने की आवयकता है। साथ ही इस संबंध में अमरीकी प°ति का अनुसरण ठीक रहेगा। हमें भी वोटिंग में किसी एक दल को वोट देने की बजाए ग्रेडिंग सिस्टम लागू करना चाहिए। साथ ही उसमें नन ऑफ दिज या इनमें से कोई भी नहीं का आप्शन भी होना चाहिए। इससे वोटिंग में पारदिर्शता रहेगी।
वोटिंग रूम में क्लोज सकिoट कैमरे भी होने चाहिए। इसके बाद बुथ कैप्चर की समस्या नहीं आयेगी। इन सुधारों के अलावा एक काम और होना चाहिए। देश में दलबदल की राजनीति, राजनीति की विकृति के रूप में उपस्थित है।  स्वस्थ्य राजनीति के लिए यह जरूरी है कि दल बदल पर रोक लगे। अगर यह संभव न हो तो कम से कम दलबदल के लिए पैमाना निश्चित किया जाए।
अगर चुनाव प्रक्रिया में उपरोक्त बातों पर अमल कर लिया जाए तो  चुनाव प्रक्रिया की सारी बाधाएं दूर हो जाएगी। अच्छे लोग चुनकर आयेंगे और भारतीय राजनीति पर छाए बादल छंट जायेंगे , लोक तंत्र का स्वर्णिम रूप सामने आयेगा।


लेखक-परिचय:
जन्म: १४ फरवरी,१९८४ पटना में
शिक्षा: एम. ए. हिन्दी
सृजन: वागर्थ,कादम्बनी, भास्कर ,नयी दुनिया जैसी कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख,रपट ,समिक्षा, कहानी,कविता आदि 
सम्प्रति: दैनिक भास्कर के रांची संस्करण से सम्बद्ध
संपर्क:shelleykhatri@yahoo.com
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)