बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

मीडिया में मुस्लिम औरत











शिरीष खरे की क़लम से  

बीते दिनों बिट्रेन के मशहूर अख़बार गार्जियनने मोबाइल से दो मिनिट का ऐसा वीडियो बनाया जिसमें पाकिस्तान की स्वात घाटी के कट्टरपंथियों ने 17 साल की लड़की पर 34 कोड़े बरसाए थे। इसी तरह के अन्य वीडियो के साथ अब यह भी यूटयूब में अपलोड है, जो संदेश देता है कि वहां कोई लड़की अगर पति को छोड़ दूसरे लड़के के साथ भागती है तो उसका अंजाम आप खुद देख लीजिए। मुस्लिम औरत को इस्लाम की कट्टरता से जोड़ने वाला यह कोई अकेला वीडियो नहीं था, मीडिया के कई सारे किस्सों से भी जान पड़ता है कि मुस्लिम औरतों के हक किस कदर धर्मनिरपेक्षताऔर लोकत्रांतिकताकी बजायसाम्प्रदायिकताऔर राष्ट्रीयताके बीचोबीच झूल रहे हैं।
कहते हैं कि "जो सच नहीं होता, कई बार वह सच से भी बड़ा सच लगने लगता है।"
                                                                      

वैसे तो अपने देश के विभिन्न समुदायों में भी ऐसी घटनाएं कम नहीं है मगर इधर की मीडिया ने उधर की घटना को कुछ ज्यादा ही जोर-शोर के साथ जगह दी। यह अलग बात है कि उन्हीं दिनों के आसपास, उत्तरप्रदेश के अमरोहा जिले से खुशबू मिर्ज़ा चंद्रयान मिशन का हिस्सा बनी तो ज्यादातर मीडिया वालों को इसमें कोई खासियत दिखाई नहीं दी। देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने इस स्टोरी को हाईलाईट किया भी तो ऐसी भूमिका बांधते हुए कि उसने मुस्लिम महिलाओं की सभी नकारात्मक छवियों को तोड़ा है।अब नकारात्मक छवियां को लेकर कई सवाल हो सकते हैं मगर उन सबसे ऊपर यह सवाल है कि क्या एक औरत की छवि को, उसके मज़हब की छवियों से अलग करके भी देखा जा सकता है या नहीं ? आमतौर से जब मुस्लिम औरतोंके बारे में कुछ कहने को कहा जाता है तो जवाबों के साथ इस्लाम’, ‘आतंकवाद’, ‘जेहादऔर तालीबानीजैसे शब्दों के अर्थ जैसे खुद-ब-खुद चले आते हैं। पूछे जाने पर ज्यादातर अपनी जानकारी का स्रोत अख़बार, पत्रिका या चैनल बताते हैं। उन्हें लगता है कि मीडिया जो कहता है सच है। इस तरह मुस्लिम औरतों के मुद्दे परधर्मनिरपेक्षचर्चा की बजाय राष्ट्रवादके क्रूर चहेरे उभर आते हैं।

यह सच है कि दूसरे समुदायों जैसे ही मुस्लिम समुदाय के भीतर का एक हिस्सा भी दकियानूसी रिवाजों के हवाले से प्रगतिशील विचारों को रोकता रहा है। इसके लिए वह आज्ञाकारी औरतकी छवि को पाक साफ औरतका नाम देकर अपना राजनैतिक मतलब साधता रहा है। दूसरी तरफ, यह भी कहा जाता है कि पश्चिम की साम्राज्यवादी ताकतें दूसरे समुदाय की नकारात्मक छवियों को अपने फायदे के लिए प्रचारित करती रही हैं। ऐसे में इस्लाम की दुनिया में औरत की काली छाया वाली तस्वीरों का बारम्बार इस्तेमाल किया जाना जैसे किसी छुपे हुए एजेंडे की तरफ इशारा करता है। जहां तक भारतीय मीडिया की बात है, तो ऐसा नहीं है कि वह पश्चिप के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर-तरीकों से प्रभावित न रहा हो।

अन्यथा भारतीय मीडिया भी मुस्लिम औरतों से जुड़ी उलझनों को सिर्फ मुस्लिम दुनिया के भीतर का किस्सा बनाकर नहीं छोड़ता रहता। ज्यादातर मुस्लिम औरतें मीडिया में तभी आती हैं जब उनसे जुड़ी उलझनें तथाकथित कायदे कानूनों से आ टकराती हैं। मीडिया में ऐसी सुर्खियों की शुरूआत से लेकर उसके खात्मे तक की कहानी, मुसलमानों की कट्टर पहचान को जायज ठहराने से आगे बढ़ती नहीं देखी जाती। इस दौरान देखा गया है कि कई मज़हबी नेताओं या मर्दों की रायशुमारियां खास बन जाती हैं। मगर औरतों के हक़ के सवालों पर औरतों के ही विचार अनदेखे रह जाते हैं। जैसे एक मुस्लिम औरत को मज़हबी विरोधाभास से बाहर देखा ही नही जा सकता हो। जैसे भारतीय समाज के सारे रिश्तों से उसका कोई लेना-देना ही न हो। विभिन्न आयामों वाले विषय मज़हबी रंगों में डूब जाते हैं। इसी के सामानान्तर मीडिया का दूसरा तबक़ा ऐसा भी है जो प्रगतिशील कहे जाने वाली मुस्लिम संस्थानों के ख्यालातों को पेश करता है और अन्तत : मुस्लिम औरतों से हमदर्दी जताना भी नहीं भूलता।

मीडिया के सिद्धांत के मुताबिक मीडिया से प्रसारित धारणाएं उसके लक्षित वर्ग पर आसानी से न मिटने वाला असर छोड़ती हैं। खास तौर पर बाबरी मस्जिद विवाद के समय से भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष तेवर अपेक्षाकृत तेजी से बदले और उसी हिसाब से मीडिया के तेवर भी। नतीजन, खबरों में चाहे तिहरा तलाक़ आए या बुर्का पहनने की जबर्दस्ती, उन्हें धार्मिक-राजनैतिक चश्मे से बाहर देखना नहीं हो पाया। यकीनन जबर्दस्ती बुर्का पहनाना, एक औरत से उसकी आजादी छिनने से जुड़ा हुआ मामला है, उसका विरोध अपनी जगह ठीक भी है। मगर दो कदम बढ़कर, उसे तालीबानी नाम देने से तो बुनियादी मुद्दा गुमराह हो जाता है। यह समझने की जरूरत है कि मुस्लिम औरतों के हक़ों से बेदखली के लिए पूरा इस्लाम जिम्मेदार नहीं है, वैसे ही जैसे कि गुजरात नरसंहार का जिम्मेदार पूरा हिन्दू समुदाय नहीं है। मगर अपने यहां इस्लाम ऐसा तवा है जो चुनाव के आसपास चढ़ता है, जिसमें मुस्लिम औरतों के मामले भी केवल गर्म करने के लिए होते हैं।

मामले चाहे मुस्लिम औरतों के घर से हो या उनके समुदाय से, भारतीय मीडिया खबरों से रू-ब-रू कराता रहा है। मुस्लिम औरतों के हकों के मद्देनजर ऐसा जरूरी भी है, मगर इस बीच जो सवाल पैदा होता है वह यह कि खबरों का असली मकसद क्या है, क्या उसकी कीमत सनसनीखेज या बिकने वाली खबर बनाने से ज्यादा भी है या नहीं ?? मामला चाहे शाहबानो का रहा हो या सानिया मिर्जा का, औरतों से जुड़ी घटनाओं के बहस में उनके हकों को वरीयता दी जानी चाहिए थी। मगर ऐसे मौकों पर मीडिया कभी शरीयत तो कभी मुस्लिम पासर्नल ला के आसपास ही घूमता रहा है। इसके पक्ष-विपक्ष से जुड़े तर्क-वितर्क भाषा की गर्म लपटों के बीच फौरन हवा होते रहे। नई सुर्खियां आते ही पुरानी चर्चाएं बीच में ही छूट जाती हैं, मामले ज्यादा जटिल बन जाते हैं और धारणाओं की नई परतें अंधेरा गहराने रह जाती हैं।

अक्सर मुस्लिम औरतों की हैसियत को उनके व्यक्तिगत कानूनों के दायरों से बाहर आकर नहीं देखा जाता रहा। इसलिए बहस के केन्द्र में औरतकी जगह कभी रिवाजतो कभी मौलवीहावी हो जाते रहे। इसी तरह नौकरियों के मामले में, मुस्लिम औरतों के पिछड़ेपन को लेकर कभी धार्मिकतो कभी सांस्कृतिकजड़ों में जाया जाता रहा, जबकि मुनासिब मौकों या सहूलियतों की बातें जाने कहां गुम होती रहीं। असल में मुस्लिम औरतों के मामलों की पड़ताल के समय, उसके भीतरी और बाहरी समुदायों के अंतर्दन्द और अंतर्सबन्धों को समझने की जरूरत है। जाने-अनजाने ही सही मीडिया में मुस्लिम औरतों की पहचान जैसे उसके मजहब के नीचे दब सी जाती है।

जिस तरह डाक्टर के यहां आने वाला बीमार किसी भी मजहब से हो उसकी बीमारी या इलाज कर तरीका नहीं बदलता- इसी तरह मीडिया भी तो मुस्लिम औरतों को मजहब की दीवारों से बाहर निकालकर, उन्हें बाकी औरतों के साथ एक पंक्ति में ला खड़ा कर सकता है। जहां डाक्टर के सामने इलाज के मद्देनजर सारी दीवारें टूट जाती हैं, सिर्फ बीमारी और इलाज का ही रिश्ता बनता है जो प्यार, राहत और भरोसे की बुनियाद पर टिका होता है- ऐसे ही मीडिया भी तो तमाम जगहों पर अलग-थलग बिखरीं मुस्लिम औरतों की उलझनों को एक जगह जमा कर सकता है।

मुस्लिम महिलाओं के कानूनों में सुधार की बातें, औरतों के हक़ और इस्लाम पर विमर्श से जुड़ी हैं। इसलिए मीडिया ऐसी बहसों में मुस्लिम औरतों को हिस्सेदार बना सकता है। वह ऐसा माहौल बनाने में भी मददगार हो सकता है जिसमें मुस्लिम औरतें देश के प्रगतिशील समूहों से जुड़ सकें और मुनासिब मौकों या सहूलियतों को फायदा उठा सकें। कुल मिलाकर मीडिया चाहे तो मज़हब के रंगों में छिपी मुस्लिम औरतों की पहचान को रौशन कर सकता है।


















[लेखक-परिचय
जन्म:३०जून, 1981
शिक्षा: माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्‍वविद्यालय, भोपाल से स्नातक. 
शुरुआत के चार साल विभिन्न डाक्यूमेंट्री फिल्म आरगेनाइजेशन में शोध और लेखन के साथ-साथ मीडिया फेलोशिप . उसके बाद के दो साल "नर्मदा बचाओ आन्दोलन, बडवानी" से संबद्धता.
सम्प्रति :'चाइल्ड राईट्स एंड यू, मुंबई के संचार विभाग में
संपर्क:shirish2410@gmail.com ]

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माँ कहती थी






 









सी.सुमन की कविताएँ




मुश्किल राहो को करना हो आसां
तो दर्द किसी को ना देना .
माँ कहती थी
.

माँ कहती थी
शाम होते ही घर लौट आना
बाहर दरिंदगी बहुत है
दिन मे अपनों का चेहरा
पहचान नहीं पाते है
तो रात का एतबार कौन करे 
.

माँ कहती थी
अपनों के बीच जब पराया महसूस करे
भीड़ में रह कर भी अकेला हो
तो सजदे में चले जाना
सुकून होगा शांति होगी

 

माँ कहती थी
याद आये कभी मेरी
जाने के बाद
जीना मुश्किल लगे या
उठ जाये कभी किसी से  एतबार
 
लेना हो जिंदगी में किसी फैसले का जवाब
तो बक्से में बंद एल्बम से तस्वीर निकालना
जिसमे ऊँगली पकड़ चलाया था तुझे पहली बार .




[कवयित्री-परिचय 
                                  
जन्म: किसी वर्ष  १८ दिसंबर को बीकानेर में.
शिक्षा: विज्ञानं एव शिक्षा में स्नातकोतर
आकाशवाणी बीकानेर से विज्ञानं वार्ताए प्रसारित, उदघोषक के रूप में कार्य , 
सामूहिक चर्चाओ  में भागीदारी .विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ में लेखन, लघु फिल्म निर्माण में सक्रिय .
बारह वर्षो से जीव विज्ञानं व्याख्याता के रूप में अध्यापन
सम्प्रति: वनस्थली विद्यापीठ विश्वविद्यालय(निवाई),टोंक-राजस्थान में कार्यरत . 
संपर्क: suman18gaur@gmail.com ]                            

 

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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

बहुजन माया नहीं हक़ीक़त



 










दलित की बेटी से बैर क्यों !




सैयद एस क़मर की क़लम से 




ज्योति  बाफूले ,पेरियार स्वामी और बाबा साहब आंबेडकर दलित आन्दोलन के आदर्श और प्रेरक माने जाते हैं.कालांतर में बाबू जगजीवन राम और कांशीराम ने आन्दोलन को दिशा देने में अपनी महती भूमिका निभाई.आज दलित वोट के दावेदार तो कई हैं लेकिन अतिरंजना नहीं कि कांशीराम की उतराधिकारी और बहुजन समाज पार्टी के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की मुखिया मायावती की पहुँच दलित समाज में सीधी है.

मुसलमान भी उनसे इस मसले पर खफा रहा कि उन्होंने  कुख्यात मुख्यमंत्री को समर्थन किया था.जिसके रहनुमाई में गुजरात जैसा मुस्लिम विरोधी नरसंहार हुआ.क्या मुसलमान इस सच से अनजान हैं कि सबसे पहले जनता पार्टी ने ही पुरानी भाजपा जनसंघ को बढ़ावा दिया.और तब के जामा मस्जिद के इमाम बुखारी ने भी सार्वजानिक रैलियों को खिताब किया था.क्या आप उसके बाद यह भी भूल गए कि वी पी सिंह के दौर में ही भाजपा सरकार में आई और उसकी संख्या अचानक उछाल पर आई.आप यह भी नज़र अंदाज़ कर रहे हैं कि बिहार में भाजपा के साथ कौन है!
आप यह न भूलें कि बहुजन वाहिद दल रहा जिसने सबसे पहले सबसे ज़्यादा लोकसभा या विधान सभा की टिकटें मुसलमानों को दी.उत्तर प्रदेश में जीत कर आने वाले इस दल से मुसलमान अधिक रहे.
मायावती पर तरह तरह के आरोप लगे हैं और लगते रहते हैं. प्रदेश की सियासत में अब सत्ता भोग चुके और दल करीब-करीब दूसरे ,तीसरे या चौथे  पाइदान पर हैं.स्वाभाविक है, उन पर आरोप लगेंगे.सबसे ज़्यादा धन-सम्पत्ती रखने के साथ दलितों का ही उत्थान नहीं करने के आरोप उन पर हैं.लेकिन उनके समर्थकों ने इन सारे आरोपों को सवर्ण मीडिया की उपज बताया है.आप असहमत हो सकते हैं !
डी एस फॉर से बहुजन समाज पार्टी तक का सफ़र निसंदेह बहुत कंटीला है.कांशीराम के जीवन को होम  कर इस समाज को जो शक्ती और ऊर्जा मिली है उसमें मायावती का भी योगदान है किंचित सही , आप इस से इनकार नहीं कर सकते.राजनीति में आने से पहले एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाली मायावती इतनी धनवान कैसे बन गई सवाल के साथ आरोप है! लेकिन लोग भूल जाते हैं कि इस पार्टी का सिद्धांत शुरू से ही रहा है एक वोट और एक नोट.कांशीराम कहा करते थे. इस नोट के साथ उस व्यक्ति का जुड़ाव अपने आप समाज और दल के साथ हो जाता है.आज स्थितियां बदली हैं, और जुड़ाव के तरीके भी.देश और समाज में इधर दो दशक से वैभव आया है.मायावती अगर धन लेती हैं तो इसका उपयोग सिर्फ निजी नहीं होता, सार्वजानिक भी होता है.यानी दल के लिए आज पैसा ज़रूरी है.देश की हर राजनितिक पार्टी बड़े उद्योगपतियों से धन लेती है.बहुजन लेती है तो खुजली क्यों !और दलों या सियासी लोगों की तरह बहन जी गुप्त तरीके से न पैसे की उगाही करती हैं न ही उन्हें जमा करती हैं देश से बाहर  किसी हसीं वादियों वाले देश में. पार्टी समर्थक खुद पैसा देते हैं.सब कुछ पारदर्शी होता है. अपना जन्मदिन हो या पार्टी की रैली, तोहफे के रूप में कार्यकर्ताओं से बड़ी-बड़ी रकम सार्वजनिक रूप से ग्रहण करने की अनूठी कला सिर्फ मायावती ही जानती हैं। बाबा साहब आम्बेडकर और कांशीराम के सपनों को साकार करते हुए दलित उत्थान की बातें करने वाली मायावती क्या यह बता सकती हैं कि उनके सत्ता में आने के बाद किसका उत्थान हो रहा है। उन दलितों का, जो उन्हें वोट और नोट के साथ कुर्सी पर बिठाते हैं, या फिर सत्ता भोग रहे मायावती और उन जैसे चन्द नेताओं का। ऐसे सवाल और दलों से क्यों नहीं !दरअसल पहले होता यह था कि कुछ लोग मैदान में खेला करते थे और दूसरे सिर्फ देखा करते.उन्हें सिर्फ तालियाँ बजाने दिया जाता.आज वही तालियाँ बजानेवाला तबका खुद खेलने लगा है और धीरे-धीरे पहले के खिलाड़ी धकियाये जा रहे हैं.सहज है उनका कोफ़्त होना .जहां तक कुछ कमियों का सवाल है तो व्यवस्था अभी वही है, सदियों पुरानी.सरकार बदल जाने से सम्पूर्ण व्यवस्था में  आमूल परिवर्तन नहीं हो जाता.और जो समाज सदियों से शोषित रहा उस से आप अचानक संभ्रात शालीनता या अनुशासन  की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. सार्वजनिक रैलियों में करोड़ों रूपए की माला पहनने वाली मायावती को कार्यकर्ता पैसा देते हैं । राजनीति में रहने वालों के लिए जनता का स्नेह और विश्वास ही सबसे बड़ी पूंजी होती है, और यह बड़ी धनराशि बताती है कि उस पूंजी की मायावती के पास कोई कमी नहीं है।
महज 54 साल की उम्र में उत्तरप्रदेश जैसे सबसे बड़े राज्य का चौथी बार मुख्यमंत्री बनना यह जताने के लिए पर्याप्त है कि जनता का विश्वास उनमें है। जनता ने उनमें जो आस्था जताई है उसे काम के जरिये मायावती उन्हें लौटाना भी जानती हैं और लौटा भी रही हैं.हाँ यह आरोप किसी हद तक सही हो सकता है उन्होंने विकास के लिए अधिकाँश उन्हीं क्षेत्रों का चयन किया जहां दलितों की आबादी ज़्यादा हो.। केंद्र की बैठकों से प्राय: दूर रहने वाली मायावती पिछले दिनों आयोजित  राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक भले नहीं आई। लेकिन उनके प्रतिनिधि के बतौर शामिल हुए  प्रदेश के वित्त मंत्री लालजी वर्मा ने बहन जी का जो भाषण पढ़ा। उसमें यह साफ़ है कि उनकी सरकार  राज्य में समाज के बिल्कुल पायदान पर खड़े दलित, शोषित, पिछड़े वंचित व उपेक्षित तथा सर्वण समाज के गरीब लोगों को सबसे पहले सहारा देकर उनकों आगे बढ़ने का मौका देन की कोशिश कर रही है। मुख्यमंत्री ने कहा कि हमारी हर नीति और फैसले के केंद्र में इन्हीं वर्गो को रखा गया है। इन्हीं वर्गो की बुनियादी सुविधाओं को सबसे अधिक तहजीह दी गई है। जमीनी जरूरतों के साथ साथ सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय की अपनी नीति से जोड़ा है। मायावती की सफलता इसमें मानी जाएगी कि वे जनता से किए वादों को कितना पूरा कर पाती हैं और राज्य को कितना आगे ले जा पाती हैं।

स्कूलों में दलित रसोइया  हो या नहीं प्रदेश का ताज़ा मुद्दा है. पहले भी यह विवाद हो चुका है, जब 2007 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव के 24 अक्टूबर 2007 के रसोइये के चयन मे आरक्षण लागू करने के आदेश के बाद ये चिंगारी भड़क गयी थी| और कन्नौज जनपद के मलिकपुर प्राथमिक और जूनियर विद्यालय में प्रधान ने पहले से खाना बना रही पिछड़ी जाति की महिला को हटाकर दलित महिला को लगा दिया  था| राजनितिक विश्लेषकों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में इस साल पंचायत के चुनाव होने है| ऐसे में वर्तमान प्रधानो/सरपंचो को गाँव में जातीय राजनीती करने के स्कूल के मिड डे मील का अखाडा मिल गया है| व्यवस्था को सामान्य रूप से चलाने के लिए पिछले उत्तर प्रदेश सरकार के आरक्षण आदेश को पिछले तीन साल से अनदेखा करने वाले प्रधान अब अपनी प्रधानी के अंतिम चरण में इसे लागू क्यूँ करना चाहते है| लोकतंत्र की सबसे छोटी इकाई ग्राम पंचायत में अचानक यह दलित प्रेम जागना वोटो की राजनीती भी हो सकती है| अभी-अभी खबर जो कहती है , उसके मुताबिक शासन ने मिडडे मील पकाने वाले रसोईयों की नियुक्ति में लागू आरक्षण व्यवस्था को समाप्त कर दिया है। दरअसल , स्कूल छोड़ देंगे, लेकिन दलित के हाथ का बना खाना नहीं खायेंगे। जैसे जातिवादी नारे गली-गली में लगवाए जा रहे थे. यह सब अपने अपने वोटो को इकठ्ठा रखने का बढ़िया हथियार भी हो सकता है| अब नियुक्तियों में विधवा, निराश्रित, और तलाकशुदा महिलाओं को प्राथमिकता दी जायेगी।

पिछले महीनों कांग्रेस के युवा और चर्चित हस्ताक्षर राहुल गाँधी ने कहा, 'देश का भविष्य गाँव और गरीबों के हाथ में है, केंद्र से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के तहत करोड़ों रुपए आ रहे हैं, जिससे दलितों और गरीबों को फायदा होता है, लेकिन राज्य सरकार इस दिशा में ठीक से काम नहीं कर रही है।'
बहन जी उलटवार कर कहती हैं कि केंद्र सरकार चाह कर भी महंगाई को रोकने में नाकाम है। गरीबों का जीना दूभर हो गया है। लिहाजा केंद्र गरीबों को राहत के लिए पर्याप्त व्यवस्था करे। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने कहा है कि उत्तर प्रदेश में गरीबी रेखा से नीचे [बीपीएल] जीवन-यापन करने वाले परिवारों की संख्या काफी बढ़ गई है। उनका राशन कार्ड बनाने के लिए केंद्र अब भी 2002 की ही सूची पर अटका हुआ है। इस बाबत राज्य सरकार का प्रस्ताव अर्से से केंद्र के पास लंबित है। बहनजी ने सारा ठीकरा केंद्र पर ही उतारा है और विकास के असमान वितरण के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराया है.

 इस महत्वपूर्ण कहे जाने वाली  राष्ट्रीय विकास परिषद् की बैठक में बहन जी भले न आई हों लेकिन उन्होंने अपने लिखित भाषण के द्वारा जो बातें कही हैं फितरतन उनके समर्थकों में हर्ष ही व्याप्त है. उन्होंने दलगत और धर्मगत राजनीति से हटकर काम करने की ज़रुरत पर भी बल दिया है।



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बुधवार, 28 जुलाई 2010

अथ भारतीय फ़ुटबाल कथा द्वारा ईशान
















आवेश तिवारी की क़लम से 


सचिन और सानिया को जानने वाले ईशान को नहीं जानते होंगे . १४ साल का ईशान भी सचिन और सानिया को नहीं जानता ,उसकी निगाहें सपनों में भी गोल पोस्ट की ओर तेजी से बढते हुए अग्रिम पंक्ति के विरोधी खिलाड़ियों की ओर होती है जिनके किसी भी वार को असफल करने कीं वह हरसंभव कोशिशें करता है . वह फुटबाल खाता है ,फुटबाल  जीता है ,फुटबाल को ही सोचता है | स्वीडन से गोथिया कप खेल कर वापस लौटे ईशान से जब मै  पूछता हूँ , तुम्हे फुटबाल और पढाई में से कोई एक चीज चुननी हो, तुम क्या चुनोगे? मुस्कुराते हुए वह कहता है, पढता कौन है मुझे तो सिर्फ फुटबॉल चाहिए |गोथिया कप में ब्राजील ,नार्वे,पुर्तगाल  जैसी टीमों को शिकस्त देकर क्वार्टर फाइनल में पहुँचने वाली ईशान की टीम सेमीफाइनल सिर्फ इसलिए नहीं खेल पायी क्यूंकि उनका कोच मैच वाले दिन सो गया , जब वह उठा और टीम को लेकर स्टेडियम पहुंचा दूसरी टीम को वाक ओवर दिया जा चुका था ,ईशान हताश नहीं है ,मुझे हिंदुस्तान की टीम में जगह चाहिए मै देश की तरफ से खेलना चाहता हूँ |जानता हूँ ये मुश्किल है ,मगर कोशिश तो कर सकता हूँ |ईशान उस देश की टीम में हिस्सेदारी चाहता है जहाँ बच्चों को शायद ही देश की फूटबाल टीम के कप्तान का नाम मालूम हो ,जहाँ फुटबाल प्रेमियों की आँखें अपनी टीम को विश्व कप में खेलते देखने की चाह में बूढी हो गयी हैं क्रिकेट और उससे जुड़े ग्लैमर और पैसे का जुनून इस कदर सर चढ कर बोलता है कि हर माँ बाप बच्चे में धोनी और सचिन ही को ढूंढते हैं |
कहानी ईशान की है ,छोटी आँखों वाले इस लड़के को सबसे अधिक खुशी तब होती है जब वह गोली की रफ़्तार से किये गए प्रहार को अपना दमखम लगाकर रोक पाने में सफल रहता है ,उसके इस्टर्न मेत्योर फुटबाल एकादमी के कोच अमित नंदा और उसके खिलाडी उसके पूर्वानुमान का लोहा मानते हैं शायद यही वजह है कि देश के बड़े फुटबाल कल्ब उसे अपनी और से खेलने का बार बार न्योता दे रहे हैं ,मगर पैसा !ईशान अभी जब १० दिन पहले स्वीडन गया तो उसने अपने जेबखर्च से बचाए सारे पैसे इकट्ठे तो किये , लेकिन पैसे उतने नहीं हो पाए कि वह बाहर खेलने जा सके जैसे तैसे करके माँ आशा और पिता रामप्रकाश ने जो कि एक वक्त खुद दिल्ली की फुटबाल टीम का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं ने टिकट का जुगाड किया तो बाहर जाने पर एक दूसरी दिक्कत आन पड़ी ,अजीब थी यह दिक्कत भी ,ईशान हँसते हुए बताता है कि हिन्दुस्तानी तीन वक्त खाते हैं वहाँ दो वक्त का ही खाना मिलता था ,तीसरे वक्त के खाने का इंतजाम भी हमें अपनी जेब से करना पड़ा

आप जानते हैं वो हमसे बेहतर नहीं खेलते ;लेकिन बात अवसरों की होती है हमारे यहाँ अवसर कम हैं ,उन्हें देश की टीम में जगह नहीं मिले तो क्लब में खेलने को मिल जाता है वो अपना कैरियर फुटबाल में बना सकते हैं ,मगर हमारे यहाँ ऐसा नहीं हो पाता ,कभी कभी हम मैच खेलने को तरस जाते हैं ,ऐसा नहीं हो सकता क्या कि हर कालेज की अपनी फुटबाल टीम हो ,देश में क्रिकेट की तरह गली गली में फुटबाल खेली जाए ,ऐसा होगा ,मुझे लगता है होगा|
अर्जेंटीना के मेस्सी का दीवाना ईशान, माराडोना को एक बेहतरीन खिलाड़ी के लिए नहीं एक कोच के रूप में ज्यादा पसंद करता है ,कहता है आपने देखा होगा ,वो अपने खिलाड़ियों का माता चूम उन्हें मैदान में भेजते हैं ,ऐसा भला कोई करता है ?
ग्यारहवीं  में पढ़ने वाले ईशान की माँ से मै जब पूछता हूँ ,आपको डर नहीं लगता लड़का फुटबाल खेलता है ,कहती हैं, नहीं ,हम लोगों को डर नहीं लगता ,हम उसे पैसे के लिए नहीं खिला रहे ,हम उसे नाम के लिए नहीं खिला रहे ,हम चाहते हैं जिसे वह सबसे ज्यादा प्यार करता है, उसके साथ जिंदगी भर रहे और उसकी सबसे प्रिय चीज़ है सिर्फ फुटबाल है ,अगर ईशान को फुटबाल के मैदान में रात को २ बजे जाना है तो वह जायेगा. अमेरिका के कोंटिनेंटल कप में पैरों में चोट के बावजूद उसने गोलपोस्ट नहीं छोड़ी .हम उसके सपनों को जी रहे हैं , वह अपने आप जैसा बनना चाहता है बन जायेगा |












[लेखक-परिचय : बहुत ही आक्रामक-तीखे तेवर वाले इस युवा पत्रकार से आप इनदिनों हर कहीं मिलते होंगे, ज़रूर.! .आपका का ब्लॉग है कतरने. लखनऊ और इलाहाबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में ब्यूरो प्रमुख। पिछले सात वर्षों से विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद की पर्यावरणीय परिस्थितियों का अध्ययन और उन पर रिपोर्टिंग कर रहे हैं। आवेश से awesh29@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। ]
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गुरुवार, 22 जुलाई 2010

बिहार में माओवादी: यानी पैसा उगाओ














राकेश पाठक की क़लम से


जिस जनपक्षधरता को लेकर नक्सलपंथ का गठन हुआ था , संघटन के लोग खुद उससे आज विमुख हो गए है. अब नक्सल गरीबो के हक़ हुकुक के लिए आवाज उठाने वाला संघटन न रहकर एक लिमिटेड कम्पनी बन गयी है जिसका टर्न ओवर कई हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा है..न तो अब वैसे जमींदार रहे और न ही दलितों को दास बनाकर उनका शोषण करने वाले भूपति.शायद यही वजह है कि नक्सली अपने कार्यशैली में काफी बदलाव ला चुके है. जुल्म और बदले की भावना उतना बड़ा घटक नहीं रहा इस संघटन से जुड़ने का..बिहार में रोजगार के अभाव में लोग नक्सली संघटन से जुड़ रहे है..नक्सली बतौर वेतन का भुगतान कर रहे है अपने कामरेडों को.और कामरेड भी पैसे, रोजगार और पॉवर के चक्कर में बन्दूक उठाने को तैयार है. जनसत्ता में नक्सली संघटन पर लम्बी रिपोर्ट सुरेन्द्र किशोर जी की पढ़ी. कई मुद्दे और कारण अब अप्रासंगिक लगे. बिहार के औरंगाबाद की स्थिति भी काफी बदल चुकी है मध्य बिहार में अब नक्सलियों का एकमात्र उदेश्य पैसा कमाना रह गया है नीति सिद्दांत जैसी कोई चीज नहीं रह गयी. शोषण का तरीका भी बदल गया है जाति बहुलता वाले क्षेत्र में खुद नक्सली संघटन के लोग वही करते है जो उनके इर्द-गिर्द रहने वाले उन तथाकथित नेताओं को बताते है.नक्सलियों ने खुद एक शोषक वर्ग खड़ा कर दिया है जो सचमुच के "जन " का शोषक ,सामंती बन बैठा है. संघटन से जुड़ना आज फायदे की बात हो गयी है खाटी कमाई का जरिया और घर बैठे रोजगार .
ख़बर है कि  नक्सलियों  के खिलाफ राज्य साझा अभियान चलाएंगे तब कई बाते इस से जुडी सामने आने लगी, लगा आवाज दबाकर और बन्दूक के दम पर इसे रोका नहीं जा सकता है आज नक्सलवाद देश के सबसे बड़ी आंतरिक समस्या के रूप में सामने है. पूरे देश में इससे निबटने की, समस्त उपायों पर चर्चाएँ चल रही है. लेकिन मुद्दा घूम-फिर कर जमीनी विवाद तथा इसका सही वितरण न होना माना जा रहा है ..हो सकता है, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भूमि की असमानता इसके पनपने का एक कारण हो लेकिन बिहार जैसे राज्यों में यह अब सही नहीं रह गया ........जब दो दशक पूर्व डी.वन्दोपाध्याय ने नक्सलवाद का मुख्य कारण जमीनों के असमान वितरण को माना था तब बिलकुल सही था आज स्थितिया बदल चुकी है .अभी हाल ही में मै बिहार गया था एक पखवाड़े की छुट्टी पर .......मै बताता चलूँ कि मेरा घर गया जिले के सुदूरवर्ती प्रखंड इमामगंज में है ....घोर नक्सल प्रभावित क्षेत्र जहाँ  आज भी नक्सलियों की ही सरकार चलती है. इन क्षेत्रो में एक स्टिंगर रूप में क़रीब में मैंने छह वर्षों तक काम भी किया है.. अपने स्तर पर खोजी रिपोर्टिंग की है. कई जन अदालतों में भी शामिल हुआ ...... इनके खिलाफ रिपोर्टिंग के कारण कई बार हाथ-पावँ काटने की धमकियाँ भी मिली .......मै कई वैसी चीजो का खुलासा किया था जो कही से भी जन सरोकार से जुड़ा हुआ नहीं था ........मैंने नक्सल संघटन से जुड़े कई ऐसे लोगो की सूची प्रकाशित की थी जो संघटन से जुड़ने के बाद लखपति-भूमिपति हो गए, इसमें संघटन के करीब डेढ़ दर्ज़न शीर्ष नेतायों का नाम था .........आज की स्थिति यह है कि लोग संघटन से सिर्फ पैसो के लिए जुड़ रहे है .....उपभोक्तावादी दौर में लोगो के महत्वकांक्षा इतनी बढ़ गयी है कि आज का युवा सिर्फ पैसा चाहता है और यही पैसे पाने की लालसा का फायदा देशविरोधी पाक-समर्थित आतंकवादियों के साथ -साथ यह नक्सली भी उठा रहे हैं. संघटन से जुड़ने वाले लोगो को ४०००/- से लेकर २५०००/- तक बतौर मेहनताना दिया जा रहा है और ताकत ,अहम्, गुरुर तथाकथित सम्मान अलग मिल रहा है. इनसे जुड़ने का दूसरा कारण खासकर कमजोर वर्गों का बहुत समय से दबाया जाना भी है .....आज भी बदले की भावना से लोग संघटन से जुड़े हैं...... तथा जुड़ रहे हैं.. ग्रामीण अंचलो में नक्सलियों की अदालत बैठती हैं जिसमे सैकड़ो मुद्दे जो विशेष जमीनी विवाद से जुड़े होते हैं निबटाया जाता है ......
बिहार सरकार मान रही है कि नक्सली घटनाओ में कमी इसके द्वारा की जा रही उपायों से हो रही है जो कुछ हद तक तो सही हो सकता है पूरी तरह से नहीं.....
हाल ही में मेरी मुलाकात नक्सली गतिविधियों से जुड़े एक नेता से हुई थी उसने जो सच्चाई बताई ,हैरतअंगेज थी .....अब माओवाद सिर्फ तक रह गया है,व्यहवहार में उसके समर्थकों का काम चन्दा या लेवी वसूलना भर रह गया है..आज हरेक कस्वे ,गाँव बाज़ार में इन्होने अपना नेटवर्क फैला रखा है. सूचना देने के बदले नक्सली इन युवाओं को सरकारी ठीकेदारी, बीडी पता का ठेका ,बस स्टैंड,बाज़ार का ठेका ,जंगली सामानों लकड़ियों की तस्करी, लेवी बसूलने जैसे कामो के जरिये रोजगार दे देते हैं.......बताया जाता है कि बिहार सरकार के सालाना बज़ट से ज्यादा तो इनका बज़ट है एक अनुमान के मुताबिक आज इनके पास ५००००/-करोड़ से ज्यादा का नगदी प्रवाह है . कुछ लोगों को यह सच स्वीकारना गवारा न हो लेकिन कहने में कोई गुरेज़ नहीं  कि माओवादी कमुनिस्ट पार्टी अब जन सरोकार से सम्बन्ध रखने वाली पार्टी न रहकर लिमेटेड कंपनी बन चुकी है.
संघटन से जुड़ने वाला हरेक व्यक्ति व उसका परिवार तब तक संघटन के वेलफेयर का फायदा लेता है जबतक वह संघटन से जुड़ा रहता है ...इस संघटन से जुड़े कई लोगो के बच्चे उच्च स्तरीय अंग्रेजी स्कूलों में पढाई कर रहे हैं. .......उन सारी चीजो का उपभोग कर रहे हैं. जिसे फिजूलखर्ची बोला जाता है ........संघटन के एक बड़े नेता एवं एक शीर्ष नक्सल नेत्री से शादी के दरम्यान वो सब किया गया जो संघटन के नीतियों के विरुद्ध था ....दर्जनों गाड़ियाँ और हजारो को खाना खिलाने की व्यवस्था की गयी थी इसी तरह संघटन से जुड़े एक नेता के गृहप्रवेश पर भी धन और बाहू बल का जमकर प्रदर्शन किया गया. यह  सब छोटे छोटे वाकये हैं जिसे मैंने यहाँ जिक्र किया है जो यह बतलाता है कि संघटन एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की तरह काम कर रही है .एक वाकया मुझे आज भी याद है दलित तबके का एक व्यक्ति मेरे घर आया और कहा कि सरकार से भूदान में हम ४२ दलित लोगो को ४२ कट्ठा जमीन का परचा दिया गया था जिसपर आज नक्सलियों का खुला संघटन किसान कमिटी का कब्ज़ा है...जिससे जुड़े हुए सभी लोग पुर्व सरकार के समर्थक रहे एक जाति विशेष से हैं..और हम भूखो मर रहे हैं. जब मैंने इसे अखबार में छापा तो खाफी हंगामा हुआ और दलितों को जमीन वापस दी गयी . यह सारी बाते यहाँ इसलिए कही जा रही है ताकि सच्चाई सामने आ सके. आज सरकारी कारिंदे खुद मिले हुए हैं , इन लोगो के साथ .....पुलिस खुद समझोता करती है कि  हमारे क्षेत्र में अपराध नहीं करो, हम तुम्हारे आदमियों को नहीं पकड़ेगे .......और इसे ही सरकार नक्सल गतिविधियों का कम होना मानती है . महीने में सात से दस दिन तो नक्सली अपने प्रभाव वाले क्षेत्रो में जब चाहते है पूरा बाज़ार बंद करवा देते हैं .....पिछले साल ही केताकी औरंगावाद के पास नक्सलियों ने पूरे एक महीने तक एक बाज़ार को बंद करवा रखा था ............क्या कहेगे इसे आप ........?????
नक्सलियों ने लोगो को धन दिया है सम्पनता दी है. आप क्या दे रहे, उसे आज़ादी के छः दशक में उसे जीने की आज़ादी तो दे ही नहीं सके .....भूख से मरना आज भी जारी है .......गरीबो की एक बड़ी तादाद आपका मुह चिढ़ा रही है ........अकाल और बाढ़ पर आज इतने सालो बाद भी अंकुश नहीं लगा सके, सुदूरवर्ती क्षेत्रो में चिकित्सा के अभाव में आज भी लोग दम तोड़ रहे है और आप कहते है हम नक्सलवाद का नियंत्रण कर लेंगे .....??? नक्सलियों से मिले पैसे और रोजगार के दम पर खुद ही जीना सिख रहे हैं लोग आज लिमिटेड कम्पनी की तरह हजारो लोगो के परिवार का भरण पोषण इन नक्सलियों के द्वारा हो रहा है. इनके लिए मसीहा हैं नक्सली ..
क्या सरकार इन लोगो को रोजगार मुहैया करवा पायेगी जो नक्सली संघटन कर रहे हैं....... ????
सिर्फ खेती पर आश्रित रहने वाले लोगो के पास चार महीने से ज्यादा का काम नहीं. संघटन से जुड़ना इनकी मजबूरी है आप इन्हें रोजगार दे सुविधा दे...........परिणाम आपके सामने आ जायेगा. सिर्फ कागज़ पर आंकड़ो के खेल से गतिविधियों पर नियंत्रण नहीं हो सकता और न ही अर्धसैनिक बलों के दम पर !



[लेखक -परिचय : जन्म: मगध अंचल , बिहार के रानीगंज हल्क़े में 01 मार्च 1977 को. पेशे से पत्रकार। करीब 6 साल तक दैनिक जागरण(पटना) में बतौर संवाददाता । नक्सल प्रभावित क्षेत्रो पर विशेष रिपोर्टिंग और कुछ पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता भी की । कुछ कविताओं का यत्र-त्रत प्रकाशन ...फिलवक्त :एक निजी कंपनी में अजमेर में ऑफिसर(प्रशासन) के पद पर कार्यरत]. .
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मंगलवार, 20 जुलाई 2010

व्यवस्थाविरोधी हर पत्रकार नक्सली नहीं होता















फर्जी मुठभेड़ पुलिस का चरित्र-सा बन गया है. अपनी असफलताओं 
की खीझ निकलने के लिए पुलिस ऐसा करती है. पत्रकार हेमचंद्र पांडे उर्फ हेमंत पांडे की मौत हमें सोचने पर विवश करती है. लेकिन मै इस बात का पक्षधर हूँ, कि चाहे पत्रकार हो, लेखक हो, कोई भी हो, वह हिंसा के साथ कभी न खडा हो. मैं सरकारी हिंसा का भी प्रबल विरोधी हूँ. नक्सली हिंसा का भी मै समर्थन नहीं कर सकता. बहुत से बुद्धिजीवी समर्थक नज़र आते है. नक्सलियों ने मासूम बच्चो के गले तक काटे है. यह दुःख की बात है. हमें अन्याय का प्रतिकार करनाही है. मैं लगातार सरकार के चरित्र पर लिखता ही रहाहूं. यह कोई छोटी पंक्ति नहीं है,कि 
लोकतंत्र शर्मिंदा है 
राजा अब तक ज़िंदा है


सत्ता में एक सामंती मिजाज़ काम कर रहा है अब तक. उसकी निंदा होनी चाहिए.मगर इसकारण हम हिंसक हो कर नक्सली हो जाएँ, हत्याएं करने लगें, यह भी ठीक नहीं. स्वतंत्र पत्रकार पांडे को प्रेस मालिकों ने अपना मानने से इंकार कर दिया, यह दुखद बात है. प्रेस का चरित्र ही ऐसा है.पांडे की मौत कि उच्च स्तरीय जांच होनी चाहिए. विश्वास है, कि वे नक्सलियों के साथ नहीं रहे होंगे. निसंदेह वे वैचारिक आदमी रहे होंगे. व्यवस्थाविरोधी हर पत्रकार नक्सली नहीं होता. व्व्यवस्था गलत कर रही है तो प्रतिकार हमारा धर्म है. कर्त्तव्य है. यह हमारा संवैधानिक अधिकार भी है.

पिछली पोस्ट पर वरिष्ठ पत्रकार-व्यंग्यकार गिरीश जोशी ने उक्त प्रतिक्रिया व्यक्त की है.
अब कल हुई पत्रकारों और प्रबुद्ध तबक़े की बैठक की रपट पढ़ें : 

सभी ने कहा अघोषित आपातकाल है!

गांधी शांति प्रतिष्ठान, नयी दिल्‍ली में 20 जुलाई की शाम नवगठित समूह जर्नलिस्‍ट फॉर पीपुल के बैनर तले एक सभा हुई, जिसमें देश में अघोषित आपातकाल को कई घटनाओं के जरिये समझने की कोशिश की गयी। साथ ऐसे वक्‍त में पत्रकारों की भूमिका क्‍या हो सकती है, इस पर चर्चा की गयी।
सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने कहा कि आज ही नहीं, हमेशा से देश में आपातकाल जैसी स्थितियां रही हैं। स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पांडेय और भाकपा (माओवादी) के प्रवक्ता कॉमरेड आजाद की कथित मुठभेड़ में की गयी हत्‍या पर सवाल उठाते हुए अग्निवेश ने कहा कि किसी भी कीमत साहस और सच का साथ नहीं छोड़ना है।
इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के सलाहकार संपादक और सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा ने स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पांडेय और भाकपा माओवादी के प्रवक्ता आजाद की हत्या को शांति प्रयासों के लिए धक्का बताया। गौतम ने कहा कि आज राजसत्ता का दमन अपने चरम पर है। देश के अलग अलग हिस्सो में सरकार अलग-अलग तरीके से पत्रकारों का दमन कर रही है। इसके खिलाफ चलने वाले हर संघर्ष को एक करके देखना होगा।
समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने कहा कि अब सरकारें अपने बताये हुए सच को ही प्रतिबंधित कर रही हैं और जो भी इसे उजागर करने की कोशिश करता है, उसे गोली मार दी जाती है या देशद्रोही करार दे दिया जाता है।
अंग्रेजी पत्रिका हार्ड न्यूज के संपादक अमित सेनगुप्ता भी मौजूद थे। उन्‍होंने कहा कि आज के दौर में पत्रकारिता कॉरपोरेट घरानों के मालिकों के इशारे पर संचालित हो रही है। देश के अलग अलग हिस्से में हुई घटनाओं को अलग अलग तरीके से पेश किया जाता है। खासकर एक संप्रदाय विशेष के लिए मुख्यधारा का मीडिया पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। गुजरात दंगों और बाटला हाउस एनकाउंटर की रिपोर्टिंग पर भी अमित ने सवाल उठाये।
कवि नीलाभ ने कहा कि आज के दौर में पत्रकारिता को बचाने के लिए एक सांस्‍कृतिक आंदोलन की जरूरत है। सरकारी दमन के मसले पर हिंदी के लेखकों की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए उन्‍होंने संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों, चित्रकारों को आह्वान किया कि वे अपने माध्‍यमों का इस्‍तेमाल सरकारी नीतियों को बेनकाब करने के लिए करें।
युवा पत्रकार पूनम पांडेय ने कहा कि आपातकाल केवल बाहर ही नहीं है बल्कि समाचार पत्रों के दफ्तर के अंदर भी एक किस्म के अघोषित आपातकाल का सामना करना पड़ता है।
इस मौके पर हिंदी के तीन अखबारों (नई दुनिया, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण) के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास किया गया। इन अखबारों ने पत्रकार हेमचंद्र पांडेय को न सिर्फ पत्रकार मानने से इनकार कर दिया था बल्कि इसका खुलासा होने पर कि हेमचंद्र हेमंत नाम से इन अखबारों के लिए कभी कभार लिखता था, इन अखबारों ने अलग से खबर छाप कर ये स्‍पष्‍टीकरण दिया था कि हेमचंद्र पांडे से उनके अखबार का कभी कोई रिश्‍ता नहीं रहा।
सभा में पत्रकार हेमचंद्र की याद में हर साल दो जुलाई को एक व्याख्यानमाला शुरू करने की घोषणा की गयी।
इस सभा को सामयिक वार्ता की मेधा, उत्तराखंड पत्रकार परिषद के सुरेश नौटियाल, जेयूसीएस के शाह आलम, समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट, पीयूसीएल के संयोजक चितरंजन सिंह ने भी संबोधित किया।
सभा का संचालन पत्रकार भूपेन ने किया। इस कार्यक्रम में बड़ी तादाद में पत्रकार, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता भी मौजूद थे।
मोहल्ला से साभार
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अघोषित आपातकाल में पत्रकारों की भूमिका


स्‍वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पांडे उर्फ हेमंत पांडे की फर्जी मुठभेड़ में हुई मौत ने साफ कर दिया है कि भारतीय पत्रकार आज एक अघोषित आपातकाल की स्थितियों में काम कर रहे हैं। संयुक्‍त राष्‍ट्र की संस्‍था युनेस्‍को ने उन परिस्थितियों की जांच किए जाने की मांग की है जिसमें हेमचंद्र पांडे मारे गए। आईएफजे, प्रेस क्‍लब, नागरिक समाज संगठनों, पत्रकार यूनियनों समेत पार्टी लाइन से ऊपर उठकर उत्‍तराखंड के सभी राजनीतिक दलों ने इस सुनियोजित हत्‍या की निंदा की है। नागरिक समाज संगठनों की ओर से स्‍वामी अग्निवेश द्वारा की गई इस मौत की जांच की मांग को हालांकि केंद्रीय गृह मंत्री ने ठुकरा दिया है।

टीवी टुडे के दफ्तर पर हिंदूवादी गुंडों द्वारा किए गए ताजा हमलों को अगर इसमें शामिल कर लें, तो हालात बदतर नजर आते हैं। अब भारतीय पत्रकार सरकार के साथ कट्टर हिंसक समूहों के दुतरफा हमलों का खतरा झेल रहे हैं। दुर्भाग्‍यवश, ऐसे वक्‍त में कॉरपोरेट मीडिया प्रतिष्‍ठान राजकीय दबाव के तले अपने ही पत्रकारों से पल्‍ला झाड़ने की कवायद में लिप्‍त हैं, जैसा कि हमने हेमंत पांडे के मामले में देखा जिसमें हिंदी दैनिक नई दुनिया, दैनिक जागरण और राष्‍ट्रीय सहारा ने खुले आम तत्‍काल दावा कर डाला कि पांडे का उनके साथ किसी भी रूप में कोई लेना-देना नहीं था।

निश्चित तौर पर यह अघोषित आपातकाल ही है। इससे बेहतर शब्‍द इन हालात के लिए नहीं सोचा जा सकता। इसलिए यह सवाल उठाना अब अपरिहार्य हो गया है कि आगे क्‍या होगा।
ज़रूर शिरकत करें 
पत्रकारों का एक अनौपचारिक और मुक्‍त मंच जर्नलिस्‍ट्स फॉर पीपुल ऐसे ही तमाम मुद्दों पर एक बहस के लिए आपका आह्वान करता है। निम्‍न विषय पर मुक्‍त परिचर्चा के लिए आप सादर आमंत्रित हैं-


अघोषित आपातकाल में पत्रकारों की भूमिका

दिनांक- 20 जुलाई, 2010, मंगलवार

समय- शाम 5.30 बजे

स्‍थान- गांधी शांति प्रतिष्‍ठान, दीनदयाल उपाध्‍याय मार्गख्‍ आईटीओ, दिल्‍ली

मुक्‍त परिचर्चा के बाद दिवंगत पत्रकार हेमंतपांडे की स्‍मृति में एक व्‍याख्‍यानमाला के आरंभ की औपचारिक घोषणा की जाएगी, जिसका आयोजन हर साल उनकी पुण्‍यतिथि 2 जुलाई को किया जाएगा।

बैठक का समापन उन हिंदी दैनिकों के खिलाफ एक निंदा प्रस्‍ताव पढ़ कर किया जाएगा जिन्‍होंने पांडे से अपना पल्‍ला झाड़ लिया है।

आपसे अनुरोध है कि कार्यक्रम में जरूर शामिल हों।

अतिरिक्‍त सूचना के लिए संपर्क करें-

अजय (9910820506)
विश्‍वदीपक (9910540055)

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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)