बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 23 जुलाई 2008

ख़तरे में इस्लाम नहीं

________________________________________________

आजकल कुछ ब्लॉग पर मुस्लिम रचनाकारों पर साम्प्रदायिक होने के आरोप -प्रत्यारोप ज़ोर-शोर से पढनेको मिले. दोस्तों-दुश्मनों के गलयारे में भी गाहे-बगाहे समय-समय पर ऐसे इल्जामों का सामना मुस्लिम लेखक-कवि अक्सर करते रहे हैं।

मुस्लिम लेखक-कवियों पर एक आरोप ये भी है कि वे उतने प्रगतिशील नहीं होते या यूँ कहें कि वे अपने मज़हब-समाज की आलोचना करने से परहेज़ करते हैं.यथार्थ जबकि इसके बिल्कुल विपरीत है.भारत में मुस्लिम लोगों की अच्छी संख्या रही है औरये प्रगतिशील और सेकुलर भी रहे हैं.प्रेमचंद और रविन्द्रनाथ ठाकुर के साथ सज्जाद ज़हीर का नाम प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में अव्वल रहा है.और ज़्यादा तफसील में मैं जाना मुनासिब नहीं समझता.पिछले दिनों फहमिदा रियाज़ की नज़्म आपने पढ़ी .मुस्लिम कवियों के इन क्रांतिकारी शेरों को क्या कोई नज़र अंदाज़ कर सकता है:

तलाक दे तो दिया है,गुरूरो-कहर के साथ
मेरा शबाब भी लोटा दो,मेरे मेहर के साथ
या
अजब रस्म देखी दिन ईदे-कुर्बां
ज़बह करे जो लूटे सवाब उल्टा

इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए इस दफा
उर्दू के विख्यात क्रांतिकारी शायर हबीब जालिब
की ये नज़्म पेश-खिदमत है ।

२२मर्च,१९२८ को म्यानी अफ्गना, होशयारपुर,पंजाब में पैदा हुआ ये ऐसा शायर हुआ जिसने तमाम जिंदगी दबे-कुचले लोगों के लिए समर्पित कर दी थी.जिसे कई बार सलांखों के पीछे डाला गया.तीन-तीन किताबें ज़प्त की गयीं.पासपोर्ट ज़ब्त किया गया .झूठे इल्जाम में फंसाया गया।
थोडी बहुत जो भी शिक्षा हासिल की वो दिल्ली में ही .१९४१ में शायरी की शुरुआत .४३-४४ में रोज़ी के लिए मजदूरी.विभाजन के बाद परिवार पाकिस्तान ।
एक बच्चा दवा के अभाव में मरा. एक बीमार बच्ची को छोड़कर जेल भी गये ।
१२-१३ मार्च की रात लाहौर के ज़ैद अस्पताल में निधन.--सं .
________________________________________________









ख़तरे में इस्लाम नहीं







खतरा है ज़र्दारों को
गिरती हुई दीवारों को
सदियों के बीमारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं


सारी ज़मीं को घेरे हुए हैं
आख़िर चंद घराने क्यों
नाम नबी का लेनेवाले
उल्फत से बेगाने क्यों




खतरा है खूंख्वारों को
रंग-बिरंगी कारों को
अमरीका के प्यारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं


आज हमारे नारों से लर्जां है बपा एवानों में
बिक न सकेगें हसरतो-अरमाँ ऊँची सजी दुकानों में



खतरा है बटमारों को
मगरिब के बाज़ारों को
चोरों को,मक्कारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं





अमन का परचम लेकर उट्ठो
हर इंसान से प्यार करो
अपना तो मन्शूर है जालिब
सारे जहाँ से प्यार करो




खतरा है दरबारों को
शाहों के गम्ख्वारों को
नव्वाबों,गद्दारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं





(शबाब=जवानी, ईदे-कुर्बां=कुर्बानी का दिन , सवाब=पुन्य ,ज़र्दारों=पूंजीपतियों,
नबी=पैगम्बर मोहम्मद,एवानों=संसद,मगरिब=पश्चिम,मन्शूर=घोषणा-पत्र
गम्ख्वारों=हमदर्दों)
read more...

रविवार, 20 जुलाई 2008

प्रज्ञा राठौर की कहानी

__________________________________________________

नए लिखने वाले कथाकारों में मुझे प्रज्ञा ने प्रभावित किया .ये वे लोग हैं जो कहानी के वर्तमान-परिदृश्य से लगभग अनजान हैं।लेकिन इनमें भरपूर संभावनाएं हैं.सोचने-विचारने और कहने का इनका एक अपना अंदाज़ है।

प्रज्ञा का आभार कि हमारे आग्रह का उन्होंने मान रखा और हमज़बान को कहानी उपलब्ध करायी

अपने बारे में वह कहती हैं:

मेरे बारे में कुछ ख़ास नहीं है बताने को. जन्म मध्य प्रदेश के शहर ग्वालियर में हुआ . घर में माँ-डैडी, १ बड़ी दीदी और १ छोटी बहन. माता-पिता शिक्षा विभाग में थे. मेरे डैडी का कहना है, लड़कियों को पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए और लड़कों को अपना पेट भरने लायक खाना बनाना आना चाहिए :) उन्होंने हम बहनों को भी अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाई. ग्वालियर की ही जीवाजी यूनिवर्सिटी से Electronics में M.Sc. किया. उसके बाद २००० से २००५ तक दिल्ली में ही एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी की. इसी बीच २००३ में शादी हुई. मेरे पति एक भारतीय Software MNC में कार्यरत हैं. २००५ में काम के सिलसिले में उन्हें जापान जाना था और हमारे घर नया मेहमान (मेरी बेटी अम्या ) भी आने वाली था. इसीलिए नौकरी छोड़ दी. २ साल जापान में रहने के बाद इसी फरवरी में USA के Iowa state के Cedar Rapids नामक छोटे से शहर में आए हैं।

पढने का शौक मुझे बचपन से ही था. माँ हिन्दी साहित्य की लेक्चरार थीं. उनके सानिध्य में अच्छी अच्छी किताबें पढने का मौका । उनकी कवितायें और कहानियाँ पढ़ना मुझे हमेशा अच्छा लगता था. मैंने लिखना अभी शुरू किया है ३-४ महीने पहले. हालाँकि बचपन में कुछ लिखा था पर वह सब बचपना ही था। अब वह डायरी पता नहीं कहाँ गयी?? या तो उन पन्नों में बच्चे अब मूंगफली खाते होंगें या फिर घुल घुल कर उसका कुछ और ही बन गया होगा :)


यह शहरोज़ भाई का बड्डपन ही है जो मुझे इस काबिल समझा और आप लोगों के सामने आने मौका दिया। आशा है आप मेरी गलतियों को नज़रंदाज़ करके मेरा हौसला बढायेंगे.

______________________________________________________



मोहभंग



"बस!! बहुत हो गया॥ रोज़ की ही बात है। अब नहीं सहा जाता।"


पूर्णिमा ने निश्चय कर लिया।
" आर या पार। यह भी कोई जीवन है?? ना मन का खाना, न पहनना, न कहीं घुमने जाना। बस रात दिन खटते रहो ऑफिस या घर में। उस पर भी कोई क़द्र करने वाला नहीं। जब घर से चली जाऊंगी न, तब पता चलेगा सब को। अभी बैठे बैठे बहुत बातें बनाना आता है। कहते हैं न घर की मुर्गी...."


"बस बस... ज्यादा मत बोलो। अगर तुम्हारे माँ-बाप होते तो?" बीच में टोका शाश्वत ने।

"मेरे माँ बाप ऐसे हर बात पर टांग नहीं अडाते। भइया भाभी को पूरी छूट है अपना जीवन जीने की।"
"अरे!! तो तुम्हें कौन सी रोक है? सारे काम तो अपने मन के ही करती हो। कभी कभी उनकी बात मान भी लोगी तो क्या बिगड़ जाएगा??"
"और अगर तुम्हारी बहन एक हफ्ते बाद आ जायेगी तो उसका क्या बिगड़ जायेगा?? अच्छा खासा प्रोग्राम बना था घूमने का... बीच में कबाब में हड्डी..."
"पूर्णिमा........." इतनी ज़ोर से चीखा शाश्वत कि माँ-बाबूजी आ गए दूसरे कमरे से।
"बस अब कुछ और कहने की कोई ज़रूरत नहीं है। जिसे आना है आए, मैं ही चली जाऊंगी यहाँ से तब रहना आप सब लोग अपनों के साथ... एक मैं ही पराई हूँ न यहाँ.." रोती हुई चली गयी पूर्णिमा दूसरे कमरे में।
माँ ने समझाया शाश्वत को "अगर हम नेहा को १ हफ्ते बाद आने को कह दें, तब ठीक रहेगा। तुम और पूर्णिमा भी घूम आओगे और उसका मन भी लग जाएगा।"
"नहीं माँ कोई ज़रूरत नहीं है नेहा को कुछ कहने की. उसका कार्यक्रम बहुत पहले तय हो गया था। पूर्णिमा ने ही बीच में गोवा जाने की रट लगा दी। उसके ऑफिस के लोग जा रहे हैं। मैं और पूर्णिमा बाद में भी जा सकते हैं। तुम नेहा को कुछ मत कहो। चुपचाप जा कर सो जाओ। वह सुबह तक ठीक हो जायेगी।"
"हम्म कल ही चली जाऊंगी तब पता चलेगा। सच ही कहा था सबने यहाँ शादी मत करो। तब तो इश्क सवार था सर पर। पता नहीं क्यों मति मारी गयी थी मेरी। सच है, रिश्ता हमेशा बराबर वालों में होना चाहिए।" सोचते सोचते सो गयी थी पूर्णिमा।



पूर्णिमा और शाश्वत.....बहुत मशहूर हो चले थे कॉलेज में। सब उन्हें 'एक दूजे के लिए' कह कर पुकारते थे।

उनके परिवारों में ज़मीन आसमान का अन्तर था।

पूर्णिमा शहर के जाने माने उद्योगपति सुदर्शन लाल गुप्ता की एकलौती और मुंहलगी बेटी थी। कई मिलें थी। शहर में कई दुकानें थीं।

शाश्वत सीधे सादे किंतु आदर्शवादी नारायण चंद अग्रवाल का पुत्र था, जो कि उसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे।


नारायण बाबु ने शाश्वत को कई बार इशारों में समझाया था कि पूर्णिमा से मिलना जुलना ज्यादा ठीक नहीं है। उसके घर वाले कभी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगे। पर कुछ तो पूर्णिमा का प्रेम था और कुछ उसका साहस जो कि उसे पूर्णिमा से दूर ही नहीं होने देता था। यह सच था पूर्णिमा बहुत साहसी थी। या फिर कहें कि जिद्दी थी। बचपन से अब तक उसने जिस चीज़ पर हाथ रख दिया, वह उसकी हो जाती थी। यही कारण था कि जब शाश्वत का सवाल आया तो उसने किसी की नहीं सुनी। उसका कहना था कि प्रेम के आगे जाति-धर्म, रूपया-पैसा, खानदान-औकात जैसी बातें तुच्छ हैं। यहाँ तक कि उसने अपने माँ-बाप से कह दिया कि उसे उनकी जायदाद में से कुछ नहीं चाहिए। वह अपने बलबूते पर नौकरी करने के काबिल है। और शाश्वत से ही शादी करेगी।


यह बात सच थी कि पूर्णिमा बचपन से ही पढ़ाई में मेधावी रही थी। शायद यही गुण उसे शाश्वत के करीब लाया था। शाश्वत भी मेधावी होने के साथ कॉलेज की अन्य गतिविधियों में सक्रिय था। जब वह वाद-विवाद में बोलने के लिए मंच पर आता था, तब सारा माहौल खामोश हो जाता था। पूर्णिमा भी उसकी ओजस्विता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी।


उन दोनों की शादी हालाँकि परिवार वालों की उपस्थिति में हुई थी। किंतु जहाँ एक ओर शाश्वत के घर वालों में खुशी का माहौल था, वहीँ पूर्णिमा के परिवार में किसी को इस शादी से खुशी नहीं थी। उन्हें चिंता थी कि बाकी रिश्तेदारों के आगे उनकी गर्दन झुक गयी। पूर्णिमा को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था।
शादी के बाद कुछ दिन तो सही निकले पर उसके बाद पूर्णिमा को एहसास होने लगा कि उसके घर और ससुराल में ज़मीन आसमान का अन्तर है। उसे कई बार खीज होती थी जब देखती कि ऑफिस से आने के बाद सब उसके इन्तेज़ार में भूखे बैठे हैं। शुरू शुरू में उसने कहा कि वह लोग उसका इंतज़ार ना किया करें। उसे समय पर खाने कि आदत है। इसीलिए जब देर हो रही होती है तो वह ऑफिस की कैंटीन में खा सकती है। पर शाश्वत ने उसे बोला कि दिन का खाना तो हर कोई अलग ही खाता है इसीलिए परिवार के लोग रात का खाना साथ ही खाना पसंद करते हैं। शुरू-शुरू में उसे यह बात अच्छी लगी पर धीरे धीरे यह बंधन लगने लगा। इस वजह से शाश्वत रात को बाहर खाना पसंद नहीं करता था। उसे बहुत बुरा लगता था। उसके घर तो ऐसा कुछ नहीं था। सब आज़ाद थे। जिसको जो करना है करे। शाश्वत का कहना था कि आज़ादी और लापरवाही दो अलग अलग बातें हैं। पूर्णिमा ज्यादा कुछ तो नहीं समझ पाती थी पर धीरे धीरे उसने फ़ोन करना शुरू कर दिया कि ऑफिस में देर हो रही है और खाने के मामले में समय की पाबन्द होने के कारण वह ऑफिस में ही खाना खा लेगी। कोई उसका इंतज़ार नहीं करे।


शाश्वत की एक बड़ी बहन थी। उनका ससुराल चेन्नई में था। दूरी ज्यादा होने के कारण वह २-३ सालों में ही आ पाती थीं मायके। जबसे उनके बच्चे बड़े हो गए थे, उन्हें उनके स्कूल का कार्यक्रम भी देखना पड़ता था। इसीलिए उनका आना बहुत कम हो पाता था। इस बार वह शाश्वत की शादी के बाद ही आ रहीं थीं। सारा घर खुश था। पूर्णिमा को भी अच्छा लग रहा था। कुछ दिनों के लिए ही सही, घर में कुछ रौनक तो होगी। वरना इस घर में तो वह अपने दोस्तों को बुलाने की, पार्टी करने की सोच भी नहीं सकती। कोई भी आयोजन हो, मन्दिर से शुरू और खीर पर ख़तम। इसी बीच उसके ऑफिस के सहयोगियों का गोवा जाने का कार्यक्रम बना। उन लोगों ने उसको भी बोला साथ चलने को। उसने बिना सोचे समझे हाँ कर दी। बाद में याद आया कि उसी समय तो दीदी आ रहीं हैं। अब मन करने में उसकी शान के खिलाफ होता। ऐसा कितनी बार हुआ कि कोई न कोई कार्यक्रम बना और बाद में उसने मना किया। इस बार उसने निश्चय किया कि चाहे कुछ हो जाए, वो जायेगी ही जायेगी। शाश्वत ने सुना तो वही हुआ जिसका डर था। बात नोंक-झोंक से शुरू हुई और अबोले पर समाप्त हुई।


अगले ही दिन उसने घोषणा की कि वह अपने मायके जा रही है। और तभी लौटेगी जब शाश्वत उसके साथ गोवा जाने को मान जाएगा। माँ-बाबूजी ने कितना रोका?? पर वह भी पूरी जिद्दी ही थी। हाँ शाश्वत के रोकने का इंतज़ार ज़रूर किया। पर ऐसा ना तो होना था, ना ही हुआ। और अगले घंटे वह अपने मायके की दहलीज़ पर खड़ी थी। माँ ने पूछा भी कि ऐसे कैसे अचानक?? कोई फ़ोन नही, कोई सूचना नहीं?? पूर्णिमा ने बता दिया कि वह रूठ कर आयी है। शायद उसे पूरा विश्वास था कि शाश्वत उसे लेने आज नहीं तो कल ज़रूर आएगा।


धीरे धीरे दिन बीतने लगे। पूर्णिमा का विश्वास कमज़ोर पड़ता जा रहा था। पर उसमें भी गज़ब का गुरूर था। उसने कोई कोशिश नहीं की शाश्वत से संपर्क करने की। उसके घरवालों का कहना था कि अगर वो झुक जाती है तो उसका कोई मान नहीं रह जाएगा ससुराल में। शुरू शुरू में तो पूर्णिमा को अच्छा लग रहा था घर में। किसी बात पर कोई रोक-टोक नहीं। ऑफिस के बाद अक्सर सहेलियों के साथ कहीं घूमने निकल जाती थी। इसी बीच गोवा वाला टूर भी हो गया। वह अकेली ही चली गयी। हालाँकि वहां जाकर उसे पछतावा हुआ कि उसे नहीं आना चाहिए था। वहां सभी जोडियों में थे। बस पूर्णिमा ही अकेली थी। सब जैसे तरस खाते थे उसपर। वह बीच टूर से ही वापस आ गई। माँ को आश्चर्य हुआ कि वह जल्द ही लौटा आई। भाभी ने भी सवालिया नज़रों से उसे देखा। पर उसने महसूस कर लिया कि भाभी की नज़रों में सवाल के साथ जवाब भी है और जवाब पता होने के कारण भाभी नज़रों में ही मुस्कुरा रही थीं। पूर्णिमा से वह मुस्कराहट सहन नहीं हुई। चुपचाप अपने कमरे में चली गयी। अब उसे हर दिन उस फ़ोन का इंतज़ार रहता जो नही आता। उसे खीज होने लगी थी अपने निर्णय पर। घर में जब भी कोई आने वाला होता, माँ किसी ना किसी बहाने से कोशिश करतीं कि पूर्णिमा उनके सामने नहीं पड़े वरना फिर अनचाहे सवालों का जवाब देना पड़ेगा। वह भी अपना ज्यादा से ज्यादा समय ऑफिस में बिताती। हालाँकि सहकर्मियों की नज़रों में भी उसे ताने, सवाल दिखते पर वहां कम से कम काम तो रहता था उन सबको भूलने के लिए। छुट्टी का दिन उसके ऊपर भारी पड़ता। सारा दिन या तो कमरे की सफाई में लगी रहती या फिर फालतू की खरीदारी करती रहती।
इसी बीच उसके घर की कामवाली ने छुट्टी मांगी। भाभी ने साफ़ इनकार कर दिया। उसने कामवाली का पक्ष लेते हुए भाभी से कहा कि उन्हें छुट्टी दे देनी चाहिए। भाभी ने खीजते हुए बोला कि वह चुपचाप ही बैठी रहे। इस घर का काम उसके घर के जैसा नहीं है कि कैसे भी चल जायेगा। रोज़ कोई न कोई आता है, चाय नाश्ता, कई काम होते हैं।

वह अवाक रह गयी!! यह वही भाभी थीं जो उसे पलकों पर बैठा कर रखती थीं। उसने माँ को बोला कि भाभी को समझाए कि उसके साथ कैसे पेश आना चाहिए। माँ ने कहा कि गलती भाभी की नहीं, पूर्णिमा की है जो दूसरों के घर के मामले में बोल रही है।

पहली बार एहसास हुआ कि अब यह उसका घर नहीं है।
अगले दिन कामवाली ने भाभी को बोल दिया कि वह यह नौकरी नहीं कर सकती। उसकी जितनी पगार बनती हो, दे दें।

पूर्णिमा ने पूछा -- नौकरी क्यों छोड़ रही है??
"दीदी, मेरी ननद की शादी है। भाभी छुट्टी नही दे रहीं। तो मैं क्या करूँ?"
"अरे तो ननद की शादी है तो नौकरी छोड़नी जरूरी है? तेरे घरवाले क्या कर रहे हैं?" पूर्णिमा ने पूछा। "घर वाले सभी व्यस्त होंगे न?? मेरी एक ही ननद है। उसको ही ढंग से विदा नहीं कर पाऊंगी तो जिंदगी भर मुझे ख़राब लगेगा। वैसे भी बेटियाँ पराई ही होती हैं। अब जितने दिन बचे हैं शादी में, मैं उसके साथ हमेशा रहना चाहती हूँ. नौकरी तो और भी मिल जायेगी। ननद तो विदा होकर पता नहीं कब आयेगी??"
कुछ अन्दर से दरक गया पूर्णिमा के भीतर।

अगले दिन उसका खाना खाने का मन नहीं हुआ। किसी ने ज्यादा कहा भी नहीं। सब जानते थे कि उसे मनाना कोई आसान काम नहीं है और फिर सबको अपने अपने ज़रूरी काम थे। वह पानी पीने के लिए अपने कमरे से बाहर निकली तो उसके कानों में घरवालों की बातें पड़ीं।
"ऐसे कब तक चलेगा?? उसे अपने घर तो जाना ही होगा न??" माँ की आवाज़ थी।
"मैंने पहले ही कहा था कि यह लड़की उस घर में नहीं रह पाएगी। आखिर इतना अन्तर है हमारे और उस घर में। " पापा बोले।
"क्षमा करें पापा पर पूर्णिमा किसी भी घर में जाती तो ऐसा ही होता। गुस्सा तो नाक पर रखा रहता है। किसी की बात नहीं मानना। हमेशा अपने हिसाब से सबको चलाना।" यह भाभी थीं जो कभी उसकी बहुत अच्छी सहेली हुआ करती थीं और जिनका हिसाब वह पिछले कुछ दिनों से माँ के साथ, अपने साथ किए जा रहे बर्ताव में देख रही थी।
"मैं आज ही बात करता हूँ शाश्वत से। कुछ पैसे वैसे का नाटक है तो ले जाओ पैसे और अपनी बीवी को भी। भई हमें भी समाज में उठना बैठना है।" भइया ने अपना मत दिया।
पूर्णिमा सन्न रहा गयी। शाश्वत पर इतना घिनौना आरोप!!!! और माँ-बाबूजी भी कुछ नहीं कह रहे??आखिर उससे और नहीं सुना गया।

सामने आकर बोली "आप लोगों को किसी से कुछ कहने कि ज़रूरत नहीं है। शाश्वत इतने गिरे हुए नहीं हैं कि पैसे के लिए अपनी बीवी को अलग करें। मैं ही बेवकूफ थी जो आप लोगों को अपना समझ कर यहाँ आ गयी थी। अब समझ आया कि अपना घर क्या होता है?? आप लोगों को धन्यवाद ।"
आगे नहीं बोल पायी। सबको वहीँ छोड़ कर शाश्वत को फ़ोन करने चल दी।

read more...

शनिवार, 12 जुलाई 2008

कविता:अरविन्द व्यास प्यास

__________________________________________________
क्या कहते हैं अपने बारे में अरविन्द व्यास नाम है, प्यास तख़ल्लुस है । 1979 में M.Tech. किया था भोपाल M.A.C.T से ।
कल्यान महाराष्ट्र में जन्मा हूँ , मथुरा , राजस्थान से, वांशीक सम्बन्ध हैं ,
साहित्यकार नहीं हूँ, पर गुरू कबीरा देते हैं , वही लोगो तक पहुँचने की कोशिश करता हूँ ।
किताबें तैयार कर रहा हू , उनमें खास खास हैं । भक्ति की बूँदें , ओस की बूँदें , पहेलियाँ ,
करामाती कहावतें, मायामय मस्ती की पाठशाला इत्यादि ।
18 साल से UAE में रहता हूँ व कार्यस्थ [Engineering Consultant] हूँ ।
_____________________________________________________

संपादक भी अजब जिव होता है.उसके ऊपर कई तरह की ज़िम्मेदारी होती है .वो रचना का आलोचक भी होता है और प्रशंसक भी।
हमज़बान उन तमाम लोगों की पत्रिका है ,जिन्हें मुख्य धारा के कथित सुरमा हमेशा अनदेखी करते आए हैं। पाठकों का हमें अपेक्षा से अधिक सहयोग मिला .हम आभारी हैं , उनके भी और रचनाकारों के भी जो हमें मनमांगी मुराद से सरफ़राज़ कर रहे हैं।
अरविन्दजी परम्परावादी साहित्यिक संस्कार के अहम गीतकार हैं .उनहोंने हमें रचना उपलब्ध करायी , शुक्रगुजार हैं हम। लेकिन कुछ पंक्तियाँ जो गैर-ज़रूरी लगीं हमने हटा दीं.ये उन्हें नागवार गुज़रा.हलाँकि मेरी कमअक्ली की राय ये रही कि कविता ज़्यादा प्रभावी हो गई है .
लेकिन अंतत: सब से बड़ा आलोचक और प्रशंसक पाठक ही होता है ।
इसलिए हम रचना के दोनों रूप यहाँ दे रहे हैं ।पहले संपादित प्रति ,फिर लेखकीय प्रति.
अदालत पाठक की फ़ैसला भी आपका .



1
बाप की छाप
बनी बर्फ़ या भाप
अपने अंदर देखे
कहाँ, क्या है आप

उनके साथ साथ चलते,
लगती बिलकुल धूप नही ।
उनके साये से सुन्दर,
दूजा कोई रूप नहीं ।

जीवन दे कर,
बचपन साथ बह कर,
जवानी सह कर,
सब सही करे,
कुछ न कह कर ।



गोद में पाला, गिरते संभाला
कहानी कहते बचपन ढाला
ज्ञान दिया, हर संकट टाला
वो प्यार का गुस्सा ,
वो हाथो का स्पर्श निराला

बुढापे को जो न सहे
जीवन पर बोझ कहे
जीवन कतर्व्य नही
सिर्फमौज मौज कहे

साथ होलो, सेवा करलो
कर्म धोलो, खुशियॉ भरलो

उनके साथ से बडा कोई जप तप नहीं
उनकी सेवा से बडा कोई जप तप नहीं
उनके पुजन से बडा कोई जप तप नहीं
मां, बाप की छाप
बनी बर्फ़ या भाप
अपने अंदर झांके
कहाँ, क्या है आप
उनके साथ साथ चलते,
लगती बिलकुल धूप नही ।
उनके साये से सुन्दर,
दूजा कोई रूप नहीं ।
जीवन दे कर,
बचपन साथ बह कर,
जवानी सह कर,
सब सही करे,कुछ न कह कर ।
कौन कहता है, उनमे भगवान का स्वरूप नहीं
गोद में पाला, गिरते संभाला
कहानी कहते बचपन ढाला
ज्ञान दिया, हर संकट टाला
वो प्यार का गस्सा ,
वो हाथो का स्पर्श निराला
कौन कहता है, वह जवानी कुरूप नहीं
बुढापे को जो न सहे
जीवन पर बोझ कहे
जीवन कतर्व्य नही
सिर्फ मौज मौज कहे
कौन कहता है, वह जवानी कुरूप नहीं
साथ होलो, सेवा करलो
कर्म धोलो, खुशियॉ भरलो
उनके साथ से बडा कोई जप तप नहीं
उनकी सेवा से बडा कोई जप तप नहीं
उनके पुजन से बडा कोई जप तप नहीं
read more...

सोमवार, 7 जुलाई 2008

सरहद पार से : किश्वर नाहिद की नज़्म





____________________________________________________________

उर्दू की इस ख्यात पाकिस्तानी कवयित्री का जन्म दिल्ली से कुछ ही फासले पर स्थित उत्तर प्रदेश के शहर बुलंद यानी बुलंदशहरमें आज़ादी से सात साल क़ब्ल 1940 में हुआ .बँटवारे की त्रासदी ने इन्हें भी हमसे छीन लिया .औरों की तरह इनके परिवार को भी मुहाजिर होने का दंश भोगना पड़ा .लाहोर से आपने उच्च शिक्षा हासिल की .सरकारी नोकरी की ।
माहे-नो जैसी पत्रिका की संपादक बनीं। पाकिस्तानी आर्ट काउंसिल की अगुवाई की। पाकिस्तानी मुस्लिम औरतों की आवाज़ को दुन्या में बुलंद करनेवाली कवयित्रियों में इनका नाम सरे-अव्वल है।
औरत ख्वाब और खाक के दरम्यान और ख़याली शख्स से मुक़ाबला इनकी चर्चित किताब है।
आपने सीमोन दी बुव्वा की विश्व विख्यात पुस्तक सेकंड सेक्स का उर्दू में अनुवाद किया और लैला खालिद
का जिंदगीनामा भी कलमबंद किया।
फिलहाल इस्लामाबाद में रहकर स्वतंत्र-लेखन ।
____________________________________________________________________


शहरज़ाद का सवाल



मेरी छत की मुंडेर पे मुनीर नियाजी ने
लड़कियाँ देखी थीं
धानी चुनरिया ओढे हुए
मेरी छत पे क़तील शिफाई ने
लड़कियाँ देखी थीं
पायल छनकाती हुई
मेरी छत पे अहमद फ़राज़ ने
लड़कियाँ देखी थीं
इश्क़ नहाती हुई
मेरी छत पे ज़हरा आपा ने
लड़कियाँ देखी थीं
परचम लहराती हुई
मेरी छत पे फ़हमीदा और आसिमा ने
लड़कियाँ देखीं थीं
नारे मारती , आगे बढती हुई







मैं देख रही हूँ
अब मेरी छत पे काले बुर्क़े
लंबे डंडे शरियत फतवे
काले अमामे पहने लड़के
खून कि जिनकी आंखों में है
ज़हर कि जिनके लफ्जों में है
दीवारों पे क्लाश्न्कोफ़ की goli नाच रही है
खोफ़ -सा हर हंसती लड़की के माथे पे लिखा है
डरती-डरती , सहमी-सहमी पूछ रही है
मैं फतवों के जाल से कैसे निकलूँ
हब्स के इस माहोल में
कैसे जिंदा रहूँ



( कंप्यूटर रेखांकन चार वर्षीय आयेश लबीब )








read more...

बुधवार, 2 जुलाई 2008

आलोक प्रकाश पुतुल की कविता

_________________________________________________________
पिछले 19 सालों से पत्रकारिता के पेशे में। ग्रामीण पत्रकारिता और नक्सल आंदोलन में कुछ शोधपरक काम. कविताई कभी-कभार .ज्यादातर छद्म नामों से कवितायेँ प्रकाशित .दरअसल जब भी इनके साहित्यिक परिशिष्ट के लिए कवितायेँ अनुपलब्ध रहीं , कविता लिख मारी .वाह! रे आशु कवि और ग़ज़ब का मजदूर !!.इन नामों में आफताब अहमद ज्यादा लोकप्रिय रहा है .
कुछ पत्रिकाओं, अखबारों, संदर्भ ग्रंथों का संपादन,देशबंधु ,अक्षरपर्व और सन्दर्भ छत्तीसगढ़ आदि . वृत्तचित्रों में भी सक्रिय. बीबीसी समेत कई देशी-विदेशी मीडिया संस्थानों के लिए कार्य. कभी-कभी विश्वविद्यालयों में अध्यापन. कुछ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान, पुरस्कार और फेलोशीप.
इन दिनों वेब पत्रिका http://www.raviwar.com/ का संपादन।
________________________________________________________________________

भाई की तलाश


मैं घर का सबसे छोटा बेटा नहीं हूँ
मुझसे भी छोटा एक भाई है
है और था के बीच झूलता एक भाई, नीली आँखों वाला,
मुझसे कुछ ऊँचा ६ फुट लम्बा कद्दावर
कालेज से घर और घर से कालेज
कुल मिला कर यही थी उसकी दुनिया


ठंड की एक रात उसे पुलिस उठा कर ले गयी
कहाँ, यह किसी को नहीं पता

अगले दिन सब तरफ कोहरा छाया हुआ था
चाकू के धार वाले इस समय में
मैं अपने पिता के साथ
शहर के एक थाने से दूसरे थाने तक
भाई को तलाश रहा था।


पूरे दिन तलाश के बाद भी
हम यह पता लगाने में असफल रहे कि मेरा भाई कहाँ है

हर थाने से एक रटा रटाया जवाब मिलता.. हमें पता नहीं


ऐसे गुजर गए
कई कई दिन और कई कई रातें
भाई का पता नहीं चला

फिर सप्ताह महीने और साल
तलाश जारी रही लेकिन भाई का पता नहीं चला

इस बात को १४ साल गुजर गए
लेकिन कमबख्त कोहरा है कि खत्म नहीं होता


आप में से कोई
मेडिकल साइंस से जुड़ा हो तो उसके लिए

एक रोचक केस हमारे घर में है
१४ सालो से माँ एक क्षण सोई नहीं
७० की उम्र में रात -रात भर कुर्सियों पर बैठ कर
सुनने की कोशिश करती है कोई आहट


कहीँ भी ईश्वर के ना होने के अपने दृढ़ विश्वास के बाद भी
हर रोज करता हूँ प्रार्थना
हे ईश्वर, बचा रहे माँ का विश्वास
कि एक दिन लौटेगा मेरा छोटा भाई
और लिपट कर माँ को गोद में उठा , आँगन भर में घूमेगा
फिर छूटते ही पूछेगा.. दद्दा को दवाई दी कि नहीं
और जब होगा बड़े भैया से सामना
शरारतन आँगन से कमरे में जाते हुए
सर खुजलाते हुए कहेगा...नोट्स लेने थे, इसलिए देर हो गई

मैं भी कहना चाहता हूँ उससे
छोटे, बहुत देर हो गई

इतनी देर गोया देर के बादकेवल खाली जगह हो
या अब दुनिया में देर के बाद कोई जगह नहीं होती
लेकिन यह सुनने के लिए छोटे तक घर नहीं लौटा है

मेरा सबसे ज्यादा वक्त जाता लावारिस लोगों
की सूचना अखबारों में पढ़ने में
रेल लाइन के पास पड़ी कोई लाश ही
सड़क किनारे किसी पागल की मौत की खबर

पागलों की तरह
सब जगह जा कर हमने तलाशा है
कोई भी शक्ल मेरे भाई से नहीं मिलती

और आप हँसेंगे शायद कि रेल गाड़ियों में जाते या यूँ ही सड़कों पर
कई कई बार पीछे सेकई कई नौजवानों के कंधे छू कर इन्हें पलटा है
कि ये अपना छोटा है लेकिन नहीं
लोग हँस कर कह देते हैं .. कोई बात नहीं, होता है, होता है

मैं अपनी गलती पर सकुचाने के बाद
अचरज से भर जाता हूँ
कि कैसे कोई किसी के बारे में
इतनी गैरजिम्मेदाराना ढ़ंग से कह सकता है , कि कोई बात नहीं....

हर दीवाली, होली और ऐसे ही त्यौहारों पर
बचा कर रख दी जाती है
उसके हिस्से की मिठाई


बेबसी एक शब्द भर नहीं है
छोटी छोटी मुस्कानों के बीच
कभी आप तलाशे तो वहाँ मिलेगी


माफ करें , मुझको मालूम है कि आप भी ऊब रहे होंगे

जैसा कि हर कोई हमारे किस्से सुन सुन कर ऊब चुका है
सिवाय मेरे घर वालों के

मेरा एक खास मित्र है
जो देर रात तक हमारे साथ घर में बैठा रहता है
लम्बीसाँस लेता हुआ मित्र
अक्सर ठंडे स्वर में कहता है... जीवन बहुत कठिन है मित्र
मैं धीरे से आकाश की ओर देखता हूँ और बुदबुदाता हूँ
मरना और भी कठिन


फिर आकाश में ही तलाशने लगता हूँ
छोटे का चेहरा

read more...
(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)